उत्तरप्रदेश के बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित अहिच्छत्र आजकल रामनगर का एक भाग है जिसे प्राचीन काल में संख्यावती नगरी कहा जाता था। तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की केवलज्ञानकल्याणक भूमि अहिच्छत्र के बारे में आचार्य जिनप्रभसूरि विरचित ‘विविध तीर्थकल्प’ के अहिच्छत्र कल्प में लिखा है कि ‘‘संख्यावती नगरी में भगवान पाश्र्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानारूढ़ थे। पूर्व निबद्ध वैर के कारण असुर कमठ ने उन पर नाना प्रकार के उपसर्ग किये तब नागकुमार देवों के इन्द्र, धरणेन्द्र और पद्मावती भगवान द्वारा विगत जन्म में किये गये उपकार का स्मरण कर वहाँ आये और भगवान के ऊपर सहस्र फण फैलाकर उपसर्ग निवारण किया।’’ यह वही धरणेन्द्र और पद्मावती थे जिन्हें तापसी नाना महीपाल के द्वारा पंचाग्नि तप हेतु लकड़ी चीरते देखकर भगवान पार्श्वनाथ ने उसमें स्थित नाग-नागिन को जानकर उन्हें न मारने की बात कही किन्तु तापसी द्वारा क्रोधावेश में लकड़ी काटते ही भीतर रहने वाले सर्प-सर्पिणी के दो टुकड़े हो गये। तब परम करुणाशील पार्श्वप्रभु ने असह्य वेदना में तड़पते हुए उन सर्प-सर्पिणी को णमोकार मंत्र सुनाया और मंत्र के फलस्वरूप शान्त भाव से मरकर वे ही धरणेन्द्र-पद्मावती हुए। जैनेश्वरी दीक्षा लेने के पश्चात् जब पार्श्वनाथ घोर तपस्या में लीन थे तब इन धरणेन्द्र-पद्मावती के द्वारा उपसर्ग दूर करते ही उनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वह तिथि चैत्र कृष्णा चतुर्थी थी (उत्तर पुराण के अनुसार यह तिथि चैत्र कृष्णा चतुर्दशी है), तब इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की। तब वह संवर देव भी प्रभु के चरणों में गिर पड़ा और भगवान से बार-बार क्षमायाचना करने लगा। पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने समवसरण की रचना कर दी और प्रभु का प्रथम जगत कल्याणकारी उपदेश वहाँ पर हुआ। नागेन्द्र द्वारा भगवान् के ऊपर छत्र लगाया गया था, इस कारण इस स्थान का नाम संख्यावती के स्थान पर अहिच्छत्र प्रसिद्ध हुआ।
क्षेत्र पर एक प्राचीन शिखरबंद मंदिर है उसमें एक हरित पन्ना की पाश्र्वनाथ भगवान अर्थात् तिखाल वाले बाबा की मूर्ति है। वह प्रतिमा किसी अदृश्य शक्ति द्वारा बनाई गई तथा मनोकामना पूरक बताई जाती है। यहाँ के कुएं के जल को पीने से अनेक रोग शांत हो जाते हैं ऐसा कहा जाता है।
पार्श्वनाथ संबंधी घटना का एक सांस्कृतिक महत्व भी है जिसने जैन मूर्तिकला को प्रभावित किया। वह है पाश्र्वनाथ भगवान की मूर्ति पर सर्पफण का होना तथा धरणेन्द्र पद्मावती का उनके भक्त यक्ष-यक्षिणी के रूप में विशेष उल्लिखित होना।
क्षेत्र से दो किमी. दूर एक प्राचीन किला है जो महाभारतकालीन कहा जाता है। इस किले के निकट ही कटारीखेड़ा नामक टीले से प्राचीन स्तंभ मिला है जो कि भग्नावस्था में है और मानस्तंभ माना जाता है। जनसाधारण में किंवदन्ती है कि यहीं प्राचीनकाल में सहस्रकूट चैत्यालय था। कुछ लोग अज्ञानतावश इस पाषाण स्तंभ को ‘भीम की गदा’ कहते हैं। कहा जाता है कि अपने वैभवकाल में अहिच्छत्र नगर ४८ मील की परिधि में था। यहाँ के भग्नावशेषों में १८ इंच तक की ईटें मिलती हैं।
सड़क से कुछ फुट ऊँचाई पर तीर्थ क्षेत्र का मुख्य द्वार है। भीतर एक विशाल धर्मशाला तथा बीच में पक्का कुआं है। बायीं ओर मंदिर का द्वार है। द्वार में प्रवेश करते ही क्षेत्र का कार्यालय है, जो काफी लम्बा चौड़ा है। सामने बायीं ओर एक छोटे गर्भगृह में वेदी में तिखाल वाले भगवान पार्श्वनाथ की सातिशय हरितपन्ना की पद्मासन मुद्रा में ९ इंच अवगाहना की सौम्य, सर्पलांछन युक्त प्रतिमा विराजमान हैं। वेदी के दायीं ओर दूसरे कमरे की वेदी में मूलनायक पार्श्वनाथ की श्यामवर्णी १ फुट १० इंच अवगाहना की अत्यन्त मनोहर पद्मासन प्रतिमा है। मूर्ति के नीचे सिंहासन पीठ के सामने वाले भाग में २४ तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। प्रतिमा के बायीं ओर श्वेत पाषाण युक्त पार्श्वनाथ प्रतिमा तथा दायीं ओर गर्भगृह की दो वेदी में आधुनिक प्रतिमाएं विराजमान हैं। अंतिम पांचवीं वेदी में बूंदी (राज.) में भूगर्भ से प्राप्त चौथी से नौवीं शताब्दी के मध्य की प्रतिमाएँ हैं। यहाँ एक समवसरण भी बना हुआ है। मंदिर के निकट ही रामनगर गांव में एक शिखरबंद मंदिर है जिसमें फणामण्डित श्यामवर्ण पद्मासन पार्श्वनाथ (४ फुट अवगाहना) की मनोज्ञ प्रतिमा है जिस पर पात्रकेशरी की शंका को दूर करने वाला श्लोक भी अंकित है तथा दो पाषाण एवं दो धातु प्रतिमाएं भी हैं। मंदिर के बाहर उत्तर की ओर पात्रकेशरी के चरण बने हैं।
क्षेत्र का वार्षिक मेला चैत्र कृष्णा अष्टमी से चैत्र कृष्णा त्रयोदशी तक होता है।
सन् १९९३ में अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र को एक नूतन कृति की प्राप्ति तब हुई जब हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र से अवधप्रान्त की ओर मंगल विहार कर रही परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी संघ सहित अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र पर पधारीं। संयोगवश इन दिनों यहां का वार्षिक मेला भी प्रारंभ हो चुका था। अतः तीर्थक्षेत्र की प्राचीन एवं नूतन दोनों संस्थाओं ने पूज्य माताजी के पावन सानिध्य का पूरा-पूरा लाभ उठाया। १३ मार्च से १६ मार्च तक के इस प्रवास में ज्ञानतीर्थ परिसर के पाण्डाल में पूज्य माताजी के प्रवचन के साथ १५ मार्च को प्राचीन मंदिर के प्रांगण में पूज्य माताजी के सानिध्य में मेले का शुभारंभ हुआ। १६ मार्च को भगवान आदिनाथ की जन्मजयंती के पावन दिवस प्रातःकाल पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में अहिच्छत्र कमेटी के महामंत्री श्री सुमेरचंद जैन एवं (अध्यक्ष) श्री प्रेमचंद जैन तेल वाले (मेरठ) बैठे हुए तीर्थक्षेत्र के उत्थान हेतु आशीर्वाद मांग रहे थे तभी माताजी के मुख से निकला कि यहां एक विशाल तीस चौबीसी तीर्थंकर मंदिर की रचना बनवाओ और उसमें सात सौ बीस जिनबिम्ब विराजमान करो। प्रेमचंद जी ने योजना को तुरंत स्वीकार किया पुन: मध्यान्हकालीन प्रवचन सभा में इस भावी निर्माण की घोषणा होते ही तुरंत २४ दातारों ने प्रतिमा विराजमान करने की स्वीकृति लिखवाई। इस प्रकार अपूर्व उत्साह के साथ पूज्य माताजी ने इस नूतन योजना को भगवान पाश्र्वनाथ के चरणों में प्रथम भेंट के रूप में समर्पित किया और उनके कर्मठ भक्त कार्यकर्ताओं ने उसे शीघ्र ही मूर्तरूप देने का संकल्प लिया। आज से कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने वैलाशपर्वत पर तीन चौैबीसी के रत्नों के ७२ मंदिर बनवाए थे। तीन चौबीसी की प्रतिमाएं तो आज भी कई जगह पर स्थापित हैं किन्तु तीस चौबीसी रचना की प्रथम प्रेरणा माताजी ने यहां दी थी। यह वह प्रथम तीस चौबीसी मंदिर है जिसकी योजना काफी समय से पूज्य माताजी के मस्तिष्क में थी और जिसे क्रियान्वयन करने का सौभाग्य श्री अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र कमेटी को प्राप्त हुआ। उसका प्रमुख श्रेय श्री प्रेमचंद जैन (तेल वाले) मेरठ को जाता है। विभिन्न अतिशयों से युक्त यह प्राचीनतम तीर्थ तथा उसमें निर्मित प्राचीन एवं नूतन रचनाएँ दर्शनार्थ पधारने वाले प्रत्येक यात्रीबन्धु को भगवान पार्श्वनाथ के जीवन से क्षमा, सहनशीलता एवं तपस्या की प्रेरणा प्रदान करें एवं अन्तर में ज्ञानज्योति को प्रस्पुफुटत करे यही मंगल कामना है।