दोहा
वासणगण से पूज्य हैं, वासुपूज्य भगवान।
श्री वसुपूज्य के पुत्र हैं, वासुपूज्य भगवान।।१।।
माँ जयावती के लाल हैं, वासुपूज्य भगवान।
तीन लोक के नाथ हैं, वासुपूज्य भगवान।।२।।
गुणगाथा तुमरी कहें, वासुपूज्य भगवान।
लिखने की दो शक्ति अब, वासुपूज्य भगवान।।३।।
वासुपूज्य भगवान की जय हो, बारहवें जिनराज की जय हो।।१।।
चम्पापुर नगरी की हो जय, प्रभु का पद है अनुपम-अक्षय।।२।।
सौ इंद्रों से वंद्य प्रभू जी, ग्रन्थि रहित निर्ग्रन्थ प्रभू जी।।३।।
सौ इन्द्रों के नाम बताओ, अपना ज्ञान प्रकाश बढ़ाओ।।४।।
भवनवासियों के चालिस हैं, व्यन्तर देवों के बत्तिस हैं।।५।।
कल्पवासियों के हैं चौबिस, ज्योतिषियों के सूर्य-चन्द्र दो।।६।।
चक्रवर्ती है एक मनुज में, सिंह एक है तिर्यञ्चों में।।७।।
ऐसे ये सौ इन्द्र कहाते, ये जिनवर को शीश झुकाते।।८।।
उन जिनवर श्री वासुपूज्य के, पंचकल्याणक चम्पापुर में।।९।।
तिथि आषाढ़ कृष्ण षष्ठी दिन, प्रभु के गर्भकल्याणक की तिथि।।१०।।
नौ महिने के बाद मात ने, जन्म दिया तीर्थंकर शिशु को।।११।।
इन्द्र अनेकों परिकर के संग, करने आते विविध महोत्सव।।१२।।
जन्मोत्सव के बाद इन्द्रगण, जाने लगते स्वर्गलोक जब।।१३।।
देव कुमार अनेक वहीं पर, करें नियुक्त प्रभू की खातिर।।१४।।
वे जिनवर के संग खेलते, उनका मन अनुरंजित करते।।१५।।
तरह-तरह के रूप बनाते, प्रभु को वे सब खूब रिझाते।।१६।।
समय शीघ्र ही बीत गया था, प्रभु ने पाई युवा अवस्था।।१७।।
रूप और सौन्दर्य प्रभू का, अतुलनीय-अद्भुत-अनुपम था।।१८।।
मात-पिता बस यही चाहते, आए पुत्रवधू अब घर में।।१९।।
पर प्रभु को स्वीकार नहीं था, ब्याह उन्हें मंजूर नहीं था।।२०।।
वे तो सिद्धिप्रिया के संग में, ब्याह रचाने को आतुर थे।।२१।।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशि के दिन, प्रभु जी ने जिनदीक्षा ले ली।।२२।।
प्रथम पारणा महानगर में, राजा सुन्दर के महलों में।।२३।।
तभी वहाँ पर खुश हो करके, पंचाश्चर्य किए देवों ने।।२४।।
पुष्पवृष्टि-गंधोदकवर्षा, जय जयध्वनि-रत्नों की वर्षा।।२५।।
दुंदुभि बाजे भी बजते हैं, पंचाश्चर्य इन्हें कहते हैं।।२६।।
ले आहार प्रभु वासुपूज्य जी, पहुँच गए दीक्षावन में ही।।२७।।
वहाँ कदम्ब वृक्ष के नीचे, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु के।।२८।।
माघ शुक्ल दुतिया का दिन था, प्रभु का समवसरण निर्मित था।।२९।।
उसमें स्थित होकर प्रभु ने, धर्मामृत बरसाया जग में।।३०।।
नव पदार्थ, छह द्रव्य बताए, सात तत्त्व-त्रयरत्न बताए।।३१।।
और अनेक गूढ़ विषयों का, प्रतिपादन प्रभुवर ने किया था।।३२।।
पुन: आयु के अन्त में प्रभु जी, पहुँच गए निज जन्मभूमि ही।।३३।।
मोक्ष वहीं से प्राप्त किया था, भादों शुक्ला चौदस दिन था।।३४।।
महिष चिन्ह से सहित प्रभू जी, बन गए तीन लोक के अधिपति।।३५।।
लाख बहत्तर वर्ष आयु थी, सत्तर धनुष की ऊँचाई थी।।३६।।
वर्ण आपका अति सुन्दर था, बिल्कुल सोने के जैसा था।।३७।।
हम करते हैं वंदन प्रभु जी, कर दो कृपा दृष्टि हम पर भी।।३८।।
कृपा आपकी जिस पर होवे, उसका हर दु:ख-संकट खोवे।।३९।।
और नहीं है कोई वांछा, दु:खरहित जग होय ‘‘सारिका’’।।४०।।
वासुपूज्य जिनराज का, यह चालीसा पाठ।
वसुकर्मों का नाश कर, जीवन सफल बनाय।।१।।
ज्ञानमती जी मात हैं, गणिनीप्रमुख महान।
वाणीवारिधि चन्दना-मती मात विख्यात।।२।।
उनकी मिली सुप्रेरणा, अत: लिखा यह पाठ।
अल्पबुद्धि फिर भी रचा, पढ़ लो चालिस बार।।३।।
चालिस दिन तक जो पढ़े, यह चालीसा पाठ।
उसके सब दुख दूर हों, मिलें सभी सुख-ठाठ।।४।।