काफी दिनों से पूज्य माताजी के मन में २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथथ के जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने हेतु भावना चल रही थी, उन्होंने इस महोत्सव के उद्घाटन हेतु पार्श्वनाथथ जन्मभूमि वाराणसी में भगवान पार्श्वनाथथ जन्मकल्याणक दिवस (पौष कृ. ११) की तिथि भी पहले से ही निश्चित कर दी थी अत: अब कुण्डलपुर से मंगल विहार करते समय यद्यपि प्रमुख लक्ष्य वाराणसी पहुँचने का था, फिर भी कुण्डलपुर के निकटवर्ती तीर्थ-राजगृही, पावापुरी, गुणावां में भी प्रारंभ किए गए निर्माण की पूर्णता पर वहाँ भी भगवान विराजमान आदि कार्यों को सम्पन्न कराने का संयोग भी प्राप्त हो गया।
१४ नवम्बर २००४ को कुण्डलपुर से मंगल विहार के पश्चात् १५ नवम्बर को पूज्य माताजी ने राजगृही में भगवान मुनिसुव्रतनाथ के नवीन मंदिर पर कलशारोहण सम्पन्न करवाया तथा संघस्थ बहनों ने १००८ मंत्रों से भगवान के श्रीचरणों में गुलाब के पुष्प समर्पित किए पुन: विपुलाचल पर्वत की तलहटी में भगवान महावीर एवं उनके शिष्य गौतम गणधर की प्राचीन घटनाओं की स्मृति दिलाते हुए पूज्य माताजी की प्रेरणा से संघपति लाला महावीर प्रसाद जी द्वारा नवनिर्मित मानस्तंभ की वेदी शुद्धि की गई तथा १७ नवम्बर, कार्तिक शु. षष्ठी को प्रात:काल मानस्तंभ में भगवान महावीर की चार प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ विराजमान की गर्इं।
इससे पूर्व १६ नवम्बर को मध्यान्ह में राजगृही में संचालित जवाहर नवोदय विद्यालय में पूज्य माताजी की ही प्रेरणा से श्री मनोज कुमार जैन-मेरठ के सौजन्य से विराजित भगवान महावीर की अत्यन्त मनोहारी, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि का संदेश देने वाली पद्मासन लाल प्रतिमा का अनावरण ब्र.रवीन्द्र जी द्वारा संघ सानिध्य में किया गया। पुन: तीर्थ को चमन करने की इस शृंखला में १९ नवम्बर २००४, कार्तिक शु. अष्टमी को गौतम गणधर की निर्वाणभूमि गुणावां जी सिद्धक्षेत्र पर नवनिर्मित मंदिर में संघपति लाला श्रीमहावीर प्रसाद जी के सौजन्य से श्वेत पाषाण की साढ़े ५ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा विराजमान की गई और मंदिर पर कलशारोहण भी हुआ।
कलशारोहण के पश्चात् गुणावां जी मंदिर में मूलवेदी के बाहर हॉल की नवीन वेदियों में माता पद्मावती देवी एवं धरणेन्द्र देव की मूर्ति विराजमान की गई। मध्यान्ह में गौतम स्वामी की १००८ पुष्पों से आराधना की गई पुन: बिहार तीर्थ न्यास बोर्ड के अध्यक्ष श्री रामगोपाल जी एवं मंत्री-श्री अजय जी ने संघ का स्वागत सम्मान किया। संघस्थ पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी की अचानक आई अस्वस्थता के कारण गुणावां जी सिद्धक्षेत्र पर हुए १५ दिवसीय प्रवास के मध्य अनेकों विधान-अनुष्ठान भी सम्पन्न हुए।
इससे पूर्व देखे गये राजगृही तीर्थ पर दो दिवसीय प्रवास के मध्य राजा श्रेणिक का खजाना, पहाड़ की गुफा में उत्कीर्ण अनेक जैन मूर्तियाँ, सदैव चिरस्मरणीय रहेंगे जो जैनत्व की गौरवगाथा का सुन्दर वर्णन करते हैं कि कभी यहाँ जैनधर्म ही विद्यमान रहा होगा। इसी प्रकार गुणावां जी के प्रवास के मध्य श्री गौतम गणधर स्वामी के श्रीचरणों में एवं निर्वाणस्थली जलमंदिर में किया गया ध्यान भी सदैव चिरस्मरणीय रहेगा।
मुनि श्री प्रमाणसागर महाराज से भेंट
२२ दिसम्बर २००४, मगशिर शु. ११ को मुगलसराय में प्रवास के मध्य सम्मेदशिखर की ओर विहार कर रहे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज से मिलन हुआ और उनके साथ ही मंदिर में मंगल प्रवचन हुए।
उस समय उन्होंने माताजी से अनेक प्रकार की चर्चाएँ की और महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास पर अतीव प्रसन्नता व्यक्त की। मुगलसराय वालों का अतीव आग्रह था कि माताजी! यहाँ मंदिर बनकर पूर्णरूपेण तैयार हो गया है अत: उसमें वेदी शुद्धि करवाकर आप वहाँ भगवान पार्श्वनाथथ की प्रतिमा अपने करकमलों से विराजमान करवा दीजिए चूँकि उस समय माताजी को निर्धारित कार्यक्रमानुसार बनारस पहुँचना आवश्यक था ।
अत: माताजी ने उन्हें शीघ्र ही पण्डित जी द्वारा वेदी शुद्धि का आश्वासन प्रदान किया पुन: पूज्य माताजी के आशीर्वाद से पौष शु. दशमी, १५ जनवरी २००५ पौष शु. षष्ठी को नवनिर्मित वेदी में १०८ फणों से युक्त भगवान पार्श्वनाथथ की अत्यन्त मनोहारी कृष्णवर्णी पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गर्इं।
तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव का भव्य उद्घाटन वाराणसी में
भगवान पार्श्वनाथथ एवं सुपार्श्वनाथ के जन्म से पावन है वाराणसी नगरी। जहाँ २२ दिसम्बर २००४ को मुगलसराय से चलकर दिन में ४ बजे पूज्य माताजी का संघ सहित मैदागिन धर्मशाला में मंगल पदार्पण हुआ लेकिन आज इस नगरी में पदार्पण का उद्देश्य था।
‘‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव का भव्य उद्घाटन’’, ६ जनवरी २००५ को भव्यता के साथ विशाल जनसमूह के बीच सानंद सम्पन्न होने वाले इस महोत्सव की पूर्व बेला में २३ दिसम्बर को माताजी संघ के भेलूपुर मंदिर में मंगल पदार्पण अवसर पर मूलवेदी में विराजमान भगवान पार्श्वनाथथ का भारी भीड़ के मध्य पंचामृत अभिषेक सम्पन्न हुआ।
तत्पश्चात् प्रारंभ हुई कार्यक्रमों की शृंखला, जिसमें सर्वप्रथम कुबेर द्वारा पन्द्रह माह तक हुई रत्नवृष्टि के प्रतीक में १५ दिनों तक प्रतिदिन रत्नवृष्टि कर सभी में रत्न वितरित किए गए।
६ जनवरी २००५, पौष कृ. एकादशी को भगवान पार्श्वनाथथ जन्मकल्याणक दिवस के अवसर पर श्री धन्नालाल मोहनलाल अजित कुमार जैन अजमेरा परिवार-धूलियान (प. बंगाल) द्वारा माताजी के संघ सानिध्य में किए गए झण्डारोहण पूर्वक कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। जन्मभूमि वाराणसी में निकाली गई भव्य ऐतिहासिक शोभायात्रा वास्तव में अभूतपूर्व थी।
भगवान पार्श्वनाथ के ९ मंजिले धातु के महल का अनावरण
भव्य शोभायात्रा के पश्चात् आयोजित धर्मसभा में मुख्य अतिथि के रूप में उ.प्र. सरकार के लोकनिर्माण मंत्री-श्री शिवपाल सिंह यादव, समारोह अध्यक्ष के रूप में उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष-श्री माताप्रसाद पाण्डेय तथा अनेक अन्य मंत्री व विशिष्ट गणमान्य महानुभाव पधारे।
दीप प्रज्वलन एवं मंगलाचरण के पश्चात् मंगलकलश की स्थापना हुई पुन: ‘‘भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश’’ का विमोचन सारस्वत अतिथि श्री पी.रामचन्द्र राव (कुलपति-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) द्वारा हुआ पुन: मुख्य अतिथि द्वारा भगवान पार्श्वनाथथ के ९ मंजिले धातु के महल का अनावरण हुआ। साथ ही मेरे द्वारा लिखित भजनों की ऑडियो वैâ सेट का विमोचन विधानसभा अध्यक्ष जी द्वारा कराया गया।
पूज्य माताजी ने अपने मंगल प्रवचन में सभी को शुभाशीष देते हुए यही प्रेरणा दी कि इस वर्ष सम्मेदशिखर में राष्ट्रीय स्तर पर भगवान पार्श्वनाथथ का निर्वाण महोत्सव मनाया जाये। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष-श्री एन.के. सेठी ने दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्रों को जैन संस्कृति का प्रतीक बताते हुए उनके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु जैन समाज के हित में अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए।
साथ ही यह भी कहा कि गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का प्रत्येक समारोह पूर्ण भव्यता के साथ ही मनाया जाता है और यदि मैं आज के इस भगवान पार्श्वनाथथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव में नहीं आता, तो मेरी हानि होती। सायंकाल प्रसिद्ध संगीतकार श्री रवीन्द्र जैन-मुम्बई द्वारा भव्य सांस्कृतिक संध्या के आयोजन से पूरा पाण्डाल पार्श्वनाथथमय हो गया।
महोत्सव के द्वितीय दिवस ७ जनवरी को भेलूपुर दि. जैन मंदिर में भगवान पार्श्वनाथथ की मनोज्ञ प्रतिमा का १००८ कलशों से मस्तकाभिषेक किया गया, साथ ही मानस्तंभ में विराजमान भगवन्तों की प्रतिमाओं का भी भक्तों द्वारा अभिषेक किया गया।
मध्यान्ह में तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ का अधिवेशन हुआ, जिसमें बनारस हिन्दी विश्वविद्यालय एवं सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय आदि कई जगह से पधारे २५ विद्वानों एवं विद्वत् महासंघ के २५ विद्वानों का भावभीना स्वागत किया गया।
समारोह के तृतीय दिवस ८ जनवरी को १०८ इन्द्र-इन्द्राणियों के साथ भगवान पार्श्वनाथथ मण्डल विधान के आयोजनपूर्वक कार्यक्रम का समापन हुआ और सायंकाल तीनों दिन भगवान पार्श्वनाथथ की १००८ दीपकों से मंगल आरती की गई।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आध्यात्मिक प्रवचन
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने ९ जनवरी २००५ को एशिया के प्रथम पंक्ति के विश्वविद्यालयों में से मुख्य विश्वप्रसिद्ध बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मालवीय भवन में विश्वविद्यालय परिवार एवं जैन समाज के सैकड़ों प्रबुद्धजनों को आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी रचित समयसार एवं जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का जो अध्यात्म-पीयूष पिलाया, वह सभी के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया। पूज्य माताजी के मुखारविंद से प्रवाहित होती हुई धर्मामृत की अविरल धारा अपने आप में अत्यन्त अनुपम थी एवं सभी के ऊपर उसका विलक्षण प्रभाव दृष्टव्य हुआ।
मालवीय भवन में रविवासरीय गीता प्रवचन के अंतर्गत पूज्य माताजी ने समयसार की दृष्टि से अत्यन्त मार्मिक आध्यात्मिक प्रवचन प्रस्तुत किया। पूज्य गणिनी माताजी ने अपने प्रभावशाली उद्बोधन में कहा कि हमारी और आपकी आत्मा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी है परन्तु कर्मरूपी रज से आच्छादित होने के कारण यह सब कुछ जानने में समर्थ नहीं हो पा रही है। जिस प्रकार बादलों से ढककर सूर्य का अस्तित्व धूमिल हो जाता है, उसी प्रकार कर्मरूपी बादल आत्मा के सर्वज्ञ स्वरूप को धूमिल कर देते हैं। सारी उपासना का एकमात्र सार यही है कि हम अपने उस सर्वज्ञ-सर्वदर्शी स्वरूप को उपलब्ध कर लें।
जिन महान आत्माओं ने अपने समस्त कर्ममल को विनष्ट कर दिया, वे ही चिच्चैतन्यमयी सिद्ध-आत्मा के रूप में सदैव के लिए सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो गये। हम जैसे समस्त संसारी प्राणियों का भी एकमात्र वही शाश्वत लक्ष्य होना चाहिए। सभी महान आचार्यों ने जो ‘सारों में भी सार’ बताया है, वह है ध्यान अर्थात् योग अर्थात् समाधि क्योकि ध्यान के बल पर ही हम अपने ज्ञान को परिपूर्ण केवलज्ञान बना सकते हैं। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि आत्मा एक है, शाश्वत है एवं ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है।
ज्ञान-दर्शन जिसमें घटित होता है वही जीव कहलाता है और जिसमें घटित नहीं होता है, उसे अजीव कहते हैं। समय का अर्थ है आत्मा और आत्मा का सार है-पूर्ण ज्ञान की अवस्था। देह अर्थात् शरीर को अपना मानना अथवा ‘शरीर ही मैं हूँ’ ऐसा मानना अथवा शरीर के जन्म और मरण के साथ अपना जन्म और मरण मानना, यही संसार के मूल कारण हैं। अर्थात् शरीर को आत्मा मान लेना ही सांसारिक परिभ्रमण का आधारभूत कारण है, जिसे बहिरात्मपने की संज्ञा भी दी जाती है।
यदि हम अपनी आत्म शक्ति को अनुभव कर लें तो बाह्य संसार की कोई भी शक्ति हमें प्रभावित नहीं कर सकती। साधुगण शरीर से मोह छोड़ने के लिए कठोर साधना करते हैं ताकि वे चैतन्य धातु से निर्मित अशरीरी बन जावें। जीव अर्थात् आत्मा में वर्ण, गंध, रस, रूप, संस्थान, संहनन इत्यादि कुछ भी नहीं है, वास्तव में ये सभी पुद्गल शरीर के ही गुण विशेष हैं। आत्मा शक्तिरूप में सदाशिव है एवं कर्ममल से अस्पृष्ट होने पर इसका यह स्वरूप प्रकट हो जाता है।
संसार में मोह एवं अज्ञान ही सबसे बड़ा अंधकार है, जिसके वशीभूत होकर जीव वस्तु-स्वरूप को न समझते हुए चतुर्गति परिभ्रमण किया करता है। धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, जाति इत्यादि सब भिन्न-भिन्न अवयव हैं। इनमें से धर्म का स्थान सबसे ऊँचा हैं। धर्म और सम्प्रदाय कभी एक नहीं हो सकते हैं।
धर्म सदैव सम्प्रदायातीत है। वास्तव में जो उत्तम सुख में धरे, वही धर्म है। धर्म शाश्वत है जबकि सम्प्रदाय क्षणिक हैं। धर्म अभेद को उत्पन्न करके सबको जोड़ता है जबकि सम्प्रदाय आपस में बांटने का कार्य करता है अत: जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को समझते हुए सम्प्रदाय से ऊपर उठकर धर्म को ग्रहण करना चाहिए। जैन शासन को ‘शम-दम’ शासन कहा गया है क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभरूपी कषायों से स्वयं को क्रमश: पृथक् कर देने (शम) एवं इन्द्रियों के निरोध (दम) का उपदेश तीर्थंकर भगवन्तों ने विशेषरूप से दिया है।
क्रोधरूपी कषाय को क्षमारूपी जल से शांत करने हेतु संसार में सबसे बड़ा उदाहरण है भगवान पार्श्वनाथ का, जो २८८० वर्ष पूर्व इसी वाराणसी नगर में जन्मे थे। दशभवों तक कमठ के जीव ने भगवान पार्श्वनाथ के जीव पर हर संभव उपसर्ग किया परन्तु क्षमा एवं सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति भगवान पार्श्वनाथथ के जीव ने सदैव ही इसे अपने कर्मों का ही प्रतिफल जानते हुए पूर्ण शांति को धारण किए रखा और इस प्रकार एक हाथ से ताली बजने एवं एकतरफा वैर का यह उदाहरण दृष्टव्य हुआ।
वस्तुत: सच्चे तापसी अपनी तपस्या द्वारा कषायरूपी परम शत्रुओं को ही तपाकर वास्तविक अर्थ की सिद्धि किया करते हैं। कषाय और तपस्या का पूर्णत: अन्तर्विरोध रहता है। पूज्य माताजी ने आगे कहा कि शीलहरण संसार में सबसे बड़ा पाप है। सीता के मन में रावण के प्रति अणुमात्र भी राग नहीं था, एकमात्र रावण के मन में ही सीता के प्रति रागयुक्त आसक्ति थी। यद्यपि सीता की इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनका शीलहरण नहीं किया तथापि गलत भावना मात्र से ही आज तक संसार में रावण का पुतला जलाया जाता है एवं कोई भी अपने बालक का नाम रावण नहीं रखता।
एकदेश ब्रह्मचर्यव्रत अर्थात् शीलव्रत अर्थात् अपने पति/पत्नी में पूर्ण संतोष रखना अथवा पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत भारतीय संस्कृति का ठोस आधार है। स्वप्न में भी बदला लेने की भावना नहीं रखना जैन चर्या का मूलभूत सिद्धान्त है। आत्मा के कल्याण के अभिलाषी पुरुष किसी अन्य द्वारा उपसर्ग किए जाने पर यही विचार करते हैं कि यह मेरा परम उपकारी है जो कि मुझे मेरे कटु कर्म से मुक्ति दिलाने में निमित्त बन रहा है।
मेरे अपने कर्मफल के अतिरिक्त किसी में भी मेरा घात करने की क्षमता नहीं है। आत्मकल्याणरूपी धर्म की रक्षा करते हुए भले ही शरीर छूट जाए परन्तु वैर भाव करना उचित नहीं है। यदि बदला लेने की भावना हृदय में है तो इसका अर्थ है कि साधक की दृष्टि अभी समीचीन नहीं हो पाई है। व्रूरता, क्रोध, दोष, विकृतियाँ इत्यादि आत्मा की सच्ची विभूति नहीं हैं, इनके माध्यम से तो हम अपना ही घात करते हैं।
अंगारा पहले पेंâकने वाले के हाथ को जलाता है, पुन: ही दूसरे का घात कर सकता है अथवा नहीं भी। यदि सामने वाले का पुण्य क्षीण होगा तो ही उसकी हानि होगी अथवा नहीं परन्तु अंगारा पेंâकने वाला तो निश्चितरूप से जल ही जायेगा। निश्चित हमको करना है कि हमें क्या बनना है- भगवान पार्श्वनाथ अथवा कमठ। भगवान पार्श्वनाथथ जिन्होंने क्षमा एवं सहनशीलता का आश्रय लेकर स्वयं को तीर्थंकर बना लिया अथवा कमठ जिसने हर भव में वैर, बदला लेने की भावना, हिंसा आदि के आश्रय से स्वयं को नरक एवं पशुगति के अपार दु:खों में डाला।
हमारे एक हाथ में चिंतामणि रत्न हैं और दूसरे हाथ में खली का टुकड़ा है, अब हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किसे अपनाते हैं। मनुष्य पर्याय और शाश्वत धर्म की धारा चिंतामणि रत्न है जबकि विषयासक्ति, क्रोध-मान-माया-लोभ इत्यादि कषाय खली के टुकड़े हैं। यदि इस कलिकाल में भी हमको धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति हो गई है तो हमारे लिए यह काल भी अत्यन्त उत्तम है।
हमें इस उत्तमता पर महान गौरव होना चाहिए कि हमको मनुष्य भव एवं धर्म के रूप में महान निधि अथवा सबकुछ मिल गया है। जो आत्मा जन्म और मरण के चक्र में उलझा हुआ है, वह अहिंसारूपी परम धर्म को अपनाकर भगवान-आत्मा बन सकता है।
जब पाषाण में संस्कारों को आरोपित करके उसे भगवान की प्रतिमा के रूप में पूज्य बना दिया जाता है, तब तो चैतन्य आत्मा पर संस्कार डालते रहने से वह भगवान-आत्मा क्यों नहीं बन जायेगा।
विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का आह्वान करते हुए पूज्य माताजी ने कहा कि इस विश्वप्रसिद्ध काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थीगण यहाँ से इस प्रकार के संस्कार लेकर समाज में आगे आएं कि जिससे भारतीय संस्कृति का गौरव सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित कर सके, यही मेरी मंगल भावना है। उपस्थित जनसमूह ने मंत्रमुग्ध होकर पूज्य माताजी की अमृतमयी वाणी का पान किया।
यह कार्यक्रम विश्वविद्यालय की गीता समिति के द्वारा आयोजित किया गया था, जिसका संचालन मालवीय भवन के निदेशक प्रो. कृष्णकांत शर्मा ने किया। पूज्य माताजी के प्रवचन के पश्चात् प्रो. शर्मा ने प्रवचन के सार को अत्यन्त प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया, जिसकी सभी ने सराहना की।
उन्होंने पूज्य माताजी से निवेदन किया कि माताजी जब भी काशी पधारें तो इस विश्वविद्यालय में अपने पवित्र चरण रखकर एवं मंगल आशीर्वाद प्रदान करके सदैव हमें कृतार्थ करें। कार्यक्रम के अंत में कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन ने गीता समिति हेतु भगवान पार्श्वनाथ प्रतीक चिन्ह एवं साहित्य प्रदान किया।
कार्यक्रम संयोजन में सहयोग हेतु डॉ. कमलेश कुमार जैन-वाराणसी को विशेष धन्यवाद ज्ञापित किया गया। इस अवसर पर इंजीनियरिंग रेलवे बोर्ड सदस्य एवं पदेन सचिव-भारत सरकार श्री सूर्यपाल सिंह जैन ने भी पधारकर पूज्य माताजी से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी) में युवावर्ग के लिए विशेष आह्वान
वाराणसी के प्रसिद्ध सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में आयोजित राष्ट्रीय युवा महोत्सव २००४-२००५ के अंतर्गत १५ जनवरी २००५ को राष्ट्रीय सेवा योजना सभागार में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणास्पद मंगलमयी वाणी का सैकड़ों युवाओं ने लाभ प्राप्त किया।
विश्वविद्यालय परिवार के डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी के संयोजन में आयोजित इस धर्मसभा में प्रो. राधेश्यामधर द्विवेदी, डॉ. रमेश द्विवेदी, डॉ. राघवेन्द्र दूबे, डॉ. रमेश प्रसाद इत्यादि द्वारा पूज्य माताजी एवं संघ का भावभीना स्वागत किया गया। डॉ.फूलचंद जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज जैन समाज की सबसे बड़ी साध्वी पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी हमारे विश्वविद्यालय में पधारी हैं, यह समस्त विश्वविद्यालय परिवार के लिए अत्यन्त गौरव एवं हर्ष की बात है क्योकि ऐसे ज्ञानवान संतों का समागम बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है।
पूज्य माताजी के मंगल प्रवचन से पूर्व मैंने अपने वक्तव्य में सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि संसार में किन्हीं को दो रात्रियों के मध्य एक दिन दिखाई पड़ता है तो किन्हीं को दो दिनों के मध्य एक रात्रि दिखाई पड़ती है। यह अपनी-अपनी दृष्टि की बात है कि हम आशा अथवा निराशा किसका चयन करते हैं।
भारत की धरती सदैव से ऋषि-मुनियों की धरती रही है जहाँ २०वीं सदी में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी का पद धारण करके सैकड़ों कुमारी कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त किया, २६०० वर्षों के इतिहास में प्रथम बार किसी नारी शक्ति ने २०० से भी अधिक ग्रंथों का सृजन किया एवं जन-जन को तीर्थंकर भगवन्तों के सर्वोदयी सिद्धान्तों से परिचित कराने हेतु अपने एक-एक क्षण का उपयोग किया।
ऐसी महान साध्वी के चरण सानिध्य में हर युवा को सदाचार, शाकाहार एवं संयम के नियमों को ग्रहण करके विश्वविद्यालय के नाम को रोशन करना चाहिए। कहा भी गया है ‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन; जैसा पिये पानी वैसी होवे वाणी’, इसलिए अण्डा, माँस, मछली इत्यादि मांसाहार का त्याग करके सभी युवाओं को शाकाहार का व्रत पालन करना चाहिए क्योंकि उससे ही सदाचार रूप नैतिकता की प्राप्ति संभव है।
युवा चाहें तो अपनी शक्ति को संहार के स्थान पर सृजन में लगाकर परिवार, देश एवं राष्ट्र की परिस्थितियों को परिवर्तित कर सकते हैं। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने प्रभावक वक्तव्य में कहा कि आज हमको जो सर्वश्रेष्ठ मनुष्य पर्याय मिली है उसके माध्यम से हम स्वयं को भगवान बनाने का पुरुषार्थ कर सकते हैं।
जो इन्द्रियों एवं कर्म- शत्रुओं को जीत लेते हैं, वे ‘जिन’ कहलाते हैं और उनके मार्ग का अनुसरण करने वाले ‘जैन’ कहलाते हैं। यह जैनधर्म न कोई सम्प्रदाय है, न कोई वर्ग है और न किसी अन्य धर्म की शाखा है वरन् यह तो इन सबसे ऊपर उठकर अद्वैत सार्वभौम धर्म है जो प्राणियों को उत्तम सुख में पहुँचाता है।
धर्म का विरोधी अधर्म है और संस्कारों के बल पर ही व्यक्ति धर्म अथवा अधर्म में प्रवेश करता है। संस्कार, संगति, भवितव्य (होनहार) इन तीनों के द्वारा ही व्यक्ति के मानस का निर्माण होता है। प्राचीन काल से ही तीर्थंकर भगवन्तों जैसे महापुरुषों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह प्रमाण ऐसे ५ सूत्रों का उपदेश दिया है। अहिंसा का अर्थ है सब जीवों को अपने समान जानकर किसी जीव की संकल्पपूर्वक हिंसा न करना।
सत्य वचन बोलने से जहाँ व्यक्ति विश्वासपात्र एवं आदर्श बनता है वहीं उसकी वाणी से पूरे विश्व का भी कल्याण संभव हो सकता है। विश्वासघात करके किसी के धन इत्यादि का हरण कर लेना मानों उसके प्राणों का ही हरण करना है अत: इस चोरी के दुर्गुण से बचते हुए अचौर्य व्रत का पालन करना चाहिए।
तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य अथवा शील व्रत है जिसके माध्यम से सेठ सुदर्शन के लिए बनाई गई शूली सिंहासन में परिवर्तित हो गई, सीता की अग्नि परीक्षा में अग्नि जल में परिवर्तित हो गई और द्रौपदी का चीर बढ़ गया इत्यादि। भावों के पतित होने के कारण आज तक रावण का पुतला जलाया जाता है और कोई भी माता-पिता अपने बालक-बालिका का नाम रावण अथवा सूर्पणखा नहीं रखते हैं। वास्तव में शक्ति, ओज एवं तेज ब्रह्मचर्य के ही अंदर है अत: विद्यार्थी जीवन में परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विवाह के बाद स्वदार संतोषरूपी शीलव्रत का पालन करना चाहिए।
सारे संसार को विजित करने वाले कामरूपी शत्रु को जीतने में जिनेन्द्र प्रभु ही सक्षम होते हैं क्योंकि उन्होंने साक्षात् मोह को ही जीत लिया है। जो मोह को जीत लेता है उसके द्वारा मोह के किंकर काम, क्रोध इत्यादि तो स्वयं ही विजित हो जाते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं कर्ण ये ५ इन्द्रियाँ ५ रत्न हैं परन्तु यदि इनका सदुपयोग न किया जाये तो ये ऐसे बेलगाम घोड़े हैं जो कहीं पर भी ले जाकर पटक सकते हैं, इसलिए इनका सदुपयोग करके इन्हें रत्न-सदृश बनाना चाहिए।
कुसंस्कारों से प्रभावित होकर आत्मा दुर्गति में चली जाती है जबकि महापुरुषों के चारित्र को पढ़कर और सुनकर आत्मा उच्च बन जाती है। जिस प्रकार अग्नि की एक चिंगारी मात्र से पूस का बहुत बड़ा ढेर भी जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में किया गया एक क्षण का अनुराग भी असंख्य पापकर्मों को खण्ड-खण्ड कर डालता है अत: सत्संगति के माध्यम से अपनी आत्मा को संस्कारित कर अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर लेना चाहिए।
पूज्य माताजी ने आगे कहा कि पाँचवां सूत्र है परिग्रह प्रमाण है, जिसके अनुसार अपनी आवश्यकता के अनुरूप धन इत्यादि का संग्रह करने से सामाजिक संतुलन की स्थापना हो सकती है। पूज्य माताजी ने युवावर्ग को आह्वान करते हुए कहा कि आप अपने ओज एवं शक्ति का सदुपयोग करो।
गुटखा, पान मसाला जैसी छोटी-छोटी चीजों के प्रति आप न मात्र अपने धन का अपव्यय करते हैं परन्तु अपने स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ करते हैं क्योंकि ये चीजें कैंसर जैसे रोग तक को भी उत्पन्न करने वाली हैं। आपको ऐसी चीजों का प्रयोग करना है जिसमें स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य भी निहित हो।पूज्य माताजी ने आगे कहा कि आप अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने का प्रयास करें एवं अपने समय, शक्ति तथा धन तीनों का सदुपयोग करें।
देश का युवा वर्ग भविष्य की बागडोर को संभालने वाला अथवा भविष्य का निर्माता है, संस्कृति एवं राष्ट्र का संरक्षक है और उसके कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं। युवा वर्ग को ही आशा भरी दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि जब युवाओं का जीवन समुन्नत होगा तो ही राष्ट्र समुन्नत होगा और यह तभी हो सकता है जब आप सब लोग संस्कारवान बनें और उसके लिए आपको सत्संगति के साथ-साथ सत्साहित्य का अध्ययन करना होगा।
आप सभी लोग इस विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए अपनी शाश्वत संस्कृति को स्वयं में जीवन्त रखकर विश्वविद्यालय का नाम गौरवान्वित करें, यही आप सबके लिए मंगल आशीर्वाद है। पूज्य माताजी ने पुन: कहा कि जिस प्रकार १ अंक के आगे जितने-जितने शून्य रखें जाते हैं, उतनी ही संख्या बढ़ती जाती है परन्तु यदि शून्यों के पहले से १ का अंक हटा दिया जाये तो चाहे कितने भी शून्य रख लें, उनका कोई भी महत्व नहीं है।
इसी प्रकार यदि एक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है तो सभी अन्य गुण भी शोभायमान होते हैं और ब्रह्मचर्य के अभाव में अन्य सारे गुण भी अवगुण की ही श्रेणी में आ जाते हैं।
सारनाथ में फहराया जिनधर्म का ध्वज
जैनधर्म के ११वें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सिंहपुरी (सारनाथ) में पूज्य माताजी एवं समस्त संघ के सानिध्य में १६ जनवरी से२० जनवरी २००५ पौष कृ. ७ से पौष शु. ११ तक श्री दिगम्बर जैन समाज काशी द्वारा श्री १००८ भगवान श्रेयांसनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भव्य आयोजन के रूप में निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
चिरप्रतीक्षित इस प्रतिष्ठा महोत्सव के आयोजन में वाराणसी जैन समाज का उत्साह विशेषरूप से दृष्टव्य रहा। बौद्ध तीर्थ के रूप में विश्वभर में प्रसिद्ध सारनाथ में जैनधर्म की कीर्तिपताका फहराने का यह अद्भुत अवसर था।
पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद एवं कुशल दिशा-निर्देशन के मध्य सम्पन्न इस प्रतिष्ठा में सभी लोगों ने विशेष हार्दिक आल्हाद का अनुभव तो किया ही, साथ ही करोड़ों वर्ष पूर्व तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ ने गर्भ,जन्म, तप एवं ज्ञानकल्याणक के माध्यम से जिस भूमि को परम पवित्र किया था, उसे तीर्थंकर जन्मभूमि के विकास की शृंखला में एक नवीन आयाम प्राप्त हुआ।
महोत्सव के समापन में ११ फुट उत्तुंग श्यामवर्णी भगवान श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का पंचामृत एवं महाकुंभ मस्तकाभिषेक सानन्द सम्पन्न हुआ।
माताजी के पदार्पण से पुन: महक उठा प्रयाग तीर्थ
चूंकि वाराणसी में पूज्य माताजी की जन्मभूमि टिवैतनगर के अनेक गणमान्य महानुभाव आकर पूज्य माताजी के श्रीचरणों में वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाने हेतु श्रीफल चढ़ाकर निवेदन करने आए थे, इससे पूर्व भी वे कई बार माताजी के पास आकर इस हेतु आग्रह कर चुके थे अत: माताजी ने उन्हें पूर्ण स्वीकृति प्रदान कर दी।
फिर तो सभी के चेहरे खिल उठे और सभी ने जोर-शोर से तैयारियाँ करनी प्रारंभ कर दीं। वाराणसी से टिकैतनगर की ओर मंगल विहार के मध्य संघ का मंगल पदार्पण २४ जनवरी २००५, पौष शु. चतुर्दशी को तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ पर हुआ। अपने उद्भव की प्रेरणास्रोत को पाकर दीक्षास्थली तीर्थ का हर कण पुन: आल्हादित हो उठा।
२६ जनवरी २००५ को इलाहाबाद जैन समाज की भारी उपस्थिति के बीच वैâलाशपर्वत पर विराजमान भगवान ऋषभदेव का मस्तकाभिषेक सम्पन्न किया गया तथा सामूहिक पूजन करके निर्वाणलाडू चढ़ाया गया। न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण जी एवं न्यायमूर्ति श्री एम.सी.जैन ने कार्यक्रम में भाग लेकर निर्वाणलाडू चढाया।
टिकैतनगर में संघ का मंगल प्रवेश
४ फरवरी २००५, माघ कृ. दशमी को पूज्य माताजी ने जब अपनी जन्मभूमि में ११ वर्षों के पश्चात् पुन: संघ सहित मंगल प्रवेश किया, तो अपने ग्राम की विश्वप्रसिद्ध निधि का पुन: दर्शन प्राप्त करके टिकैतनगर का बच्चा-बच्चा अत्यन्त उत्साहित एवं आनन्दित हो उठा। बैण्ड-बाजे सहित विशाल जुलूस के साथ संघ को नगर में मंगल प्रवेश कराया गया।
भरतसेनाटिकैतनगरगर के नवयुवकों ने ‘‘जैनं जयतु शासनं-वंदे ज्ञानमती मातरम्’’ इत्यादि गगनभेदी नारों से समस्त नगर को गुंजायमान कर दिया। क्रमबद्ध कतार में चलते नेमी पब्लिक स्वूâल के बालकों द्वारा हाथों में ली गई संदेश युक्त तख्तियाँ एवं नवयुवकों के हाथ में फहराते केशरिया ध्वज समस्त नगरवासियों को चहुँओर जिनधर्म की विजयपताका फहराते हुए माताजी के मंगल आगमन का संदेश प्रदान कर रही थीं।
स्थान-स्थान पर जैन-जैनेतर बंधुओं ने पूज्य माताजी के चरणों का प्रक्षालन करके आरती उतारी तथा बारम्बार पुष्पवृष्टि करते हुए संघ को शहर के चारों फाटक तक घुमाया। उस समय सभी का उत्साह एवं हर्ष देखते ही बनता था। सभी जैन बंधुओं ने अपने प्रतिष्ठान बंद रखकर जुलूस तथा सम्पूर्ण प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया जो कि प्रत्येक जैन समाज के लिए अनुकरणीय है।
प्राचीन जिनमंदिर में विराजमान अतिशयकारी मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य जिनबिंबों तथा समस्त चैत्यालयों के ११ वर्षों के पश्चात् दर्शन किये। वस्तुत: २०वीं सदी में त्याग तपस्या की शाश्वत संस्कृति को जीवन्त रखने वाली अपने गर्भ से प्रसूत निधि को पाकर टिकैतनगरनगर का चप्पा-चप्पा हार्दिक आल्हाद में सराबोर हो उठा टिकैतनगर में हुआ अद्भुत चमत्कार-पूज्य ज्ञानमती माताजी की जन्मभूटिकैतनगरनगर में एक अतिप्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है, जहाँ पूरी जैन समाज दर्शन-पूजन के लिए एकत्रित होती है। वहाँ समाज की भावनानुसार दूसरा मंदिर बनाने का निर्णय हुआ अत: पुराने मंदिर के बगल में ही पुराने स्कूल का भवन तोड़कर विशाल जिनमंदिर का निर्माण सन् २००३-२००४ में हो गया।
इस मंदिर के अंदर बीचों बीच की तीन वेदियों में मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की अवगाहना प्रमाण खड्गासन प्रतिमा, सहस्रकूट चैत्यालय एवं ह्री प्रतिमा के साथ चारों ओर ४-४ फिट खड्गासन चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की प्रतिमाएँ विराजमान करने हेतु वहाँ के अनेक श्रद्धालु भक्तों ने अपने द्रव्य का सदुपयोग कियाटिकैतनगरनगर समाज ने एक स्वर से यह निर्णय लिया कि इस मंदिर का पंचकल्याणक महोत्सव हम लोगों को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के संघ सानिध्य में ही करना है और प्रतिष्ठा महोत्सव का सम्पूर्ण कार्य कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी के कुशल नेतृत्व में होगा।
इस बात की स्वीकृति लेने हेतु समाज के अध्यक्ष प्रद्युम्न कुमार जैन सर्राफ (छोटी सा.) एवं महामंत्री ऋषभ कुमार सहित अनेक कार्यकर्ताओं ने सन् २००२-०३-०४ में (प्रयाग, कुण्डलपुर, बनारस आदि स्थानों पर) आकर पूज्य माताजी के पास श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया। माताजी ने भी कुण्डलपुर (बिहार) से दिल्ली-हस्तिनापुर वापसी के मार्ग में अयोध्या टिकैतनगरनगर का भी कार्यक्रम सोचकर उन लोगों को ९९ प्रतिशत स्वीकृति दे दी।
मध्य में आ गया एक विघ्न
जैन मोहल्ले के ठीक मध्य में निर्मित हो रहे इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण लगभग पूर्ण हो गया था। अकस्मात् एक मुनि जी एवं एक वास्तुशास्त्री ने वहाँ के कुछ लोगों को यह कहकर गुमराह कर दिया कि यह मंदिर गलत बना है और तुम लोगों के लिए हानिकारक है।
फिर क्या था? वे लोग आकुलित हो उठे और कहने लगे कि हम इस मंदिर में भगवान विराजमान नहीं होने देंगे। सन् २००४ में आकस्मिक इस विघ्न के उपस्थित हो जाने पर बने-बनाये मंदिर की फिनिशिंग का कार्य रुक गया और अनेक लोग कुण्डलपुर चातुर्मास के मध्य पूज्य माताजी से अत्यंत आग्रहपूर्वक कहने लगे कि माताजी! आप किसी तरह से सबका समाधान करके हमारी प्रतिष्ठा करवा दीजिए। हमारी सभी चौबीसों प्रतिमाएँ, सहस्रकूट आदि (मूलनायक महावीर स्वामी को छोड़कर) सब वर्षों पूर्व आ गये हैं, अब आप ही कोई उपाय कीजिए।
पूज्य माताजी ने उन लोगों का अपनत्व एवं अधिकारपूर्ण निवेदन देखटिकैतनगर जैन समाज के नाम से वहाँ यह पत्र लिखवा दिया कि फरवरी २००५ में (८ से १४ फरवरी, माघ कृ. चतुर्दशी से माघ शु. षष्ठी तक) प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होगी पुन: वे भगवान स्वयं विराजमान होने के लिए अपने स्थान का निर्णय कर लेंगे, आप लोग उसकी चिंता छोड़ दें। इसके बाद माताजी ने बनारस टिकैतनगरनगर के लिए यह सोचकर विहार कर दिया कि जब प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो जाएंगी, तो उन्हें जहाँ विराजमान होना होगा, अपने आप स्थान निश्चित हो जाएगा।
हम लोग रास्ते में ही थे टिकैतनगर के श्रावक-श्राविका साथ में चल रहे थे, तभी एक सज्जन के मोबाइल पर फोन आयाटिकैतनगर के नये मंदिर की चौबीसों वेदियाँ तेजी से तोड़ी जा रही हैं। यह समाचार जानकर माताजी को एकदम से बड़ा सदमा सा लगा किन्तु वे तुरंत कहने लगीं कि ‘‘देखो! कर्म की विचित्रता! किसी ने वेदियाँ बनाकर पुण्य का अर्जन किया और कोई अब उन्हें तुड़वाकर तीव्र पाप का बंध कर रहे हैं।
वैसे वह मंदिर वास्तुशास्त्रियों के निर्देशानुसार बिल्कुल सही बना है उससे किसी की भी हानि नहीं हो सकती है। शायद वहाँ के लोग किसी के द्वारा गुमराह किये गये हैं, इसीलिए उन्हें वहम हो रहा है। खैर! ज्ञात हुआ कि दो-तीन दिन में सब वेदियाँ टूट गई हैं और कुछ लोग यह कह रहे हैं कि देखते हैं अब इस मंदिर में भगवान कैसे विराजमान कर लेंगे इत्यादि।
समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की भावना एवं आग्रहानुसार भाई रवीन्द्र जी जनवरी २००५ को वहाँ पहुँच गए और अपनी कार्यकुशलता एवं संगठन क्षमता के आधार पर उन्होंने सम्पूर्ण समाज के बच्चे-बच्चे को अपने साथ यह कहकर जोड़ लिया कि समाज जहाँ चाहेगा, भगवान वहीं विराजमान किए जायेंगे, माताजी तो केवल मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाने आ रही हैं।
वे मूर्तियाँ तब तक अपने पुराने मंदिर के हॉल में विराजमान हो जाएंगी, पुन: आगे मिल-बैठकर सब समाज के लोग मंदिर का निर्णय कर लेंटिकैतनगर के लोग एकमत से राजी होकर मार्ग में पूज्य माताजी के दर्शनार्थ आये, तब एक सज्जन के मुँह से निकला कि ‘‘माताजी! जैसे विशल्या ज्यों-ज्यों लक्ष्मण के पास-पास पहुँचने लगी थी, त्यों-त्यों लक्ष्मण के शरीर में प्रविष्ट अमोघ शक्ति का असर घटने लगा था और बिल्कुल पास में जाकर लक्ष्मण का स्पर्श करते ही तो वह दैवी शक्ति एकदम निकलकर भाग गई और लक्ष्मण पूर्ण स्वस्थ होकर उठ बैठे थे।
उसी प्रकार आटिकैतनगर पास आते ही धीरे-धीरे सारे विघ्न समाप्त होकर समाज में एकता का रूपक बन रहा है और लगता है कि वहाँ आपके साक्षात् पहुँचते ही सम्पूर्ण समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। बस आपके पहुँचने भर की देर है, हम लोगों को विश्वास है कि हमाटिकैतनगर में कुछ न कुछ चमत्कार अवश्य प्रगट होगा।
दूसरे ने कहा कि-आखिटिकैतनगर आपकी भी तो जन्मभूमि है, वह धरती अपनी कुलदेवी स्वरूपा आपके बिना कुछ निर्णय भी कैसे कर सकती है? कुल मिलाकर उधर रवीन्द्र जी के नेतृत्व में पंचकल्याणक का कार्यालय चलने लगा। सभी युवक, वृद्ध, महिलाएं, बालक-बालिकाएं आदि खूब उत्साहपूर्वक कार्य में लग गये।
पोस्टर, निमंत्रण कार्ड आदि छपकर पूरे प्रांत में ही नहीं, देशभर में पहुँच गये और इधर जब माताजी संघ सहित ४ फरवरी २००टिकैतनगर पहुँचीं, तो वहाँ ग्राम पंचायत एवं जैन समाज के द्वारा बड़ा भारी स्वागत हुआ। संघ के ठहरने की व्यवस्था यद्यपि वैलाशचंद सर्राफ के खाली मकान में की गई थी किन्तु माताजी ने वहाँ संघस्थ सभी को ठहराकर स्वयं उस दिन नये मंदिर के एक मात्र अपूर्ण कमरे में ठहर गर्इं।
मैं तो उनके साथ थी ही, सर्दी और शौच आदि की अव्यवस्था तो थी किन्तु माताजी ने वहीं रहकर अगले दिन ५ फरवरी को सबेरे से अभिषेक, शांतिधारा, पूजा-पाठ आदि कराना शुरू कर दिया। हम लोग उस दिन वैलाश जी के मकान में थे। अपने नियत मुहूर्त के अनुसार ६ फरवरी, माघ कृ. १२ को झण्डरोहण-अंकुरारोपण हो गया। ७ फरवरी को जयपुर से मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा भी आ गर्इं।
पुन: नये मंदिर के हॉल में अगले दिन ८ फरवरी को प्रतिष्ठाचार्य नरेश शास्त्री ने यागमण्डल विधान कराया। नवग्रह होम, पूजन के साथ विधान का समापन करके कुछ लोग पाण्डाल में भेरीताड़न विधि कर रहे थे और कुछ समाज के लोग भगवान के माता-पिता, प्रतिष्ठा के इन्द्र-इन्द्राणियों के जुलूस में व्यस्त थे।
दिन के लगभग ४ बजे थे कि कुछ बच्चे दौड़े-दौड़े हमारे पास आए और कहने लगे कि नये मंदिर में मूर्तियाँ ले जाई जा रही हैं। माताजी! अब ये सब मूर्तियाँ नये मंदिर में विराजमान होकर ही पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होगी। हम लोग ज्यादा कुछ मामला समझ नहीं पाए, फिर विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि चौक बाजार में कुछ लोगों की आपस में कहा-सुनी हो गई और तब कुछ लोगों में भी जोश आ गया कि देखते हैं कौन रोकता है मूर्तियों को विराजमान होने से! फिर तो आनन-फानन में लोग स्वयं मिलकर १ घंटे के अंदर सारी मूर्तियाँ नये मंदिर में ले आए।
हम लोग जब सायं ५ बजे अपनी वसतिका से मंदिर में पहुँचे, तो वहाँ की खुशियों का जलवा देखने लायक था। सभी आपस में एक-दूसरे के गले से लिपटे जा रहे थे, नाच रहे थे, उछल-उछल कर खूब जय-जयकार कर रहे थे। और तो और! वहाँ संघ के पहुँचते ही महावीर नामक एक युवक ने पूज्य माताजी को ही गोद में उठाकर (मस्तक पर धारण कर) जोर-जोर से उनकी जय बोलने लगे। सभी चमत्कार-चमत्कार कहकर फूले नहीं समा रहे थे, हर्ष के आंसुओं से सबके तन-मन भीगे पड़े थे। अरे! मुझे तो इस समय लिखते हुए भी वे रोमांचक क्षण याद आ रहे हैं और सारा शरीर रोमांचित हो रहा है, क्योंटिकैतनगर में ऐसे अतिशयकारी क्षण इससे पहले कभी नहीं प्रस्तुत हुए थे।
उस दिन वहाँ, होली, दीवाली, रक्षाबंधन आदि सारे उत्सवों के दृश्य मानों एक साथ उपस्थित हो गये थे। आबाल-वृद्ध सभी जहाँ इसे ज्ञानमती माताजी की तपस्या का चमत्कार कह-कहकर चिल्ला रहे थे, वहीं माताजी ने सबको अपने उद्बोधन में भगवान महावीर की अवगाहना प्रमाण प्रतिमा के चमत्काररूप में इन घड़ियों को प्रस्तुत किया। जो भी हो, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति का चमत्कार अवर्णनीय तो है ही।
सबसे बड़ा चमत्कार तो यह देखने में आया कि ३-४ वर्ष के बच्चे भी पूरी रात सड़क से लेकर मंदिर तक र्इंटें ला-लाकर देते रहे, मिस्त्री के साथ तमाम लोग सीमेंट, मसाला बनाकर खुद भी वेदियों की चिनाई करने लगे और रात भर सभी ने पुरुषार्थ करके चेन पुली से प्रात: ठीक ४.३० बजे सवा ग्यारह फुट उत्तुंग भगवान महावीर स्वामी की पीतवर्णी प्रतिमा मूलवेदी बनाकर उस पर विराजमान कर दी।
इस प्रकार सबेरे तक सभी २५ प्रतिमाएँ यथास्थान वेदी बनाकर विराजमान हो गर्इं और महावीर स्वामी के एक ओर सहस्रकूट चैत्यालय जुड़ने लगा तथा दूसरी ओर वेदी में चौबीस तीर्थंकर से समन्वित ‘‘ह्री ’’ मंत्र की प्रतिमा (पूर्व में प्रतिष्ठित की हुई) विराजमान हो गर्इं।
प्राटिकैतनगर समाज की पूरी जनता मंदिर का यह चमत्कारिक दृश्य देखकर मानो निहाल हुई जा रही थी, क्योंकि सभी के घर से इसमें कुछ न कुछ अर्थांजलि समर्पित की गई थी और ३० वर्षों के बाद नगर में हो रही इस पंचकल्याणक का इंतजार लोग वर्षों से कर रहे थे। वह समय अब साक्षात् आ जाने पर हर बच्चे, बूढ़े, युवक, महिला के अन्दर न जाने कहाँ से अपूर्व शक्ति प्रगट हो गई थी कि वे वेदी बनाना, र्इंट ढोना, सामान लाना, प्रतिमा चढ़ाना, पांडाल बनाना, सफाई करना आदि सभी कार्यों को किसी मजदूर की सहायता न लेकर स्वयं ही कर लेना चाहते थे।
इस उत्साह से भरे वातावरण में ७ फरवरी से १४ फरवरी २००५ तक चमत्कारिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा तो सम्पन्न हुई ही, पुन: शीघ्र ही मंदिर के ऊपर दक्षिण भारत की कला वाले शिखर का निर्माण भी हो गया और अयोध्या में भगवान ऋषभदेव महामस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् हस्तिनापुर की ओर विहार करते समय पूज्य माताजी पुन: जन्मभूमि के भक्तों का आग्रटिकैतनगर पधारीं और १३ अप्रैल को मंदिर के शिखर पर कलशारोहण एवं ध्वजस्थापन करवा दिया।
प्रसन्नता की बात यह है कि उस मंदिर के पंचकल्याणक के बाद वहाँ सभी परिवार में खूब शांति है और सभी श्रद्धा-भक्ति के साथ जिनेन्द्र भक्ति में संलग्न हैं। जिनेन्द्र भगवान की कृटिकैतनगर के सभी जैन परिवार समृद्ध हैं एवं निरंतर धर्म और धन में वृद्धि करते हुए पूज्य माताजी एवं समस्त गुरुओं के प्रति समर्पित रहते हैं, यही उनके उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है।
वहाँ जैन समाज के साथ-साथ ‘‘भरतसेना’’ नामक एक संगठन के युवा कार्यकर्ता अपने कार्यकलाटिकैतनगर का नाम गौरवान्वित कर रहे हैं। अपनी यात्रा के मध्य इस प्रसंग को लिखने तक मुझे ज्ञात हुआ कि उस नूतन ‘‘चमत्कारिक भगवान महावीर जिनमंदिर’’ में पूरा संगमरमर पत्थर लगकर कार्य सम्पन्न हो चुका है और भक्तों द्वारा वहाँ प्रतिदिन खूब पूजा-भक्ति का वातावरण बना रहता है।
रामायण के प्रमुख पात्र (राम) अरुणगोविल ने लिया माताजी का आशीर्वाद
इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में प्रतिदिन रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए, जिसमें १४ फरवरी को विशेष आकर्षक कार्यक्रम राजेन्द्र जैन-मुम्बई द्वारा सुन्दर भजन संध्या प्रस्तुत की गई, जिसके मध्य टी.वी. कलाकार रामायण सीरियल के प्रमुख पात्र भगवान राम बने श्री अरुण गोविल द्वारा रामायण के कतिपय संवाद एवं भजन प्रस्तुत किए गए।
, सभी ने करतल ध्वनि के साथ इस संध्या का भरपूर आनन्द लिया। श्री अरुण गोविल जी ने पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त कर एवं उनकी जन्मभूमि के दर्शन कर अपने को धन्य माना।
मुख्यमंत्री ने ‘‘भगवान पार्श्वनाथ वर्ष’’ का दीप प्रज्वलित किया
१२ फरवरी २००५, माघ शु. चतुर्थी को मध्यान्हकालीन सभा में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव एवं अनेक नेतागण पधारे, जिसमें माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने पूज्य माताजी द्वारा ‘‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ को पूरे देश में एक वर्ष तक मनाने हेतु घोषित किये गये ‘‘पार्श्वनाथथ वर्ष’’ का उद्घाटन पार्श्वनाथथ प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्वलित करके किया।
प्र्राजधानी लखनऊ में विश्वशांति महावीर विधान का विशालटिकैतनगर में भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के आयोजन के पश्चात् माताजी भिटरिया, बाराबंकी आदि स्थानों पर होते हुए उत्तरप्रदेश की राजधानी नवाबों की नगरी लखनऊ में पधारीं, जहाँ उनके ससंघ सानिध्य में चौक (लखनऊ) स्थित श्री १००८ भगवान नेमिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में २४ फरवरी से ३ मार्च २००५, माघ शु. पूर्णिमा से फाल्गुन कृ. सप्तमी तक भारी धर्मप्रभावनापूर्वक श्री वैलाशचंद जैन सर्राफ-लखनऊ सपरिवार द्वारा विश्वशांति महावीर विधान सम्पन्न हुआ।विधान के मध्य २७ फरवरी को ‘‘अयोध्या महाकुंभ मस्तकाभिषेक अधिवेशन’’ ब्र. रवीन्द्र जी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ, पुन: १ मार्च को माताजी संघसहित ऐशबाग स्थित श्री दिगम्बर जैन धर्मसंरक्षिणी महासभा के केन्द्रीय कार्यालय में पधारीं, जहाँ महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार जी सेठी ने पूज्य माताजी का भावभीना स्वागत किया,।
तत्पश्चात् श्री १००८ चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर-चारबाग में भारी भीड़ ने पूज्य माताजी के मंगल प्रवचनों का लाभ प्राप्त किया। २ मार्च को संघ ने श्री १००८ भगवान आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर-अहियागंज का दर्शन किया तथा यहाँ भी विशाल धर्मसभा आयोजित की गई।
३ मार्च को चौक मंदिर में पूर्णाहुति हवन के पश्चात् विशाल रथयात्रा निकाली गई, जिसमें श्री विजेन्द्र सिंह (आई.जी लखनऊ) एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री के.सी. जैन-मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। ४ मार्च को माताजी श्री १००८ भगवान पार्श्वनाथथ दिगम्बर जैन मंदिर सहादतगंज-लखनऊ में दर्शनार्थ पधारीं जहाँ श्रद्धालु भक्तों ने उनके सानिध्य में ‘‘भगवान ऋषभदेव विधान’’ सम्पन्न करके जिनभक्ति का विशेष लाभ प्राप्त किया। सायंकाल डालीगंज स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में विशाल जुलूस के साथ संघ का मंगल प्रवेश हुआ।
सम्पूर्ण जुलूस में भक्तों द्वारा की गई भारी पुष्पवृष्टि के माध्यम से लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। १५ मार्च को श्री प्रद्युम्न कुमार जैन ‘‘छोटीटिकैतनगर उनके पुत्र अमरचंद जैन एवं समस्त परिवार द्वारा डालीगंज मंदिर में चांदी के १०८ कमल चढ़ाकर ‘‘भगवान पार्श्वनाथथ विधान’’ सम्पन्न किया गया।
६ मार्च से १० मार्च तक इन्दिरानगर दिगम्बर जैन मंदिर में संघ सानिध्य में विश्वशांति महावीर विधान अत्यन्त प्रसन्नता एवं उत्साह के माहौल में हुआ। पं. नरेश कुमार जैन शास्त्री ने सभी विधि-विधान सम्पन्न कराए।
१० मार्च को सायंकाल गोमतीनगर दिगम्बर जैन मंदिर में संघ का मंगल प्रवेश हुआ, जहाँ भारी भीड़ ने पूज्य माताजी के दर्शन एवं प्रवचनों का लाभ प्राप्त करते हुए स्वयं को धन्य माना। पुन: ११ मार्च को पूज्य माताजी का प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या हेतु मंगल विहार हो गया।
अयोध्या में हुआ पूज्य माताजी का अभूतपूर्व स्वागत
११ वर्ष बाद अयोध्या पधारने पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ का अयोध्यावासियों एवं वहाँ के संत-महंतों द्वारा हार्दिक स्वागत एवं सम्मान किया गया। १७ मार्च २००५, फाल्गुन शु. सप्तमी को अयोध्या प्रवेश के समय अयोध्या की सीमा में पहुँचते ही गुरुकुल महाविद्यालय, रानोपाली-अयोध्या में प्राचार्य श्री योगेन्द्र नाथ त्रिपाठी एवं सैकड़ों बटुक (ब्रह्मचारी बालक) वेदपाठी विद्यार्थियों ने वैदिक मंत्रोच्चार के बीच पूज्य माताजी पर पुष्पवृष्टि करते हुए स्वागत किया।
तत्पश्चात् नगरपालिका अध्यक्ष-सरदार महेन्द्र सिंह एवं अयोध्या व्यापार मंडल के अध्यक्ष श्री सुफलचंद मौर्य ने लगभग १०० व्यापारियों के साथ टेढ़ी बाजार में संघ का स्वागत किया। पुन: बिड़ला मंदिर-अयोध्या के समक्ष हनुमानगढ़ी (अयोध्या) के सरपंच श्री अवधेश दास जी महाराज ने पुष्पवृष्टि करके पूज्य माताजी का सम्मान किया।
दंतधावन कुण्ड पर समाजवादी संत सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष-महंत श्री भवनाथदास जी महाराज ने दर्जनों साधुओं के साथ पुष्पवृष्टि करके स्वागत की शृंखला को आगे बढ़ाया। तत्पश्चात् रायगंज स्थित श्री दिगम्बर जैन मंदिर (बड़ी मूर्ति) पहुँचने पर संघ का समिति के पदाधिकारियों द्वारा भावभीना स्वागत किया गया। पुष्पवृष्टि, चरण प्रक्षालन, मंगल आरती के साथ भगवान ऋषभदेव एवं पूज्य माताजी की जयकारों से सारा परिसर गुंजायमान हो गया।
मंदिर में पहुँचकर भगवान ऋषभदेव की बड़ी मूर्ति के चरणाभिषेक के पश्चात् भगवान चन्द्रप्रभ का निर्वाणलाडू चढ़ाया गया एवं रत्नवृष्टि की गई। इस अवसर पर सैकड़ों श्रद्धालु उपस्थित थे। २२ मार्च, फाल्गुन शु. १२ को श्री रामजन्मभूमि निर्माण कार्यशाला (प्रभारी-श्री अन्नु भाई सोमपुरा), कारसेवकपुरम् (प्रभारी-श्री प्रकाश अवस्थी), मणीरामदास जी की छावनी (वाल्मीकि भवन)-वासुदेव घाट (श्री कृपालु रामदास जी महाराज ‘पंजाबी बाबा’), श्री हनुमान बाग (श्री विदुर कुमार शास्त्री) इत्यादि स्थानों पर पूज्य माताजी का स्वागत किया गया। २४ मार्च को महर्षि वेदविज्ञान विद्यापीठ (अयोध्या) में विद्यार्थियों हेतु मंगल प्रवचन करने पधारीं।
पूज्य ज्ञानमती माताजी एवं संघस्थ साधुओं का वहाँ के आचार्यवर्ग एवं वेदपाठी विद्यार्थियों द्वारा वैदिक मंत्रोच्चारपूर्वक पुष्पवृष्टि करते हुए भावभीना सम्मान किया गया। २५ मार्च को तुलसी स्मारक भवन (अयोध्या) के प्रमुख अधिकारी, दिगम्बर अखाड़ा-अयोध्या (पूर्व महंत-स्व. श्री परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज) के वर्तमान महंत श्री सुरेशदास जी महाराज, जगद्गुरु रामानंदाचार्य, स्वामी श्री हर्याचार्य जी महाराज एवं पीठाधीश्वर महंत श्री कौशलकिशोर दास जी महाराज (बड़ा भक्तमाल) ने अपने-अपने यहाँ पूज्य माताजी (ससंघ) का स्वागत किया।
सभी ने पूज्य माताजी को अपना साहित्य भी प्रदान किया। २७ मार्च को सुग्रीव किला में जगत्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज के नेतृत्व में वहाँ के विद्यार्थियों ने वैदिक ऋचाएँ पढ़ते हुए पुष्पवृष्टि करके संघ का भावभीना स्वागत किया। २८ मार्च को प्रात:काल रामजन्मभूमि के परिदर्शन के पश्चात् सी.आर.पी.एफ. (महिला विंग)-कटरा, काकभुशुण्ड मंदिर, रत्नसिंहासन (महंत अरुणदास एवं देवकीनंदन दास), कनकभवन, बड़ा स्थान (दशरथ राजगद्दी) इत्यादि।
स्थानों पर संघ का सम्मान किया गया। इसी दिन सायंकाल हनुमानगढ़ी में गद्दीनशीन श्री रमेशदास जी महाराज एवं अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत श्री ज्ञानदास जी महाराज की उपस्थिति में पूज्य माताजी का स्वागत किया गया। इस अवसर पर श्री ज्ञानदास जी महाराज ने कहा कि विश्व के लिए भगवान ऋषभदेव का जितना बड़ा योगदान है।
उतना किसी अन्य का नहीं है। ३१ मार्च को सायंकाल अयोध्या नरेश श्री विमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्र (पप्पू भैय्या) ने अपने विशाल राजमहल में अपने परिवार के साथ पूज्य माताजी एवं संघ का भावभीना स्वागत किया। चरण प्रक्षालन एवं आरती के पश्चात् संघस्थ साधुओं के प्रवचनों का लाभ सभी को प्राप्त हुआ।
अयोध्या के महामस्तकाभिषेक ने ११ वर्ष पूर्व की याद दिला दी
सन् १९९३ में जब पूज्य माताजी का अयोध्या में ५० वर्षों में प्रथम चातुर्मास हुआ था, उस समय फरवरी १९९४ में हुए अद्वितीय उत्तरभारत के प्रथम महामस्तकाभिषेक ने पूरे देशवासियों को भक्ति के रंग में रंग दिया था, उस समय पूज्य माताजी ने वहाँ के पदाधिकारियों को प्रति पाँच वर्षों में महामस्तकाभिषेक करने की प्रेरणा प्रदान की थी परन्तु पता नहीं क्या योग रहा कि एक नहीं कई-कई बार मस्तकाभिषेक के आयोजन की चर्चा होने के बाद वह मूर्त रूप में परिणत नहीं हो सका।
शायद उन आदिप्रभू को अपनी ब्राह्मी सदृश पुत्री का ही इंतजार था, तभी तो पूज्य माताजी पुन: अयोध्या में महामस्तकाभिषेक कराने के लक्ष्य से ही अवध प्रांत में पधारीं और देखते ही देखते एक बार फिर पूरे अवध क्या पूरे देश में एक शंखनाद हो उठा-चलो।
अयोध्या! प्रभु ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक करने और पुन: देश का श्रद्धालु वर्ग रंग गया भक्ति के रंग में, खेलने लगा केशरिया होली, उड़ चली सर्वत्र प्रभु नाम व जन्मभूमि की सुगंधि। सचमुच अयोध्या के द्वितीय मस्तकाभिषेक ने ११ वर्ष पूर्व की याद दिला दी।
आस्था चैनल पर देखा करोड़ों भक्तों ने मस्तकाभिषेक
इस द्वितीय महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव के त्रिदिवसीय आयोजन में जहाँ देश के विविध अंचलों से अयोध्या पधारे हजारों श्रद्धालुओं ने भक्तिभावपूर्वक भाग लेकर महान पुण्योपार्जन किया, वहींr चैत्र कृ. नवमी भगवान ऋषभदेव जयन्ती, ३ अप्रैल २००५ को हुए भगवान ऋषभदेव के महाकुंभ मस्तकाभिषेक का सम्पूर्ण देश एवं विदेशों में आस्था चैनल के माध्मय से सीधा प्रसारण देखकर भगवान की अभिषेक धाराओं में भीगा जनसमूह अत्यन्त प्रपुल्लित हो उठा।
मस्तकाभिषेक के मध्य फोन पर देश-विदेश से प्राप्त हजारों संदेशों के माध्यम से लोगों की अपार खुशी एवं पूज्य माताजी के चरणों में ज्ञापित विनम्र कृतज्ञता का माहौल ही कुछ अलग था। देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों के अतिरिक्त अमेरिका, कनाडा, नेपाल, सिंगापुर, केन्या, मॉरिशस इत्यादि अनेक स्थानों से भी बधाई के संदेश प्राप्त होते रहे।
१ से ३ अप्रैल २००५ तक आयोजित इस त्रिदिवसीय ‘भगवान ऋषभदेव महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव’ का शुभारंभ १ अप्रैल को श्री धन्नालाल मोहनलाल अजित कुमार जैन अजमेरा (धूलियान-पं. बंगाल) के द्वारा झण्डारोहणपूर्वक हुआ।
पुन: मंदिर परिसर में निर्मित विशाल पाण्डाल में समय-समय पर भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि सम्मेलनों की शृंखला में तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ का राष्ट्रीय अधिवेशन, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन का राष्ट्रीय अधिवेशन, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद का राष्ट्रीय अधिवेशन, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की आमसभा, दक्षिण भारत जैन सभा का राष्ट्रीय सम्मेलन आदि प्रमुख रहे।
जिसमें मुख्य रूप से पधारे विविध विद्वानों एवं अनेक गणमान्य विशिष्ट महानुभावों (तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष आदि) ने अपने वक्तव्यों के माध्यम से मुख्यरूप से तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान एवं निर्वाण से पावन तीर्थभूमियों-गिरनार, सम्मेदशिखर, कुण्डलपुर आदि की सुरक्षा की भावना व्यक्त करते हुए प्राणप्रण से उसके प्रति समर्पित होने की बात की गई।
इस महोत्सव के मध्य ही आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित नियमसार ग्रंथ पर पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित स्याद्वाद चन्द्रिका टीका ग्रंथ पर पं. शिवचरनलाल जैन-मैनपुरी द्वारा लिखित शोध ग्रंथ ‘‘नियमसार स्याद्वादचन्द्रिका एक अनुशीलन’’ का विमोचन भी हुआ।
इस महामहोत्सव के मध्य विराजित सैकड़ों विद्वानों, अनेक गणमान्य महानुभावों, विभिन्न तीर्थक्षेत्रों के पदाधिकारियों के अतिरिक्त समय-समय पर पधारे।
अतिथिगणों में श्री शीतल सिंह (संपादक-जनमोर्चा अखबार) फैजाबाद, माननीय श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह (जिलाध्यक्ष-कांग्रेस प्रदेश) महासचिव श्री वीरु सिंह तिवारी, केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री-श्री श्रीप्रकाश जायसवाल, उत्तरप्रदेश समाजकल्याण मंत्री श्री अवधेश प्रसाद जी, श्री नेमिचंद जैन (पूर्व विधायक-म.प्र.), पूर्व सांसद श्री कल्लप्पा अवाड़े (अध्यक्ष-दक्षिण भारत जैन सभा), पूर्व विधायक श्री कपूरचंद घुवारा (द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र अध्यक्ष), श्री मुन्ना सिंह चौहान (सिंचाई मंत्री-उ.प्र.),श्री अशोक सिंघल (अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष-विश्व हिन्दू परिषद), श्री नरेश कुमार सेठी (अध्यक्ष-भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी) ने कार्यक्रम की गरिमा में चार चांद लगाए तथा पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त कर नूतन दिशा की प्राप्ति की।
जैन रामायण का विमोचन हुआ
श्रीमती त्रिशला जैन (ज्ञानमती माताजी की सबसे छोटी बहन) ध.प.श्री चन्द्रप्रकाश जैन-लखनऊ द्वारा सरस काव्यों में लिखित ‘‘जैन रामायण’’ नामक सुन्दर पुस्तक का विमोचन अयोध्या में १२ फरवरी २००५ को केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री माननीय श्री श्रीप्रकाश जायसवाल के करकमलों से एवं समाज कल्याण मंत्री-उत्तरप्रदेश सरकार माननीय श्री अवधेश प्रसाद के सहयोग से सानंद सम्पन्न हुआ।
ज्ञातव्य है कि त्रिशला ने ९-१० वर्ष की छोटी सी उम्र में पूज्य माताजी के पास अष्टसहस्री, राजवार्तिक आदि विषयों का अध्ययन करके शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की एवं अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के कारण गृहस्थावस्था में रहकर भी अनेक साहित्यिक लेखन किया करती हैं। उसी लेखन शृँखला में ‘‘जैन रामायण’’ एक लोकप्रिय काव्यकथा सभी के लिए पठनीय पुस्तक है।
विभिन्न ज्ञान के केन्द्रों में हुई ज्ञानामृत वर्षा
पूज्य माताजी के इस अयोध्या प्रवास के मध्य जहाँ समय-समय पर भक्ति के विविध आयोजन सम्पन्न हुए, टोंकों की अनेक वंदनाएं हुर्इं, पूज्य माताजी का ५३वाँ क्षुल्लिका दीक्षा दिवस मनाया गया, वहीं कामताप्रसाद सुन्दरलाल साकेत स्नातकोत्तर महाविद्यालय, महाराजा पब्लिक स्कूल, महर्षि वेद विद्यापीठ एवं डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद में हुए पूज्य माताजी के मंगल प्रवचनों से अयोध्या के प्रबुद्ध वर्ग को अपूर्व लाभ मिला।
संघस्थ ब्र.रवीन्द्र जी द्वारा विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय एवं ‘‘ऋषभदेव जैन पीठ’’ हेतु पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य प्रदान किया गया। इसके साथ ही अयोध्या नरेश श्री विमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्र एवं परिवार द्वारा स्थापित महाराजा पब्लिक स्कूल में माताजी की पावन प्रेरणा से ऋषभदेव पुस्तकालय का उद्घाटन माताजी के ही संघ सानिध्य में हुआ।
पूज्य माताजी से मिलकर राजा साहब अत्यधिक प्रसन्न हुए और कई दिशा-निर्देश प्राप्त किए। पुस्तकालय के उद्घाटन अवसर पर माताजी ने उन्हें ‘‘अयोध्या गौरव’’ की उपाधि से विभूषित किया ।
‘‘भारत भूषण’’ की उपाधि से अलंकृत
बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी माता ज्ञानमतीटिकैतनगर की जिस भूमि ने अपने गर्भ से प्रसूत किया है, विशल्या सदृश उन माता के प्रति बच्चे-बच्चे के लिए यह महानतम गौरव की बात है। वह निधिटिकैतनगर वासियों के मान को उच्चतम सीमा तक वृद्धिंगत करते हुए राष्ट्र क्या पूरे विश्व की गौरव हैं।
इस खुटिकैतनगर का चप्पा-चप्पा पूâला नहीं समाया और नागरिक अभिनंदन के अवसर पर उन्हें ‘‘भारतभूषण’’ की उपाधि से अलंकृत कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभूत किया। वास्तव में ऐसी महान निधि की जन्मटिकैतनगर की धरती सदैव-सदैव के लिए कृतकृत्य हो गई है।
एक मुस्लिम भाई ने बताया
माता टिकैतनगर से विहार के पश्चात् वहाँ के युवा कार्यकर्ता आकर संघ के साथ पैदल चलते थे। इसी मध्य एक दिन एक बच्चे ने बताया कि माताजी! ८ दिन पूर्व मेरी दुकान पर एक मुसलमान ग्राहक आया और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का पोस्टर देखकर कहने लगा कि भैय्या! मैंने इन ज्ञानमती माताजी का बड़ा प्रभाव देखा है।
मैं मुरादाबाद १ लाख रुपये लेकर चांदी के बर्तन खरीदने गया था। एक जैन की दुकान पर मैंने सवा लाख रुपये के बर्तन खरीद लिए, फिर मैंने उनसे कहा कि २५ हजार रुपये मेरे पास नहीं हैं अत: तुम बर्तन वापस ले लोे, तब उस जैन ने यह जानकरटिकैतनगर से आया हूँ, बोले-अरे भैय्या! तुम सभी बर्तन ले जाओ, तुम ज्ञानमती माताजी के गाँव से आए हो, वहाँ का कोई व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता है। तब मुझे लगा कि इनकी ज्ञानमती माताजी के साथ-साथ उनके नगरवासियों के प्रति भी कितनी श्रद्धा और विश्वास है।
महमूदाबाद में मना ५०वाँ आर्यिका दीक्षा दिवस
अवध प्रांत का गौरवपूर्ण ऐतिहासिक नगर महमूदाबाद उस मकान की नींव अथवा वृक्ष के मूल की भांति है, जहाँ जन्मी मोहिनी कन्याटिकैतनगर के श्रेष्ठी छोटेलाल जी की धर्मपत्नी बनकर संस्कारों का जो उपवन सजाया, उसमें सुरभित एक पुष्प से ही सारा संसार महक उठा। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की माता मोहिनी देवी, जो बाद में आर्यिका रत्नमती माताजी बनीं।
उनकी जन्मभूमि होने से यह माताजी की ननिहाल है और ननिहाल वालों का यूँ ही अपने नाती-नातिन, भानजे-भानजी के प्रति विशेष वात्सल्य रहता है, फिर ऐसी जगन्माता की वह ननिहाल हो, जो विश्व में धर्म का डंका बजा रही हैं तथा जिनका गौरव अपनी चरम सीमा पर हो! उन बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का ५०वाँ आर्यिका दीक्षा समारोह मनाने का सौभाग्य महमूदाबाद नगरी को प्राप्त होना ही उनके लिए भारी गौरव की बात थी।
पास के ही नगर तहसील फतेहपुर में महावीर जयंती महोत्सव करने के पश्चात् माताजी महमूदाबाद पधारीं और वैशाख कृष्णा द्वितीया, २६ अप्रैल २००५ को सर्वप्रथम प्रात:काल भगवान पार्श्वनाथथ गर्भकल्याणक के उपलक्ष्य में पार्श्वनाथ की रथयात्रा निकाली गई एवं मध्यान्ह २ बजे से विशाल धर्मसभा आयोजित की गई।
जिसमें उ.प्र. सरकार के परिवहन मंत्री श्री नरेश अग्रवाल मुख्य अतिथि एवं जिला पंचायत अध्यक्ष-श्री महेन्द्र सिंह वर्मा, विधायक श्री नरेन्द्र सिंह वर्मा विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे। समारोह में अनेक गणमान्य महानुभावों ने पूज्य माताजी के प्रति अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित की एवं पूज्य माताजी को पिच्छी-कमण्डलु, शास्त्र आदि समर्पित कर अपना अहोभाग्य माना।
अहिच्छत्र में भगवान पार्श्वनाथथ मस्तकाभिषेक महोत्सव
पूज्य माताजी एवं हम सभी लोग महमूदाबाद से सीतापुर, शाहजहांपुर, बरेली आदि स्थानों पर होते हुए १० मई २००५, वैशाख शु. २ को भगवान पार्श्वनाथथ की केवलज्ञान एवं उपसर्ग विजय भूमि अहिच्छत्र तीर्थ पर पहुँचे। इसी अहिच्छत्र तीर्थ पर सन् १९९३ में अयोध्या की ओर मंगल विहार करते समय जब माताजी का मंगल पदार्पण हुआ था।
उस समय उन्होंने वहाँ के कार्यकर्ताओं को तीस चौबीसी मंदिर निर्माण की प्रेरणा प्रदान की थी और आज जब १५ वर्षों बाद अहिच्छत्र तीर्थ पर आना हुआ, तो सभी जिनमंदिरों के दर्शन के साथ-साथ नवनिर्मित ११ शिखर वाले तीस चौबीसी मंदिर के दर्शन कर मन आल्हादित हो उठा। चूंकि माताजी की प्रेरणा से सम्पूर्ण भारतवर्ष में ‘‘भगवान पार्श्वनाथथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ विविध आयोजनों के माध्यम से मनाया जा रहा था।
अत: वहाँ भी तिखाल वाले बाबा मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ महामस्तकाभिषेक महोत्सव एवं भगवान पार्श्वनाथ रथयात्रा का विशाल आयोजन १५ मई २००५ को हजारों श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के मध्य हर्षोल्लासपूर्ण और भक्तिमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। यहाँ तिखाल वाले बाबा की मूर्ति अति प्राचीन है। कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर उपसर्ग के पश्चात् देवों द्वारा विराजमान की गई यह प्रतिमा है। इसमें वेदी के नीचे एक बिल बना हुआ है।
तथा एक कटोरे में प्रतिदिन दूध रखा जाता है, वहाँ के मैनेजर आनंद जैन ने बताया कि इस बिल में एक सर्प रहता है, जो अक्सर आकर बिना किसी को नुकसान पहुँचाए वहाँ दूध पीकर चला जाता है। तीस चौबीसी मंदिर में विराजमान भगवान पार्श्वनाथ की अवगाहना प्रमाण प्रतिमा के महामस्तकाभिषेक के समय माताजी ने सभी पदाधिकारियों को अहिच्छत्र में प्रतिवर्ष ऐसा ही विशाल मस्तकाभिषेक करने की प्रेरणा प्रदान की।
सायंकाल मंदिर जी में विराजमान भगवान पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा की १००८ दीपकों से महाआरती हुई। अहिच्छत्र प्रवास के मध्य पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं सानिध्य में १० मई से क्रमश: ‘‘भगवान पार्श्वनाथथ समवसरण विधान’’ ,‘‘अहिच्छत्र पार्श्वनाथ विधान’’, ‘‘जम्बूद्वीप विधान’’, ‘‘तीस चौबीसी विधान’’, ‘‘कलिकुण्ड पार्श्वनाथ विधान’’ इत्यादि सम्पन्न किए गए तथा माता पद्मावती की १००८ मंत्रों से महाआराधना सम्पन्न की गई।
जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में हुआ मंगल पदार्पण
अहिच्छत्र तीर्थ से मंगल विहार कर पूज्य माताजी का संघ सहित शाहबाद, धरमपुरकलाँ, जलालपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, धनौरामण्डी आदि स्थानों पर होते हुए २५ मई २००५, ज्येष्ठ कृ. दूज को ५ वर्षों के बाद जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में मंगल पदार्पण हुआ।
एक बार फिर से आई अस्वस्थता की विषम परिस्थिति
मार्ग में अत्यधिक गर्मी के कारण मुरादाबाद के बाद २० मई २००५, वैशाख शु. ११ की रात्रि से पूज्य माताजी को ज्वर आना प्रारंभ हो गया था। २१ तारीख को हम लोग धनौरामण्डी पहुँचे, यहाँ इसीलिए तीन दिन रुके कि हो सकता है, माताजी का बुखार उतर जाये और उनको कुछ आराम मिल जाये लेकिन बुखार था कि उतरने की बजाय बढ़ता ही चला जा रहा था।
मेरठ से हकीम सैपुद्दीन एवं वैद्य महावीर प्रसाद जैन को बुलाया गया। उन लोगों ने माताजी को देखकर यह निर्णय दिया कि अत्यधिक गर्मी होने के कारण शरीर में पानी की कमी हो गई है, उसी इन्पेक्शन से बुखार आ गया है, जब तक इन्पेक्शन दूर नहीं होगा, तब तक बुखार नहीं जायेगा लेकिन दृढ़संकल्पी माताजी ने कोई भी दवा लेने से इंकार कर दिया।
उस समय दिल्ली से लाला महावीर प्रसाद जी संघपति और कमलचंद जी खारीबावली वाले आए हुए थे और वहीं ठहरे हुए थे। माताजी सबके समझाने के बाद भी विहार करना चाहती थींं। २४ मई, ज्येष्ठ कृ. एकम् की रात १२ बजे तक तेज बुखार रहा किन्तु २५ मई को प्रात: ४.३० बजे माताजी ने कहा कि मुझे आज यहाँ से विहार करना है ।
और संयोग से तब तक बुखार उतर भी गया और माताजी ने धनौरामण्डी से हस्तिनापुर की ओर मंगल विहार कर दिया। अगले दिन माताजी को पुन: बुखार चढ़ गया, ऐसी विषम परिस्थिति में पूज्य माताजी को विहार कराना किसी को भी इष्ट नहीं था, तुरंत ही भाई जी ने कई स्थानों पर पूज्य माताजी के बुखार की सूचना दे दी और लोगों के आने का क्रम प्रारंभ हो गया, लोगों ने बहुत ही आग्रह कर माताजी को रोकना चाहा, पर दृढ़ इच्छाशक्ति की धनी माताजी ने कहा कि मैं हस्तिनापुर की ओर विहार अवश्य करूँगी, संयोगवश माताजी ने जम्बूद्वीप के पदाधिकारियों द्वारा २५ मई के मंगल प्रवेश का पोस्टर भी देख लिया था।
अत: अत्यन्त अशक्तता होते हुए भी छोटे रास्ते दर्वड़पुर (गंगा पुल पार करके) से निश्चित तारीख में भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की जन्मभूमि हस्तिनापुर में मंगल प्रवेश किया, यहाँ आने के बाद भी माताजी को बुखार आता रहा किन्तु इस पवित्र धरा पर पहुँचकर उन्होंने महान आत्मिक शांति का अनुभव किया, जब किसी भी प्रकार बुखार नहीं उतरा, तो एक बार पुन: जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में हकीम सैपुद्दीन एवं वैद्य आदि ने निर्णय दिया।
कि माताजी को टाइफाइड (मियादी) बुखार है, तब सबको गहन चिन्ता हो उठी और लोगों को जिस प्रकार से भी खबर मिली, दूर-दूर से लोग वैद्य, हकीमों को लेकर आने लगे, इसी बीच डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल-पैठण इंदौर से प्लेन द्वारा एक वैद्य जी को लेकर आ गए लेकिन माताजी ने पुन: दृढ़तापूर्वक किसी भी वैद्य, हकीम की दवाई लेने से मना कर दिया और पुराने हकीम सैपुद्दीन की सलाह के अनुसार चिरायता भिगोकर उसका पानी प्रतिदिन पूज्य माताजी को आहार में सबसे पहले दिया जाने लगा।
इससे २-४ दिनों में बुखार तो उतर गया परन्तु शारीरिक अस्वस्थता से अशक्तता अत्यधिक रही। आहार में मात्र पानी, दूध, लौकी की सब्जी का पानी, कासनी के बीज की ठण्डाई ही जरा-जरा सी जा पाती थी जबकि लोगों का यही कहना था कि माताजी के पेट में कुछ ठोस पदार्थ (मूंग की दाल, खिचड़ी आदि) जाना चाहिए किन्तु दिगम्बर जैन साधुचर्या तो आत्मबल के आधार पर ही चलती है।
४ जून की चिंताजनक रात्रि
४ जून २००५, ज्येष्ठ कृ. त्रयोदशी की शाम को प्रतिक्रमण तक पूज्य माताजी पूरी तरह से सावधानीपूर्वक बातचीत कर रही थीं पुन: प्रतिक्रमण के पश्चात् हम लोगों द्वारा वंदामि करने पर न माताजी कुछ बोलीं और न ही पिच्छी उठाई, केवल एक करवट से अचेत सदृश लेटी रहीं, जिससे रात्रि में सभी को बड़ी घबराहट रही, जिन-जिन को जिस-जिस प्रकार यह समाचार मिला, वे सभी भक्त जिस अवस्था में बैठे थे, उस अवस्था में हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए।
जो साधन मिला उसमें चाहे जैसी परेशानियाँ आर्इं, सबको झेलते हुए आने वाले यात्रियों का तांता सा लग गया। उस समय माताजी के कमरे में ब्र. रवीन्द्र जी, संघपति महावीर प्रसाद जी, उनकी धर्मपत्नी कुसुमलता जी, अनिल जी, राकेश जी, मनोज, सुनील सर्राफ-मेरठ आदि भक्तिमान श्रावक रातभर माताजी को पाठ सुनाते रहे, इधर मैंने त्यागी भवन के बाहर एकत्रित जनसमुदाय को अनुशासित कर उसे सम्बोधित किया कि देखो! इनकी ५३ वर्ष की तपस्या में आकुलता पैदा नहीं करना है।
उसमें बाधक न बनकर सब लोग दूर से मौनपूर्वक दर्शन करो। इत्यादिटिकैतनगर आदि स्थानों से आए हुए सभी पारिवारिकजनों को भी माताजी के कमरे में जाने से सख्तीपूर्वक इसलिए मना किया कि इनके मोहपूर्ण व्यवहार से माताजी को कोई व्यवधान न हो, जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। चूँकि कई रात्रि से मैं सोई नहीं थी और उस रात्रि तो नींद आने का प्रश्न ही नहीं था, अत: मैं भी माताजी के पास बैठी पाठ पढ़ रही थी।
उस समय सभी ने विशेष आग्रह पर मुझे रात्रि १.३० बजे थोड़ी देर विश्राम करने और स्वयं वहाँ उपस्थित रहने का आश्वासन दिया, उस समय मैं संघ के चैत्यालय वाले कमरे में आकर कुछ देर के लिए लेट गई, प्रात: ३.३० बजे की बात है, मुझे दो बार तेज-तेज आवाज सुनाई दी-चन्दनामती, चन्दनामती! उठो! न जाने कहाँ से यह आवाज आई थी।
मैं तुरंत उठकर माताजी के पास गई, उन्हें गणधरवलय मंत्र, सुप्रभात स्तोत्र सुनाकर उठाना चाहा, तो भी वे पाषाणवत् रहीं, पुन: मैंने थोड़ा जोर से कहा माताजी! उठिये! प्रतिक्रमण सुनाऊँ, प्रतिक्रमण का समय हो गया है, आप ११ घण्टे से लघुशंका भी नहीं गई हैं, उठिये! तब उन्होंने थोड़ी आंख खोली और मेरे सहारे से उठीं, लघुशंका गर्इं।
मैं जल्दी से चौकी पर बैठाकर उन्हें छोटे कमरे से हॉल में ले आई, तभी यह खबर फैलते देर नहीं लगी और सबके चेहरे पर छाई खुशियों का वर्णन करना वास्तव में संभव नहीं है। इस दौरान भारत के कोने-कोने में श्रद्धालुभक्तों ने माताजी के स्वास्थ्य लाभ के लिए मंत्र, विधान-अनुष्ठान एवं मनौतियाँ तक मांग रखी थी, शायद उन सबकी सच्ची भावना और माताजी के आयुकर्म ने एक बार पुन: हमारी निधि हमें लौटा दी।
सचमुच में चमत्कारी हैं कल्पवृक्ष महावीर स्वामी
४ जून की ही रात्रि में जब माताजी की तबियत ज्यादा गड़बड़ हुई, तो मैं कुछ भक्त श्रावकों के साथ कल्पवृक्ष भगवान महावीर के कमलमंदिर में गई और भगवान के दर्शन करते हुए स्वत: मेरे मुख से निकल पड़ा- हे महावीर स्वामी! पूज्य माताजी का कुछ बाल बांका नहीं होना चाहिए, माताजी बड़ी उत्कण्ठा से हस्तिनापुर तीर्थ के दर्शन करने आई हैं। कुण्डलपुर की यह ऐतिहासिक यात्रा हम सबके लिए वरदान बने। भगवन्! माताजी आपकी जन्मभूमि का खूब चमत्कार फैलाकर आई हैं, सो अब इनकी स्वस्थता का चमत्कार भी आपकी कृपाप्रसाद से होना ही चाहिए इत्यादि।
उस समय मेरी बार्इं आँख फड़क उठी और मुझे लगा कि जब भक्तिपूर्वक निकले पौद्गलिक शब्द जाकर सिद्धशिला तक का स्पर्श करके आ कर मनोकामना सिद्ध कर देते हैं, तब मेरी भी यह भावना निश्चित सफल होगी और वास्तव में चमत्कार ही हो गया। ज्येष्ठ कृ. १४, ५ जून को माताजी ने त्यागी भवन से ही न सिर्क भगवान शांतिनाथ के जन्मकल्याणक का सुमेरु पर अभिषेक देखा, उनके सानिध्य में शांतिनाथ का निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।
बल्कि आगन्तुक भक्तों को मुस्कुराकर आशीर्वाद भी दिया। उस समय माताजी ने बताया कि मैं रात में अन्तरंग से पूर्णरूपेण सचेत अवस्था में थी, मात्र अत्यधिक कमजोरी के कारण हिला-डुला भी नहीं जा रहा था, मैंने रात्रि में भक्तामर, अध्यात्मपीयूष आदि सारे पाठ जिस-जिसने सुनाए हैं, सब सुने हैं और चूँकि कमजोरी अधिक थी, इसलिए मन ही मन नियम सल्लेखना ले ली थी कि उठकर आहार करने लायक स्थिति रही तो ठीक है अन्यथा समाधि ले लूँगी।
वे बहुत धीरे से मुझसे बोलीं कि देखो चंदनामती! आज भगवान शांतिनाथ के जन्मदिन मुझे भी नया जीवन मिला है और मेरी दो घाटी पार हुई हैं। पहली धनौरा मण्डी की (वहाँ भी चक्कर आने से स्थिति गंभीर हो गई थी) और दूसरी आज रात्रि की, अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ, यह सब सुनकर सभी लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्होंने बताया कि मैं तो उस समय चिंतन कर रही थी कि-
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदारूवी।
णवि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तं पि।।
अर्थात् मैं अकेला हूँ, निश्चयनय से शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमयी हूँ और सदा अमूर्तिक हूँ, अन्य परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है, इसी प्रकार पूज्यपाद स्वामी के श्लोक भी स्मृतिपथ पर आते रहे कि-
न मे मृत्यु: कुतो भीति:, न मे व्याधि: कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले।।
माताजी सदा यही कहती हैं कि ‘‘परमानन्द संयुत्तं निर्विकारं निरामयं’’ आदि पंक्तियाँ भी असाता को झेलने में शक्ति प्रदान करती हैं। उस समय अनेक लोगों के मुख से यह निकला कि माताजी इतने महान कार्यों को करवाकर आई हैं, इसलिए माताजी को भीषण नजर लग गई है। खैर! साधु को क्या नजर लगना! यह सब तो साता-असाता कर्मों का ही प्रतिफल होता है।
अवर्णनीय है माताजी की ऐतिहासिक यात्रा
पुरातन कवियों के द्वारा वर्णित गुरुओं की महिमा आज भी प्रत्यक्ष देखी जाती है कि जंगल में भी गुरुजनों के विराजने से स्वर्ग जैसा वातावरण निर्मित हो जाता है और अनजान रास्ते में भी स्वयमेव चिरपरिचित पगडंडी बन जाती है। इनके विषय में लोगों की आम धारणा बन चुकी है कि ज्ञानमती माताजी जिस कार्य में हाथ लगा देती हैं।
वह अवश्यमेव परिपूर्ण हो जाता है तथा उनके छूने से मिट्टी भी सोना बन जाती है। यह सब उनकी दीर्घकालीन तपस्या, आगमनिष्ठा एवं दृढ़ संकल्पशक्ति का ही प्रतिफल है। अगर पूज्य माताजी की ऐतिहासिक यात्राओं और उनके कार्यकलापों को विस्तार पूर्वक लिखा जाये।
तो कई एक ग्रंथ बनकर तैयार हो जायें परन्तु ऐसी देवीस्वरूपा, प्राचीन साध्वी, महानतम गुणों की खान माताजी के बारे में कुछ शब्दों में लिखना एक बालक के द्वारा अथाह समुद्र का माप बताने जैसा बाल प्रयास ही समझना चाहिए। हाँ! इतना अवश्य कहूँगी कि पूज्य माताजी का हर कदम किसी न किसी नए लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ता है, उनके ये कदम हमेशा-हमेशा इसी तरह आगे बढ़ते रहें, यही वीर प्रभू से मंगल कामना है।
हस्तिनापुर में ६ वर्षों बाद हुए चातुर्मास में महती धर्मप्रभावना
आषाढ़ शु. चतुर्दशी, २० जुलाई २००५ को ६ वर्षों के अनन्तर पूज्य माताजी को संघ सहित पाकर हस्तिनापुर की धरा मुखरित हो उठी और उस तीर्थ पर हुए मंगल चातुर्मास के मध्य अनेकानेक कार्यक्रम आयोजित हुए जिसमें मोक्षसप्तमी पर्व, अनेकानेक लघु विधान, सिद्धचक्र आदि।
वृहत् विधान, श्री सम्मेदशिखर जी विकास समिति की साधारण बैठक, पूâलबाग मेरठ के जैन मिलन का अधिवेशन, दशलक्षण पर्व में महाराष्ट्र भक्तमण्डल द्वारा त्रैलोक्य महामण्डल विधान, रेवाड़ी से पधारे शिविरार्थियों के लिए शिक्षण शिविर, पन्नालाल सेठी परिवार द्वारा इन्द्रध्वज विधान आदि आयोजनों से विशेष धर्मप्रभावना हुईऔर विशेष प्रभावनापूर्ण आयोजन जम्बूद्वीप महामहोत्सव-२००५ हुआ।
सम्पूर्ण देश में चढ़ाया गया भगवान पार्श्वनाथथ का निर्वाणलाडू
२३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथथ के निर्वाणकल्याणक दिवस, श्रावण शुक्ला सप्तमी, १२ अगस्त २००५ को देशभर में भारी उत्साह के साथ निर्वाणलाडू चढ़ाया गया। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की मंगल प्रेरणा से ‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव समिति’ द्वारा देशभर में मोक्षसप्तमी पर्व पर सम्मेदशिखर जाकर निर्वाणलाडू चढ़ाने अथवा अपने स्थानीय मंदिर/धर्मशाला/पाण्डाल इत्यादि में सम्मेदशिखर की कृत्रिम रचना का निर्माण कराकर उसके समक्ष सामूहिक निर्वाणलाडू चढ़ाने संबंधी पोस्टर भेजा गया था।
यह अत्यंत हर्ष का विषय रहा कि पिछले वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष लगभग दुगुने श्रद्धालुभक्तों ने सम्मेदशिखर पहुँचकर निर्वाणलाडू चढ़ाया। जानकार सूत्रों के अनुसार १२ अगस्त को लगभग २०००० (बीस हजार) पाश्र्वभक्त सम्मेदशिखर में उपस्थित थे। राजधानी दिल्ली के अजमल खाँ पार्क (करोलबाग) में पूज्य आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज (णमोकार मंत्र वाले) के मंगल सानिध्य में भव्य सम्मेदशिखर रचना का निर्माण करके उसमें भगवान पार्श्वनाथ की २३ प्रतिमाएँ विराजमान की गर्इं और २३-२३ किलो के २३ निर्वाणलाडू चढ़ाये गये।
लाल मंदिर, बाहुबली एन्क्लेव, धर्मपुरा पंचायती मंदिर एवं दिल्ली भर की कॉलोनियों से जैनसमाजों एवं अ.भा.दि. जैन महिला संगठन की विभिन्न इकाइयों की ओर से निर्वाणलाडू चढ़ाये जाने के समाचार प्राप्त हुए। भगवान पार्श्वनाथथ जन्मभूमि-वाराणसी के प्रमुख भेलूपुर मंदिर में सम्मेदशिखर की अत्यंत भव्य रचना बनाकर भक्तिभाव से निर्वाणलाडू चढ़ाये गये। अन्य प्रांतों से भी भव्य आयोजनों के समाचार प्रप्त हुए।
यद्यपि भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाणदिवस पर निर्वाणलाडू चढ़ाने की परम्परा पूर्व से भी रही है, तथापि इस वर्ष व्यापक प्रचार-प्रसार एवं प्रेरणा के आधार पर इस परम्परा में विशेष वृद्धि हार्दिक प्रसन्नता का कारण रही।
अनेक उपलब्धियो से समन्वित रहा जम्बूद्वीप महामहोत्सव-२००५
प्रति पाँच वर्षों में आयोजित होने वाले जम्बूद्वीप महामहोत्सव की भांति ही सन् २००५ में आयोजित होने वाला जम्बूद्वीप महामहोत्सव १३ से १७ अक्टूबर २००५, आसोज शु. ११ से पूर्णिमा तक राष्ट्रीय स्तर पर अनेक उपलब्धियों एवं आशातीत सफलता के साथ मनाया गया।
लम्बे समय से प्रतीक्षारत इस महोत्सव में विविध आयोजनों के माध्यम से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों भक्तों ने आध्यात्मिक गंगा में स्नान कर अपने को सौभाग्यशाली माना तथा असीम आनन्द और पुण्य की प्राप्ति की। इस महोत्सव में लगातार पाँच दिनों तक महत्वपूर्ण शोधात्मक आलेखों के वाचन के साथ गणिनी ज्ञानमती संस्कृत एवं अध्यात्म साहित्य संगोष्ठी का भव्य आयोजन हुआ।
जिसमें जैन समाज के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने भाग लेकर पूज्य माताजी द्वारा रचित विभिन्न गंरथों पर अपने शोधात्मक आलेख प्रस्तुत किए। अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद, अ.भा. दि. जैन विद्वत् परिषद, तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ जैसी सर्वोच्च विद्वत् संस्थाओं का प्रतिनिधित्व प्राप्त होने से संगोष्ठी की उपादेयता कहीं अधिक वृद्धिंगत हो गई तथा विद्वानों द्वारा अनेक प्रश्नों के किए जाने पर आगमसम्मत अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ व मार्गदर्शन पूज्य माताजी द्वारा सभी को प्राप्त हुआ।
आसोज शु. १४, १६ अक्टूबर (रविवार) को जम्बूद्वीप महामहोत्सव के मुख्य कार्यक्रम के रूप में यहाँ निर्मित १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर भगवान शांतिनाथ के मस्तकाभिषेक का कार्यक्रम प्रात: ८ बजे से प्रारंभ हुआ तथा १७ अक्टूबर को शरदपूर्णिमा के पावन अवसर पर गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का ७२वाँ जन्मजयंती समारोह भव्य स्तर पर मनाया गया और इन दोनों कार्यक्रमों को आस्था चैनल के माध्यम से दुनिया भर में करोड़ों लोगों ने देखा और उसकी सुरभि इतनी फैली कि आज तक उसकी खूब सराहना हो रही है।
उस दिवस पर लोगों द्वारा मोबाइल, एस.एम.एस. के माध्यम से बधाईयाँ एवं शुभकामना संदेश देने वालों का तांता लग गया। दिनाँक १६ अक्टूबर को महामस्तकाभिषेक महोत्सव का सीधा प्रसारण जब दुनिया के करोड़ों लोगों ने देखा।
सैकड़ों भक्तों ने फोन के माध्यम से अपने कलश बुक करवाए और भगवान के महामस्तकाभिषेक में अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिभागी बनकर अपार हर्ष का अनुभव किया।
वस्तुत: तीर्थदर्शन एवं गुरुदर्शन बड़े ही सौभाग्य से प्राप्त होते हैं अत: आस्था चैनल के माध्यम से जब जन-जन ने जम्बूद्वीप जैसे महान तीर्थ एवं महान साध्वी पूज्य माताजी के दर्शन किए, तो वे एक बार इस धरती के स्वर्ग पर आने एवं माताजी की चरणवन्दना करने हेतु लालायित हो उठे, आज भी ऐसे कितने लोग आते हैं जो बताते हैं कि माताजी! हम आस्था चैनल पर आपका कार्यक्रम देखकर प्रथम बार साक्षात् आपके दर्शन करने आए हैं।
तेरहद्वीप रचना का शिलान्यास
महोत्सव की अन्य उपलब्धियों में अगली कड़ी के रूप में रहा तेरहद्वीप मंदिर में मध्यलोक के तेरह द्वीपों की अकृत्रिम रचना का शिलान्यास। सन् १९६५ में पूज्य माताजी के ध्यान में प्रकट हुई तेरहद्वीप की अकृत्रिम रचना अब शीघ्र ही जम्बूद्वीप स्थल पर निर्मित हो रही है। इस रचना का शिलान्यास शरदपूर्णिमा के ही दिन १७ अक्टूबर २००५ को श्री दीपक जैन-वाराणसी एवं डॉ. प्रमोद कुमार जैन-आगरा के द्वारा हुआ। यह रचना भी अपने आप में विश्व की अनोखी रचना होगी।
महोत्सव में हैं हुईं आगामी कार्यक्रमों की घोषणाएँ
गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी अपनी प्रकृति के अनुसार किसी एक महोत्सव, आयोजन या प्रोजेक्ट के समापन से पूर्व ही आगामी कार्य को सुनिश्चित करके समाज में घोषणा कर देती हैं, इसी बात को दरशाते हुए उन्होंने महोत्सव के समापन पर आगामी वर्ष २००६ को भगवान पार्श्वनाथ निर्वाणभूमि ‘‘सम्मेदशिखर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा समाज को प्रदान की।
तीरथ विकास क्रम जारी है, अब काकन्दी की बारी है
पुन: एक ऐतिहासिक कार्य पूज्य माताजी की प्रेरणा से हुआ। वह है, तीर्थ विकास के क्रम में नवमें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंत की उपेक्षित एवं विस्मृत जन्मभूमि काकन्दी (गोरखपुर-उ.प्र. के निकट अवस्थित) का विकास कार्य।
२७ नवम्बर को इस तीर्थ पर पूज्य माताजी के अनन्य भक्त श्री राजकुमार जैन ‘वीरा बिल्डर्स’-दिल्ली द्वारा वहाँ एक नये मंदिर का शिलान्यास सम्पन्न हुआ, जो संभवत: वर्ष २००६ के अंदर ही विकसित होकर विश्वपटल पर छा जायेगा और जन-जन को भगवान पुष्पदंतनाथ की गौरव गाथा से परिचित करवाएगा।