यदि कोई ऐसा माने कि जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट होने से द्रव्यागम प्रमाण होओ किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुष- परम्परा से आया हुआ है। अर्थात् भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम जिन आचार्यों के द्वारा हम तक लाया गया है, वे प्रमाण नहीं थे। अतएव वर्तमानकालीन द्रव्यागम अप्रमाण है, सो उसका ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भय से रहित आचार्यपरम्परा से आया हुआ है इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं- जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले, देवों से अनन्तगुणा बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमृतरूप से परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से अशेष पुद्गलद्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने चार कषायोें का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया हैं, जिन्होंने मन, वचन और कायरूप तीन दंडों को भग्न कर दिया है, जो छह कायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो आठ प्रवचन मातृकगणों का अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है, ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्मुहूर्त में द्वादशाङ्ग के अर्थ का अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवली हुए। तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन जम्बूस्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियों को द्वादशांग का व्याख्यान करके केवली हुए। वे जम्बूस्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवलि-विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। ये जम्बूस्वामी इस भरतक्षेत्र संबंधी अवसर्पिणी काल में पुरुषपरम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं।
इन जम्बूस्वामी के मोक्ष चले जाने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता और जिन्होंने चारों कषायों को उपशमित कर दिया था ऐसे विष्णु आचार्य, नन्दिमित्र आचार्य को द्वादशांग समर्पित करके अर्थात् उनके लिए द्वादशाङ्ग का व्याख्यान करके देवलोक को प्राप्त हुए। पुन: इसी क्रम से पूर्वोक्त दो और अपराजित गोवद्र्धन तथा भद्रबाहु इस प्रकार ये पाँच आचार्य पुरुष परम्पराक्रम से सकल सिद्धान्त के ज्ञाता हुए। इन पाँचों ही श्रुतकेवलियों का काल सौ वर्ष होता है। तदनन्तर भद्रबाहु भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद हो गया।
किन्तु इतना विशेष है कि उसी समय विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्व आदि दशपूर्वों के तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। पुन: अविच्छिन्न संतानरूप से प्रोष्ठिल्ल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वों के धारी हुए। उनका काल एक सौ तिरासी वर्ष होता है। धर्मसेन भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर भारत वर्ष में दस पूर्वों का विच्छेद हो गया। इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पांडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह अंगों के धारी और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। इनका काल दो सौ बीस वर्ष होता है। पुन: ग्यारह अंगों के धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर यहाँ भरतक्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंगों का धारी नहीं रहा।
इतनी विशेषता है कि उसी काल में पुरुषपरम्पराक्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेष अंग और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। आचारांग के धारण करने वाले इन आचार्यों का काल एक सौ अठारह वर्ष होता है। पुन: लोहाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर आचारांग का विच्छेद हो गया। इन समस्त कालों का जोड़ ६२±१००±१८३±२२०±११८·६८३ तेरासी अधिक छह सौ वर्ष होता है।
विशेषार्थ-तीन केवलियों के नामों में से धवला में सुधर्माचार्य के स्थान में लोहार्य नाम आया है। लोहार्य सुधर्माचार्य का ही दूसरा नाम है। जैसा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की ‘तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण’ इस गाथांश से प्रकट होता है तथा दस पूर्वधारियों के नामों में जयसेन के स्थान में जयाचार्य, नागसेन के स्थान में नागाचार्य और सिद्धार्थ के स्थान में सिद्धार्थदेव नाम धवला में आया है। इन नामों मेें विशेष अन्तर नहीं है। मालूम होता है कि प्रारंभ के दो नाम जयधवला में पूरे लिखे गये हैं और अंतिम नाम धवला में पूरा लिखा गया है तथा ग्यारह अंग के नामधारियों में जसपाल के स्थान में धवला में जयपाल नाम आया है। बहुत संभव है कि लिपिदोष से ऐसा हो गया हो या ये दोनों ही नाम एक आचार्य के रहे हों। इसी प्रकार आचारांगधारी आचार्यों के नामों में जहबाहू के स्थान में धवला में जसबाहू नाम पाया जाता है। इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में इसी स्थान में जयबाहू यह नाम पाया जाता है इसलिए यह कहना बहुत कठिन है कि ठीक नाम कौन सा है। लिपिदोष से भी इस प्रकार की गड़बड़ी हो जाना बहुत कुछ संभव है। जो भी हो। यहाँ एक ही आचार्य की दोनों कृति होने से पाठ भेद का दिखाना मुख्य प्रयोजन है। वद्र्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण चले जाने के पश्चात् इतने अर्थात् ६८३ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर इस भरतक्षेत्र में सब आचार्य सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए।
उसके पश्चात् अंग और पूर्वों का एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुन: ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तुसंबंधी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासमुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने, जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था सोलह हजार पदप्रमाण इस पेज्जदोसपाहुड़ का ग्रंथ विच्छेद के भय से, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया।
विशेषार्थ- ऊपर जो पेज्जपाहुड सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है वह ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के मूल पेज्जपाहुड का प्रमाण समझना चाहिए। यहाँ पद से मध्यमपद लेना चाहिए, क्योंकि द्वादशांग की गणना मध्यमपदों के द्वारा ही की गई है। पुन: वे ही सूत्र गाथाएँ आचार्य परम्परा से आती हुर्इं आर्यमंक्षु और नागहस्ती आचार्य को प्राप्त हुर्इं। पुन: उन दोनों ही आचार्यों के पादमूल में गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुर्इं उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की।
इस प्रकार जिसलिए ये सर्व ही आचार्य चारों कषायों को जीत चुके हैं, पाँचों इन्द्रियों के प्रसार को नष्ट कर चुके हैं, चारों संज्ञारूपी सेना को चूरित कर चुके हैं, ऋद्धिगारव, रसगारव और सादगारव से रहित हैं, शरीर से अतिरिक्त बाकी के समस्त परिग्रहरूपी कलंक से मुक्त हैं, एक आसन से ही सकल ग्रंथों के अर्थ को अवधारण करने में समर्थ हैं और असत्य के कारणों के नहीं रहने से मोहरहित वचन बोलते हैं इस कारण ये सब आचार्य प्रमाण हैं। ‘‘वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता होती है।।३२।।’’ ऐसा न्याय होने से इन आचार्यों का व्याख्यान और उनके द्वारा उपसंहार किया गया ग्रंथ प्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रामाणिक पुरुषपरम्पराक्रम से आया हुआ वचनसमुदाय अप्रमाण नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा।