स्वपर के ज्ञाता, शुक्लध्यान योग से श्रेणी, क्षपक श्रेणी में आरूढ़, घातिया कर्मों के नाश से केवलज्ञानकल्याणक को प्राप्त करने वाले विश्व समुदाय के उत्कृष्ट सूर्य भगवान पार्श्वनाथ की मैं स्तुति करता हूँ, प्रणाम करता हूँ। वर्तमान काल में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ स्वामी संकटमोचन के रूप में अत्यधिक पूज्यता को प्राप्त हैं। देश में सर्वाधिक रूप से प्राप्त प्रतिमाएं उनके अतिशय को प्रगट करती हैं। कमठ जीव के द्वारा भीषणतम छ: दिन तक होने वाले उपसर्गों में सुमेरुवत् अविचलित भगवान धैर्य, क्षमा, सहिष्णुता, दया आदि गुणों के क्षेत्र में अद्वितीय रूप से विख्यात हैं, उनके प्रति भक्ति श्रद्धा से बरबस माथा झुक जाता है। उनके दिव्य केवलज्ञान कल्याणक की भी भूमि का कण-कण पवित्रता को प्राप्त होकर देवासुर व मानवों के द्वारा सदैव वंदनीय है। श्रुतधराचार्य श्री यतिवृषभ ने ‘तिलोयपण्णत्ति’ में कहा है-
चित्ते बहुल-चउत्थी-विसाह-रिक्खम्मि पासणाहस्स।
सक्कपुरे पुव्वण्हे केवलणाणं समुप्पण्णं।।
(खंड २/७०८)
अर्थात् चैत्र कृष्णा चतुर्थी को विशाखा नक्षत्र में शक्रपुर में पूर्वाण्ह समय केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। यहाँ जिस शक्रपुर नगर का उल्लेख है उसका वर्तमान में पता नहीं है। हरिवंशपुराण में आचार्य जिनसेन एवं उत्तरपुराण (महापुराण) में आचार्य गुणभद्र ने आश्रमकेस में अश्ववन में इसका उल्लेख किया है। दृष्टव्य है, हरिवंशपुराण का संदर्भ ६०/२५४-५६ व महापुराण सर्ग ७३/१३४। आचार्य दामनन्दी ने पुराणसार संग्रह में पार्श्वनाथ चरित में तथा पाश्र्वपुराण हिन्दी काव्य मेें महाकवि भूधरदास ने तापसियों के आश्रम के समीप उनके उपसर्ग विजय एवं केवलज्ञान उत्पत्ति का उल्लेख किया है। इन भूमियों का अस्तित्व अज्ञात है। वर्तमान में दिगम्बर जैन परम्परा में श्रमण संघों के सर्वपूज्य उद्धारकर्ता आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के निम्न आर्या छंदमय निर्वाणभक्ति के इस अंश पर दृष्टि डालने से प्रकट होता है,
‘‘महुराए अहिछित्ते वीरं पासं तहेव वन्दामि।’’
मैं अहिच्छत्र नगर में भगवान पार्श्वनाथ की वंदना करता हूँ। इससे, आगम प्रमाण से व अनुमान से ज्ञात होता है कि भगवान पार्श्वनाथ की केवलज्ञान भूमि अहिच्छत्र है। अनुमान की प्रामाणिकता, वर्तमान में उत्तरप्रदेश के बरेली जिले में रामनगर किला में प्राचीनरूप से स्थापित अहिच्छत्र तीर्थ के द्वारा होती है। परम्परा से व स्थानीय मान्यता में यह विख्यात है कि यहाँ कमठ के जीव संवर नामक देव के प्रभु के ऊपर उपसर्ग करने पर भक्ति भावना से ओतप्रोत होकर रक्षार्थ धरणेन्द्र-पद्मावती ने वहाँ आकर अपने कर्तव्य का निर्वाह किया था। उपसर्ग निवारण किया था। इधर कुछ दशाब्दियों से राजस्थान के बिजौलिया नामक स्थान में जो भगवान पार्श्वनाथ पर उपसर्ग का जिक्र हुआ है उसे मात्र उपसर्ग तक सीमित माना जाना ही अपेक्षित है। संभव है कि अहिच्छत्र के उपसर्ग विजय से पूर्व भी उपसर्ग हुआ हो। किन्तु केवलज्ञान प्राप्ति अहिच्छत्र में ही स्वीकार करना अपेक्षित है। आचार्य कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त गाथाद्र्ध में मथुरा के उल्लेख के साथ निकटवर्ती अहिच्छत्र का उल्लेख किया है। इससे भी यही अहिच्छत्र सिद्ध होता है। प्रत्यक्षरूप से अवस्थिति, स्थापित तीर्थत्व, आगम अनुमान से वर्तमान का देशप्रसिद्ध एक मात्र अहिच्छत्र तीर्थ भगवान पार्श्वनाथ प्रभु की केवलज्ञानकल्याणक भूमि है। नागवंशी राजाओं के क्षेत्र की दृष्टि से भी इतिहासज्ञों के द्वारा गवेषणीय है। ऊपर जो शक्रपुर एवं आश्रमकेस आदि का उल्लेख है वे सभी इसी अहिच्छत्र के ही पर्याय प्रतीत होते हैं। धरणेन्द्र ने विशाल नाग के रूप में अपने फणमंडप को छत्र के समान तानकर प्रभु का उपसर्ग निवारण किया था अत: उस भूमि को तभी से अहिच्छत्र सार्थक संज्ञा प्राप्त हुई थी। इस संज्ञा से भी यह सिद्ध है। अहिच्छत्र में प्राचीन ‘तिखाल वाले बाबा पार्श्वनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध मंदिर है। उसके लोकहित रूप चमत्कारी प्रभाव से जनसाधारण तक परिचित हैं। सभी वर्गों के लोग बाबा के दर्शन-वंदन-पूजन से अपना अहोभाग्य मानते हैं तथा धर्म, अर्थ और काम त्रिवर्ग की साधना करते हैं। उक्त जिनालय को लगभग २५ वर्ष पूर्व भव्य, विशाल प्रभावक स्वरूप प्रदान किया गया है। उसमेें चमत्कारी, सातिशय प्राचीन भगवान पार्श्वनाथ (तिखाल वाले बाबा) को सुन्दर वेदी में मूलनायक रूप से ही विराजमान किया है। अनेक भव्य वेदियों (कुल सात वेदिकाएं व एक समवसरण) में विशाल एवं सुन्दराकार प्रतिमाओं की स्थापना ने इस जिनालय में चार-चाँद लगा दिये हैं। इन्हीं में पद्मावती माता की वेदी भी है। विशाल प्रांगण में तीस चौबीसी जिनालय का निर्माण किया गया है जो श्रेष्ठ, चित्ताकर्षक रूप में भव्यता को प्राप्त है। यहीं यात्रियों की सुविधा हेतु धर्मशाला एवं भोजनालय है। धर्मशाला का विस्तारमय नव निर्माण द्रुतगति से चल रहा है। इस संस्थान से पूर्व ही सड़क के किनारे ज्ञानतीर्थ के नाम से मंदिर व निवास की व्यवस्था है। रामनगर गाँव में एक प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है। यात्रीगण यहाँ आकर समस्त जिनालयों की वंदना करते हैं व भगवान पार्श्वनाथ के गुणों को आत्मसात् करने का प्रयास करते हैं। आस्था एवं विश्वास का भाव उनकी भक्ति में प्रधान कारण है। भगवान का लोकमनोहारी स्वरूप उनके जीवन में अभ्युदय प्रदान करता है तथा परम्परा से निर्वाण की सिद्धि संभव हो सकती है। अहिच्छत्र में प्राचीन अवशेष जैनधर्म की संस्कृति की स्मृति दिलाते हैं, मन में प्रभाव स्थापित करते हैं। मंदिर प्रांगण के सम्मुख एक प्राचीन कुआ है, िंकवदन्ती है कि उसके जल से व्याधियों का निवारण होता है। यहाँ एक प्राचीन किले के अवशेष हैं जिनके माध्यम से इतिहास की प्राचीनता के परिवेश में अहिच्छत्र का प्रभाव एवं अवस्थिति सिद्ध होती है। बौद्ध साहित्य में भी अहिच्छत्र का उल्लेख है। परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने कल्याणक भूमियों के विकास के क्रम में अहिच्छत्र की ओर ध्यान दिया है। अनवरत उनकी प्रेरणा से वहाँ गतिविधियाँ अग्रसित हो रही हैं। निकट शीघ्र ही पौष कृष्णा एकादशी ३ जनवरी २००८ को जन्मकल्याणक के अवसर पर पार्श्वनाथ स्वामी का महामस्तकाभिषेक उत्साह से संपन्न होने जा रहा है। भगवान के जन्म की तृतीयसहस्राब्दि का अवसर है, इसी उपलक्ष्य में जैनधर्म की प्रभावना एवं उसकी प्राचीनता सिद्धि का यह प्रयत्न किया जा रहा है। सारांश यह है कि भगवान पार्श्वनाथ के केवलज्ञान कल्याणक की भूमि की वंदना कर हमें भी उनके मार्गानुसारी बनकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से अपनी आत्मा को प्रभावित करना चाहिए तथा पूजा-वंदना-दान-तप तथा अतिशय से जिनधर्म की महती प्रभावना करना चाहिए।