यह हमारे भारत का गौरव ही है कि इस देश में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यंत २४ तीर्थंकर भगवन्तों ने जन्म लेकर इसे सनाथ किया है। भगवान महावीर को जन्म लेकर २५९९ वर्ष व्यतीत हो गए और ६ अप्रैल २००१, चैत्र शुक्ला तेरस को उनका २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाने हेतु अनेक राष्ट्रीय, केन्द्रीय, सामाजिक स्तर की कमेटियाँ बनाई गई थीं, जिनमें से भगवान महावीर २६००वाँ जन्मोत्सव दिगम्बर जैन राष्ट्रीय समिति के महामंत्री श्री डी.के. जैन एडवोकेट – दिल्ली को पूज्य माताजी ने १३-३-२००१ को दीक्षास्थली तीर्थ से एक प्रेरणापत्र के साथ निम्न प्रारूप भिजवाया-
भगवान महावीर २६००वाँ जन्मजयंती का प्रस्तावित प्रारूप-जैसा कि सन् १९७४ में भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर जैनधर्म की व्यापक प्रभावना का सुअवसर देश को प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार पुन: उन्हीं भगवान महावीर स्वामी का २६००वाँ जन्मकल्याणक मनाने का स्वर्णिम अवसर हम सभी को प्राप्त हुआ। यह निश्चित है कि आगे निकट भविष्य में हमारे और आपके जीवनकाल में उक्त प्रकार के शताब्दी या सहस्राब्दी महोत्सव मनाने का पुण्य अवसर नहीं आएगा कि जिसके माध्यम से हम तीर्थंकरों के नाम और सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार विश्व स्तर पर कर सके अत: इस स्वर्णिम अवसर में एक वर्ष तक भगवान महावीर का विविध आयामों के साथ गुणगान करने के लिए कुछ प्रेरणाबिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं-
प्रेरणास्पद संकेत बिन्दु
१.अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती महोत्सव वर्ष में महावीर के साथ-साथ प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का नाम, परिचय एवं उनके द्वारा मानवीय संस्कृति के प्रति किए गए उपकारों का वर्णन समस्त साहित्य के साथ अवश्य प्रकाशित किया जावे।
२.इस वर्ष के अन्तर्गत चौबीसों तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का विकास केन्द्रीय दिगम्बर जैन समिति द्वारा करने का पूरा प्रावधान बने। उन जन्मभूमियों पर एक-एक कीर्तिस्तंभ बनाए जाएँ तथा वहाँ पर जन्मे भगवान के जीवन परिचय को शिलालेख पर उत्कीर्ण कराया जाए।
३.इन कार्यों में केन्द्रीय समिति द्वारा आर्थिक सहयोग का बजट अवश्य बनाएं अन्यथा उपेक्षित पड़ी तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास आर्थिक समस्या के कारण रुक जाता है।
४. सभी तीर्थंकरों की जन्मभूमि या अन्य कल्याणक की भूमि वाले तीर्थों पर उन-उन भगवन्तों की एक-एक बड़ी प्रतिमा विराजमान की जावें, ताकि उन तीर्थों का माहात्म्य वृद्धिंगत हो सके। इधर-उधर अन्य नये तीर्थों को बनाने की बजाय कल्याणक भूमियों का उद्धार एवं विकास करना चाहिए क्योंकि इसके बिना हमारी प्राचीन संस्कृति विलुप्त हो रही है। जैसे-पूज्य माताजी ने करोड़ों वर्ष प्राचीन किन्तु विलुप्त हो चुकी भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक भूमि प्रयाग में ऋषभदेव दीक्षास्थली का निर्माण करवाकर जनमानस को पौराणिक इतिहास से परिचित करवाया है। खैर! प्रयाग में तो तीर्थ के नाम पर कोई स्थान ही नहीं था, न ही तीर्थक्षेत्र कमेटी की लिस्ट में प्रयाग तीर्थक्षेत्र का अस्तित्व था, यहाँ तो त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर द्वारा सारा कार्य नये सिरे से हाइवे पर जमीन खरीदकर किया गया है किन्तु अन्य तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों पर तीर्थ के नाम से स्थान तो हैं ही, बस उन्हें विकसित करके प्रचार में लाने की आवश्यकता है। प्रसंगानुसार मैं यहाँ तीर्थंकरों की सभी जन्मभूमियों के नाम दे रही हूँ, जिनके दर्शन कर आप सभी को वहाँ दिखने वाली कमियों को दूर करने हेतु समाज का ध्यान केन्द्रित करना है- तीर्थंकर का नाम जन्मभूमि १. पाँच तीर्थंकर-ऋषभ, अजित, अभिनंदन, अयोध्या सुमति, अनन्तनाथ २. संभवनाथ श्रावस्ती ३. पद्मप्रभनाथ कौशाम्बी ४. सुपाश्र्वनाथ, पाश्र्वनाथ वाराणसी ५. चन्द्रप्रभु चन्द्रपुरी ६. पुष्पदंतनाथ काकन्दी ७. शीतलनाथ भद्दिलपुर ८. श्रेयांसनाथ सिंहपुरी (सारनाथ) ९. वासुपूज्य चंपापुरी १०. विमलनाथ कंपिलापुरी ११. धर्मनाथ रतनपुरी १२. शांति, कुंथु, अरनाथ हस्तिनापुरी १३. मल्लिनाथ, नमिनाथ मिथिलापुरी १४. मुनिसुव्रतनाथ राजगृही १५. नेमिनाथ शौरीपुर १६. महावीर स्वामी कुण्डलपुर
५. वर्तमान में देश के अन्दर लगभग २३० विश्वविद्यालय हैं, उनमें भगवान महावीर के नाम से एक संगोष्ठी कराई जावे।
६. सभी विश्वविद्यालयों में भगवान महावीर, ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकरों से संबंधित दिगम्बर जैन साहित्य नि:शुल्क प्रदान किया जाए, जिससे वहाँ एक जैन लाइब्रेरी बन जावे।
७.महावीर जन्मजयंती के इस पावन प्रसंग पर समस्त दिगम्बर जैनाचार्य आदि चतुर्विध संघों की एक समन्वय समिति बनाई जाय तथा कुछ स्थानों पर चतुर्विध संघ सम्मेलन भी आयोजित किए जावें, इससे समाज में पुनर्संगठन का रूप बनेगा।
८.दिगम्बर जैन आम्नाय की साध्वियों की एक ‘‘साध्वी परिषद’’ बनाई जावे, जो नारी शक्ति की प्रतीक होगी।
९.जन्ममहोत्सव वर्ष के समापन अवसर पर सन् २००२ में विश्व स्तर पर एक ‘‘भगवान महावीर विश्वशांति शिखर सम्मेलन’’ कराया जावे। यह विशाल कार्य सरकारी समिति के सहयोग से ही पूर्ण संभव हो सकता है अत: इस विषय में सरकार के समक्ष प्रारूप बनाकर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव हेतु गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के लिए प्रेरणा संदेश- मार्च १९९८ में विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र ‘‘भारतदेश’’ की बागडोर प्रधानमंत्री के रूप में संभालने के पश्चात् महान सौभाग्य से आपने मेरे ससंघ सानिध्य में महावीर जयंती ९ अप्रैल १९९८ को दिल्ली के तालकटोरा इन्डोर स्टेडियम से महावीर के पूर्वज प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण रथ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन किया था। उस रथ के माध्यम से तीर्थंकर परम्परा के महान सिद्धान्तों को जन-जन में संकल्पित करने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। इसी शृंखला में ४ फरवरी २००० को आपने दिल्ली के लाल किला मैदान में मेरी प्रेरणा एवं उपस्थिति में तत्कालीन केद्रीय वित्तराज्यमंत्री श्री वी.धनंजय कुमार जैन की अध्यक्षता में ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ का उद्घाटन किया था। यह महोत्सव वर्ष भी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भगवान ऋषभदेव की सर्वोदयी शिक्षाओं-विश्वमैत्री, पारस्परिक सौहार्द, अहिंसा, अनेकान्तवाद, पर्यावरण शुद्धि इत्यादि को विविध आयोजनों के साथ विश्वभर में फैलाने में पूर्ण सफल हुआ। इसी निर्वाण महामहोत्सव वर्ष का भव्य समापन महाकुंभ मेले की विश्व प्रसिद्ध भूमि प्रयाग तीर्थ पर ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’’ प्रयाग दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र के निर्माण के साथ किया गया जिसका उद्घाटन एवं लोकार्पण ४ फरवरी २००१ को आप ही के मंत्रीमण्डल के केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री मुरली मनोहर जोशी के करकमलों से सम्पन्न हुआ। इस तीर्थ की यही विशेषता है कि युगों-युगों तक तीर्थंकरों की वाणी को प्रचारित करने वाला यह स्थायी केन्द्र संसार को प्राप्त हुआ है। अब यह बड़े सौभाग्य का विषय है कि जिन तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रचार-प्रसार का आपने इस प्रकार प्रद्योतन किया, उन्हीं की तीर्थंकर परम्परा के अंतिम एवं चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के २६००वें जन्मजयंती महोत्सव का शुभारंभ आप ६ अप्रैल २००१ को राजधानी दिल्ली में कर रहे हैं। वास्तविकता तो यही है कि इन तीर्थंकर भगवन्तों के सिद्धान्त ही आज विश्व के लिए सर्वाधिक आवश्यक हैं और इन सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार में सहभागी बनना महान पुण्य का विषय है। मेरा आपके लिए यही मंगल प्रेरणा संदेश एवं आशीर्वाद है कि अहिंसा के युगपुरुष भगवान महावीर के सिद्धान्तों एवं जनकल्याणी वाणी का आप एवं आपकी सरकार खूब प्रचार-प्रसार करें तथा इन्हीं सिद्धान्तों की छत्रछाया में आपका धर्ममयी शासन सुरक्षित रहते हुए समस्त देश एवं विदेश में शांतिकारी, सुभिक्षकारी एवं कल्याणकारी सिद्ध हो, यही मेरी हार्दिक भावना है।
पूज्य माताजी का राष्ट्र के नाम मंगल संदेश- प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की तीर्थंकर परम्परा में अंतिम एवं चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का २६००वाँ जन्मजयंती महोत्सव वर्ष ‘अहिंसा-वर्ष’ के रूप में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से मनाया जा रहा है, यह अत्यन्त हर्ष एवं गौरव का विषय है। आज के युग को चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों एवं उनके पदचिन्हों पर चलने वाले महापुरुषों के सर्वोपयोगी सिद्धान्तों जैसे-पारस्परिक सामंजस्य, विश्वमैत्री, अहिंसा, अनेकांत, पर्यावरण रक्षा इत्यादि को व्यवहारिक रूप से आत्मसात् करने की महती आवश्यकता है क्योंकि इन्हीं प्रकाश बिन्दुओं के माध्यम से वर्तमान एवं भविष्य में मानव जीवन एवं अस्तित्व का पथ आलोकित हो सकता है। भगवान महावीर स्वामी अहिंसा के अग्रदूत युगपुरुष थे। जिस समय धरती पर हिंसा की भीषण ज्वाला धधक रही थी, ऐसे समय में अहिंसारूप शीतल जलवृष्टि करके महावीर ने सम्पूर्ण मानवता को अत्यन्त सौम्यकारी धर्म का दिव्य मलहम प्रदान किया था। ‘‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’’ अर्थात् ‘‘जो स्वयं को प्रतिकूल हो, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें’’ जैसा करुणामयी सिद्धान्त विश्व को देकर उन्होंने सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर सभी के साथ मैत्री का व्यवहार करने का अमर संदेश प्रदान किया था। हम सबको भी परस्पर मैत्रीभाव धारण करते हुए विगत में घटित सभी विघटनकारी संदर्भों से मुख मोड़कर पूर्ण संगठित होकर स्व-पर कल्याण का महान लक्ष्य पूरित करते हुए अपने सद्भावपूर्ण आचरण से संसार को एक बार पुन: भगवान महावीर का स्मरण दिला देना है, उस युग को पुनर्जीवित कर देना है। अभी इससे पूर्व में आप सबने भगवान महावीर के पूर्वज भगवान ऋषभदेव का जो अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष मनाया, उसी शृंखला में एवं परम्परा में भगवान महावीर का यह महोत्सव भी समस्त विश्व एवं मानवता के लिए पूर्ण कल्याणकारी, मंगलकारी एवं सुभिक्षकारी हो, यही मेरी हार्दिक भावना है।
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, विद्वानों, युवाओं एवं महिलाओं के लिए वार्षिक कार्यकलाप हेतु प्रेरणा बिन्दु- भारतीय समाज की आधारशिला के रूप में शिक्षा जगत् के कीर्तिमान स्वरूप विद्वज्जन, भावी पीढ़ी के उन्नायक युवावर्ग, पातिव्रत्य संस्कृति की जीवन्त प्रतीक नारीसमाज एवं कलिकाल में धर्मधुरा की संवाहक बालपीढ़ी को भगवान महावीर के २६००वें जन्मोत्सव वर्ष के संदर्भ में अपनी सक्रिय भूमिका निर्वाह करने हेतु मैं उक्त संस्थाओं के माध्यम से आह्वान करती हूँ कि जीवन में प्राप्त हुए इन स्वर्णिम क्षणों के एक-एक पल का मूल्यांकन करें तथा अपने सुन्दर कार्यकलापों से जिनशासन को विश्व के क्षितिज पर पहुँचाकर धर्मप्रभावना का पुण्य प्राप्त करें। धर्मप्रभावना की श्रृंखला में निम्न संकेत बिन्दु प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिन्हें आप स्थानीय समाज, जिला स्तर, प्रदेश स्तर तथा राष्ट्रीय स्तर पर सम्पन्न करके अपना उत्तरदायित्व निभा सकते हैं-
सांकेतिक प्रेरणा बिन्दु
१. पूरे देश के दिगम्बर जैन मंदिरों में २६०० प्रतिमाएँ (ऋषभदेव एवं महावीर की युगल प्रतिमा) विराजमान करना।
२. २६ तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं विकास करके वहाँ कीर्तिस्तंभ, स्मारक आदि बनावें।
३. २६०० मंत्रों से समन्वित विश्वशांति महावीर विधान २६ स्थानों पर २६०० इन्द्र-इन्द्राणियों द्वारा सम्पन्न हो।
४. २६०० महिलाओं द्वारा कलश यात्रा हो।
५. २६०० महाकुंभों द्वारा भगवान महावीर का पाण्डुकशिला पर अभिषेक किया जावे।
६. २६-२६ विद्वानों का प्रत्येक प्रांत में सम्मान होवे।
७. २६-२६ प्रतिभाशाली महिलाओं का प्रत्येक प्रांत में सम्मान होवे।
८. २६-२६ विशिष्ट कार्यकर्ता युवकों का प्रत्येक प्रांत में सम्मान किया जावे।
९. २६-२६ कुमारी कन्याओं (विशेष कार्य करने वाली) का प्रत्येक प्रांत में सम्मान हो।
१०. २६-२६ बहादुर बच्चों का प्रत्येक प्रांत में सम्मान हो।
११. महिला संगठन की समस्त इकाईयाँ स्थानीय समाज की २६ विशिष्ट महिलाओं को ‘‘माता त्रिशला’’ पुरस्कार से सम्मानित करें।
१२. अ.भा.दि. जैन केन्द्रीय महिला संगठन २६०० गरीब बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करें।
१३. प्रत्येक संस्था २६-२६ महावीर संगोष्ठियाँ कराने की जिम्मेदारी लेवे।
१४. २६ प्रशिक्षण शिविर (दशलक्षण पर्व के प्रवचन में जाने हेतु विद्वान बनाने के लिए) आयोजित हों।
१५. २४ तीर्थंकरों की जन्मभूमि एवं कल्याणक भूमियों का जीर्णोद्धार तथा विकास हो। उनमें से एक-एक संस्था एक तीर्थ के विकास की जिम्मेदारी ले सकती है।
१६. २६ विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में दिगम्बर जैन ग्रंथों सहित एक-एक गोदरेज अलमारी भेंट की जाये।
१७. २६-२६ दानी श्रेष्ठियों का सम्मान प्रत्येक प्रान्त में किया जाए।
१८. २६-२६ कीर्तिस्तंभ प्रत्येक प्रांत में निर्मित हों (कीर्तिस्तंभ का नक्शा एवं मॉडल जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में उपलब्ध है, उसी का नमूना एक कीर्तिस्तंभ तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ पर निर्मित हो चुका है)।
१९. २६ राजकीय उद्यान (देश भर में) महावीर के नाम पर किए जाएं तथा उनमें भगवान महावीर का स्टेचू बने।
२०. प्रत्येक शहर, ग्राम और नगर में २६००-२६०० लोगों से अष्टमूलगुण पालन का फार्म भरवाना।
२१. २६०० नगरों में मांस की दुकानें बंद करने का अभियान चलाना।
२२. मांस निर्यात के विरोध में प्रत्येक जिले से २६००-२६०० पत्र केन्द्र सरकार को भिजवाना।
नोट –पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ७ इंच की खड्गासन ऋषभदेव एवं महावीर स्वामी की प्रतिमाएँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित की हैं, सो इच्छुकजन जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में इन दोनों प्रतिमाओं का जोड़ा प्राप्त कर सकते हैं।
विश्वशांति महावीर विधान के साथ प्रारंभ हुआ प्रयाग में भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मजयंती महोत्सव- पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में १ अप्रैल से ९ अप्रैल २००१ तक आयोजित इस विधान के सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी बनने का गौरव श्री कृष्ण कुमार जैन एवं श्रीमती साधना जैन को प्राप्त हुआ। २६०० मंत्रों से समन्वित, सुमेरु पर्वत के आकर्षक मण्डल से युक्त और रत्नों द्वारा पूजा-जाप्य से स्वयं में अद्भुत इस मण्डल विधान में अनेक धर्मनिष्ठ श्रद्धालु भक्तों ने शांतिधारा, रत्नजाप्य, मण्डल विधान, आरती आदि का सौभाग्य प्राप्त किया।
प्रयागवासियों को जीवन में अमूल्य क्षण प्राप्त हुए-यह प्रयागवासियों का परम सौभाग्य ही था कि जिन पूज्यनीया ज्ञानमती माताजी का दिल्ली निवासी २६००वें जन्मजयंती महामहोत्सव हेतु पलक पांवड़े बिछाकर इंतजार कर रहे थे, उनके सानिध्य में उन्हें भगवान महावीर का महोत्सव मनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ चूँकि यह महोत्सव इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बनकर युगों-युगों के लिए चिरस्थायी स्मृति जन-जन को प्रदान करेगा। पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार प्रात: ५.३० बजे बैण्ड-बाजे के साथ शहर के मुख्य मार्गों से प्रभात भेरी निकली, पश्चात् माताजी की प्रेरणा से जन्मोत्सव की खुशी में नवनिर्मित ‘महावीर जयंती भवन’ में जनता द्वारा घंटा, बाजे, शंख, ढोलक आदि बजाकर भगवान के चरणों में दीपक, फल आदि समर्पित किए गए और इन्द्रों द्वारा की गई रत्नवृष्टि के प्रतीकरूप रत्नवृष्टि कर उन रत्नों को जनता में वितरित किया गया। जन्म महोत्सव का झण्डारोहण प्रात:७.१५ बजे स्वरूपरानी पार्क में हुआ, पश्चात् धर्मसभा हुई, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति श्री जी.वी. मेहता तथा कौशाम्बी के युवा जिलाधिकारी श्री पाश्र्वसारथी शर्मा जी व विशिष्ट अतिथि श्रीमती उषा मेहता जी पधारे। पूज्य माताजी ने इन अतिथियों एवं उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए उन्हें भगवान महावीर के जीवन से परिचित करवाया और कहा कि मैंने एकवर्षीय आयोजन के मध्य होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई है जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ‘‘जैन चेयर की स्थापना’’, २६ संगोष्ठी, २६ धीमान व्यक्तियों का सम्मान आदि प्रमुख हैं, जिनकी आगे मैं विस्तृत चर्चा करूँगी। साथ ही उन्होंने आज के पवित्र अवसर पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व अन्य शासकगणों को अपने हृदय में अहिंसा धारण कर अहिंसक राष्ट्र व विश्वशांति की स्थापना का आशीर्वाद दिया। प्रो. महोदय द्वारा सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका अप्रैल माह के महावीर जयंती अंक के विमोचन एवं सम्माननीय अतिथियों द्वारा समवसरण श्रीविहार रथ व जन्मकल्याणक प्रतीक ऐरावत हाथी रथ पर स्वस्तिक बनाकर भव्य एवं अद्भुत रथयात्रा जुलूस शहर के विभिन्न मार्गों से निकला, जिसमें बैण्ड, बाजे, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ, ऐरावत हाथी रथ, पारम्परिक रथ, २६ घोड़े, हाथी, इन्द्राणियों की मंगल कलश यात्रा, महावीर अहिंसा रैली रूप २६०० बच्चों का ध्वजा जुलूस जन-जन की प्रशंसा का केन्द्र बने। स्थान-स्थान पर प्रसाद वितरण व प्रतीक रूप में अनेक वस्तुएँ बाँटी गर्इं। जुलूस का समापन पाण्डुक शिला पर जन्माभिषेकपूर्वक हुआ और उसके बाद सामूहिक प्रीतिभोज हुआ। इस अवसर पर जैन समाज के सारे प्रतिष्ठान बंद रहे। रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम से पूर्व धर्मसभा में अनेक प्रशासनिक अधिकारी व मंत्रीगण पधारे, जिसमें लोक निर्माण विभाग एवं सिचाई मंत्री श्री ओमप्रकाश सिंह द्वारा पूज्य माताजी द्वारा रचित ‘‘भगवान महावीर कैसे बने?’’ कृति का विमोचन किया गया तथा भगवान को पालना झुलाने का कार्यक्रम हुआ।
तीर्थंकर शिशु का १००८ कलशों से जन्माभिषेक- ७ अप्रैल को प्रात: भगवान महावीर का १००८ कलशों से जन्माभिषेक हुआ। पूज्य माताजी ने आचार्य कुन्दकुन्द रचित निर्वाणभक्ति का प्रमाण दिखाकर बताया कि भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला १३ की रात्रि में हुआ था और चैत्र शु. १४ को प्रात: इन्द्रों ने जिनशिशु को ले जाकर सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक किया था। इसके बाद भगवान की बालक्रीड़ा का सुन्दर व मनमोहक कार्यक्रम हुआ।
सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक से उद्घाटित हुआ २६००वाँ महावीर महोत्सव- हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना के बीचों-बीच में विश्व की प्रथम कृति के रूप में निर्मित १०१ फुट ऊँचे सुमेरुपर्वत की पाण्डुक शिला पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से वहाँ के पदाधिकारियों एवं संघस्थ ब्र. बहनों द्वारा ६ अप्रैल को ही प्रात: ६ बजे महावीर स्वामी का जन्माभिषेक किया गया, उसके पश्चात् सर्वत्र २६००वें जन्मकल्याणक उत्सव को विभिन्न आयोजनों के साथ मनाना प्रारंभ हो गया।
संघ द्वारा पाँच स्थानों पर एक साथ महावीर जयंती सम्पन्न की गई- पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से संघस्थ भाई जी एवं बहनों द्वारा ५ स्थानों पर एक साथ महावीर जयंती मनाई गई। सर्वप्रथम हस्तिनापुर के सुमेरु पर्वत पर संघस्थ ब्र.कु. बीना-आस्था द्वारा जन्माभिषेक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ पुन: ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ पर ब्र. चन्द्रिका द्वारा जन्मकल्याणक के प्रतीकरूप महावीर स्वामी का १०८ कलशों से अभिषेक कराया गया। प्रयाग शहर में माताजी के संघ सानिध्य में कार्यक्रम हुआ, दिल्ली में राष्ट्रीय उद्घाटन कार्यक्रम में ब्र. रवीन्द्र जी व संघस्थ बहनों ने भाग लिया तथा लखनऊ की उद्घाटन सभा में भाई रवीन्द्र जी ने भाग लिया। वास्तव में पूज्य माताजी की तो सदैव यही उत्कट भावना रहती है कि मैं मात्र २-४ स्थान पर ही नहीं अपितु एक साथ सम्पूर्ण भारत में भव्य स्तर पर तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक तिथियों का उत्सव करवाऊँ, जिससे जिनधर्म की पताका चहुँओर फहराए और शायद यही कारण है कि ‘‘भावना भवनाशिनी होती है’’ यह सूक्ति चरितार्थ होकर उनके द्वारा आयोजित प्रत्येक लघु अथवा वृहद् कार्यक्रम महती धर्मप्रभावनापूर्वक सम्पन्न होते हैं।
विश्व में एक ही सुमेरु पर्वत है जो तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पावन एवं पूज्य है- जैन पुराणों में वर्णन आता है कि तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सुमेरु पर्वत सबसे अधिक महान एवं पूज्य है। वैसे तो यह १६ चैत्यालयों से युक्त होने से सर्वपूज्य है ही तथापि जब तीर्थंकर जन्म लेते हैं, तो सौधर्म इन्द्र सर्वप्रथम जिनबालक को सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर विराजमान करके उनका जन्माभिषेक करते हैं, जिससे इस मेरु पर्वत की पूज्यता अनन्तगुणा वृद्धिंगत हो जाती है। शास्त्रों में वर्णित वह सुमेरुपर्वत अनुपलब्ध नहीं प्रत्युत् अतिदुर्लभ है। आज भारत की धरती से २० करोड़ मील की दूरी पर स्थित होने के कारण साधारण मनुष्य उसके दर्शन-वंदन के सौभाग्य से वंचित रह जाते हैं, केवल ऋद्धिधारी मुनि ही उस सुमेरुपर्वत के दर्शन करके अपने पुण्य की सराहना करते हैं। वर्तमान में भले ही हम उस सुमेरु पर्वत तक नहीं पहुँच सकते किन्तु पूज्य माताजी की प्रेरणा से मेरठ जिले के हस्तिनापुर तीर्थ पर निर्मित १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत के दर्शन करके अपने कर्मबंधन को काट सकते हैं। जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है, ठीक उसी प्रकार भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन एवं पाण्डुकवनों में १६ चैत्यालयों से संयुत यह सुमेरु पर्वत भारत ही नहीं अपितु विश्व की एक अनुपम कृति है, जहाँ १३६ सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर पहुँचने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने असली सुमेरु पर्वत के ही दर्शन कर लिए हो। वास्तव में इससे अधिक हमारे लिए पुण्य की बात और क्या हो सकती है कि जिस कृति की हम और आप स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे, वह हमें इस धरती पर साक्षात् प्राप्त हो रही है। यहाँ इस सुमेरु पर्वत की महत्ता को बतलाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में जो भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मजयंती महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया है उसका सबसे पहला और सीधा संबंध सुमेरु पर्वत से है। भगवान महावीर स्वामी ने कुण्डलपुर नगरी (बिहार) में जन्म लिया था, तो सौधर्म इन्द्र ने सबसे पहले उनका १००८ कलशों से जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत पर ही किया था। इसी सुमेरु पर्वत के महत्त्व को आम जनता तक पहुँचाने के उद्देश्य से पूज्य माताजी की कृति ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ में इसी सुमेरु पर्वत के मण्डल का आकार है तथा २६०० अघ्र्यों के साथ मण्डल पर २६०० रत्न चढ़ाने की नई परम्परा भी इसमें दर्शाई गई है।
भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव का राष्ट्रीय स्तर पर भव्य उद्घाटन समारोह-विश्ववंद्य भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव को मनाने की शुभ घड़ियाँ असंख्य खुशियाँ लेकर हम सबके समक्ष आ गर्इं, जब जनता के साथ-साथ भारत सरकार ने भी महावीर जन्मोत्सव मनाने की घोषणा कर धरती को महावीर से परिचित होने का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर दिया। इस राष्ट्रीय महोत्सव का भव्य उद्घाटन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ६ अप्रैल २००१ को प्रात: १० बजे दिल्ली के इन्दिरागांधी (इंडोर) स्टेडियम में किया गया। इस पावन अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री जी के साथ गृहमंत्री-श्री लालकृष्ण आडवाणी, संचार मंत्री-श्री रामविलास पासवान एवं केन्द्रीय मंत्री-श्री सुन्दरलाल पटवा, केन्द्रीय वस्त्रराज्यमंत्री-श्री वी. धनंजय कुमार भी उपस्थित थे। उद्घाटन तो हो गया और सरकार ने इस महोत्सव हेतु १०० करोड़ रुपये का अनुदान घोषित करते हुए डाक टिकट भी जारी कर दिया परन्तु कुछ ऐसा अघटित कार्य उस सभा में हो गया, जो दिगम्बर जैन समाज के लिए एक कटु अनुभव प्रदान कर गया। पूज्य आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज दो मुनियों के साथ उस सभा में सानिध्य प्रदान करने गये थे किन्तु वे कारणवश स्टेडियम के बाहर से ही वापस आ गये। यहाँ इस प्रसंग में ज्ञातव्य है कि सन् १९७४ में भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव राष्ट्रव्यापी स्तर पर सरकार एवं समाज द्वारा मनाया गया था। वह पूरा दृश्य आज भी मेरी आँखों के समक्ष है, जब सन् १९७२ में ही दिल्ली के प्रमुख कार्यकर्ता श्री परसादी लाल जैन पाटनी, श्री पारसदास जैन मोटर वाले, डॉ.वैलाशचंद जैन राजा ट्वायज आदि अनेक महानुभावों ने ब्यावर (राज.) में जाकर पूज्य माताजी को निर्वाण महोत्सव की रूपरेखा बताकर दिल्ली पधारने हेतु निवेदन किया और उनके निवेदन को स्वीकार कर माताजी अपने संघ सहित राजस्थान से दिल्ली पधारीं। उस समय आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज चांदनी चौक,कम्मोजी की धर्मशाला में विराजमान थे और माताजी पहाड़ी धीरज-दिल्ली में चातुर्मास स्थापित करके आचार्यश्री के दर्शनार्थ आया करती थीं जिससे आचार्यश्री के मुख से कई बार महावीर निर्वाणोत्सव की व्यापक चर्चाएँ सुनी गर्इं। स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के मुनि श्री सुशील कुमार जी, आचार्य देशभूषण महाराज एवं साहू शान्तिप्रसाद जैन उस विषय की रूपरेखा तैयार करने में पूरे मनोयोग से लगे हुए थे पुन: सन् १९७३ में मुनि श्री विद्यानंद जी महाराज – दिल्ली पधारे, तब उपर्युक्त विचार-विमर्श में विद्यानंद महाराज एवं ज्ञानमती माताजी का पूरा सहयोग लिया जाता था। उस समय विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त सम्पूर्ण जैन समाज ने हर तरह से एकजुट होकर अपना संगठित रूप प्रस्तुत किया था,जिससे प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सरकारी स्तर पर कमेटी गठित कर कार्यक्रम की व्यापक रूपरेखा बनाई थी। इस संगठन का एक उदाहरण आचार्य श्री देशभूषण महाराज के मुख से सुना है- ‘‘सन् १९७२ में एक दिन संसद भवन में महावीर निर्वाण महोत्सव की बैठक थी। मुनि सुशील कुमार जी उसमें भाग लेने आए। मैं भी दिगम्बर समाज के लोगों द्वारा मना करने पर भी २ – ३ भक्तों को लेकर संसद भवन पहुँचा किन्तु वहाँ दिगम्बर साधुओं का प्रवेश निषिद्ध होने के कारण मुझे प्रधानमंत्री के सुरक्षाकर्मियों ने बाहर ही रोक दिया। मैं बिना एतराज के वहीं खड़ा रहा और अंदर मुनि सुशील कुमार जी को यह सूचना मिलते ही वे भी बाहर आ गए तथा इन्दिरा जी से उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि यदि हमारे आचार्य देशभूषण महाराज संसद की इस मीटिंग में नहीं आएंगे, तो मैं भी मीटिंग में भाग नहीं लूँगा और यह कार्यक्रम होना संभव नहीं है। मुनि जी की ऐसी एकता एवं मैत्री भावना देखकर इन्दिरा जी मुझे ससम्मान संसद भवन में ले गर्इं और निर्वाण महोत्सव संबंधी वह मीटिंग बड़े सुन्दर वातावरण में सम्पन्न हुई।’’ दिल्ली के इस धर्मप्रभावक वातावरण को देखकर तभी पूज्य माताजी ने अनेकानेक प्रेरणा भरे पत्र भेजकर आचार्यश्री धर्मसागर महाराज को भी संघ सहित दिल्ली पधारने का निवेदन किया था पुन: जुलाई १९७४ को आचार्य संघ का दिल्ली आगमन हुआ और नवम्बर १९७४ में भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव अनेक उपलब्धियों के साथ सम्पन्न हुआ था। यह बात मैंने यहाँ इसीलिए उल्लिखित की है कि उस समय से लेकर आज तक की स्थिति में देश की राजनीति के समान ही जैन समाज की अखण्डता में भी बिखराव आया है, इस कटुसत्य को हम सभी को स्वीकार करना पड़ेगा। सामाजिक संगठन में विश्वास रखने वाले उदारहृदयी जो साधु एवं श्रावक उस समय थे, आज उनमें से कुछ का साया हमारे ऊपर से उठ गया है और संकीर्ण विचारधारा के कुछ लोग अपना द्वेषजाल फैलाकर सरेआम सरकार के सामने भी अपनी अखण्डता में दरारें डालकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। यहाँ सोचने की बात यह है कि आचार्य देशभूषण महाराज संसद के अन्दर समाचार दिए बिना यदि बाहर से वापस चले गए होते, तो समस्या का समाधान कदापि नहीं होता।
जमीन आसमान का अन्तर था दोनों सार्वजनिक सभाओं में-१३ नवम्बर १९७४ में महावीर निर्वाणोत्सव की रामलीला मैदान दिल्ली की मुख्य सभा तथा ६ अप्रैल २००१ में महावीर जयंती महोत्सव की इन्दिरा गांधी स्टेडियम दिल्ली के उद्घाटन समारोह की सभा में जमीन-आसमान का अन्तर दिख रहा था, जिसका टी.वी. के आस्था चैनल पर प्रसारण देखकर दिगम्बर जैन समाज के बच्चे – बच्चे के मन को आघात पहुँचा। कहाँ सन् १९७४ में दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की अल्प संख्या होते हुए भी उस मंच पर ६२ साधु – साध्वी विराजमान थे और कहाँ अब लगभग एक हजार – साधु – साध्वियों के रहते हुए भी उनमें से ६ अप्रैल को स्टेडियम में मंच पर एक भी साधु-साध्वी, क्षुल्लक – क्षुल्लिका आदि में से कोई अस्तित्व नजर नहीं आया। दिगम्बर जैन समाज के पदाधिकारियों को दिल्ली एवं आस-पास उपस्थित मुनि – आर्यिकाओं, क्षुल्लक – क्षुल्लिका आदि को आमंत्रित करना चाहिए था। यदि पदाधिकारियों द्वारा उन्हें आमंत्रित किया गया था, तो उन सभी साधु – साध्वियों को कार्यक्रम में उपस्थित होना चाहिए था। आश्चर्य की बात यह रही कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भी पधारे साधु – साध्वी में से किसी ने प्रधानमंत्री एवं अन्य आगन्तुक शासनाधिकारियों को भगवान महावीर जन्मोत्सव को आयोजित करने हेतु एक भी वाक्य का आशीर्वाद नहीं बोला, जबकि इससे पूर्व ९ अप्रैल १९९८ एवं ४ फरवरी २००० को भगवान ऋषभदेव के कार्यक्रमों में पधारकर प्रधानमंत्री जी ने पूज्य माताजी के आशीर्वादात्मक प्रवचन को अपने वक्तव्य में देश रक्षा के लिए कवचरूप स्वीकार किया था।
नहीं लेखनी लिख सकती है ऐसी विषम परिस्थिति को- प्रयाग में विराजित पूज्य माताजी एवं हम लोगों को जब प्रयागवासियों ने टी.वी. के माध्यम से वह दृश्य दिखाया और उस दृश्य को प्रत्यक्षदर्शियों के मुख से सुना गया, तो जिस अन्तर्वेदना का अनुभव हुआ, उसे मैं अपनी लेखनी से लिख भी नहीं सकती। पूज्य माताजी के मुख से तो बार-बार यही शब्द निकला कि वे महामना आचार्य देशभूषण महाराज, आचार्य सुशील मुनि एवं साहू शान्तिप्रसाद जैन यदि आज जीवित होते, तो ऐसा दृश्य कदापि उपस्थित नहीं होता, किन्तु तत्त्वज्ञानी माताजी पुन: कहती हैं कि क्या जिस घर से बड़े-बूढ़े लोगों का साया उठ जाता है, उस घर में शादी, विवाह या अन्य बड़े-छोटे कार्य बंद हो जाते हैं? कभी नहीं, बल्कि घर की भावी पीढ़ी उससे भी अधिक धूमधाम से सभी व्यवहारिक कार्यों को सम्पन्न करती है, उसी प्रकार हमारी समाज के कर्णधारों को भी प्राचीन साधु-साध्वियों के अनुभव का लाभ उठाते हुए महावीर जन्मोत्सव को अतीव उत्साह के साथ मनाना चाहिए तथा सामाजिक विघटनकारी व्यक्तित्व से सदैव सावधान रहकर अपनी अस्मिता की रक्षा करनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में महावीर स्वामी २६००वाँ जन्मजयंती कार्यक्रम-उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में २६००वें जन्मजयंती महोत्सव पर लखनऊ के विभिन्न मार्गों से भगवान महावीर की निकलती हुई रथयात्रा हजरतगंज में एक सभा के रूप में परिवर्तित हो गई। मंच पर माननीय मुख्यमंत्री श्री राजनाथ सिंह, नगर आवासमंत्री श्री लालजी टंडन, नगर प्रमुख श्री एस.सी. राय, पूर्व राज्यमंत्री – श्री राजेन्द्र तिवारी, फल एवं उद्यान मंत्री-श्री धनराज यादव एवं सभा के प्रमुख वक्ता कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र जी उपस्थित थे। दीप प्रज्वलन एवं स्वागत सम्मान के पश्चात् श्री धर्मवीर जैन (रिटायर्ड इंजी.) ने स्वागत भाषण प्रस्तुत करते हुए शासन से सहयोग के मुद्दे पर प्रकाश डाला। पश्चात् कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी ने केन्द्रीय सरकार द्वारा आयोजित उद्घाटन सभा पर प्रकाश डालते हुए भगवान महावीर के जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला पुन: मंत्री महोदय से कहा कि लखनऊ के एक पार्वâ का नाम भगवान महावीर स्वामी के नाम से हो और उसमें भगवान महावीर की मूर्ति स्थापित करने की अनुमति जैन समाज को प्रदान करें। माननीय मुख्यमंत्री जी ने अपने भाषण में कहा कि सर्वप्रथम मैं आप सबको महावीर जयंती की बधाई देता हूँ और पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूँ कि आज भारत की संस्कृति की एकता एवं अखण्डता को कायम रखने में जैनधर्म का पूर्ण योगदान रहा है। मैं प्रधानमंत्री जी को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने प्रादेशिक स्तर पर भगवान महावीर महोत्सव समिति का गठन किया है और मैं इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया हूँ। मैं इस पावन दिवस पर लखनऊ के हाथी पार्क का नाम महावीर पार्क के नाम से घोषित करता हूँ एवं भगवान महावीर की मूर्ति स्थापित करने की अनुमति देता हूँ । इस अवसर पर मेरठ से पधारे श्री आनंद जैन-जैन मार्बल होम ने अपनी ओर से पार्क में मूर्ति स्थापना करने की घोषणा की।
अनेक गणमान्य महानुभावों द्वारा पूज्य माताजी से किया गया अतीव आग्रह- राजधानी दिल्ली में जन्मजयंती महोत्सव के उद्घाटन सत्र में घटित अप्रत्याशित घटना से सम्पूर्ण जैन समाज में छाई उदासीनता एवं कष्ट को देखते हुए साहू रमेश जी जैन आदि अनेकानेक गणमान्य महानुभावों के फोन ब्रह्मचारी रवीन्द्र जी के पास आने लगे और लोगों ने तो यहाँ तक कहना प्रारंभ कर दिया कि अगर माताजी दिल्ली में होतीं, तो २६००वें जन्मोत्सव के उद्घाटन समारोह का नजारा ही अलग होता। भाई जी! आप तो कैसे भी करके माताजी को जल्दी से जल्दी दिल्ली ले आओ। जो हो गया, वह तो अब वापस नहीं आ सकता किन्तु अब आगामी १ वर्ष के अन्तर्गत हम माताजी के वात्सल्यपूर्ण प्रेरणा एवं दिशानिर्देश में इसे एक नया रूप प्रदान करेंगे ताकि लोग इस घटना को भूलकर इस २६००वें जन्मोत्सव की एक यादगार छवि अपने मन में बनावें।
पूज्य माताजी का ४६वाँ आर्यिका दीक्षा दिवस- ९ अप्रैल २००१, वैशाख कृ. दूज को वृहद् शांतिधारापूर्वक विश्वशांति महावीर विधान की सम्पन्नता के साथ पूज्य माताजी का ४६वाँ आर्यिका दीक्षा दिवस का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, जिसमें अनेकों महानुभावों ने पूज्य माताजी के चरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित की। प्र्कौशाम्बी-प्रभाषगिरि तीर्थ के पदाधिकारियों ने विनम्र प्रार्थना की- इलाहाबाद (प्रयाग) के निकट ही भगवान पद्मप्रभु के गर्भ एवं जन्मकल्याणक से पवित्र कौशाम्बी तीर्थ है तथा उसी से कुछ दूरी पर स्थित प्रभाषगिरि (पभौसा) तीर्थ है जो भगवान पद्मप्रभु के दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक से पवित्र विश्व की प्राचीन ऐतिहासिक नगरी होने के साथ ही जैन संस्कृति का प्रतीक, भक्ति व आस्था का आधार, उपासना और साधना का केन्द्र है। आत्मकल्याण का पाठ पढ़ाने वाले इस कौशाम्बी तीर्थ के साथ जहाँ भगवान पद्मप्रभु का इतिहास जुड़ा है, वहीं आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व का इतिहास भी जुड़ा है, जब महासती चंदना द्वारा भगवान महावीर को आहारदान देने पर न केवल पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई थी अपितु चंदना की लौहशृंखला टूटने का चमत्कार भी हुआ था। यह एक सुखद संयोग और सोेने में सुहागा वाली बात हुई, जहाँ निर्वाणोत्सव के समापन के साथ ही भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मजयंती महोत्सव आ गया, वहीं कौशाम्बी-प्रभाषगिरि के कार्यकर्ताओं को एक सुनहरा मौका मिल गया ‘‘महावीर स्वामी की चमत्कारिक आहारभूमि एवं भगवान पद्मप्रभु की जन्मभूमि के उद्धार का’’। चूँकि शास्त्र-पुराणों की बातें कतिपय लोग ही जानते हैं अत: कार्यकर्ताओं के अतीव आग्रह से इस प्राचीन कथानक को साकाररूप प्रदान करने हेतु पूज्य माताजी ने इलाहाबाद शहर से ऋषभदेव दीक्षास्थली तीर्थ पर पधारकर पुन: २१ अप्रैल को कौशाम्बी तीर्थ की ओर मंगल विहार किया।
कौशाम्बी तीर्थ पर मंगल प्रवेश- ३० अप्रैल २००१, वैशाख शु. सप्तमी को हम लोगों ने पूज्य माताजी के साथ कौशाम्बी तीर्थ पर मंगल प्रवेश किया। यहाँ हमारा प्रवास श्वेताम्बर मंदिर में रहा, इसी मंदिर के सामने दिगम्बर जैन समाज की ३००० गज की जगह पड़ी है, उसमें पूज्य माताजी के सानिध्य में शिलान्यास करके प्रात: ९.३० बजे भगवान पद्मप्रभु के चरण चिन्ह विराजमान किए गए।
सुमेरु पर्वत का २२वाँ प्रतिष्ठापना दिवस- चूँकि ३० अप्रैल को हस्तिनापुर में निर्मित सुमेरु पर्वत का २२वाँ प्रतिष्ठापना दिवस भी था अत: उसके उपलक्ष्य में संघस्थ ब्र. बहनों ने संगीत के साथ सामूहिक रूप में जम्बूद्वीप पूजा, सुमेरु पर्वत पूजा, महावीर पूजा एवं पद्मप्रभु भगवान की पूजन की। सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात् माताजी कमरे से बाहर श्वेताम्बर मंदिर आदि देखने हेतु निकलीं और अकस्मात् ही गांव के मंदिर की ओर उनके चरण चल पड़े, २ किमी. के पदविहार के पश्चात् माताजी भगवान पद्मप्रभु की जन्मभूमि में पहुँच गईं।
शायद होनी को यही मंजूर था- अकस्मात् हुए इस विहार ने एक बार तो संघ के लोगों को हैरत में डाल दिया परन्तु शायद यही होनहार थी, तभी तो माताजी के चरण अनायास ही उस भूमि की ओर चल पड़े, जहाँ के कण-कण में भगवान पद्मप्रभु के जन्म के परमाणु आज भी विद्यमान हैं, जहाँ कभी इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने प्रभु के गर्भागम से पूर्व रत्नवृष्टि की थी, जहाँ सुर-नर वंदित प्रभु शैशवावस्था में पालने में झूले थे, जहाँ देवों ने स्वर्ग से आकर प्रभु का जन्मोत्सव मनाया था, जहाँ प्रभु शैशव से बाल्यावस्था में आकर देव बालकों के संग खेले थे और कुमारावस्था में जन-जन के आकर्षण का केन्द्र बने थे, आज वही नगरी कालदोषवश वीरान एवं उपेक्षित थी, माताजी ने संघ सहित उस ओर मंगल पदार्पण किया और वहीं प्रभु के दर्शन के पश्चात् रात्रिविश्राम भी किया परन्तु तीर्थ की वीरानियत एवं एकमात्र प्राचीन जिनमंदिर की जीर्ण – शीर्ण दशा देखकर माताजी को आन्तरिक वेदना हुई, वे कहने लगीं – चंदनामती! अगर एक-एक साधु अथवा श्रेष्ठी एक – एक जन्मभूमि के विकास का कार्यभार अपने ऊपर ले लें, तो वह दिन दूर नहीं, जब इस देश में पुन: सर्वत्र जिनधर्म का ध्वज लहराएगा लेकिन यह बात कैसे सबको समझाई जाए। अगले दिन माताजी ने वहाँ के पदाधिकारियों को अनेक प्रेरणाएँ देकर इसे विकसित स्वरूप प्रदान करने की बात कही। जीव रक्षा का उपकरण पिच्छी एवं शौच का उपकरण कमण्डलु मात्र अपने पास रखने वाले अपरिग्रही, महाव्रती साधु तो मात्र श्रावक को प्रेरणा ही दे सकते हैं वस्तुत: ऐसी परम पावन वसुन्धरा शीघ्र ही विकसित होकर विश्व के क्षितिज पर पहुँचे, यही मंगल कामना है।
प्रभासगिरि तीर्थ चमक उठा विश्व के व्योम पर- सन्तों के बारे में कहा है कि-जहाँ पड़े गुरुचरण वहाँ की, रज चंदन हो जाती है। मरुथल में भी कल-कल करती, कालिन्दी बह जाती है।।यह पंक्तियाँ पूज्य माताजी के जीवन पर पूर्णत: चरितार्थ होती हैं। जहाँ भी उनके चरण पड़े हैं, वहाँ जंगल में मंगल हो गया, जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले तीर्थों ने विकसित स्वरूप प्राप्त कर लिया। प्रभाषगिरि तीर्थ पर २ मई २००१ से ७ मई २००१, वैशाख शु. १० से वैशाख शु. १५ तक आयोजित ‘‘तीर्थंकर महावीर जिनबिंब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव में अपना मंगल सानिध्य प्रदान करने हेतु उन्होंने १ मई को मंगल प्रवेश किया। यह एक संयोग ही था कि पूज्य माताजी के मंगल आगमन के साथ-साथ आगे-आगे प्रतिष्ठेय भगवान की प्रतिमा जी आर्इं, जिससे माताजी के मन में बड़ी प्रसन्नता रही। २ मई को हम पूरे संघ सहित प्रभाषगिरि पर्वत की वंदना हेतु गये। छोटी सी सुरम्य पहाड़ी देखकर मन प्रसन्न हो गया। हमने वहाँ माताजी के साथ भक्ति पाठ किया तथा संघस्थ बहनों ने भगवान का अभिषेक-पूजन किया। ८.३० बजे प्रतिष्ठा महोत्सव का झण्डारोहण हुआ एवं मध्यान्ह ३ बजे भगवान पद्मप्रभु की सवा सात फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा व्रेâन द्वारा विराजमान की गर्इं। पश्चात् भगवान के गर्भकल्याणक आदि अन्तरंग क्रियाओं द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा प्रारंभ हो गई। ५ मई को प्रभावनापूर्वक भगवान महावीर के प्रथम आहार का दृश्य दिखाया गया एवं मानस्तंभ में विराजमान भगवन्तों का महामस्तकाभिषेक हुआ।
विश्वशांति महावीर विधान का चमत्कार- ४ मई २००१ को भगवान के दीक्षाकल्याणक दिवस पर इलाहाबाद से अनेक महानुभाव पधारे थे, मध्यान्ह में वे हमारे पास आकर दर्शन करके बैठ गए, उनमें से एक महिला जिनका नाम श्रीमती सीमा जैन (ध.प. श्री स्वतंत्र प्रकाश जैन) था, कहने लगीं कि माताजी! विश्वशांति महावीर विधान में बैठकर मेरे घुटने का दर्द बिल्कुल खत्म हो गया है जबकि मैं उसमें बैठने के लिए बहुत सोच रही थी कि कैसे बैठ पाऊँगी किन्तु मैंने मशीन के समान सुबह २.३० बजे से उठकर उन दिनों खूब मेहनत की और बिल्कुल स्वस्थ रही। यह साक्षात् चमत्कार ही मेरे साथ हुआ है। वास्तव में विचार करके देखा जाए तो आचार्यों ने जिनेन्द्र भक्ति की अचिन्त्य महिमा का वर्णन करते हुए कहा है-एकापि समर्थेयं, जिनभक्तिर्दुर्गतिं निवारयितुं। पुण्यानि च पूरयितुं, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन:।।फिर ज्ञानमती माताजी जैसी महान साध्वी, जिनके रोम-रोम में तीर्थंकर प्रभु की भक्ति ही समाई हो और जिनकी लेखनी में साक्षात् शारदा माता का वास हो, उनकी लेखनी से नि:सृत वीर प्रभु के गुणगान करने वाले मंत्रों में कोई चमत्कार आ गए, तो कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं है।
महासती चंदना द्वारा महामुनि महावीर को आहार दान का ऐतिहासिक दृश्य- इस प्रतिष्ठा की ऐतिहासिक विशेषता रही कि २५६५ वर्ष पूर्व के इतिहास को साकार करते हुए भगवान महावीर २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत माताजी की प्रेरणा से महामुनि महावीर एवं उनको आहार प्रदान करते हुए महासती चंदना की प्रतिमा की स्थापना की गई तथा ७ मई को अपार जनसमूह के मध्य महामुनि महावीर के आहारदान का दृश्य दिखाया गया। श्री महावीर प्रसाद जैन, बंगाली स्वीट, दिल्ली ने इस प्रतिमा की स्थापना एवं प्रथम ग्रास आहार देने का पुण्य प्राप्त किया। यह वही पवित्र भूमि है, जहाँ २५६५ वर्ष पूर्व राजा चेटक की पुत्री चंदना के साथ एक ऐतिहासिक घटना घटी थी, जिसे एक विद्याधर हरण कर ले गया और रानी के भय से उसे जंगल में डाल दिया, पुन: एक भील ने उसे देखकर अपने राजा को सौंप दिया। भील राजा ने उसे अपनी रानी बनाना चाहा किन्तु उसकी दृढ़ता देखकर उस भील की माता ने चंदना की रक्षा की, अनन्तर भील ने चंदना को कौशाम्बी नगरी के एक मित्रवर सेठ को दिया, उन्होंने उसे अपने स्वामी वृषभसेन के पास पहुँचा दिया, सेठ ने कुलीन कन्या समझकर उसे अपनी पुत्री के समान रखा परन्तु सेठानी ने उसे शंका भरी दृष्टि से देखकर उसे सेठ की अनुपस्थिति में सांकल से बांधकर रखा तथा खाने के लिए मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिला हुआ कोदों का भात दिया करती थी, एक दिन कौशाम्बी नगरी में महामुनि महावीर के आहारार्थ आने पर उसने अत्यन्त भक्तिपूर्वक उन्हें पड़गाहना चाहा, उस समय उसकी लौहशृंखला टूट गई और वह सुन्दर वस्त्राभूषणों, केशों से सुसज्जित हो गई। शील के माहात्म्य से मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र और कोदों का भात शाली चावलों की खीर बन गई। महावीर को चंदना ने पड़गाहन करके भक्तिपूर्वक आहारदान दिया और देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि की थी।’’ उसी कथानक को साकाररूप प्रदान करने हेतु वहाँ उनका स्थाई स्मारक बनाया गया, जिससे सभी महावीर स्वामी के साथ ही महासती चंदनबाला के आदर्शमयी इतिहास से परिचित हो सकेगे।
दिल्ली की ओर विहार की घोषणा सुन प्रयागवासी रो पड़े- राजधानी दिल्ली के भक्तों, श्रेष्ठियों एवं वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के पुन:-पुन: दिल्ली की ओर मंगल विहार के अतीव आग्रह को देखते हुए माताजी ने ६ मई को सायंकालीन प्रवचन सभा में दिल्ली की ओर मंगल विहार एवं वहीं के चातुर्मास की घोषणा कर दी, तो इलाहाबाद वालों को अत्यधिक दु:ख हुआ। कुछ महिलाएँ तो फूट-फूट कर रोने लगीं। दरअसल लगभग १५ दिन से इलाहाबाद वालों ने कई बार नारियल चढ़ाकर नए तीर्थ पर चातुर्मास हेतु निवेदन किया था और उन्हें कुछ विश्वास सा हो गया था कि शायद दीक्षास्थली में ही चौमासा हो जाएगा किन्तु आज निर्णय सुनते ही सब बहुत दु:खी हुए। वस्तुत: सन्त-साधु का आहार-विहार अनियत (अनिश्चित) ही होता है अत: बहती धार के समान कब किस ओर मुड़ जाएँ, कुछ निश्चित नहींr है। फिर जहाँ धर्मरक्षा, तीर्थरक्षा इत्यादि विषय सामने हों, तो भक्तों का आग्रह छोड़कर भी उस ओर लक्ष्य करना ही होता है अत: श्रावक-श्राविकाओं को साधु-साध्वियों से ज्यादा मोह नहीं करना चाहिए।
भगवान विमलनाथ की जन्मभूमि कम्पिला जी तीर्थ पर पड़े पूज्य माताजी के चरण – प्रयाग तीर्थ का विकसित स्वरूप देखकर पूज्य माताजी ने २२ अप्रैल २००१ को दिल्ली की ओर मंगल विहार कर दिया। विहार की शृँखला में कन्नौज, फर्रुक्खाबाद, कायमगंज आदि स्थानों पर होते हुए जैनधर्म के तेरहवें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ के गर्भ, जन्म, तप एवं ज्ञानकल्याणक से पवित्र भूमि श्री कंपिला जी दि. जैन तीर्थ (जि. फर्रुखाबाद) में पूज्य माताजी के आगमन पर एक नवीन सूर्य का उदय हुआ, जब इस तीर्थ के विकास हेतु ‘सती द्रौपदी कला मन्दिरम्’’ एवं तीर्थंकर परम्परा के प्रवर्तक आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की सवा सात फुट उत्तुग पद्मासन प्रतिमा की स्थापना की घोषणा पूज्य माताजी द्वारा की गई। महान शीलवती महाभारत काल की सती द्रौपदी की जन्मस्थली एवं स्वयंवर स्थली ‘कंपिला जी’ में दस इलेक्ट्रानिक झांकियों से समन्वित ‘कला मंदिरम्’ की उद्घोषणा के पीछे पूज्य माताजी की यही भावना निहित रही कि इस माध्यम से क्षेत्र के विकास एवं आकर्षण में वृद्धि के साथ-साथ जनसाधारण को जहाँ भगवान ऋषभदेव-महावीर स्वामी की झाँकियों के द्वारा जैनधर्म की प्राचीनता एवं अविच्छिन्न परम्परा का ज्ञान होगा, वहीं भगवान विमलनाथ का जीवनवृत्त एवं सती द्रौपदी का पंचभर्तारी न होकर उनके द्वारा एक पतिव्रत धर्म पालन से उत्पन्न शील व्रत का माहात्म्य भी सामने आएगा।
एक बार पुन: खुर्जा के स्वर्ण मंदिर के दर्शन मिले- २१ जून २००१ को हम लोग विहार करते हुए खुर्जा पहुँचे। पूर्व में प्रयाग जाते वक्त भी हमारा यहाँ आगमन हुआ था। खुर्जा पहुँचकर मैंने और माताजी ने आधा किमी. अंदर जाकर स्वर्ण मंदिर के दर्शन किए। यहाँ की गलियाँ बहुत गंदी थीं, जिन्हें देखकर मन में ग्लानि तो हुई, किन्तु मंदिर पहुँचकर वह असीम प्रसन्नता में परिवर्तित हो गई क्योंकि कुन्दन के वृहद् कसीदाकारी काम वाला यह भारत का एकमात्र ऐतिहासिक मंदिर है, यहाँ सोना भी भारी मात्रा में लगा हुआ है। आज से २०० वर्ष पूर्व पंचायत के सहयोग से बने इस मंदिर में पं. सेठ मेवाराम जैन रानीवाला ने पूरा कुन्दन और सोने का काम कराया था, उनके वंशज (पड़पोते) अशोक कुमार जैन अभी यहाँ रहते हैं, यह मंदिर अब जीर्णोद्धार की हालत मे है। विशेषरूप से यहाँ देखने में आया कि शीतलनाथ भगवान की वेदी के पीछे उनका भरा हुआ कल्पवृक्ष का संगमरमर से निर्मित चिन्ह है, जिसमें सोने का काम है तथा मंदिर की सभी वेदियों में लगे तीनों छत्रों का क्रम ऊपर बड़ा, पुन: उससे छोटा है, जो माताजी उचित मानती हैं। यहाँ के नशिया मंदिर में एक महानुभाव की ओर से जम्बूद्वीप की संक्षिप्त रचना भी बनी है।
एक आश्चर्यकारी घटना सुनने में आई- २६ जून २००१ को हम लोग राजधानी दिल्ली के निकट नोएडा में ठहरे हुए थे। शाम को यहाँ कुछ महिलाएं माताजी के दर्शनार्थ आर्इं और मुझसे कहने लगीं कि माताजी! यहाँ पर हम लोगों ने भी ज्ञानमती माताजी द्वारा दी गई रोटी कटोरदान में रखकर एक सप्ताह बाद दो रोटी बनकर निकलते देखा है और ऐसा तमाम महिलाओं के घर में हुआ है। लोगों ने इसे चमत्कार माना है कि जिसके यहाँ रोटी आएगी, उसकी खूब उन्नति होगी। सुनकर हमें बड़ी हँसी आई और आश्चर्य भी हुआ कि साधु तो मात्र आशीष देते हैं रोटी इत्यादि नहीं, फिर यह हवा किसके द्वारा और कैसे फैलाई गई है। इसी प्रकार अनेक लोगों से यह बात सुनी गई, जबकि माताजी ने कभी किसी को रोटी नहीं दी थी बल्कि अक्षीण महानस ऋद्धि का मंत्र अवश्य दिया करती हैं।
प्रयाग तीर्थ निर्माण के सहयोगी महान पुण्य के भागी हैं- मात्र १ वर्ष के अन्दर तीर्थ अपने विकसित स्वरूप को प्राप्त कर विश्व के क्षितिज पर ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’’ के रूप में प्रगट हो गया, यह आश्चर्य की ही नहींr, असंभव सी बात दिखती है, मगर उस असंभव कार्य को पूज्य माताजी के मंगल आशीर्वाद से कर्मयोगी रवीन्द्र जी एवं उनकी कर्मठ टीम ने जिस कुशलता के साथ संभव कर दिखाया, वह देवोपुनीत कार्य के समान ही प्रतीत हो रहा था। मूल से लेकर चूल तक बनने वाले उस तीर्थ में जिन-जिन महानुभावों ने अपनी अर्थांजलि, भावांजलि लगाई, अपना तन-मन-धन का सहयोग दिया अथवा छोटे कार्य से लेकर बड़े-बड़े कार्यों को सम्पादित किया, वे सब महान पुण्य के भागी होने के साथ प्रशंसा के भी पात्र हैं और उन सभी के लिए मेरी मंगलकामना है कि वे सदैव इसी प्रकार तीर्थ सुरक्षा व विकास कार्य में संलग्न रहकर जिनधर्म पताका को ऊँची रखने में सहयोगी बनकर अपनी आत्मा को भी समुन्नत बनावें।
सुकुमार बालिकाओं के अथक परिश्रम को भी नहीं भुलाया जा सकता- प्रयाग तीर्थ के निर्माण में जहाँ अनेकों पुण्यशाली भव्यात्माओं ने अपना प्रशंसनीय सहयोग प्रदान किया, वहींr संघ में रहने वाली छोटी-छोटी ब्रह्मचारिणी बालिकाओं के अथक परिश्रम को भी नहींr भुलाया जा सकता है। जहाँ इस कार्य में पूज्य माताजी की सतत प्रेरणा, संघस्थ क्षु. मोतीसागर जी एवं ब्र.रवीन्द्र जी की कर्मठता ने रंग दिखाया, वहीं इन बहनों ने पूज्य माताजी द्वारा निर्देशित प्रत्येक कार्य में अपना अहर्निश सहयोग प्रदान किया, फिर चाहे वह स्टेज संभालना हो या भाषण करना, चौके में हो या अध्ययन में, विहार में मेरे साथ पैदल चलना हो या छोटी-छोटी व्यवस्था से लेकर कितनी भी बड़ी व्यवस्था क्यों न करनी पड़े, सदैव प्रसन्न मन से पूर्ण कुशलतापूर्वक प्रत्येक कार्य में भाग लेतीं तभी तो माताजी को लम्बे-लम्बे विहार करने में कुछ सोचना नहीं पड़ता है। इन सबकी कार्यकुशलता देखकर कई बार लोग आकर कहने लगते हैं कि माताजी! आपके संघ की बहनें तो आलराउण्डर हैं अर्थात् सर्वतोमुखी प्रतिभा की धनी हैं। साथ ही कई एक लोग कहते हैं कि माताजी! आपकी संघ की ये आठ बहनें अष्ट दिक्कुमारिकाओं के समान स्वर्ग से आई प्रतीत होती हैं जो अहर्निश आप सबकी सेवा में लगी रहती हैं। तब मेरे मुख से निकल पड़ता है कि यह सब पूज्य माताजी के आशीर्वाद का ही फल है, उनके पास रहने वाला हर व्यक्ति सर्वतोमुखी प्रतिभा का धनी हो जाता है। मात्र आत्मकल्याण और विद्या अध्ययन के लिए माताजी की छत्रछाया में रहने वाली इन आठों ब्र. बहनों कु. बीना, आस्था, सारिका, चन्द्रिका, इन्दु, अलका, प्रीति व स्वाति के लिए मेरा बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद है कि वे ख्याति, लाभ, पूजादि से दूर रहते हुए सदैव गुरुभक्ति व आत्मकल्याण को ही अपना मुख्य लक्ष्य बनाए रखें और क्रम-क्रम से अपने चारित्र को वृद्धिंगत करते हुए शीघ्र ही आर्यिका दीक्षा धारण कर अपने जीवनरूपी मंदिर पर कलशारोहण करने का सौभाग्य प्राप्त करें।
अशोक विहार-दिल्ली में वर्षायोग स्थापना- ३ जुलाई को सत्यवती कालोनी से दिल्ली विहार करके हमने पूज्य माताजी के साथ चातुर्मास स्थल की ओर पदार्पण किया। एक कि.मी. लम्बे जुलूस में अपार जनसमूह की उपस्थिति यह दर्शा रही थी कि किस प्रकार दिल्लीवासी पूज्य माताजी का इंतजार कर रहे थे। पूरे रास्ते में बैनर लगे थे, पंचरंगी द्वार लगे थे तथा मंदिर के आस-पास भी खूब सजावट थी। मंदिर में मंगल प्रवेश की सभा में संघपति श्री आनंद जी -पवन जी (जैन मार्बल होम-मेरठ), ब्र. रवीन्द्र जी तथा संघस्थ बहनों का समाज द्वारा सम्मान किया गया। ९ बजे तक चली सभा के बाद जुलूस के साथ संघ को वसतिका तक लाने के मध्य पचासों घरों के आगे लोगों ने खूब स्वागत करते हुए पाद प्रक्षाल, आरती, पुष्पवृष्टि आदि की। हर घर के आगे पूâल व रंगोली के चौक बने थे। ४ जुलाई २००१ को वर्षायोग स्थल का नामकरण ‘‘महावीर निलय’’ घोषित किया गया। अपरान्ह ३ बजे महावीर निलय से पूज्य माताजी जुलूस के साथ मंदिर जी में पहुँचीं, जहाँ वर्षायोग स्थापना की सभा हुई। साहू रमेशचंद जी की अध्यक्षता में आयोजित इस सभा में मुख्य अतिथि के रूप में सांसद श्री साहिब सिंह वर्मा एवं विधायक दीपचंद बंधु जी उपस्थित थे। इस अवसर पर साहू जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘‘यदि माताजी ६ अप्रैल के कार्यक्रम में होतीं, तो जो दुर्घटना दि. जैन समाज के साथ हुई है, वह न होती। हम लोगों ने दीक्षास्थली में ही माताजी से महावीर जयंती तक दिल्ली पधारने का निवेदन किया था लेकिन पदविहार करने वाले साधुओं की भी अपनी चर्या है। खैर! अब मुझे विश्वास है कि माताजी के निर्देशन में आगामी कार्यक्रमों से अच्छी धर्मप्रभावना होगी।’’ आज के सुअवसर पर दिल्ली की सभी कालोनियों के मुख्य कार्यकर्ता एवं महिला संगठन इकाइयों की प्रतिनिधियों के साथ-साथ अनेकों महानुभाव उपस्थित थे और भीड़भाड़ के मध्य सभी में अच्छा उत्साह था।
वीर शासन जयंती पर्व- तीर्थंकर महावीर को दिव्य केवलज्ञान की उपलब्धि होने पर भी ६६ दिनों के बाद गौतम गणधर के आने पर उनकी दिव्यध्वनी खिरी थी अर्थात् उस दिन से ही उनका शासन प्रारंभ हुआ था। श्रावण कृष्णा एकम के उस पावन दिवस को ‘वीर शासन जयंती पर्व’ के रूप में तब से ही मनाया जाता है। इसी संदर्भ में ६ जुलाई से ८ जुलाई २००१ तक माताजी के संघ सानिध्य में अशोक विहार में वीरशासन जयंती का त्रिदिवसीय आयोजन रखा गया, जिसमें ६ ता. को भगवान महावीर के समवसरण की रचना कर गौतम गणधर की सामूहिक पूजन सम्पन्न की गई। ७ जुलाई को ‘श्रुतस्कंध विधान’ किया गया। ८ जुलाई को प्रात: विपुलाचल पर्वत की भव्य झांकी एवं २६०० ग्रंथों का जुलूस निकाला गया। जुलूस के पश्चात् मंदिर जी में जिनवाणी माता का अभिषेक (दर्पण में) हुआ तथा माताजी ने वीरशासन जयंती के महत्व पर प्रकाश डाला।
सप्त दिवसीय महावीर देशना शिविर- राजधानी दिल्ली में मंगल पदार्पण एवं चातुर्मास स्थापना के साथ ही माताजी ने भगवान महावीर से संबंधित अनेक लघु एवं वृहत् कार्ययोजना की रूपरेखा बनाकर उसे क्रियान्वित करना प्रारंभ कर दिया। इसी शृंखला में उन्होंने जन-जन को भगवान महावीर के जीवन एवं उनके कल्याणकारी सिद्धान्तों से परिचित करवाने हेतु सप्त दिवसीय महावीर देशना शिविर का आयोजन ९ जुलाई से १५ जुलाई तक किया। जिसमें माताजी के साथ-साथ स्वयं मैंने, संघस्थ क्षु. मोतीसागर जी ने अनेक विषय पर क्लास लीं, जिसमें सामायिक, द्वादशांग ज्ञान एवं ध्यान साधना के विषय प्रमुख रहे।
प्रमेश जैन (पी.एस.मोटर्स) का अत्यधिक उत्साह- ११ जुलाई २००१ को रमेश जैन (पी.एस.मोटर्स) एवं डी.के. जैन एडवोकेट (महावीर जन्मोत्सव दि. जैन राष्ट्रीय महासमिति के महामंत्री) पधारे। पूज्य माताजी के दर्शन करने के बाद रमेश जी एकदम बोल पड़े कि माताजी! रवीन्द्र जी को इस राष्ट्रीय महावीर समिति में सक्रिय योगदान देना है तथा इस संबंध में आपके द्वारा जो भी कार्य हुए हैं और होने वाले हैं वे सभी इस समिति के ही अंग माने जायेंगे। पूज्य माताजी ने उन्हें दो-तीन बातें बतार्इं- १. २१ से २८ अक्टूबर तक आयोजित होने वाले विश्वशांति महावीर विधान की भावी योजना। २. पूरे देश में बोर्ड एवं होर्डिंग के मैटर भेजना। ३. स्कूल – कालेजों में अपना साहित्य भेजकर संगोष्ठी, नाटक आदि आयोजित कराना। डी.के. जैन ने भी अपनी कुछ योजनाएं बतार्इं किन्तु इन लोगों के सामने आर्थिक समस्याएं होने से कुछ क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा था। खैर! यह देखकर प्रसन्नता हुई कि रमेश जी ने अस्वस्थ होकर भी महावीर जन्मोत्सव में काफी सक्रिय भूमिका निभाई, शायद पूज्य माताजी के दिल्ली पहुँच जाने से ही इनमें अतीव उत्साह आ गया था।
भगवान पाश्र्वनाथ का निर्वाण महोत्सव एवं १००८ पुष्पों से सहस्रनाम विधान-तेइसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ ने सम्मेदशिखर से श्रावण शुक्ला सप्तमी को निर्वाण पद पाया, जिसे मोक्ष सप्तमी या मुकुट सप्तमी भी कहते हैं। जैन परम्परानुसार अनेक कुमारी कन्याएँ इस मुकुटसप्तमी व्रत को करती हैं। २७ जुलाई को मोक्षसप्तमी के पावन पर्व पर भगवान पाश्र्वनाथ की पूजन कर सामूहिक निर्वाणलाडू चढ़ाया गया। पूज्य माताजी के मंगल प्रवचन के पश्चात् मेरे द्वारा लिखित ‘मोक्षसप्तमी पर्व का महत्त्व’ नामक लघु नाटिका का मंचन भी हुआ। २७ मार्च को १००८ कमल पुष्पों से सहस्रनाम विधान किया गया, जिसे करने का सौभाग्य श्री रमेश जैन (पी.एस. मोटर्स) की धर्मपत्नी को प्राप्त हुआ।
शालीमारबाग –दिल्ली में माताजी के संघ सानिध्य में रक्षाबंधन पर्व सोल्लास हुआ- ३० जुलाई को प्रात: ६ बजे अशोक विहार से शालीमार बाग मंदिर के लिए विहार हुआ। यहाँ के लोगों में भी विशेष उत्साह दिखा। वहाँ पहुँचकर सुन्दर कलात्मक मंदिर दर्शन करके हृदय अत्यन्त गद्गद हो गया। यहाँ के लोगों ने बताया कि सन् १९९७ में जिस दिन से पूज्य माताजी ने यहाँ ४ यंत्र स्थापित किए हैं, उस दिन से कार्य तेजी से चलता ही गया। सन् १९९३ में यहाँ के लोग इस मंदिर के बारे में माताजी का मार्गदर्शन लेते हेतु टिवैतनगर भी गए थे। वहाँ पहुंचते ही मंदिर जी में प्रवचन सभा हुई, जिसमें मेरे १३वें दीक्षादिवस पर मुझे पूज्य माताजी का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त हुआ। समाज के द्वारा मुझे १३ ग्रंथ भेंट किए गए। ४ अगस्त को मध्यान्ह में रक्षाबंधन का सामूहिक आयोजन किया गया, इससे पूर्व प्रतिदिन शिक्षण शिविर चलाया गया। रक्षाबंधन के शुभ दिन दिल्ली की अधिकतर कालोनियों एवं देश के विविध अंचलों से पधारे जैन बंधुओं ने भाग लेकर माताजी की प्रेरणा से धर्मध्वज में रक्षासूत्र बांधा एवं परस्पर भी रक्षासूत्र बांधकर राष्ट्र, धर्म, धर्मायतन, तीर्थों, साधुओं एवं साधर्मी जनों की रक्षा का संकल्प लिया। इस अवसर पर प्रख्यात सांसद एवं विधिवेत्ता श्री एल.एम. सिंघवी जी ने भी पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। इससे पूर्व प्रात:काल अकम्पनाचार्यादि सात सौ मुनियों एवं मुनि विष्णुकुमार की सामूहिक पूजन हुई एवं भगवान श्रेयांसनाथ का निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।
पहाड़गंज में वार्षिक रथयात्रा- दिल्ली की पहाड़गंज कालोनी में प्रतिवर्ष वार्षिक रथयात्रा का आयोजन होता है परन्तु इस वर्ष वे लोग इसे विशेषरूप से मनाना चाहते थे अत: उन्होंने माताजी के श्रीचरणों में श्रीफल चढ़ाकर अपना मंगल सानिध्य प्रदान करने की भावना की, जिसे माताजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। आश्विन कृ. चतुर्दशी, १६ सितम्बर को मध्यान्ह में पहाड़गंज की मुख्य सड़कों पर भव्य शोभायात्रा निकाली गई और बीच बाजार में मंच बनाकर प्रवचन सभा रखी गई। उस दिन संघस्थ क्षुल्लक मोतीसागर जी के ६२वें जन्मदिवस के अवसर पर प्रात: सामूहिक शान्तिविधान हुआ एवं दिन में हम लोगों ने क्षुल्लक जी के प्रति मंगल कामना व्यक्त की।
२६००वाँ जन्मकल्याणक राष्ट्रीय समिति का अधिवेशन- ६ अप्रैल को भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के राष्ट्रीय स्तर पर उद्घाटन के साथ-साथ मुख्यरूप से सरकारी राष्ट्रीय समिति, चारों जैन सम्प्रदाय वाली महोत्सव महासमिति, दिगम्बर जैन राष्ट्रीय समिति एवं अनेक राज्य स्तरीय समितियों ने भगवान महावीर के इस जन्मकल्याणक वर्ष के कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया। इनमें से भगवान महावीर २६००वाँ जन्म महोत्सव दिगम्बर जैन राष्ट्रीय समिति का प्रथम अधिवेशन पूज्य माताजी के मंगल सानिध्य में एवं श्रीमती इन्दू जैन (चेयरमैन-टाइम्स ग्रुप) की अध्यक्षता में ७ अक्टूबर को राजा बाजार, कनॉट प्लेस (दिल्ली) में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। देशभर से पधारे कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने क्षेत्रों में किए गए महोत्सव वर्ष संबंधी कार्यक्रमों का विवरण प्रस्तुत करते हुए भविष्य के लिए पूज्य माताजी से दिशा निर्देशों को प्राप्त किया। पूज्य माताजी ने इस अवसर पर कहा कि जैन समाज को मात्र सरकारी अनुदान पर आश्रित न होकर अपने कार्यों के माध्यम से इस वर्ष को सार्थक करना है। भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में कुण्डलपुर एवं स्मारक के रूप में वैशाली को विकसित करने की प्रेरणा के साथ-साथ दिल्ली में एक राष्ट्रीय जैन सूचना केन्द्र, कीर्तिस्तम्भों एवं भगवान महावीर द्वारों तथा जन्मकल्याणक संबंधी होर्डिंग लगाने की प्रेरणा भी पूज्य माताजी ने समाज को प्रदान की। श्रीमती इन्दू जैन ने युवा पुरुष एवं महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करते हुए भगवान महावीर केन्द्र द्वारा युवा संगठन के निर्माण का आह्वान किया। लखनऊ (उ.प्र.) से श्री वैलाशचंद जैन सर्राफ, इंदौर (म.प्र.) से डॉ. अनुपम जैन, दिल्ली से साहू श्री रमेशचंद जैन एवं अन्य महानुभावों ने भी सभा को सम्बोधित किया। अधिवेशन में डॉ. हुकुमचंद भारिल्ल-जयपुर, श्री बसंत भाई दोशी-मुम्बई सहित अनेक विद्वान एवं गणमान्य कार्यकर्ता भी पधारे।
छब्बिस सौ मंत्रों के साथ छब्बिस सौ रतन चढ़ाए गए २६ मंडलों पर- चूँकि भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष वर्तमान सहस्राब्दि के लिए एक स्वर्णिम उपहार लाया और इस उपहार को प्रत्येक जनमानस विविध कार्यकलापों के माध्यम से विभक्त करना चाहता था, साथ ही भगवान महावीर के प्रति अपने श्रद्धा, भक्ति और विनय के पुष्प समर्पित कर उन क्षणों को चिरस्थाई करने की भावना थी क्योंकि यह अवसर पुन: जीवन में प्राप्त नहीं होने वाला था। जहाँ स्वयं भारत सरकार उन अहिंसा के अवतार भगवान महावीर के इस २६००वें जन्मोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर ‘अहिंसा वर्ष’ के रूप में अनेकों कार्यक्रमों के माध्यम से मनाकर उन महामानव के पावन चरणयुगल में अपनी पुष्पांजलि समर्पित कर रहा था, वहीं सम्पूर्ण जैन समाज के गौरव साधु-साध्वी, शीर्षस्थ नेता एवं श्रावक भी अनेक धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं निर्माण कार्यों के द्वारा अपने श्रद्धा पुष्प उन्हें समर्पित कर रहे थे। चूँकि भारतीय संस्कृति युगों-युगों से अपनी श्रद्धा-भक्ति के कारण विश्व के मानसपटल पर अपनी आभा को विस्तारित किए हुए है अत: पाश्चात्य संस्कृति का समावेश होते हुए भी आज तक देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा दृष्टिगत होती है। तीर्थंकर महावीर की आराधना के इस क्रम में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने अनेकानेक कार्यकलापों के अन्तर्गत उनके २६०० गुणों का स्मरण करते हुए २६०० मंत्रों से समन्वित ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ की रचना करके जहाँ तीर्थंकर भगवान के प्रति अपने श्रद्धा सुमन समर्पित किए, वहीं उस नूतन रचना से सम्पूर्ण देशवासियों को भगवान महावीर की सर्वोदयी गरिमा का भी परिचय प्राप्त हुआ। दिल्लीवासियों के अतीव आग्रह पर मई-जून की भीषण गर्मी में विहार कर जनसाधारण में भगवान महावीर के जन्मकल्याणक महोत्सव को अनुगुंजित करने हेतु जब माताजी ने विहार कर दिल्ली में पदार्पण किया, तो दिल्लीवासियों में एक बार पुन: आशा जगी। वहाँ पहुँचकर माताजी ने कार्यकर्ताओं की मीटिंग करके ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के वृहत् आयोजन की रूपरेखा जनता के समक्ष रखी, जन-जन की सराहना को प्राप्तकर यह योजना गतिशील होने लगी। इसी मध्य दिल्ली के प्रमुख लोगों का आग्रह अत्यधिक प्रबल होने लगा कि संघ का प्रवास दिल्ली में ऐसे केन्द्रीय स्थल पर हो, जहाँ रहकर सरलता से इतने बड़े आयोजन की गतिविधियाँ संचालित की जा सवेंâ, फलस्वरूप अशोक विहार में चातुर्मास स्थापित कर पूज्य माताजी ने श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर, राजाबाजार-कनॉट प्लेस में अपना ससंघ प्रवास रखा।
भगवान की भक्ति से विश्वशांति संभव है- चूँकि इस राष्ट्रीय आयोजन हेतु आयोजन स्थल के चयन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, अतएव अनेक स्थानों का निरीक्षण करने के पश्चात् दिल्ली गेट स्थित फिरोजशाह कोटला मैदान का चयन हुआ, जिसमें ‘‘भगवान महावीर मण्डप’’ के रूप में भव्य पाण्डाल के अन्दर २६ मण्डलों को बनाकर इस आयोजन का प्रारंभीकरण किया गया। इस मध्य अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद विश्वयुद्ध जैसा भयावह वातावरण निर्मित हो गया था, ऐसी विषम परिस्थिति में कभी-कभी विधान का आयोजन स्थगित करने की बात भी आई किन्तु पूज्य माताजी ने दृढ़तापूर्वक सभी को आदेश दिया कि यह भक्ति का आयोजन है, इसे टालो मत और भगवान की कृपा से उन मंत्रों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित होगी। श्री एस.के. जैन-अतिरिक्त पुलिस आयुक्त, दिल्ली द्वारा दिया गया समस्त सुरक्षा व्यवस्था का आश्वासन भी कार्यक्रम की पूर्णता में सभी के लिए विशेष सम्बल रहा।
विश्वशांति महावीर विधान आयोजन का उद्घाटन- वास्तव में ऐसे आयोजनों के अन्दर करोड़ों की संख्या में होने वाले मंत्र के शांत परमाणु सम्पूर्ण विश्व में फैलकर शांति की स्थापना करते हैं। पूज्य माताजी के अलौकिक कार्यों की गणना हम शब्दों में नहीं कर सकते, उनके द्वारा प्रदत्त अनुपम कृतियाँ विश्व को मिली अमूल्य सौगात के रूप में हैं तभी तो महोत्सव में पधारीं मुख्य अतिथि साहू इन्दू जी ने कहा कि विश्व शांति की शुरूआत के प्रेरणाबिंदु हमें जैनधर्म के द्वारा ही प्राप्त होते रहे हैं और यह कैसे प्राप्त हों, यह माताजी जैसे सन्तों एवं साध्वियों की कृपा द्वारा ही संभव है। श्री धनंजय जी ने तो अत्यन्त प्रसन्न होते हुए कहा कि पूज्य माताजी की प्रेरणा से वर्तमान में जो भी कार्यक्रम हुए, सभी में मुझे भाग लेकर पुण्य प्राप्ति का अवसर मिला। आज दुनिया में तनाव का माहौल है, सब शांति चाहते हैं, पर हमें वास्तविक शांति के लिए स्वयं में शान्ति लानी होगी। जैनधर्म सदैव शांति का संदेश देता रहा है। पूज्य माताजी सदैव समसामयिक कार्य करती हैं, इस विश्वशांति विधान से विश्व में निश्चित ही शांति होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। पूज्य माताजी ने इस उद्घाटन सत्र में सभी को अपना शुभाशीष प्रदान करते हुए उद्घोष किया-दो प्रकार के कार्य होते हैं एक स्थाई और दूसरे अस्थायी। यद्यपि यह मण्डल विधान अस्थायी दिखते हैं, पर यह हमारी आत्मा को स्थायी पद प्राप्त कराने हेतु बहुत बड़ा योगदान देते हैं। जैसे-भोजन, वस्त्र अस्थायी हैं, मकान स्थायी है परन्तु भोजन आदि के बिना हम नहींr रह सकते, उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि करने वाले, स्थायी रूप देने वाले, परमात्मपद प्रदान करने वाले ये विधान-पूजन आदि कार्यक्रम हैं, जिन्हें करने की प्रेरणा आचार्यों ने ग्रंथों में भी दी है। आजकल कुछ लोगों की दृष्टि में स्कूल, हॉस्पिटल आदि स्थाई कार्य हैं परन्तु मेरा कहना यह है कि जिस विश्वशांति की अपेक्षा हमें है, वह स्कूल, कॉलेज व अस्पतालों से नहीं मिल सकती है। वह शांति हमें भगवन्तों की भक्ति से ही मिलेगी क्योंकि इससे निकलने वाली किरणें ही सम्पूर्ण विश्व में शांति की स्थापना करेंगी। आत्मा की शांति, शुद्धि, सिद्धि के लिए यह स्थायी है, विश्व में शांति, पर्यावरण शुद्धि, विश्व मैत्री हेतु इसका अमूल्य योगदान है। भगवान महावीर के २६००वें जन्मोत्सव के उद्घाटन पर हुए कार्यक्रम के पश्चात् यह पहला राष्ट्रीय आयोजन जैन समाज द्वारा हो रहा है, जिसमें विभिन्न प्रान्तों से पधारकर लोग अनुष्ठान कर रहे हैं। इस विश्वशांति विधान के साथ यहाँ मध्यान्ह में प्रतिदिन २ घण्टे तक बराबर विश्वशांति मंत्र का घोष चलेगा। सारे भारत में विश्वशांति हेतु यह मंत्र पहुँचाया जाएगा। इसकी कोई सवा लाख, कोई २५ लाख तो कोई २५ करोड़ जाप्य कर रहे हैं। हमारे और आपके मुख से निकलने वाली पंक्तियाँ भगवान महावीर के पास सिद्धशिला तक पहुँचकर वापस आकर आपके मनोरथों को पूर्ण कर देंगी।
राजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला बनने का गौरव किसने प्राप्त किया- विश्वशांति महावीर विधान के २६ मण्डलों में से प्रथम मण्डल में राजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला के रूप में श्रेष्ठी श्री कमलचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मैना सुन्दरी जैन ने पूजन करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
प्रत्येक मण्डल पर चढ़े २६०० रत्नों को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी- इस विश्वशांति महावीर विधान का मुख्य आकर्षण थे प्रत्येक मण्डल पर चढ़ने वाले २६००-२६०० रत्न, यूँ तो प्रत्येक विधानों का अपना महत्व होता है पर यह विधान रत्नों द्वारा पूजा के कारण समस्त मण्डल विधानों का शिरमौर बन गया। शास्त्र पुराणों में वर्णन मिलता है कि पहले लोग स्वर्ण दीनार चढ़ाकर, गजमोती चढ़ाकर भगवान की अर्चा करते थे, पर इस कलियुग में रत्नों द्वारा भगवान की पूजा करने का यह पहला पाठ था, जिसे देखने के लिए भारत के कोने-कोने से लोग आ रहे थे और पूज्य माताजी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
मंत्रित रत्नों को लेने की होड़ लग गई- भक्तों ने जहाँ मण्डल पर रत्न चढ़ाकर अपनी भक्ति प्रदर्शित की, वहीं इस विश्वशांति विधान में होने वाली ९ पूजाओं में ९ जाप्य हुर्इं, जिनके १०८ मंत्रों से उन रत्नों को मंत्रित कर कोई एक धनकुबेर महानुभाव उसे श्रद्धालुओं में वितरित करते थे। प्रत्येक मण्डल से १०८-१०८ रत्नों को एक कलश में एकत्रित कर प्रतिदिन जब उन लगभग ३ हजार रत्नों को वितरित किया जाता, तो उन अमूल्य रत्नों को लेने की एक होड़ सी लग जाती। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं रत्न लेने के साथ-साथ अपने इष्ट मित्रों को रत्न लेने हेतु बुलाकर लाता था।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की कर्मठता को भुलाया नहीं जा सकता- यह सम्पूर्ण आयोजन दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित किया गया था, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यही था कि आगत किसी भी दर्शनार्थी बंधु या पूजक को किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा अपितु सभी प्रशंसा करते ही देखे गए। इससे पूर्व भी पूज्य माताजी की सद्प्रेरणा से आयोजित प्रत्येक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में उनकी कर्मठता देखी जा चुकी है। अगर इस संस्था को वर्तमान की सभी संस्थाओं में सर्वतोमुखी, जागरूक व कर्मठ संस्था कहा जाए तो शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
पं. शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी का ‘‘गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार’’ से सम्मान- २५ अक्टूबर २००१ को सायंकालीन सभा में जैन साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करने हेतु सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् पं. श्री शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी को श्री अनिल कुमार अतिशय कुमार जैन (कमल मंदिर), प्रीतविहार के सौजन्य से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के पदाधिकारियों द्वारा शाल, पुष्पहार आदि के साथ एक लाख रुपये की नगद राशि एवं प्रशस्ति पत्र के साथ ‘‘गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार’’ प्रदान किया गया। इस अवसर पर पुरस्कार प्रदाता श्री अनिल जैन ने माताजी के अनंत उपकारों का स्मरण करते हुए कहा कि यह पुरस्कार आर्थिक दृष्टि से मैं महान नहींr मानता वरन् इसकी विशेषता तो गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से है, जो इस युग के लिए मोबाइल एन्साइक्लोपीडिया हैं। संस्थान के अध्यक्ष ब्र.रवीन्द्र जी ने पंडित जी की विद्वत्ता बताते हुए उनके चिरंजीवी भविष्य की मंगल कामना की तथा समस्त विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया। पूज्य माताजी ने २६ अक्टूबर को प्रात:कालीन सभा में पुरस्कृत विद्वान श्री शिवचरणलाल जी के लिए शुभाशीर्वचन बोलते हुए उन्हें प्राचीन आगम एवं आर्षपरम्परा के प्रति दृढ़ रहने की प्रेरणा प्रदान की। पण्डित श्री शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी ने अपने वक्तव्य में सन् १९७८ के प्रशिक्षण शिविर को अपने ज्ञान की नींव बताते हुए कहा कि हस्तिनापुर में आयोजित उस शिविर के अन्दर जैन समाज के मूर्धन्य विद्वान पं. मक्खनलाल जी शास्त्री-मुरैना, पं. मोतीचंद कोठारी-फलटण, पं. लालबहादुर शास्त्री-दिल्ली, पं. बाबूलाल जमादार सहित ८० विद्वानों ने माताजी के मुखारविन्द से ‘‘प्रवचन निर्देशिका’’ का प्रशिक्षण प्राप्त करके धन्यता का अनुभव किया था। मैं भी उसी शिविर का विद्यार्थी था और आज उसी प्रवचन निर्देशिका ग्रंथ को अपने सामने रखकर मैं प्रवचन करता हूँ। पण्डित जी ने संस्थान एवं अनिल जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए श्रेष्ठियों के साथ विद्वानों का सामंजस्य बनाने का आश्वासन दिया।
अंतराष्ट्रीय श्रावक सम्मेलन- २७ अक्टूबर प्रात: ९ बजे विधान प्रमुख राजा सिद्धार्थ श्री कमलचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली की अध्यक्षता में आयोजित श्रावक सम्मेलन के मुख्य अतिथि श्री शांति देसाई-महापौर (दिल्ली) विशिष्ट अतिथि-साहू रमेशचंद जैन एवं श्री जे. के. जैन आदि रहे। संघस्थ क्षु. मोतीसागर जी ने सभा का मंगलाचरण किया पुन: मैंने इस सम्मेलन की आवश्यकता, उपयोगिता, महत्त्व एवं प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए उपस्थित जनसमूह को यही प्रेरणा दी कि जिस परिवार में कोई मुखिया नहीं होता है, वह परिवार नष्ट हो जाता है और जिस देश तथा समाज में कोई नायक न हो, वह देश तथा समाज नष्ट हो जाता है, अतएव हमें नायक की जरूरत है। आज के इस मंच से महिला संगठन, विद्वत् महासंघ, शास्त्री परिषद, युवा परिषद, महासमिति, महासभा, परिषद आदि से यही कहना है कि श्रावक के साथ साधुओं को भी रखें, तभी प्रगति होगी। हमें मुख्य रूप से भगवान महावीर के सिद्धान्तों में अहिंसा का प्रचार, भ्रूण हत्या का निषेध, मांस निर्यात का विरोध, दहेज प्रथा का विरोध कर सदाचार का सम्मान करना है, ऐसा करने पर वे प्रतिभाएँ आगे आएंगी, जिनसे हमें धर्म की परम्परा साढ़े १८ हजार वर्ष तक अक्षुण्ण रखनी है।ब्र. रवीन्द्र जी ने इस मंच से कहा कि मांगीतुंगी की अखण्ड शिला पर १०८ फुट ऊँची प्रतिमा का निर्माण हो रहा है। इस संस्था को जो भी काम सौंपा जाएगा, सदैव करती रहेगी। आज के अवसर पर माननीय महापौर जी, सतीश जी-निगम पार्षद, साहू रमेश जी आदि ने भी सभा को सम्बोधित किया। इस अवसर पर दिल्ली महिला आयोग की चेयरमैन श्रीमती अंजली राय ने भी पधारकर माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। इस राष्ट्रीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से पारित कतिपय प्रस्तावों के साथ २००२ तक चलने वाले जन्मकल्याणक संबंधी अनेकों कार्यक्रमों के देशभर में व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार हेतु ‘‘भगवान महावीर २६००वाँ जन्मोत्सव प्रचार समिति’’ बनाने की घोषणा हुई।
२८ अक्टूबर समापन समारोह-एक झलक- २८ अक्टूबर को प्रात: ९.३० बजे ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के समापन समारोह की सभा हुई, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में प्रसिद्ध सांसद, विधिवेत्ता एवं न्यायविद् श्री एल.एम. सिंघवी एवं विशिष्ट अतिथि श्री सलेकचंद कागजी, प्रो. श्री रतनचंद जैन एवं श्री एल.एल. आच्छा जी ने पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। सभा का संचालन करते हुए संघस्थ पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी ने कहा कि महानुभावों! ज्ञानमती माताजी इसलिए महान नहीं हैं कि वे बड़े-बड़े कार्य करवाती हैं प्रत्युत् इनके जीवन से हमें सबसे बड़ी बात यह सीखनी है कि हमें अपने सिद्धान्त, अपने जीवन में चारित्रिक दृढ़ता आदि को ख्याति, लाभ, पूजा के प्रभाव में बहकर छोड़ना नहीं है। आज महावीर के शासनकाल की गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी का जीवन प्रत्येक व्यक्ति के लिए और खासतौर से साधु परम्परा के लिए एक आदर्श है। वर्तमान में जो समाज में यह बात कहते हैं कि आप स्थाई आयोजन रखिए, आप निर्माण करिए, वह आपको जीवन निर्माण की दिशा से दूर ले जा रहे हैं। आज पूजा-भक्ति ही माध्यम है पंचमकाल में कर्म निर्जरा करने के लिए, इसके अलावा मोक्षप्राप्ति का कोई उपाय नहीं है। और शायद यही कारण रहा कि इन सभी बातों पर दृष्टिपात करते हुए स्वयं माननीय सिंघवी जी ने कहा कि यह एक कार्य का समापन है किन्तु एक अभियान का शुभारंभ है। इस अभियान में एक मर्यादा, एक भक्ति का स्वर, एक दृष्टि और एक सृष्टि हुई है और उसके लिए हम माताजी को हजार-हजार, लाख-लाख धन्यवाद दें, तो भी थोड़ा होगा। गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी का उपकार हम सब पर है, उन्होंने वैसे तो जीवन भर अपनी तपस्या, साधना, शिक्षा एवं सारस्वत उपक्रमों से हमें अनुगृहीत किया है किन्तु उस लम्बी शृंखला में आज एक बड़ा अवदान जुड़ गया है, वह है ‘विश्वशांति महावीर विधान’ जो २६ मण्डल विधानों के राष्ट्रीय आयोजन के रूप में है यानि हर मण्डल सौ वर्ष का प्रतीक है, इस प्रकार २६०० वर्ष का यह भगवान महावीर का विधान एक उत्कृष्ट, उत्कर्ष का क्षण हम सबके लिए लाया है। भगवान महावीर के इस २६००वें जन्मकल्याणक के मंच पर एक छवि कुण्डलपुर के राजकुमार भगवान महावीर की है तथा दूसरी छवि है तीर्थंकर भगवान महावीर की। आज हम इन छवियों में अहिंसा, अनेकांत की जीवनयात्रा एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त की उज्ज्वल छवि देखते हैं। हमको यह क्षण २६०० वर्ष बाद मिला, यह हमारे ऊपर पूज्य माताजी का ऋण है। यह एक तरह की गंगोत्री और यमुनोत्री हैं, जिनने मंत्रों के माध्यम से इस उपदेश को हम तक पहुँचाया है। ज्ञानमती माताजी ने चरैवेति-चरैवेति के मंत्र को चरितार्थ किया है इसलिए यह अभियान शुरू हुआ है। जैन महासभा दिल्ली के महासचिव प्रो. रतन जैन ने कहा कि ‘‘आज यदि साध्वी श्रेष्ठ, दीर्घतपस्विनी, ज्ञानमती माताजी का मूल्यांकन करना है, तो उस घटना के संदर्भ में करें कि आज हिन्दुस्तान का कोई विद्वान यह कहने का दुस्साहस नहीं कर सकता कि जैनधर्म की स्थापना भगवान महावीर ने की थी। आज अगर इतिहास में बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी के अन्दर जैन संस्कृति में किसी एक व्यक्ति का इतना बड़ा उद्घोष है, योगदान है कि उन्होंने जैनधर्म को ऋषभदेव से जोड़ा है, तो वह कार्य केवल ज्ञानमती माताजी ने किया है। कार्यक्रमों की इस धूम में, १०० करोड़ रुपये की इस आंधी में, प्रधानमंत्री के बराबर अपनी कुर्सी ढूंढ़ने की लालसा में, आज जैन समाज को कोई चिंतनपूर्ण कार्यक्रम दे पा रहा है, तो वह ज्ञानमती माताजी हैं और यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि अगर सांस्कृतिक मंत्री जी को माताजी की शरण मिल जाए तो भगवान महावीर का जन्मकल्याणक, जो अपनी आभा नहीं बना पा रहा है, वह सारे विश्व में अपनी आभा बना लेगा। हमने भगवान महावीर को नहीं देखा, पर उनके शासन में ज्ञानमती माताजी को देख रहे हैं। यह हमसे भूल हो गई, भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव से सबक लेकर भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक का भार हमें ज्ञानमती माताजी को सौंपना चाहिए था, खैर! जब जागो तभी सबेरा। आज समाज की दशा और दिशा से हम भलीभांति परिचित हैं ‘संघे शक्ति: कलियुगे’ जो समाज आज एक होकर चलेंगे, वही अपनी विजयपताका फहराएंगे और इस आंदोलन में कोई अपनी आहुति दे रहा है, तो वह ज्ञानमती माताजी जैसी तपस्वी संत हैं, मैं इस अभियान को अपनी श्रद्धा का अघ्र्य चढ़ाने आया हूँ।’’
गाणिनी माताजी को दी गर्इं विभिन्न उपाधियाँ-गुरुभक्त्या भवेदत्र, महारण्ये महत्पुरम्। तत्राभीष्टं फलं चैव, कल्पवल्ल्येव विन्दते।।अर्थात् गुरुभक्ति से महावन में भी बड़ा भारी नगर हो सकता है और उसमें कल्पलता के समान अभीष्ट फल प्राप्त हो सकते हैं। शायद यही कारण है कि श्रावक अनेक प्रकार से गुरु की सेवा करके अपना अहोभाग्य मानता है, फिर सन्त-साधु तो त्याग और वैराग्य की मूर्ति होते हैं, उनके लिए तो निन्दक या प्रशंसक दोनों समान हैं, कोई उनकी निन्दा करे या प्रशंसा, वे प्रत्येक के प्रति समता भाव रखते हैं। गुरुभक्ति कर पुण्यबंध का ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस महायज्ञ के समापन अवसर पर अनेक प्रान्तों से पधारे प्रतिनिधियों ने पूज्य माताजी को उपाधियों से विभूषित कर अपना गौरव माना। यूँ तो माताजी सदैव कहती हैं कि मेरे गुरु द्वारा दी गई आर्यिका दीक्षा की उपाधि ही मेरे लिए सबसे महान है परन्तु पूज्य माताजी को समय-समय पर आचार्यों, समाजों एवं विश्वविद्यालय द्वारा अनेक उपाधियाँ प्राप्त हुर्इं हैं, उसी शृंखला में महाराष्ट्र प्रांत के प्रतिनिधियों ने उन्हें ‘‘राष्ट्रगौरव’’, अवधप्रान्त ने ‘‘धर्ममूर्ति’’ एवं दिल्ली के प्रतिनिधिमण्डल ने ‘‘विश्वविभूति’’ की उपाधि से विभूषित कर अपने प्रांत का गौरव वृद्धिंगत किया।
अनेक लोगों ने कहा-माताजी! इसे तो २५ अप्रैल तक मनाना चाहिए- जिन-जिन ने इस राष्ट्रीय आयोजन को किया, देखा या सुना, सभी ने मुक्तकण्ठ से इस समसामयिक एवं महत्वपूर्ण आयोजन की प्रशंसा की। अनेक लोगों ने तो भावविभोर होकर कहा कि यह कार्यक्रम समाप्त हो जायेगा, यह सोचकर ही अजीब सा लगता है। कुछ ने कहा-माताजी! इसे तो लगातार २५ अप्रैल तक यूँ ही चलाते रहना चाहिए और यद्यपि ऐसा कुछ संभव नहींr था, फिर भी समारोह की भव्यता, आनन्दानुभूति के कारण लोग अनायास ही यह कह उठते थे।
सभी को मिला पूज्य माताजी का आशीर्वाद- इस राष्ट्रीय आयोजन में तन-मन-धन का योगदान प्रदान करने वाले महानुभावों को तो पूज्य माताजी का आशीर्वाद मिला ही, देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व शासकगण के लिए भी पूज्य माताजी ने इस मंच से अपना भरपूर मंगल आशीर्वाद प्रेषित किया।
साधु-साध्वी सदा धर्मप्रभावना की प्रेरणा ही प्रदान करते हैं- आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पंचमकाल के साधु-साध्वियों के लिए निम्न प्रकार का उपदेश करने की प्रेरणा दी है-दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं, जिणिंद पूजोवदेसो य।।२४७।।अर्थात् आजकल के साधु-साध्वी दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उपदेश दें, शिष्यों का संग्रह-निग्रह तथा आगम के अनुकूल पोषण भी करें एवं जिनेन्द्र भगवान की महापूजा (पंचकल्याणक पूजा विधान) आदि धर्मप्रभावना का उपदेश देवें। प्रवचनसार में कथित इस गाथा का अभिप्राय यह है कि वीतरागता की प्रतिमूर्ति जैन साधु-साध्वी धर्म की प्रभावना के कार्यों में सदैव अग्रसर रहें। पूज्य माताजी कई बार कहा करती हैं कि अपने ध्यान-अध्ययन में से समय निकालकर जैसे पूर्वाचार्यों ने धर्मप्रभावना के अनेकानेक कार्य किए हैं, उसी प्रकार से आज के साधु-साध्वियों को भी जैनधर्म की प्रभावना के कार्यों में ही अपनी अनुमति देनी चाहिए क्योंकि शेष अस्पताल, विद्यालय, गोशाला आदि लौकिक कार्य सरकार, समाज एवं गृहस्थ के योग्य होते हैं।
श्री ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ में वेदी शुद्धिपूर्वक भगवन्तों की स्थापना- भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष २००० के अन्तर्गत पूज्य माताजी की प्रेरणा से अनेक स्थानों पर निर्मित हो रहे ‘‘ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ’’ में से कनॉट प्लेस-दिल्ली में नवनिर्मित प्रथम कीर्तिस्तंभ में वेदीशुद्धिपूर्वक ४ भगवन्तों की स्थापना की गई। यह कीर्तिस्तंभ दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र जी के सक्रिय सहयोग से स्व. श्री महावीर प्रसाद जैन, ठेकेदार परिवार की ओर से निर्मित हुआ। इसमें १ नवम्बर को जिनप्रतिमा स्थापना की पावन बेला में साहू श्री रमेशचंद जैन एवं श्री चव्रेश जैन (प्राचीन अग्रवाल दि. जैन पंचायत के प्रमुख) सहित सैकड़ों की संख्या में लोगों ने पधारकर धार्मिक क्रियाकलापों में भाग लिया। इस अवसर पर श्री चव्रेâश जी ने कहा कि जैसे जैनधर्म की कीर्ति को फैलाने में ये कीर्तिस्तंभ साधन हैं, उसी प्रकार आत्मा की प्रभावना में रत्नत्रय साधना का महत्व है। पूज्य माताजी ने इस निर्माण की प्रेरणा देकर दिल्ली में जैनधर्म की प्राचीनता का कीर्तिमान स्थापित कर दिया है।
महिलाओं के लिए माताजी का विशेष उद्बोधन- १ नवम्बर २००१ को शरदपूर्णिमा के दिन अपने जन्मदिन की सभा में पूज्य माताजी ने महिलाओं के लिए विशेष सम्बोधन प्रदान करते हुए कहा कि जिस काया से मुझे भौतिक शरीर की प्राप्ति हुई, वह मात्र मेरी जन्मदात्री ही नहीं अपितु वह सुखद क्षण मुझे याद आ रहे हैं, जब सन् १९५२ में आज के दिन बाराबंकी में आचार्य श्री देशभूषण जी के लिए कांपते हाथों से अश्रुपूरित नेत्रों से पेन्सिल द्वारा कोरे कागज पर लिखकर इन्होंने दिया था कि मेरी पुत्री सर्वथा योग्य है, वह जो व्रत नियम चाहती है, आप उसे प्रदान करें। अनन्तर वह क्षण भी याद आए, जब सन् १९७१ में उन्होंने आर्यिका दीक्षा धारण की। आज आप भी ऐसी माता बनने का संकल्प करें। जो महिलाएं गर्भ में आई बालिका की हत्या कर देती हैं, वह संकल्पपूर्वक हत्या का भाव भी लाने का पूर्णत: त्याग करें।
धार्मिक विविधता संरक्षण पर आयोजित विश्वसंसद में गूंजी भगवान महावीर की वाणी- राजधानी दिल्ली के होटल-हिल्टन इंटरकांटिनेंटल में १५ से १७ नवम्बर २००१ तक ‘‘धार्मिक विविधता संरक्षण पर आयोजित विश्व संसद में पूज्य माताजी के मंगल संदेश के रूप में भगवान महावीर के सर्वोपयोगी सम-सामयिक सिद्धान्तों की अनुगूंज मुखरित हो उठी, जब १७ नवम्बर को माताजी के शिष्य मण्डल कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, ब्र. सारिका व स्वाति जैन ने इस आयोजन में दिगम्बर जैन समाज का प्रतिनिधित्व किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के निर्देशन में द्वारा यह विश्व संसद आयोजित की गई। पूर्व राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन, प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी, विहिप अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल एवं अनेक विदेशी धार्मिक प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित इस कार्यक्रम में भाग लिया।
दिल्ली में स्थाई निर्मित पावापुरी रचना के समक्ष २६०० निर्वाणलाडू चढ़ाए गए- जब सारा देश भगवान महावीर का जन्मकल्याणक महोत्सव अपने-अपने स्तर पर मना रहा था, उस समय पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से उनके संघ सानिध्य में राजधानी दिल्ली के कनॉट प्लेस-राजा बाजार स्थित श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर के प्रांगण में पावापुरी सरोवर की स्थाई रचना बनाकर ‘‘दीपावली’’ के शुभ दिन कार्तिक कृष्णा अमावस्या, १५ नवम्बर को प्रात: २६०० निर्वाणलाडू चढ़ाने का भव्य आयोजन किया गया। ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के राष्ट्रीय आयोजन के प्रमुख इन्द्र श्री कमलचंद जैन-खारीबावली, दिल्ली का रजत प्रशस्ति पत्र से सम्मान करते हुए ‘‘दानवीर समाजरत्न’’ तथा संघपति लाला महावीर प्रसाद जी, श्री प्रेमचंद जैन-खारीबावली, दिल्ली व राजकुमार जैन-वीरा बिल्डर्स को भी ‘‘दानवीर समाजरत्न’’ की उपाधि प्रदान की गई। श्री आनन्द जैन-जैन मार्बल होम, मेरठ, श्री श्रीपाल जैन ‘मोटर वाले-राजपुर रोड, को ‘समाजरत्न’ की उपाधि देते हुए सभी सौधर्म इन्द्र एवं विशेष दानदातारों तथा कार्यकर्ताओं का भी प्रशस्तिपत्र द्वारा सम्मान किया गया।
पाठ परिवर्तन की घोषणा से हर्ष की लहर- सन् १९९३ से जैनधर्म की प्राचीन शाश्वत सत्ता के साथ इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को मानवीय सभ्यता के आद्यप्रणेता के रूप में पुनप्र्रतिष्ठापित करने के संकल्प को पूर्ण करने में कटिबद्ध पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के अनवरत प्रयासों की सार्थकता भारत सरकार द्वारा एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी भ्रांतियों के निराकरण की सरकारी घोषणा के रूप में दृष्टिगत हुई। इस घोषणा से समस्त समाज में खुशी की लहर दौड़ गई।
इण्डिया गेट पर सर्वधर्म सम्मेलन- भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव दिल्ली प्रदेश समिति के तत्त्वावधान में भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में तथा अहिंसा के समर्थन में एक विशाल मौन पदयात्रा विजय चौक से इण्डिया गेट तक १८ नवम्बर को आयोजित की गई, जिसमें हजारों स्चूली बच्चों एवं सामाजिक गणमान्य लोगों ने अपने हाथों में लिए बैनरों से अहिंसा एवं भाईचारे का संदेश दिया। पदयात्रा के पश्चात् इण्डिया गेट पर आयोजित सर्वधर्मसभा में दिगम्बर जैन समाज की ओर से पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आदेशानुसार मैंने अपना सानिध्य प्रदान किया। साथ ही श्वेताम्बर स्थानकवासी आदि सम्प्रदाय की ओर से प्रो. मुनि महेन्द्र कुमार जी, मुनि श्री रवीन्द्र कुमार जी एवं श्रमणी प्रतिभाप्रज्ञ ने जैनधर्म का, श्री ए.के. मर्चेन्ट ने बहाई धर्म का, महंत सेवादास ने सिख धर्म का, स्वामी अग्निवेश ने हिन्दू धर्म एवं दरगाह हजरत निजामुद्दीन के दीवान सैय्यद अली मूसानिजामी ने मुस्लिम धर्म का उद्बोधन प्रदान करते हुए विश्वशांति एवं सद्भावना का संदेश दिया। उस समय मैंने अपने उद्बोधन में कहा कि विश्वभर में शांति, अहिंसा और अध्यात्म का निर्यात करने वाला भारत देश है और भारत का दिल है-दिल्ली तथा दिल्ली के दिल इण्डिया गेट पर भगवान महावीर के अहिंसा, मैत्री, अनेकांत इत्यादि सिद्धान्तों का उद्घोष सम्पूर्ण विश्व की आवाज बनेगा और इसी से धीरे-धीरे आतंकवाद, हिंसा, वैमनस्य, आपसी द्वेष इत्यादि भावनाएं समाप्त होंगी। आतंकवादियों को भी ऐसे संदेशों से सद्बुद्धि मिलेगी, अत: इस प्रकार के शांति समारोह भी आज की आवश्यकता हैं। पुन: मैंने संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में ‘‘विश्वशांति प्रार्थना’’ का पाठ भी कराया।
जप-तप के रूप में साकार हुआ भगवान महावीर का दीक्षाकल्याणक महोत्सव- १० दिसम्बर २००१ को राजधानी दिल्ली के तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में जैन समाज के सभी सम्प्रदायों के २०० से भी अधिक साधु-साध्वियों के सानिध्य में ‘जप-तप महाकुंभ’ के रूप में भगवान महावीर का दीक्षाकल्याणक महोत्सव विलक्षण रूप में सम्पन्न हुआ। भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव समिति, दिल्ली द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में जैनाचार्य डॉ. शिवमुनि जी महाराज एवं सभी सम्प्रदायों के विविध साधु-साध्वियों के मध्य पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (ससंघ) ने अपना सानिध्य प्रदान किया एवं उपस्थित श्रद्धालुओं को सम्बोधित किया। पूज्य माताजी ने इस अवसर पर कहा कि यदि समस्त साधुवर्ग एकजुट होकर पूरे समाज का नेतृत्व करें, तो भगवान महावीर का यह २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव नई ऊँचाईयों को छू सकता है। भारत सरकार को इस महोत्सव के लिए माताजी ने मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए अहिंसा एवं अनेकांत के सर्वोदयी सिद्धान्तों को विश्वव्यापी स्तर पर प्रचार करने की प्रेरणा दी। सांसद श्री दिलीप गांधी, डॉ. कर्ण सिंह-सांसद एवं संस्कृति मंत्री श्री जगमोहन जी के निजी सचिव श्री अशोक भट्ट (आई.ए.एस.), दिल्ली भाजपा अध्यक्ष श्री मांगेराम गर्ग एवं प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी मुख्य अतिथि के रूप में इस कार्यक्रम में उपस्थित थे। पुन: मैंने पूज्य माताजी की आज्ञानुसार लघु सामायिक एवं ध्यान का अभ्यास कराया। णमोकार मंत्र, मेरी भावना, महावीराष्टक, महावीर चालीसा, शांति पाठ, भक्तामर इत्यादि के सामूहिक पाठ से सारा स्टेडियम गूंज उठा। इस महोत्सव का झण्डारोहण संघपति लाला महावीर प्रसाद जैन (बंगाली स्वीट सेंटर, दिल्ली) द्वारा किया गया। स्वागताध्यक्ष श्री मोहनलाल सेठिया ने आगन्तुक अतिथियों का स्वागत किया। सभा का कुशल संचालन महोत्सव समिति के महासचिव प्रो. रतन जैन ने किया। अन्य प्रमुख व्यक्तित्व थे-कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन, श्री रिसबचंद जैन (अध्यक्ष महोत्सव समिति), श्री मांगीलाल सेठिया, श्री सुखराज सेठिया, श्री वी.सी. जैन भाभू, श्री के. एल. पटावरी, श्री दीपचंद जैन, श्री आर.डी. जैन, श्री नेमिचंद जैन इत्यादि। अंत में आचार्य डॉ. शिवमुनि जी महाराज ने सभी को संकल्प ग्रहण कराते हुए अणुव्रती जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज ने समस्त साधुवर्ग को पूज्य माताजी द्वारा रचित सिद्धान्तचिंतामणि टीका सहित षट्खण्डागम ग्रंथ एवं अन्य साहित्य प्रदान किया।
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद का रजत जयंती समारोह- ग्रंथ पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने पंचमकाल में होने वाले धर्म के उत्थान-ह्रास आदि को सूचित करने वाले १६ स्वप्न देखे थे, जिसमें एक स्वप्न था कि महारथ में गोवत्स जुते हुए हैं और उसका फल यह था कि धर्म की गाड़ी को युवा वंâधे ही खींचेंगे और उन्हीं स्वप्नों का साकार स्वरूप आज देखने में आता है कि जिनधर्मरूपी गाड़ी में युवा वर्ग ही आचार्य, उपाध्याय, साधु, गणिनी, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी आदि रूपों में संवाहक बन रहे हैं तथा धर्म की गाड़ी को खींचकर धर्मरूपी खेती को वृद्धिंगत कर रहे हैं। पूज्य माताजी के क्षुल्लिका दीक्षा गुरु आचार्य श्री देशभूषण महाराज की प्रेरणा से युवाओं की एक संस्था ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद’ की स्थापना १ जनवरी १९७४ को हुई थी, जो वर्तमान में पूज्य माताजी की प्रेरणा प्राप्त कर धर्म की चहुँमुखी प्रगति कर रही है। भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत उस संस्था के २५ वर्ष पूर्ण होने पर पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं संघ सानिध्य में युवा परिषद का रजत जयंती समारोह एवं दिगम्बर जैन युवाओं का राष्ट्रीय सम्मेलन ६ जनवरी २००२ को प्रात: १० बजे फिक्की ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया, इस अवसर पर प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी आदि अनेक गणमान्य महानुभाव उपस्थित थे। समारोह की अध्यक्षता युवा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने की। युवा परिषद की दिल्ली प्रदेश समिति की ओर से आयोजित इस समारोह में दिल्ली की विभिन्न कालोनियों के २६ युवाओं को (२६ प्रकार के नियमों का पालन कर जैनत्व की शान कायम रखने वाले एवं जिनधर्म पताका को फहराने वाले) ‘युवारत्न’ की उपाधि से अलंकृत करते हुए सम्मानित किया गया, जिसमें प्रथम सम्मान प्राप्त किया ग्रीन पार्क निवासी श्री अरिहंत कुमार जैन ने। साथ ही सभी को माताजी एवं संघस्थ साधुओं का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। ‘‘पूज्य माताजी ने इस समारोह जैसे विशाल कार्यक्रम को सम्पन्न करवाकर अंतत: मन में कब से चली आ रही भावना को मूर्तरूप देने का निर्णय किया और वह भावना थी-भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) का विकास। जिनेन्द्र भगवान के शासन में हम सबको जिनधर्म का महान पवित्र पथ प्राप्त हुआ है, उनकी जन्मभूमि का कण-कण हमारे लिए परम पवित्र एवं मूल्यवान है। पूज्य माताजी की अतीव इच्छा थी कि भगवान के २६००वें जन्मजयंती वर्ष की सार्थकता तभी है, जब भगवान महावीर की जन्मभूमि विश्वभर में महिमामण्डित हो जाए व समस्त समाज जागृत होकर महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर की महानता एवं उपयोगिता को समझकर उसके विकास हेतु कटिबद्ध हो जाए। वस्तुत: महान पुरुषों की दृष्टि ही दूरदर्शितापूर्ण एवं सबल भविष्य की सम्पोषक होती है।’’
मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत ने चमत्कार दिखाया- पूज्य माताजी ने स्वरचित ‘‘विश्वशांति महावीर विधान के २६०० मंत्रों में से १०८ मंत्र लेकर ‘मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत’ की रचना की, जिसे मैंने पूज्य माताजी से नवम्बर २००१ में ग्रहण किया और दिसम्बर २००१ में उस व्रत को प्रारंभ किया, मेरे साथ-साथ संघ में सभी ने इस व्रत को ग्रहण किया। १० फरवरी तक मेरे मात्र ४ ही व्रत हुए थे कि एक दिन राजा बाजार की धर्मशाला में प्रवास के मध्य मैंने संघ चैत्यालय में श्री जी का अभिषेक देखने के बाद पूज्य माताजी से निवेदन किया कि माताजी! यूँ तो सारे भारत में राष्ट्रीय स्तर पर भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष धूमधाम से विविध आयोजनों के माध्यम से मनाया जा रहा है और प्रांतीय, सामाजिक, प्रादेशिक स्तर पर भी लोग नाना आयोजन कर रहे हैं परन्तु जिन शासनपति भगवान महावीर के शासनकाल में हम और आप सभी लोग रह रहे हैं, उनकी जन्मभूमि की ओर किसी की दृष्टि नहीं है और आप उसे विश्व के मानसपटल पर लाना भी चाहती हैं, तो क्यों न आप भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार कर उसे उसका वास्तविक स्वरूप प्रदान करें! उस समय पूज्य माताजी ने मेरी प्रार्थना को सुना और मनन भी किया। चूँकि माताजी इस जन्मोत्सव हेतु राजधानी दिल्ली में आयोजित होने वाले कार्यक्रम की वृहद् रूपरेखाएँ बना रही थीं, साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य भी कमजोर था किन्तु न जाने उस दिन माताजी को क्या हुआ कि उन्होंने शारीरिक स्वास्थ्य एवं भक्तों के अतीव आग्रह को मद्देनजर करते हुए कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार की घोषणा ही कर दी, फिर तो पूरे दिल्ली की जैन समाज में हलचल मच गई कि एक बार पुन: माताजी हमें छोड़कर विहार की योजना बना रही हैं किन्तु पूज्य गणिनी माताजी के हृदय में तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियों के विकास की भावना हर क्षण विद्यमान रही है और विशेषरूप से भगवान महावीर की जन्मभूमि के विषय में कुछ आधुनिक इतिहासकारों द्वारा उठाए गए विवाद से पूज्य माताजी बड़ी आश्चर्यचकित हुर्इं कि वर्तमान की अर्वाचीन शोधों के आधार पर प्राचीन कल्याणक भूमियों को परिवर्तन करने वाली प्रथा हमारी संस्कृति एवं मूल आचार पद्धति पर ही आघात करने लगी है। अत: उन्होंने मन ही मन कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार का दृढ़ निश्चय कर लिया। वस्तुत: मुझे तो यह उस व्रत का ही चमत्कार दृष्टिगत हुआ, जिसे लेते और करते समय मैंने प्रबल भावना संजोई थी कि कभी जन्मभूमि कुण्डलपुर के साक्षात् दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो और इस महोत्सव वर्ष में भगवान महावीर की जन्मभूमि विश्व के मानस पटल पर अंकित हो जावे। इसीलिए शायद भगवान महावीर की शासन देवी सिद्धायिनी माता ने ही पूज्य माताजी को अन्तप्र्रेरणा प्रदान कर उसे मूर्तरूप दे दिया। उनके इस निर्णय से मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता तो हुई ही, महावीर व्रत के प्रति मेरी श्रद्धा और अधिक प्रगाढ़ हो गई पुन: पाँच हजार से भी अधिक नर-नारियों ने यह व्रत ग्रहण किया। मैंने आगे जाकर उन्हीं मंत्रों से ‘‘मनोकामना सिद्धि विधान’’ की रचना भी की है।
N.C.E.R.T.ऊ. द्वारा विशेष वार्ता- ११ जनवरी २००२ को संघस्थ ब्र. कु.सारिका एवं कु. स्वाति को माताजी की आज्ञा से N.C.E.R.T. भेजा गया, वहाँ उनने इतिहास विभाग में जाकर अतुल रावत आदि प्रमुख लोगों से बातचीत की, तब उन्होंने हमारा लिखा हुआ पाठ भिजवाने के लिए कहा, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि माताजी जो भी सुधार चाहती हैं, हम इतिहास में अवश्य परिवर्तित करेंगे पुन: दो-तीन दिनों के अन्तराल में १४ जनवरी को अतुल रावत जी (इतिहास संशोधन में नियुक्त प्रतिनिधि) स्वयं पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे और उनसे पाठ्यक्रमों में जैनधर्म विषयक भ्रान्त धारणाओं को दूर करने के संबंध में सन्तोषप्रद चर्चा हुई। मैंने उनको ५ पृष्ठीय लेख ‘‘जैनधर्म एवं भगवान महावीर’’ दिया, साथ ही पूर्व से की गई कोशिशों का एक मेमोरेन्डम और कुछ पाठ्य पुस्तकों के गलत पाठ व उनके नीचे संशोधित किए गए सही पाठ की कापी ये तीनों चीजें दीं, जिसे उन्होंने सरलतापूर्वक स्वीकार किया और कहा कि मैं पूरी कोशिश करके इस पाठ को दूँगा या फिर इसके आधार से दूसरा सही पाठ लिखाऊँगा।
स्कूल में गूंज उठी भगवान महावीर की वाणी- भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से राजधानी दिल्ली में एक अनूठा कार्यक्रम चला। वह था स्थानीय सरकारी विद्यालयों में ‘भगवान महावीर प्रवचन श्रृंखला एवं प्रश्नमंच’। जिनके माध्यम से जैनेतर छात्र-छात्राओं एवं अध्यापकों को भगवान महावीर और जैनधर्म संबंधी जानकारी एवं मंगल संदेश प्राप्त हुए। भगवान महावीर संबंधी लघु साहित्य का प्रथमत: विद्यार्थियों को वितरण कर दिया गया, स्वाध्याय के माध्यम से कितने ही जैनेतर विद्यार्थी, जो साधारणत: जैनधर्म से अपरिचित थे, भगवान महावीर के जीवन के सूक्ष्म तथ्यों से परिचित हुए भी, तत्पश्चात् संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों के द्वारा विद्यालय में जाकर प्रवचन एवं प्रश्नमंच का आयोजन करके विजेता छात्र-छात्राओं को भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव प्रचार समिति के सौजन्य से पुरस्कृत किया गया, यह बड़े हर्ष का विषय रहा कि विद्यार्थी एवं अध्यापक बड़े उत्साहपूर्वक समस्त कार्यक्रम में भाग लेते थे।प्रो. शशि प्रभा जैन, लालबहाुदर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ-दिल्ली का सराहनीय सहयोग इस कार्यक्रम में प्राप्त हुआ। मात्र दिल्ली ही नहीं वरन् अन्य प्रदेशों-मध्यप्रदेश, राजस्थान इत्यादि में भी इसी प्रकार की संगोष्ठियाँ आयोजित करने हेतु साहित्य प्रदान किया गया। इन संगोष्ठियों के माध्यम से विविध धर्मों के विद्यार्थियों में मद्य-मांस आदि त्याग के प्रति विशेष अभिरुचि जागृत होती है। अधिकांशत: विद्यार्थी जीवनभर के लिए इनका त्याग कर देते हैं। सर्वोदय कन्या विद्यालय-मोतीबाग-१ में कक्षा-६ की मुस्लिम छात्रा कु. सभेनूर ने बहुत अच्छी तैयारी के साथ प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया और उसने आजीवन मद्य, मांस, मधु का त्याग कर दिया। इसी प्रकार ऐसे शैक्षणिक आयोजनों से विद्यार्थियों में चारित्र निर्माण के अनेकों उदाहरण दृष्टिगोचर होते रहते हैं।