कुरुजांगल देश की स्वर्ग तुल्य नगरी हस्तिनापुर। जहाँ शत्रुओं को पराजित करने वाले काश्यपगोत्रीय महाराजा अजितसेन अपनी प्रियदर्शना रानी के साथ राज्य करते थे। उन दोनों के पुण्यकर्म से ब्रह्म स्वर्ग से चयकर श्रेष्ठ गुणों के पुंज विश्वसेन नामक पुत्र जन्मे थे जो तीन ज्ञान के धारी थे। उन विश्वसेन का विवाह गान्धार देश के महाराज अजितञ्जय की पुत्री ऐरादेवी के साथ हुआ जो कि सनत्कुमार स्वर्ग से चयकर आर्इं थीं। महारानी ऐरादेवी महाराज विश्वसेन की पट्टरानी थीं। अहमिन्द्र (मेघरथ) का जीव सर्वार्थसिाqद्ध से चयकर माता ऐरादेवी की पवित्र कुक्षि में आने को था। उससे छह माह पूर्व ही सौधर्म इन्द्र को अवधिज्ञान से पता लग गया था और उन्होंने धनकुबेर को आज्ञा दी।
सौधर्म इन्द्र—(धनकुबेर से) हे कुबेर! कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर नगरी में महाराजा विश्वसेन राज्य करते हैं। उनकी महारानी ऐरादेवी के शुभ गर्भ से धर्म के नाथ, मुक्तिरूपी रमणी के भर्ता सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ अवतार लेंगे। इसलिये हे धनाधीश! पुण्य सम्पादन करने के लिये तुम वहाँ जाओ एवं अतिशय प्रसन्नता के साथ उनके प्रांगण में अतुल आश्चर्य प्रकट करने वाली रत्नों की अजस्र वर्षा करो।
कुबेर—(भक्ति भाव से) स्वामी! मैं तो धन्य हो गया। हे इन्द्रराज! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं प्रस्थान करता हूँ। (कुबेर प्रतिदिन महाराज विश्वसेन के राजप्रांगण में वैडूर्य, पद्मराग आदि मणियों एवं उत्तम सुवर्ण आदि की वर्षा करने लगा। उसमें कल्पवृक्षों के पुष्प आदि भी थे। उसने लगातार १५ मास तक रत्नवृष्टि की। चारों ओर रत्नवृष्टि हो रही है। खुशियों का वातावरण है, तभी लोग आपस में चर्चा कर रहे हैं।)
पहला व्यक्ति—देखो भाई! चारों तरफ बहुमूल्य रत्न बिखरे पड़े हैं। हमारी हस्तिनापुर नगरी स्वर्णमयी हो रही है।
दूसरा व्यक्ति—हाँ भइया! लेकिन यह तो बताना, इतनी अधिक रत्नों की वर्षा हो क्यों रही है ?
पहला व्यक्ति—अरे भाई! कमाल है, क्या तुम्हें नहीं मालूम! महाराज विश्वसेन की महारानी ऐरादेवी से तीर्थंकर पुत्र अवतार लेने वाले हैं।
तीसरा व्यक्ति—क्या कहा ? तीर्थंकर पुत्र, किन्तु यह बात इन देवराज को कैसे पता ?
पहला व्यक्ति—ये देवराज कोई साधारण नहीं हैं, समझे।
चौथा व्यक्ति—अच्छा! कौन हैं ये ?
पहला व्यक्ति—यह धनकुबेर हैं, धनकुबेर! इनको सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से सब कुछ जानकर रत्नवृष्टि करने भेजा है।
दूसरा व्यक्ति—(आश्चर्य से) अच्छा!
पहला व्यक्ति—हाँ, पूरे पन्द्रह महीनों तक होगी यह रत्नवृष्टि।
तीसरा व्यक्ति—क्या कहा ? पन्द्रह महीनों तक!
पहला व्यक्ति—हाँ भाई! यही तो तीर्थंकर प्रभु की महिमा है। जब उन्होंने अभी गर्भावतरण नहीं किया तब यह हो रहा है और जब जन्मेंगे तब क्या अद्भुत दृश्य होगा ?
द्वितीय दृश्य
महाराज विश्वसेन के मनोहर भवन में सुन्दर कोमल शैय्या पर महारानी शयन कर रही थीं। उसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में उन्होंने भगवान के जन्म को सूचित करने वाले श्रेष्ठ फलप्रदायक १६ स्वप्न देखे। प्रात: देवी बन्दीजनों द्वारा गाये गये मंगल गीतों को सुनकर प्रसन्नमुद्रा में उठकर बैठ जाती हैं और जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करती हैं।
पहली दासी—हे महारानी! आज आप बड़ी प्रसन्न दिखायी दे रही हैं ?
रानी ऐरादेवी—हाँ कान्ते! बात ही कुछ ऐसी है।
दूसरी दासी—(उत्सुकता से) महारानी जी! क्या कोई खास बात है ?
रानी ऐरादेवी—हाँ देवी! आज मैंने रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे हैं।
तीसरी दासी—अच्छा! यह स्वप्न क्या थे माते ? हमें भी बताइये।
रानी ऐरादेवी—देवियों! अभी राज्यसभा में मैं महाराज से उन स्वप्नों का फल पूछूँगी, तब आप भी सुन लीजियेगा।
दासियाँ—जैसी आज्ञा, महारानी जी। (दासियाँ महारानी को तैयार करती हैं और महारानी परिचारिकाओं के साथ राजदरबार में प्रवेश करती हैं।)
तृतीय दृश्य
महाराजा विश्वसेन के राजदरबार का दृश्यद्वारपाल—सावधान! महारानी ऐरादेवी राजदरबार में पधार रही हैं। (सभी उनके सम्मान में खड़े होकर जय-जयकार करते हैं।)
सामूहिक स्वर—महारानी ऐरादेवी की जय हो।
महारानी—(महाराज के समीप पहुँचकर) प्रणाम महाराज!
महाराजा—(आसन की ओर इशारा करके) आइये देवी! आसन ग्रहण कीजिये। कहिये, क्या कोई विशेष कारण है ?
महारानी—(बैठकर) जी स्वामी! कारण तो विशेष ही है। हे देव! रात्रि के अंतिम प्रहर में सोते हुए मैंने उत्तम फल को देने वाले स्वप्न देखे।
महाराजा विश्वसेन—कौन से स्वप्न देवी ? हमें विस्तारपूर्वक बतलाइये।
महारानी—अवश्य महाराज! सुनिये, मैं उनका वर्णन करती हूँ। पहले स्वप्न में मैंने पर्वताकार विशाल गजराज देखा है। दूसरे स्वप्न में उत्तुंग बैल, तीसरे स्वप्न में सिंह, चतुर्थ स्वप्न में ऐरावत हाथियों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त लक्ष्मी देखी…… (इस प्रकार महारानी क्रम से सोलह स्वप्नों को बताकर पुन: कहती हैं।) हे नाथ! स्वप्नों के अन्त में मैंने मुख में गजराज को प्रवेश करते देखा है।
महाराज—(क्रम-क्रम से एक-एक स्वप्न का फल बताकर रानी से कहते हैं) हे देवी! महान अभ्युदय को प्रकट करने वाले तेरे स्वप्नों का एकत्रित फल उत्तम पुत्र की प्राप्ति है। तेरे गर्भ में तीर्थंकर शिशु ने अवतार ले लिया है।
महारानी—(प्रसन्नमना होकर) स्वामी! यह बताकर आपने मेरी प्रसन्नता को द्विगुणित कर दिया है। हे देव! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।
महाराज—ठीक है महारानी। (सभी प्रियजनों में इस समाचार से हर्ष की लहर दौड़ गयी। महारानी अन्त:पुर में वापस आ गर्इं, सारे राज्य में खुशियाँ मनाई जा रही हैं। उसी समय स्वर्गों में चारों निकाय के देवों के यहाँ बाजे स्वयं बज उठे। भगवान के गर्भकल्याणक से इन्द्रों के आसन कम्पित हो उठे और उनके मुकुट स्वयमेव झुक गये। इन्द्र ने सात पैड आगे बढ़कर प्रभु को नमस्कार किया और स्वर्ग से चतुरंगिणी सेना के साथ आकर भगवान का गर्भकल्याणक मनाया और अष्ट दिक्कुमारियों को माता की सेवा में नियुक्त कर स्वर्ग लौट गया।) यहाँ उत्सव नृत्यादि दिखावें।
चतुर्थ दृश्य
वे अष्ट दिक्कुमारिकाएँ कभी माता की सेवा करतीं, कभी उनका मनोरंजन करतीं और माता से गूढ़ प्रश्न पूछतीं। देखते ही देखते नव माह व्यतीत हो गये। ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के शुभ दिवस प्रात:काल में महारानी ऐरादेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस समय सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसन्नता छा गयी। भावी तीर्थंकर के उत्पन्न होते ही देवों के यहाँ नगाड़े स्वयं बज उठे। कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगी। इन्द्रों के आसन कंपित हो उठे, उनके मुकुट स्वयमेव झुक गये। यह देखकर इन्द्र ने अवधिज्ञान से सब जान लिया।
(स्वर्ग का दृश्य)
सौधर्म इन्द्र—(सात पैंड आगे बढ़कर नमस्कार करके) जय हो, जय हो! तीर्थंकर भगवान की जय हो। (पुन: देवों से) हे देवगणों! अपार प्रसन्नता का विषय है। भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में हस्तिनापुर नगरी में तीर्थंकर प्रभु ने अवतार लिया है।
शचि इन्द्राणी—स्वामी! तब तो हम उनका जन्मकल्याणक मनाने के लिये चलेंगे।
सौधर्म इन्द्र—अवश्य देवी! (देव से) हे देव! शीघ्र ऐरावत हाथी को सुसज्जित कीजिये। हमारे साथ चारों निकाय के देव जन्मकल्याणक मनाने के लिये पृथ्वीलोक पर चलेंगे।
देवगण—जो आज्ञा सौधर्मेन्द्र! (सौधर्म इन्द्र अपने विशाल परिकर के साथ ऐरावत हाथी पर बैठकर पृथ्वीलोक पर हस्तिनापुर नगरी में जय-जयकार करते हुए आते हैं।)
देवों का सामूहिक स्वर—जय हो, जय हो, तीर्थंकर भगवान की जय हो। महाराज विश्वसेन की जय हो, महारानी ऐरादेवी की जय हो। (पुन: नगरी की तीन प्रदक्षिणा लगाकर सौधर्म इन्द्र शचि से कहते हैं।)
सौधर्म इन्द्र—हे शचि! शीघ्र ही माता के प्रसूतिगृह में जाइये और जिनशिशु का दर्शन कर अपने जन्म को सफल कीजिये। पुन: शिशु को लाकर हमें दीजिये जिससे कि हम उनका जन्माभिषेक कर सके।
शचि इन्द्राणी—जैसी आज्ञा इन्द्रराज! (शचि प्रसूतिगृह में प्रवेश कर माता की तीन प्रदक्षिणा लगाती है और उनकी प्रशंसा कर कहती है।) हे माता! आप संसार भर की माता हैं। आप ही महादेवी हैं, जो भावी तीर्थंकर त्रिलोकीनाथ कहलाते हैं, उनकी आप माता हैं। यद्यपि नारी जन्म सज्जनों के द्वारा निन्द्य है, तथापि तीर्थंकर पुत्र की जननी होने से आप त्रिलोक में प्रशंसनीय हैं। (पुन: माता को मायामयी निद्रा में सुलाकर एक मायामयी शिशु की अनुकृति रखकर तीर्थंकर शिशु को गोद में लेकर प्रसन्न होती रही।)
शचि इन्द्राणी—(प्रसूति गृह से बालक को लाकर) क्या अनुपम रूप है, देखकर आँखें तृप्त नहीं हो रही हैं। (पुन:-पुन: देखकर झूमने लगती है।)
सौधर्म इन्द्र—हे शचि! मुझे भी जिनशिशु के दर्शन करना है, लाइये, प्रभु को हमें दे दीजिये।
शचि इन्द्राणी—(जिनशिशु को इन्द्र के हस्तकमलों में देकर) लीजिये स्वामी! ऐसी दिव्य विभूति के दर्शन कर मेरा जन्म सफल हो गया।
सौधर्म इन्द्र—(भगवान के दर्शन कर झूम उठता है और गाने लगता है)
तर्ज—फूलों सा चेहरा तेरा……
त्रिभुवन के स्वामी तुम्हीं, धर्मतीर्थ के नाथ हो।
तेरी करे जो, भक्ती हृदय से, तेरा परम पात्र वो।।टेक.।।
कैवल्य रूपी ज्ञान के धारक, मोहान्धकार को नष्ट करो,
सौ इन्द्र वंदित हे पूज्य जिनवर,
हम को भी भव-भव से मुक्त करो, तेरी कृपा जिस पर भी हो,
तर जाता संसार वो, तेरी……।।१।।
(पुन: विशाल वैभव के साथ सभी सुमेरू पर्वत पर जाकर तीर्थंकर शिशु को पाण्डुकशिला पर स्थित सिंहासन पर विराजमान कर देते हैं और क्षीरसागर से लाये प्रासुक जल से जिनशिशु का १००८ कलशों से न्हवन कर देते हैं और उस गन्धोदक को मस्तक पर लगाकर परम प्रसन्न होते हैं। अभिषेक के पश्चात् शचि इन्द्राणी तीर्थंकर बालक को स्वर्ग से लाये हुए दिव्य वस्त्राभरण पहनाती हैं और शृंगार करके सभी देव परिकर के साथ आकर हस्तिनापुर में महाराजा विश्वसेन के पास लाकर माता-पिता को सौंप देती हैं। माता-पुत्र को गोद में लेकर परिवार के सदस्यों के साथ उसे दुलार करने लगी और पालना झुलाने लगी।
महारानी ऐरादेवी—(पालना झुलाकर)
तर्ज—नन्हीं परी…..
. मेरा लाल सोने चला, कोई ना जगाना,
मीठी मीठी नींद में है, लोरियाँ सुनाना।।
मेरा लाल शांतिनाथ, झूल रहा पलना,
नजर ना लगाना, मेरा चाँद ये सलोना।।
(उधर इन्द्र ने देवों के साथ माता-पिता की प्रशंसा की।)
सौधर्म इन्द्र—हे पूज्य पिता! हे माता! आप धन्य हैं, जगत्पूज्य हैं। तीनों लोक आपकी वन्दना करते हैं। आपके पुण्य के उदय से तीनों लोकों के नाथ ने आपके कुल में अवतार लिया है। आपका यह राजप्रासाद आज से जिनालय के समान है। (पुन: माता-पिता को वस्त्रादिक भेंटकर भगवान का जन्मोत्सव मनाते हुए आनन्द नामक नाटक कर ताण्डव नृत्य करते हैं पुन: सभी देवगण स्वस्थान को चले गये। दृढ़रथ का जीव भी पुण्य कर्म के उदय से सर्वार्थसिद्धि से चयकर महाराज विश्वसेन की दूसरी रानी यशस्वती के गर्भ से चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ। सूर्य और चन्द्रमा के सामन वे देवकुमार सभी को अनुरंजित करते हुए अनुक्रम से कुमार अवस्था को प्राप्त हो गये। भगवान जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे। उन्होंने आठ वर्ष की उम्र में ही बारह व्रत ग्रहण कर लिये, उनकी एक लाख वर्ष की आयु थी और ४० धनुष की काया थी। यौवन अवस्था आने पर पिता ने कुल, रूप, शील आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया। इस तरह उनके कुमारकाल के २५ हजार वर्ष व्यतीत हो गये तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण किया। भगवान ने और पच्चीस हजार वर्षों तक महामण्डलेश्वर राज्यलक्ष्मी के अनुपम सुख को भोगा। पुन: पुण्यकर्म के उदय से षट्खण्ड पृथ्वी को वश में करने वाले १४ रत्न उत्पन्न हो गये। यद्यपि भगवान मन्द लोभी थे तथापि पुण्यकर्म से प्रेरित हो वे दिग्विजय के लिये निकले और मात्र ८०० वर्षों में ही षट्खण्ड पृथ्वी को जीत लिया। उस समय देव, विद्याधर तथा भूमिगोचरी राजाओं ने उनका राज्याभिषेक किया।)
पाँचवां दृश्य
देवगण—(चक्रवर्ती को प्रणाम करके) हे चक्रवर्ती शांतिनाथ स्वामी! आपको हमारा बारम्बार प्रणाम। जय हो, जय हो, चक्रवर्ती सम्राट की जय हो।
सामूहिक स्वर—जय हो, चक्रवर्ती सम्राट की जय हो।
विद्याधर एवं भूमिगोचरी राजा—हे नाथ! हम इन स्वर्ण कलशों से आपका अभिषेक कर धन्य हो गये। हिमवान, विजयार्ध पर्वत के राजागण—(मस्तक झुकाकर) हे प्रभो! हम राजागण आपको प्रणाम करते हैं।
देवगण—हे सम्राट्! हमारे दिये दिव्य वस्त्राभरण को धारण कर हमें कृतार्थ कीजिये। (पुन: राजमुकुट लेकर) हे नाथ! इस मुकुट को धारण कर आप चक्रवर्ती के पद को सुशोभित करें। हे कामदेव! आपकी जय हो। (सभी जयकार कर अपने स्थान को चले जाते हैं। चक्रवर्ती सम्राट शांतिनाथ न्यायनीति से षट्खण्ड पृथ्वी का राज्य संचालन कर रहे हैं। उसमें भी भगवान को पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन भगवान अपने अलंकार भवन में थे, तब उन्हें दर्पण में अपनी दो छाया दिखीं। यह देखकर वह विचार करने लगे।)
सम्राट शांतिनाथ—इसके भीतर क्या रहस्य है ? यह मेरी दो छाया किस प्रकार से हो गयीं (पुन: अवधिज्ञान से जानकर) यह मेरी काया से उत्पन्न हुई पूर्व जन्म की पर्याय हैं। ओह! न जाने भव-भव में कितने जन्म पाये लेकिन भोगों की अभिलाषा फिर भी शान्त नहीं हुई। यह संसार नश्वर है, क्षणभंगुर है, शरीर भी अपना नहीं है। अब मुझे शीघ्र ही आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना चाहिये। जिस प्रकार यह छाया चंचल है उसी प्रकार राज्यपद, सम्पत्ति, आयु, रानियाँ आदि समस्त वैभव क्षणभंगुर हैं। (तदनन्तर भगवान मोक्ष प्राप्ति के लिये वैराग्य को दृढ़ करने हेतु १२ भावनाओं का चिन्तवन करने लगे। उधर अपने अवधिज्ञान से भगवान का वैराग्य जान अष्ट लौकांतिक देव वहाँ आये और हर्षोल्लास से मस्तक झुकाकर नमस्कार किया।)
सभी लौकांतिक देव—(पुष्पांजलि क्षेपण कर) हे सम्राट्! हे त्रिलोकीनाथ! हम लौकांतिक देवों का प्रणाम स्वीकार करें। (पुन:)
सारस्वत देव—हे देव! आप संसार के ज्ञाता हैं, ज्ञानियों में भी महाज्ञानी हैं। इस संसार में भला अन्य ऐसा कौन है जो आपको समझाए ?
आदित्य देव—हे स्वामिन्! आज आपके ज्ञान का उदय होने से इस संसार में मनुष्यों को स्वर्ग मोक्ष प्राप्त कराने वाले सुख के सागर महान धर्म का उदय होगा।
वन्हि देव—हे देव! आपके दीक्षाकल्याणक का समाचार सुनकर अनेक मोहग्रस्त मनुष्य मोह का नाश करेंगे। अरुण देवहे स्वामिन्! आपके केवलज्ञान से सज्जन प्राणियों का उपकार होगा, इसलिये आप केवलज्ञान प्राप्त करने के लिये उद्यम कीजिये।
गर्दतोय देव—हे नाथ! वैराग्यरूपी तीक्ष्ण अस्त्र के द्वारा सम्पूर्ण जगत को जीतकर मोहरूपी योद्धा को नष्ट कर आप शीघ्र संयम धारण करेंगे।
तुषित देव—हे नाथ! आप तीर्थंकर, चक्री एवं कामदेव हैं। तीन लोक के स्वामी हैं, तीन पुरुषार्थों के पारगामी हैं, अत: मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये चारित्र को धारण कीजिये।
अव्याबाध देव—हे देव! तीनों लोकोें में आपसे श्रेष्ठ कोई देव नहीं है। इसलिये आपको नमस्कार है।
अरिष्ट देव—हे देव! हमारे लिये तो आप ही शरण हैं। (लौकान्तिक देव भगवान की स्तुति कर स्वस्थान को चले गये। भगवान की दीक्षा में लौकान्तिक देव के वचन सहायक हो रहे थे तभी चारों निकाय के देव भगवान की जय-जयकार करते हुए दीक्षाकल्याणक मनाने के लिये आ गये। उन्होंने भगवान का उत्तम स्वर्ण कलशों से अभिषेक किया तब भगवान ने अपने पुत्र नारायण का राज्याभिषेक कर मुकुट पहनाया।)
छठा दृश्य
सम्राट—(पुत्र से) हे नारायण! आज से इस राज्य का उत्तरदायित्व आप पर है। न्यायनीतिपूर्वक इस प्रजा का और राज्य का संचालन कीजिये। (भगवान दीक्षा के लिये पालकी में बैठकर चलते हैं। सभी ओर जयकार और गीत-संगीत का आनन्द है। भगवान जब नगर से निकलने लगते हैं तब नगरवासी कहते हैं।)
सामूहिक स्वर—वैरागी सम्राट शांतिनाथ की जय हो, जय हो।
पहला नगरवासी—हे नृपाधीश! आप जाइये। आपका मोक्षमार्ग कल्याणकारी हो।
एक स्त्री—(दूसरी से) बहन! देखो तो। संसार में यह भी एक आश्चर्य की घटना है कि ये भगवान रत्न, निधि, रमणी आदि समस्त वैभव का त्याग कर वन को जा रहे हैं।
दूसरी स्त्री—हाँ बहन! संसार में ऐसे उत्तम मनुष्य कतिपय ही होते हैं जो लक्ष्मी को भरपूर भोग भी सकते हैं और क्षण भर में उसे त्याग भी सकते हैं।
एक व्यक्ति—ये भगवान तीर्थंकर, चक्री और कामदेव हैं, इसलिये ये इहलोक और परलोक के सर्व कार्यों में समर्थ हैं, अन्य कोई पुरुष ऐसा नहीं हो सकता।
दूसरा व्यक्ति—भइया! धर्म का प्रभाव तो देखो। जो इन्द्र भी समस्त देवों के संग इनकी सेवा कर रहा है। (भगवान नगर के बाहर जा पहुँचे। भगवान के वन गमन पर रानियाँ शोक से व्याकुल हो मंत्रियों को संग लेकर चल पड़ीं। उन्होंने अपने समस्त आभूषण उतार दिये और गिरती-पड़ती भगवान के पीछे चल दीं।)
पहली रानी—हे नाथ! आप हमें छोड़कर कहाँ चल दिये। हे स्वामी! आपके बिना हमारा कौन है, कम से कम एक बार तो हमारी तरफ देखिये।
दूसरी रानी—प्रभो! आपके बिना यह महल, यह जीवन सब सूना है (रोने लगती है), हम आपके बिना नहीं रह सकते।
तीसरी रानी—स्वामी! हमारे जीवन का सहारा तो आप ही हैं, आपके बिना हम क्या करेंगे ? (रोकर मूर्छित हो जाती है, अन्य रानियाँ भी रोने लगती हैं।)
एक विज्ञपुरुष—हे महारानियों! आप तो ज्ञानी हैं, संसार की स्थिति का परिज्ञान है आपको, फिर प्रभो तो उत्तम दीक्षा लेकर संसार का कल्याण करने जा रहे हैं। अत: आगे मत जाइये, आगे जाने के लिये प्रभु की अनुमति नहीं है। (उस आज्ञा को सुनकर गहरी साँस लेकर)
रानियाँ—ठीक है, अगर प्रभु की यही आज्ञा है तो अब हम भी अवश्य ही निर्दोष तपश्चरण करेंगी। (रानियाँ महल को लौट गईं। भगवान सहस्राम्र नामक वन में पहुँचे और देवों द्वारा स्थापित शिला पर पर्यंकासन से विराजमान हो पंचमुष्टि केशलोच किया और ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थी के दिन दीक्षा धारण कर ली। इन्द्र ने उन केशों को रत्नमंजूषा में रखकर क्षीरसागर में निक्षेपित कर दिया। भगवान के साथ चक्रायुध आदि एक हजार राजाओं ने दीक्षा ली। देव दीक्षाकल्याणक मनाकर और अन्य भाई बन्धु दीक्षाकल्याणक देखकर स्वस्थान चले गये। भगवान का छह उपवास के पश्चात् प्रथम आहार मन्दरपुर के राजा सुमित्र के महल में हुआ। उस समय पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई।)
सातवाँ दृश्य
(मंदरपुर नगर का दृश्य, महाराज सुमित्र मुनिराज शांतिनाथ को पड़गाहन कर आहार दे रहे हैं।)
राजा सुमित्र—हे स्वामिन्! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु। अत्र अत्र, तिष्ठ तिष्ठ। आहार जल शुद्ध है। (मुनिराज खड़े हो जाते हैं, राजा परिक्रमा लगाते हैं) पुन: पूजन आदि कर आहार देते हैं। (तभी रत्नवृष्टि होती है।)
देवगण—अहो! कैसा उत्कृष्ट दान है। कैसे उत्तम पात्र हैं एवं सर्वगुण विभूषित कैसे भाग्यशाली दाता हैं।
राजा सुमित्र—मेरा जन्म सफल हो गया। मेरा कुल धन्य हो गया। (हर्ष से रोमांचित हो जाते हैं।) (भगवान शांतिनाथ नि:शल्य होकर विहार करते थे। इस प्रकार चक्रायुध आदि अनेक मुनियों के संग अनेक देशों में विहार करते हुए भगवान सहसाम्र वन में पहुँचे। मोक्ष प्राप्त करने के लिये वे षट्दिवसीय उपवास धारण कर नन्द्यावर्त वृक्ष के तले दृढ़ासन से विराजमान होकर ध्यान करने लगे। इस प्रकार भगवान श्री शांतिनाथ ने छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष व्यतीत कर पौष शुक्ला एकादशी के दिन संध्या के समय तीर्थंकर बनकर देवों से भी श्रेष्ठ महानता प्राप्त की थी। भगवान श्री शांतिनाथ के घातिया कर्म के नष्ट होने पर देवगणों ने जय-जयकार शब्द के साथ दशों दिशाओं को गुँजा दिया था। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी। भगवान आकाश में अधर विराजमान हो गये। जब इन्द्र ने स्वयं वहाँ प्रवेश किया तो वह श्रद्धा से गद्गद् हो उठा।)
सौधर्म इन्द्र—(जय-जयकार कर तीन प्रदक्षिणा लगाते हुए) जय हो, जय हो। तीर्थंकर भगवान की जय हो (पुन: भगवान का दर्शन कर) क्या यह पुण्य परमाणुओं का मूर्तिमान पुँज है या केवलज्ञान रूपी श्रेष्ठ ज्योति ही बाहर प्रकट हो रही है ? क्या यह तीर्थंकर का प्रताप है या तेज की निधि है ? यह यश की राशि है या साक्षात् तीन लोक के नाथ भगवान शांतिनाथ ही है ? (पुन: भगवान की स्तुति करते हैं। १२ सभाओं में सभी भव्य दिव्यध्वनि का पान करने के लिये बैठे हैं, यह जानकर गणधर देव चक्रायुध उठे और प्रार्थना की।)
गणधर देव—(हाथ जोड़कर) हे देव! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। प्रभो! जन्म-जरा-मृत्यु आदि की ज्वाला का निवारण करने के लिये यहाँ एकत्र समस्त भव्यात्माओं की आपके वचनरूपी श्रेष्ठ अमृत पीने की तीव्र अभिलाषा है। हे तीर्थराज! आप कृपाकर मोक्षमार्ग का निरूपण कीजिये क्योंकि आप करुणा के सागर हैं। (गणधर देव अपने योग्य कोठे में विराजमान हो गये तब भगवान की ॐ कारमयी दिव्यध्वनि खिरी।)
भगवान—(ॐ) हे गणधर! तुम अपने संघ के संग पूर्वोक्त वर्णित जीवादि तत्त्वों को, उनके भेद और पर्यायों के अनुसार क्रमानुसार श्रवण करो। (भगवान ने क्रम-क्रम से सबका निरूपण किया। भगवान की दिव्यध्वनि जहाँ-जहाँ समवसरण गया, वहाँ-वहाँ खिरी। भगवान के समवसरण में ८०० श्रुतकेवली, ३६ गणधर एवं ४१,८०० उपाध्याय थे। जब भगवान की आयु एक माह शेष रही तब वे सम्मेदशिखर पर जाकर विराजमान हुए और शेष अघातिया कर्मों का नाश कर अशरीरी हो गये। उसी समय इन्द्रगण आ गये और भगवान के पवित्र शरीर की पूजा की।)
सभी इन्द्रगण—जय हो, जय हो। तीर्थंकर भगवान की जय हो, सिद्ध भगवान की जय हो। (पुन: भगवान की पवित्र काया की पूजा करके, उसे बहुमूल्य पालकी में विराजमान कर आदर से ले गये तथा अग्निकुमार देवों के संग इन्द्र के मुकुट से प्रकट हुई अग्नि से उस काया को भस्म कर दिया।)
सूत्रधार—देखो भव्य प्राणियों! भगवान श्री शांतिनाथ ने पूर्व भवों में धर्मसाधन किया था इसलिये उन्होंने मनुष्यों एवं देवों को सुलभ विविध प्रकार के सुखों का अनुभव किया था। उन्होंने १२ जन्म तक अनेक विभूतियाँ प्राप्त की थीं एवं अन्त में अविचल मोक्ष पद प्राप्त किया। यही चिन्तवन कर विवेकीजन को स्वर्ग मोक्ष सुखप्रदायक धर्म के पालन में सर्वदा उत्तरोत्तर अधिक प्रयत्नशील होना चाहिये।