धर्म की शाश्वत सत्ता– प्राकृतिक सृष्टि व्यवस्था के अनुसार धर्म की शाश्वत सत्ता मानी गई है। विश्व भर के अनेक धर्मों में जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी इसका कोई संस्थापक नहीं है। जैनधर्म प्राकृतिक धर्म है क्योंकि इसका न कोई आदि है और न अंत, इसीलिए यह अनादिनिधनरूप में माना जाता है। समय-समय पर महापुरुषों ने भारत की धरती पर जन्म लेकर इस धर्म का प्रचार किया है। वैदिक पुराण एवं वेदों में भी जैनधर्म को वेदों से पूर्व का स्वीकार किया गया है और उनके अनुसार इसे ‘‘निर्ग्रन्थ’’ धर्म के नाम से जाना गया है।
जैनधर्म की तीर्थंकर परम्परा- सर्वप्रथम जैनधर्म की व्याख्या जानने की आवष्यकता है कि ‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’ अर्थात् कर्मों को जीतने वाले ‘जिन’ कहलाते हैं तथा ‘‘जिनोदेवता यस्यासौ जैनः’’ अर्थात् उन जिन को जो अपना देवता मानते हैं वे जैन कहे जाते हैं। इस कथनानुसार जैनधर्म किसी व्यक्ति या सम्प्रदायविशेष का न होकर प्राणिमात्र का धर्म है। वैसे तो इस जैनधर्म में असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी (वष्द्धि-ह्रास) कालों में असंख्य तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त किया, फिर भी वर्तमान कर्मयुग में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं- ऋषभनाथ अजितनाथ संभवनाथ अभिनंदननाथ सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभु पुष्पदन्तनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्यनाथ विमलनाथ अनंतना धर्मनाथ शांतिनाथ कुंथुनाथ अरहनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रतनाथ नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी। इन चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने आज से असंख्यात वर्ष पूर्व (एक कोड़ाकोड़ी सागर वर्ष पूर्व)अयोध्या नगरी में जन्म लेकर समस्त प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट्क्रियाओं के द्वारा जीवन जीने की कला सिखाई थी। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को लिपि एवं अंकविद्या सिखाकर साक्षरता अभियान का शुभारंभ किया था। इसी प्रकार ऋषभदेव ने अपने भरत-बाहुबली, वृषभसेन, अनन्तवीर्य आदि सभी 101 पुत्रों को शस्त्र विद्या आदि सिखाकर आत्मरक्षा के साथ परिवार, समाज, देष एवं धर्मरक्षा का संदेष दिया था।
महावीर का चुम्बकीय व्यक्तित्व
जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में पहचाने जाने वाले भगवान महावीर का जन्म आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त की ‘‘कुण्डलपुर’’ नगरी में चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के एकमात्र पुत्र महावीर को वर्धमान, वीर, सन्मति, अतिवीर और महावीर इन पांच नामों से जाना जाता है। ज्ञान, पराक्रम, सुख एवं सौन्दर्य में अद्वितीय प्रतिभा के धनी महावीर ने अखण्डब्रह्मचर्यव्रत को स्वीकार करके 30 वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी पुनः 12 वर्ष की तपस्या के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने पर धनकुबेर ने आकाश में उनका समवसरण बनाया था अतः 30 वर्ष तक अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य प्राणियों को लाभान्वित कर 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने बिहार प्रान्त की पावापुरी के जलमन्दिर से समस्त कर्म नाश करके निर्वाणधाम को प्राप्त किया था। तब से आज तक वह दिवस दीपावली पर्व के रूप में मनाया जाता है। जन्मकल्याणक से पावन सुमेरूपर्वत की एकमात्र प्रतिकृति हस्तिनापुर में! भगवान महावीर के जन्मकल्याणक को इन्द्रों ने जिस सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक महोत्सव के रूप में मनाया था, उस 1 लाख योजन ऊँचे सुमेरुपर्वत की एकमात्र प्रतिकृति (101 फुट उत्तुंग) आज हस्तिनापुर की धरा पर जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में विद्यमान है। सन् 1974 में भगवान महावीर के 2500वें निर्वाणमहोत्सव के अवसर पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से इस विश्वप्रसिद्ध रचना का निर्माण प्रारम्भ हुआ। सन् 1985 में वह रचना बनकर पूर्ण हुई, तब विशाल राष्ट्रीय आयोजन के साथ उत्तरप्रदेश के तात्कालिक मुख्यमंत्री द्वारा उसका लोकार्पण किया गया। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पवित्र इस सुमेरुपर्वत का महत्व जानकर प्रत्येक श्रद्धालु को उसका दर्शन अवश्य करना चाहिए।
तीर्थंकर महावीर के अमूल्य सिद्धान्त- जैनधर्म के शाश्वत नियमानुसार तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याण हेतु अनेक अमूल्य सिद्धांत बताए, उनमें से कुछ सिद्धांतों का संक्षिप्तरूप यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
अणुव्रत
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों के अणु अर्थात् एकदेश त्याग को अणुव्रत कहते हैं। वह पांच प्रकार का है- 1. अहिंसाणुव्रत-मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक (इरादापूर्वक) किसी त्रसजीव को नहीं मारना तथा प्राणीमात्र के प्रति दया की भावना रखना। 2.सत्याणुव्रत-स्वयं झूठ न बोले, न दूसरों से बुलवाए और ऐसा सच भी नहीं बोले कि जिससे धर्म आदि पर संकट आ जावे। 3.अचैर्याणुव्रत-किसी का रखा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ अथवा बिना दिया हुआ धन-पैसा आदि द्रव्य नहीं लेना और न उठाकर किसी को देना। 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी विवाहित स्त्री/पुरुष के अतिरिक्त अन्य स्त्री/पुरुष के साथ कामसेवन नहीं करना, उन्हें गलत दृष्टि से नहीं देखना। 5. परिग्रह परिमाण अणुव्रत-धन, धान्य मकान आदि वस्तुओं का जीवन भर के लिए परिमाण कर लेना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना। निरतिचार (बिना दोष लगाए) पालन किए गये ये अणुव्रत नियम से स्वर्ग को प्राप्त कराते हैं। इनका आंशिकरूप से पालन श्रावक करते हैं तथा दिगम्बर जैन साधु-साध्वी इनका पूर्णरूप से त्यागकर महाव्रती कहलाते हैं। इन पांचों व्रतों के विपरीत पांच पाप होते हैं जो इस प्रकार है- # हिंसा-प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करना। झूठ-जिस बात या जिस चीज को जैसा देखा या सुना हो वैसा नहीं कहना तथा जिन वचनों से धर्म, धर्मात्मा या किसी भी जीव के प्राणों का घात हो ऐसा सत्य वचन भी झूठ है। चोरी-बिना दिये किसी की गिरी, पड़ी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा किसी को दे देना। कुशील-पराई स्त्री के साथ या परपुरुष के साथ रमण करना या उसकी इच्छा करना। परिग्रह-जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल इत्यादि से मोह रखना तथा इन्हीं भौतिक चीजों को एकत्रित करने की इच्छा करना, उन्हें इकट्ठा करना । ये पांचों पाप प्रत्येक प्राणी के लिए अहितकर और त्यागने योग्य हैं। इसी प्रकार से सात व्यसन हैं जिनके नाम हैं- जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा (शराब) पीना, वेश्यासेवन करना, चोरी करना, शिकार करना और परस्त्रीसेवन करना। क्रोध, मान (घमण्ड), माया और लोभ ये चार कषाय हैं। इन चारों कषायों का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और अपने जीवन को पापों, कषायों एवं व्यसनों से मुक्त बनाना चाहिए क्योंकि इनके सेवन से नरक आदि दुख की प्राप्ति होती है। जैन धर्म में अनेक सिद्धान्तों में अहिंसा पालन की दृष्टि से रात्रि भोजन का त्याग और जल छानकर पीने का वैज्ञानिक तरीका भी बताया गया है क्योंकि उसमें जीवहिंसा के बचाव के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ भी होता है। जैनधर्म के शाश्वत नियमानुसार तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याण हेतु अनेक अमूल्य सिद्धान्त बताए, उनमें से कुछ सिद्धान्तों का संक्षिप्तरूप यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है- #अहिंसा-प्राणिमात्र के प्रति दया की भावना। #अपरिग्रह-अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। #अनेकान्तवाद-समन्वयवादी भावनाओं के साथ वस्तुतत्व का कथन करना।
वर्तमान के लिए हितकर वीर वाणी-भगवान महावीर द्वारा कहे गए सिद्धान्त इस युग के लिए सर्वथा प्रासंगिक हैं उनके कुछ अनमोल वचन यहाँ प्रस्तुत हैं- पेड़-पौधे, जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी सभी में जीवन है अतः इनकी व्यर्थ में हिंसा नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक प्राणीमात्र की आत्मा शक्तिरूप में भगवान परमात्मा है अतः सबको अपने समान समझो। #जो व्यवहार तुम्हें दूसरों के द्वारा प्रतिकूल लगता है वैसा व्यवहार तुम दूसरों के प्रति मत करो। ईश्वर जगत् का कत्र्ता नहीं है वह परमवीतराग है। ईश्वर का संसार में पुनर्जन्म नहीं होता वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। #हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों का त्याग करो। चैरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए प्राणियों के लिए मात्र धर्म ही सहारा है। आवश्यकता से अधिक परिग्रह संचय मत करो। जैसे शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, वैसे ही आत्मा के लिए प्रभुभक्ति आवश्यक है। इत्यादि वचनों का जीवन में पालन करना चाहिए।
एक स्वर्णिम अवसर- भारत सरकार द्वारा 6 अप्रैल 2001 को चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक महोत्सव का उद्घाटन किया गया था जो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रांतीय सरकारों एवं जैन समाजों द्वारा विविध आयामों के साथ मनाया गया। इस स्वर्णिम अवसर को प्राप्त कर हम सभी ने संगठित होकर अप्रैल 2002 तक भगवान महावीर के सर्वोदयी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया जिसके फलस्वरूप हम जैनधर्म की व्यापकता एवं तीर्थंकर महापुरुषों की वाणी से विश्वशांति, पर्यावरणशुद्धि, पारस्परिक सौहार्द, विश्वमैत्री का संदेश दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा पाने में सफल हो सके। भगवान महावीर की ये अमूल्य शिक्षाएँ सभी के जीवन में सुख-शांति की वृद्धि करें, यही मंगल कामना है। [[श्रेणी:विशेष आलेख]]