जैनशास्त्रों के अनुसार सिंधुदेश में ‘‘वैशाली’’ नगरी का वर्णन आता है। वहां राजा केक के पुत्र ‘‘चेटक’’ राज्य करते थे। श्रीगुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण ग्रंथ में लिखा है-
‘‘सुरलोकादभूः सोमवंशे त्वं चेटको नृपः।’’
अर्थात् स्वर्गलोक से आकर वैशाली के ‘‘सोमवंश’’ में राजा चेटक ने जन्म लिया था। उन्हीं की सात पुत्रियों में से सबसे बड़ी पुत्री ‘‘त्रिशला’’ प्रियकारिणी का विवाह विदेहदेश की कुण्डलपुर नगरी के राजा ‘‘सिद्धार्थ’’ के साथ हुआ था। धर्मपे्रमी बंधुओं! दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार यह निश्चित है कि आज से छब्बिस सौ वर्ष पूर्व वैशाली और कुण्डलपुर दोनों ही नगरियां अत्यन्त समृद्ध और राजघरानों से पहचानी जाती थी किन्तु २६ शताब्दियों के इस अंतराल के मध्य विश्व के समस्त देश और प्रदेशों में बड़े-बड़े परिवर्तन आए जिससे बड़े-बड़े देश आज छोटे-छोटे प्रदेश के रूप में परिवर्तित हो गए। इन परिवर्तनों के बावजूद भी इन्द्र के द्वारा बसाई गई कुछ नगरियां जैसे-अयोध्या, सम्मेदशिखर, बनारस, हस्तिनापुर, श्रावस्ती आदि का अस्तित्व काल भी समाप्त नहीं कर पाया। यही कारण है कि हम सभी उन तीर्थभूमियों पर जाकर तीर्थंकरों के कल्याणक की वंदना करते हैं। यहां हमें ‘‘वैशाली’’ के विषय पर सूक्ष्मता से अवलोकन करना है जिस विदेहदेश में कुण्डलपुर नगरी का अस्तित्व बताया गया है वह तो बिहार प्रान्त के नाम से जाना जाता है किन्तु सिंधुदेश की खोज आज तक नहीं हो सकी है। एक ही बिहारप्रान्त में विदेह और सिंधु दोनों देशों की कल्पना कदापि उचित प्रतीत नहीं होती है। कुछ आधुनिक विद्वानों ने सिंधुदेश की जगह सिंधु नदी का संबंध जोड़कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि बिहार में मुजफ्फरपुर के पास वैशालीनगर होना चाहिए। कुछ शोधकर्ता विद्वानों ने -डॉ. हीरालाल एवं ए.एन.उपाध्ये स्वयं यह बात लिखी है कि ‘‘अनेक प्राचीन नगरों के साथ इस वैशाली का दीर्घकालीन इतिहासज्ञों को अता-पता ही नहीं था किन्तु विगत एक शताब्दी के मध्य शोध-खोज के आधार पर मुजफ्फरपुर के पास ‘‘बसाढ़’’ नामक ग्राम को ‘‘वैशाली’’ नाम दे दिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि समय-समय पर ग्राम, नगर, शहर, उद्यान एवं शिक्षणसंस्थान आदि के नामकरण एवं नामपरिवर्तन की परम्परा पुरानी रही है। उसीक्रम में जिस प्रकार दिल्ली के निकट वैशाली, कौशाम्बी नामकी बहुत बड़ी-बड़ी कालोनियां पिछले एक दशक में निर्मित हुई हैं उसी प्रकार लगभग ५० वर्ष पूर्व बिहारप्रदेश में ‘‘वैशाली’’ नामक उपनगर की स्थापना हुई है। इसको छब्बीस सौ वर्ष पूर्व की ऐतिहासिक वैशाली नगरी न कहकर वर्तमान की वैशाली ही मानना चाहिए। यहां पर यह भी कहना अनुचित न होगा कि यदि हमें वैशाली का उन्नतरूप वर्तमान में दर्शाना ही है तो राजधानी दिल्ली वाली वैशाली कॉलोनी में वह महावीरकालीन रूपक दर्शाना चाहिए क्योंकि वह कॉलोनी है। शोध और खोजकर्ताओं को अब अविलम्ब दिल्ली की इसी वैशाली का पुनरुत्थान करने की सलाह जैनसमाज के लिए देना चाहिए, राजधानी की निकटता इसे शीघ्र ही गगनचुम्बी ख्याति प्राप्त कराने में सहायक बनेगी और जैन समाज के इशारे पर भारत सरकार भी बिहार प्रान्त की अपेक्षा दिल्ली में अधिक आर्थिक सहयोग और मान्यता प्रदान करेगी।
समाज के प्रबुद्ध नागरिकों! जैनशासन की अस्मिता को बचाने हेतु अब सभी को सचेत होना आवश्यक है वरन् आप मंदिर में पूजा-पाठ करते रहेंगे और बाहरी संसार मेें अनादि जैनशासन पर निरन्तर कुठाराघात होकर एक दिन मरणासन्न देखने का मजबूर होना पड़ेगा। यूं तो धर्म की व्याख्या इतनी व्यापक है कि तीनों लोेकों का सम्पूर्ण सुख उसमें समा जाने की क्षमता है तथापि काल के थपेड़ों में पड़कर जब-जब धर्म का ह्रास हुआ है तब-तब किसी न किसी महापुरुष ने जन्म लेकर उसका पुनरुद्धार किया है। तभी सतयुग से लेकर वर्तमान के कलियुग तक भारत की धरती पर जैनधर्म का और उसके सिद्धान्तों का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है किन्तु ईसवी सन् की बीसवीं सदी के इतिहासकारों ने इस धर्म के प्रति एवं इसे प्रवर्तित करने वाले तीर्थंकर महापुरुषों के प्रति अपनी लेखनी के द्वारा जिस प्रकार अनभिज्ञता एवं द्वेषभाव का परिचय दिया है वह अब सहन करना अपने जैनत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना है। विद्वत्शिरोमणि, पं. प्रवर श्री सुमेरुचंद जैन दिवाकर ने उस समय भी चल रही अनर्गल शोधपरम्परा से दुखी होकर ही शायद ‘‘जैनशासन’’ जो कि सन् १९४७ तथा १९५० में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा एवं सन् १९९८ में प्राच्यश्रमणभारती-मुजफ्फरनगर द्वारा प्रकाशित है, के पृ. २२२-२२३ पर लिखा है- ‘‘भगवान महावीर के जीवन का इतिहास और उनके त्याग की अमर कहानी बिहारप्रान्त के पावापुर ग्राम में विद्यमान सरोवरस्थ धवल जिनमंदिर में मिलती है। भगवान महावीर ने ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व कुण्डलपुर में क्षत्रियशिरोमणि महाराजा सिद्धार्थ के यहां माता त्रिशला के उदर से जन्म लिया था। वे नाथवंश के भूषण थे। संसार के भोगों में उनका विवेकपूर्ण मन न लगा अतः बालब्रह्मचारी रहकर उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में निग्र्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारणकर १२ वर्ष तपश्चर्या कर ४२ वर्ष की अवस्था में वैवल्य प्राप्त किया और विश्वहितंकर धर्म का उपदेश ३० वर्ष तक देकर ७२ वर्ष की अवस्था में परमनिर्वाण-मुक्ति प्राप्त की। प्रभु के चारित्र को विकृत करते हुए श्री शं.रा. राजवाड़े ने नादसीय सूक्त के भाष्य-पूर्वार्ध में पृ.१८६ पर भगवान के नाथवंश को नटवंश मान उन्हें नटपुत्र कहने की असत् चेष्टा की है और लिखा है-गौतम व महावीर हे दीघे क्षत्रिय व्रात्य होते, कारण महावीरा ‘नातपुत्त’ म्हटला आहे व गौतमाचा जन्म लिच्छवी कुलांत झाला ओ। नातपुत्त-नटपुत्त नट व लिच्छवी हीं दोन्हीं कुले मनूनें व्रात्य-क्षत्रिय म्हणून उल्लेखिलीं आहेत। खेद है कि अपने सम्प्रदाय के मोहवश मनुष्य सत्य का अपलाप करते हुए लज्जित नहीं होता। हरिवंशपुराण में भगवान के पिता महाराजा सिद्धार्थ को प्रतापी भूप बताया है- ‘‘सिद्धार्थो भवदर्काभो भूपः सिद्धार्थपौरुषः। सर्ग २-१३ वास्तव में ऐसे आगमनिष्ठ विद्वानों के द्वारा रचित शास्त्रों से ही हमें अपनी असली विरासत और निराधार आगमविरुद्ध शोध-खोज की पोलें ज्ञात हो सकती है इसके विपरीत जिन विद्वानों ने किसी संस्थाविशेष या श्रेष्ठी आदि की मनोभावनापूर्ति हेतु लेखन किया है उनकी रचनाओं में स्पष्ट दुराग्रह और आगमविरुद्धता के स्वर गूंजते नजर आते हैं।
बंधुवर! आपको कुछ वास्तविक तथ्यों से परिचित होनापरम आवश्यक है। हमने पिछले कई वर्ष और महीनों से जब-जब वैशाली से जुड़े विद्वानों से वार्तालाप किया तो उन लोगों से भी यही तथ्य सुना कि हम ‘‘महावीर को वैशाली के राजकुमार’’ के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं कर सकते हैं। उनका कहना है कि वैशाली बिल्कुल अलग स्थान है और वहां से ३ किमी. दूर मुजफ्फरपुर जिले के एक ग्राम को महावीर की जन्मभूमि बनाया गया है जिसे वासोकुण्ड या कुण्डग्राम के नाम से जाना जा रहा है। पहली बात तो इसमें चिन्तन करने की यह है कि सदियों की परम्परानुसार जब ‘‘कुण्डलपुर’’ नालंदा-बिहार महावीर जन्मभूमि के रूप में जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र था तो दूसरे स्थान को ढूंढने की आवश्यकता क्यों पड़ी? उस पवित्र स्थल के प्रति शंका के चिन्ह क्यों उभरे? क्या उससे पहले सन् १९५६ के दशक से पूर्व के लोग पूर्ण अज्ञानी थे, उन्हें आगम का ज्ञान नहीं था? दूसरी बात यह है कि जब वैशाली ढूंढी गई तो उसे महावीर की जन्मभूमि क्यों कहा गया? जबकि महावीर के साथ ‘‘कुण्डलपुर अवतारी’’ विशेषण जुड़ा रहा है और वैशाली माता त्रिशला की जन्मभूमि के रूप में पहचानी जाती रही है। इस स्थिति में यदि शोधकर्ताओं के अनुसार नाम देना ही था तो खुले रूप में उसका नाम मात्र ‘‘कुण्डलपुर’’ रखा जाता और वैशाली किसी दूसरे प्रदेश में बसाई जाती तब तो शायद कुछ श्रद्धा भी वहाँ के लिए उमड़ती। आप स्वयं सोचे कि सिंधुदेश और विदेहदेश क्या मात्र दो-तीन किलोमीटर के अंतराल पर रह सकते हैं? वह तो वास्तविक जन्मभूमि कुण्डलपुर से लगभग १५० किमी. दूर महावीर की ननिहाल के रूप में फिर भी स्वीकार किया जा सकता है वह भी उसी प्रकार से जैसे वर्तमान में भारत के अंदर ऋषभदेव भगवान की निर्वाणभूमि वैलाशपर्वत उपलब्ध न होने से बद्रीनाथ के पर्वत पर एक संस्थाविशेष द्वारा ‘‘अष्टापद’’ नाम से एक नया तीर्थ पिछले कुछ वर्षों पूर्व से बना दिया है जहां श्रद्धालु यथाशक्ति दर्शन करने पहुँचते हैं। वैशाली में राजा चेटक के दस पुत्रों का आधिपत्य था, न कि राजा सिद्धार्थ या युवराज महावीर का। इस बात की पुष्टि प्राकृतविद्या अक्टूबर-दिसम्बर २००१ के पृष्ठ ३० पर प्रकाशित स्व. पं. बलभद्र जैन के लेख ‘‘भगवान महावीर’’ से भी हो रही है। प्रस्तुत लेख में लेखक ने एक ओर प्रारंभ का शीर्षक ही दिया है-‘‘महावीर की जन्मनगरी वैशाली’’। इसके अंदर सभी बौद्ध एवं श्वेताम्बर तथ्यों के आधार पर उन्होंने वैशाली में महावीर का जन्म घोषित किया है पुनः आगे चलकर उसी लेख में पृ. ३४ पर महासती चंदना द्वारा कौशाम्बी में भगवान महावीर को आहार देकर अपनी बहन मृगावती से मिलन के पश्चात् माता-पिता तक पहुँचने का वर्णन करते हुए लेखक ने दिगम्बर जैन ग्रंथों का अनुसरण करते हुए लिखा है- ‘‘वहां से उसका भाई सिंहभद्र वैशाली ले गया किन्तु चंदना कोइस अल्पवय में ही संसार का कटु अनुभव हुआ था जिसके कारण उसे संसार से निर्वेद हो गया-अपनी योग्यता के बल पर ३६००० आर्यिकाओं के संघ की गणिनीपद पर प्रतिष्ठित हुर्इं।’’ इस सत्यता को ही स्वीकार कर लेने से महावीर की जन्मभूमि वैशाली भला कैसे हो सकती है? जिस वैशाली में त्रिशला, चंदना आदि सातों बहनों के और सिंहभद्र आदि दस भाइयों के जन्म हुए उसी वैशाली में अर्थात् ननिहाल में महावीर का जन्म होना कदापि संभव नहीं है क्योंकि माता त्रिशला ने अपनी ससुराल कुण्डलपुर के नंद्यावर्त महल में ही तीर्थंकर बालक को जन्म दिया था और वहीं उनके आंगन में पन्द्रह महीने तक रत्नवृष्टि हुई थी। जन्म के पश्चात् महावीर अपने ननिहाल कईबार गए हों, उनका समवसरण वैशाली में जाता रहा हो, इसमें कोई विसंवाद की बात ही नहीं है। भारत में आए विदेशी यात्रियों के अनुसार बौद्धग्रंथ पोषित परम्परानुसार वैशाली में हजारों-हजार सोने, चांदी, तांबे के गुम्बद वाले महलों का वर्णन आप यदि सहज में स्वीकार कर सकते हैं तो आपको अपने प्राचीन आगम ग्रन्थानुसार महावीर की असली जन्मभूमि कुण्डलपुर का देवोपुनीत वैभव भी अवश्य जानकर गौरव का अनुभव करना चाहिए। उत्तरपुराणग्रंथ में स्पष्ट वर्णन आया है कि-
नंद्यावर्तगृहे रत्नदीपिकाभि: प्रकाशिते। रत्नपर्यंकके हंसतूलिकादिविभूषिते।।२५४।।पृ. ४६०
अर्थ-सात खंड वाले राजमहल के भीतर रत्नमय दीपकों से प्रकाशित नंद्यावर्त नामक राजभवन में हंस-तूलिका आदि से सुशोभित रत्ननिर्मित पलंग पर रानी त्रिशला सो रही थीं। अर्थात् तीर्थंंकर भगवान महावीर की माता का तो शयन करने वाला पलंग ही स्वर्ण और रत्ननिर्मित था। रात-दिन स्वर्ग की देवियाँ उनकी सेवा करती थीं, साक्षात् इन्द्र और देवगण भगवान के समक्ष विंâकर बने खड़े रहते थे, शचि इन्द्राणी स्वयं गुप्तवेश बनाकर माता की सेवाऔर रक्षा में संलग्न रहती थी तथा जिस नगरी में लगातार १५ महीने तक प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की मोटी धारा स्वयं धनकुबेर आकर बरसाता था उस कुण्डलपुर नगरी की समृद्धता तो शब्दों में वर्णित भी नहीं की जा सकती है। आज छब्बिस सौ वर्षों के बाद न तो कुण्डलपुर में वह वैभव दिखता है और न ही आज की स्थापित वैशाली-बसाढ़ में कुछ अवशेष दिखते हैं अत: वैशाली तो अब केवल खोज का विषय है और कुण्डलपुर अपने सौभाग्य को पुनः प्राप्त करने की इंतजार कर रहा है। क्या पावापुरी अब मध्यमापावा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है? पाठकों! जन्मभूमि वैशाली को मान्यता देने वाले विद्वान् महावीर की निर्वाणभूमि को अब तक तो मज्झिमा पावा-फाजिलनगर, गोरखपुर, उ.प्र. के निकट पावाग्राम को मानते आए हैं। प्राकृतविद्या के पिछले अंकों में महावीर निर्वाणभूमि के नाम को ‘‘मध्यमा पावा’’ के रूप में ही लिखा जाता था किन्तु आश्चर्य हुआ अक्टूबर-दिसम्बर २००१ अंक के पं. बलभद्र जी के ही लेख में पृ. ३७ पर स्पष्ट लिखा है- ‘‘भगवान महावीर ७२ वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के प्रातःकाल ‘‘मज्झिमा पावा’’ में वर्तमान पावापुरी में कर्मों का नाश करके मुक्त हो गए।’’ आखिर वास्तविकता पर तो कभी न कभी सबको आनाही पड़ता है। कुछ लोग अपनी बुद्धि-वैशिष्ट्य का परिचय देने हेतु भूगोल की दलील देने लगते हैं कि मगधदेश में राजगृही नगरी थी तो उसी के इतने नजदीक १८ किमी. दूर पर ही विदेहदेश की कुण्डलपुर नगरी कैसे आ गई? इस विषय में सबसे पहला ही प्रश्न तो आधुनिक स्थापित वैशाली के प्रति ही उठ जाता है कि सिंधु देश की वैशाली नगरी के अंदर मात्र २ किमी. दूर विदेहदेश का कुण्डग्राम आपने कैसे बना लिया? यदि २ किमी. के अंतराल में दो बड़े राजाओं के देश कलियुगी मानव स्थापित कर सकता है तो सतयुग में मगध और विदेह थोड़ा पास-पास रहे हों इसमें कौन सी भौगोलिक परिस्थिति बिगड़ गई? खैर! आधुनिक बुद्धि ने तो आजकल आगमपरम्परा, तीर्थ, पूजनपद्धति आदि में परिवर्तन करते-करते अब सिद्धशिला को ही पलटकर औंधी कर दी है जबकि आगम में अर्धचन्द्र या उत्तान कटोरे के समान सिद्धशिला का आकार माना गया है अतः अपनी-अपनी श्रद्धा ही इसमें प्रधान मानकर एक-दूसरे का विरोध करने की बजाए प्राचीन आचार्य प्रणीत आगम ग्रंथों का ही सहारा लेना चाहिए। यह मगध देश के निकट कुण्डपुर नगरी का अस्तित्व भी आप उत्तरपुराण के निम्न प्रमाण से देखें-
दरनिद्रावलोकिष्ट, विशिष्टफलदायिनः। स्वप्नान् षोडशविच्छिन्नान् प्रियास्य प्रियकारिणी।।२५६।।
तदन्ते पश्यदन्यञ्च, गजं वक्त्रप्रवेशिनम् । प्रभातपटहध्वानै: पठितैर्वन्दिमागधै:।।२५७।।पृ.४६०
अर्थात् रात्रि के चतुर्थ प्रहर में त्रिशला ने कुछ खुली सी नींद में सोलह स्वप्न देखे। सोलह स्वप्नों के बाद उसने मुख में प्रवेश करता हुआ एक अन्य हाथी देखा तदनन्तर सबेरे के समय बजने वाले नगाड़ों की आवाज से तथा चारण-बन्दीजनों और मागधजनों के द्वारा पढ़े हुए मंगल पाठों से वह जाग उठी। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट हो रहा है कि कुण्डलपुर के निकट ही मगधदेश था और वहां के मागधीजन भी कुण्डलपुर में रहा करते थे। जैसे-आज भी हमारे भारतदेश में अनेक देशों के लोग भी निवास करते हैं और तमाम देशों का पारस्परिक व्यवहार, व्यापार आदि भी सदैव से ही चलते रहे हैं। शायद उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए आज भी कुण्डलपुर के आसपास के तमाम आदिवासी नागरिक अपने को मगैया कहते हैं। और कुण्डलपुर के महावीरप्रभु को अपना परम आराध्य मानते हैं। अंत में आप सब श्रद्धालु भक्तों को यही प्रेरणा लेना है कि बसाढ़ग्राम में बसाई गई वैशाली को २६०० वर्ष पुरानी वैशाली न मानकर उसे दिल्ली की एक कॉलोनी की भाँति ही समझें और असली वैशाली के खोज का साधन बनाएं एवं महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के प्रति अपनी श्रद्धा को कदापि विचलित न होने दें।