मलयदेश का रत्नसंचयपुर नगर है जहाँ न्यायनीति में निपुण, सत्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, पात्रदान एवं गुरुभक्ति में तत्पर सदाचारी एवं विवेकी राजा श्रीषेण राज्य करता था। उसकी लावण्यमयी एवं रूपवती दो रानियाँ थीं- सिंहनिन्दिता एवं अनिन्दिता। राजा सुखपूर्वक उन रानियों के साथ अपना समय व्यतीत कर रहे थे। एक दिन राजा श्रीषेण राजदरबार में बैठे थे तभी एक दासी ने आकर सूचना दी।]
महाराज राजसिंहासन पर आरूढ़ हैं, पास में मन्त्रीगण बैठे हैं तभी एक दासी प्रवेश करती है दासी — महाराज की जय हो, महाराज की जय हो ! बधाई हो स्वामिन् ! हम सबके महान पुण्योदय से रानी सिंहनिन्दिता ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है।
महाराज—(प्रसन्न होकर दासी को पुरस्कार देते हुए) ओह ! यह सूचना देकर तुमने मुझे बहुत प्रसन्न कर दिया। लो! यह पुरस्कार लो और सारे राज्य में खुशियाँ मनवाओ। (पुन: मंत्रिवर से) मंत्री जी ! भण्डार खुलवा दीजिए, राज्य में उत्सव का आयोजन कीजिए, आज हम बहुत प्रसन्न हैं”
मंत्री— जो आज्ञा महाराज ! आज हम भी बहुत प्रसन्न है, आज हमारे राज्य को भावी महाराज जो मिल गए हैं। [तभी एक दूसरी दासी आकर महाराज को प्रणाम करती है]
दासी— न्यायप्रिय प्रजावत्सल श्रीषेण महाराज की जय हो।
महाराज— कहो दासी ! क्या बात है ?
दासी— प्रभो ! महारानी अनिन्दिता ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है।
महाराज— वाह ! क्या खबर सुनाई है। (पुरस्कार देकर) लो दासी ! तुमने हमारी प्रसन्नता को द्विगुणित कर दिया।
दासी— कृपावत्सल महाराज की जय हो (बार—बार प्रणाम कर चली जाती है)
राजा— (मंत्री से) मंत्रिवर ! सुना आपने ! हमें दो–२ राजपुत्रों की प्राप्ति हुई है। अब तो इस उत्सव को और भी धूमधाम से मनाइये।
मंत्री— जी महाराज ! हम अभी पूरे राज्य में मुनादी करवा देते हैं। [सारे राज्य में खुशियां मनाई जा रही हैं। दोनों बालक बाल चन्द्रमा के समान माता—पिता एवं पूरे राज्य का मन मोहते हुए बढ़ते जाते हैं ]
[उसी रत्नसन्चयपुर नगर में सात्यकी नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी जम्बू एवं पुत्री सत्यभामा के साथ रहता था। उस नगर में एक बार धरणीजड़ ब्राह्मण का दासी पुत्र कपिल, जो ब्राह्मण पुत्रों को वेद पढ़ते देख — सुनकर वेद में पारंगत हो गया था और पिता द्वारा जबरदस्ती घर से निकाला गया था, आ जाता है और सात्यकि ब्राह्मण से उसकी भेंट हो जाती है]
कपिल— (सात्यकि को आता देख)—प्रणाम विप्रराज! आप कुशलतापूर्वक तो हैं ?
सात्यकि— (उस अपरिचित युवक को देखकर) प्रणाम वत्स ! तुम कौन हो ? इस राज्य के तो नहीं लगते हो ? कहां से आए हो और कहाँ जा रहे हो ?
कपिल— हे ब्राह्मण देवता ! मैं अलका नगरी के धरणीजड़ ब्राह्मण का पुत्र कपिल ब्राह्मण हूँ, आपकी अनुकम्पा से मैं वेदों का ज्ञाता हूँ। इस राज्य की बहुत प्रशंसा सुनी थी अत: प्रथम बार आपके राज्य में आया हूँ।
सात्यकि — (मन में) ओह ! कितना सुन्दर युवह है, ब्राह्मण है और वेदों का ज्ञाता भी है, क्यों न इससे मैं अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कर दूं। (पुन: कहता है)—बेटा ! तुम कहां ठहरे हो ?
कपिल— जी अभी तो मैं प्रथमत: आपसे ही भेंट कर रहा हूँ।
सात्यकि— पुत्र ! चलो, तुम इधर—उधर न रुककर मेरे घर में रूको, मुझे प्रसन्नता होगी।
कपिल— परन्तु……….
सात्यकि— देखो ! अब मना मत करना, तुम मेरे पुत्र जैसे ही तो हो।
कपिल— (खुश होकर मन में) चलो अच्छा हुआ, एक ठिकाना मिला वर्ना यहाँ तो खाने के लाले पड़े थे। (पुन: प्रकट में) ठीक है प्रभो ! आप कहते हैं तो बड़ों की आज्ञा मैं कैसे टाल सकता हूँ। (सात्यकि ब्राह्मण उसे अपने घर पर रख लेता है और कुछ समय बाद पति—पत्नी ने आपस में वार्ता कर उसका विवाह अपनी पुत्री सत्यभामा के साथ कर दिया” प्रथम रात्रि में सत्यभामा पति का इन्तजार कर रही है और कपिल नशे में धुत होकर आता है और उल्टा सीधा बड़बड़ाता है।)
कपिल— (नाचता हुआ) अरे ! आज तो अपने मजे आ गए बिना कुछ किए घर वाली भी मिल गई और इतना रुपया—पैसा, वर्ना कहाँ तो उस धरणीजड़ ब्राह्मण ने मेरा जीना ही मुश्किल कर दिया था , क्या हुआ जो मैं उसके पुत्रों को सुन—सुन कर वेद याद कर रहा था, कया हुआ जो मैं दासी….. हाँ……..दासी…… सत्यभामा— (घबराकर) क्या हुआ स्वामी ! आप क्या बोल रहे हैं और ये दासी—दासी क्या कह रहे हैं?
कपिल— अरी कुछ नहीं रे ! अब तो तू मेरी पत्नी है, मैं तुझसे क्या छिपाऊंगा, धीरे—धीरे सब बता दूंगा। चल आ जा, इधर बैठ।
सत्यभामा— हे प्रभो ! इनकी चेष्टाएं तो ब्राह्मणों के समान नहीं लगतीं और ये क्या दासी—दासी बोल रहे थे, फिर अपने पिता का यूं नाम क्यों ले रहे थे, यह अच्छे कुल के नहीं लगते,जरूर मेरे साथ धोखा हुआ है।
कपिल— अरे प्रिये ! तू सुनती क्यों नहीं, यहाँ आ ना, मेरे समीप बैठ, मुझसे प्यारी—प्यारी बातें कर।
सत्यभामा— (मन में) हे प्रभो ! मनुष्यों को हालाहल विष खा लेना अच्छा है, सर्प का साथ करना अच्छा है, जलती हुई अग्नि या अथाह सागर में कूद पड़ना अच्छा है परन्तु नीच मनुष्यों की संगति करना अच्छा नहीं है। अब मुझे इससे दूर रहकर इसकी असलियत पता करनी ही पड़ेगी। (पुन: कपिल से) स्वामी ! मेरी तबियत ठीक नहीं है, अत: मुझे अभी क्षमा करें, कुछ दिन पश्चात् मैं आपकी हर आज्ञा मानूंगी फिर अब तो हम पति—पत्नी हैं ही।
कपिल— (कुछ सोचकर नशे में ही) ठीक है, ठीक है, तू कहती है तो मान जाता हूँ, वैसे भी मुझे बड़ी नींद आ रही है (मन में) अगर जबरदस्ती करता हूँ तो हो सकता है यह मुझे छोड़ दे फिर कहाँ भटकूंगा। [वह धीर—वीर सत्यभामा पति से विरक्त हो खिन्न सी रहने लगी, उधर धरणीजड़ दुर्भाग्य से दरिद्र हो गया और कपिल के वैभव को सुन उसके पास आ गया]
धरणीजड़— (घर में प्रवेश कर) बेटा कपिल ! ओ बेटा कपिल ! अरे कहाँ है तू, कब से तुझे देखने को मेरी आँखें तरस गई हैं।
कपिल— (बाहर आकर) कौन, कौन है ? (पुन: धरणीजड़ को देखकर एक क्षण क्रोधित हो जाता है पुन: सोचता है) अरे ! यह यहाँ कैसे आ गया, अभी बताता हूँ…. लेकिन अगर मैंने इसके साथ बुरा व्यवहार किया तो ये दोनों सबको मेरे बार में बता देंगे और अगर रख लेता हूँ तो मैं स्वत: ही इनका पुत्र घोषित हो गया। (अपनी पत्नी को पुकारता है) सत्यभामा, ओ सत्यभामा। अरे देख तो ! मेरे माता—पिता आए हैं।
सत्यभामा— (बाहर आकर उनके चरण छूकर) प्रणाम पिताजी ! प्रणाम माताश्री।
दोनों— आयुष्मती होवो ! ओह ! कितनी प्यारी बहू है। [तभी सत्यभामा के माता—पिता भी आ जाते हैं और कपिल उनका भी परिचय अपने माता—पिता के रूप में करवाता है, सब एक दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हैं परन्तु सत्यभामा कुछ और ही सोच रही है]
सत्यभामा—(मन में) मुझे धैर्यपूर्वक असलियत का पता लगाना होगा। (सामने) माँ! पिताजी ! आज आपके आने से मेरा मन बहुत प्रसन्न हो गया। अब लगा कि मुझे पूरा परिवार मिल गया। चलिए ! आप स्नान करके भोजन कर लीजिए और आराम करिए, आखिर रास्ते की थकान होगी।
धरणीजड़— (अपनी पत्नी से) देखा भाग्यवान ! अपनी बहू कितनी अच्छी है। चल, आराम करें। (दोनों चले जाते हैं, कुछ दिन रहने पर सत्यभामा को पता चल जाता है कि धरणीजड़ ब्राह्मण लालची है, अब उसे नई युक्ति सूझती है और वह ब्राह्मण को धन का लालच देकर पूछती है)
सत्यभामा—(धरणीजड़ के पास जाकर)—पैर छूकर—प्रणाम पिताजी। धरणीजड़— सदा सुहागन रहो बेटी। सत्यभामा— पिताजी ! अगर आप मुझे सचमुच अपनी बेटी मानते हैं तो एक प्रश्न का जवाब दीजिए।
धरणीजड़— पूछो बेटी ! क्या पूछना है?
सत्यभामा— (संकोचवश) पिताजी ! क्या मेरे पति वास्तव में आपके पुत्र हैं?
धरणीजड़— (एकदम घबरा जाता है) क्या ! क्या कहा बेटी ! अरे, वो तो मेरा ही पुत्र है, तु….. तुम यह क्यों पूछ रही हो?
सत्यभामा— (दृढ़ता से) मैं जो कह रहीं हूं वह सही है ना पिताजी। धरणीजड़— न…… न…… नहीं तो।
सत्यभामा— (विनयपूर्वक) पिताजी ! आप मेरे पितातुल्य हैं और हर पिता अपनी पुत्री का हित चाहता है। देखिए ! अगर आप मेरी बात का सही—२ उत्तर देंगे तो मैं आपको सोने की ढ़ेर सी मुहरें दूंगी।
धरणीजड़— (मन में) सोना ! अगर मुझे यह सोना मिल जाए तो मैं जिन्दगी भर मजे करूंगा और इस कपिल का क्या, मेरा पुत्र तो है नहीं कब निकाल दे क्या भरोसा। (प्रत्यक्ष में) ठीक है, बहू, तू कहती है तो सुन ! यह तेरा पति कपिल मेरी दासी का पुत्र है, इस दुष्ट ने ब्राह्मण का कपट भेष बना लिया है।
सत्यभामा— धन्यवाद पिताजी ! जो आपने सत्य बात बताई, मुझे तो पहले से ही शंका थी, लीजिए ये धन, आप चाहे तो यहाँ से जा सकते हैं।
धरणीजड़— ठीक है बेटी ! मैं चला ही जाता हूं वर्ना कपिल मुझे बरबाद कर देगा (दोनों पति—पत्नी धन लेकर चले जाते हैं) (सत्यभामा तुरन्त घर छोड़कर राजमहल में राजा की शरण में पहुँच जाती है।)
(राजा श्रीषेण का राजदरबार लगा है, सत्यभामा वहां आती है और महाराज से सारी घटना कह सुनाती है।)
सत्यभामा— महाराज की जय हो, प्रजावत्सल प्रभो ! दया करिए,न्याय करिए, रक्षा कीजिए प्रभो रक्षा कीजिए।
राजा श्रीषेण— पुत्री ! शान्त हो जाओ, घबराओ नहीं और बताओ तुम्हारे साथ क्या अन्याय हुआ है। तुम्हें न्याय अवश्य मिलेगा।
सत्यभामा— महाराज ! मैं सात्यकि ब्राह्मण की पुत्री हूँ, मेरा पति कपिल इस राज्य में आया था, मेरे पिता से उसने अपना परिचय धरणीजड़ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में दिया अतः पिता ने मेरा विवाह उससे करवा दिया किन्तु वह उसकी दासी का पुत्र है, उसने मेरे साथ कपट किया है, मुझे न्याय दीजिए।
श्रीषेण— मेरे राज्य में इतना बड़ा अन्याय ! सेनापति द्वारपाल को भेजकर कपिल को तुरन्त बुलवाइये।
सेनापति— जी महाराज ! (द्वारपाल जाकर कपिल को बुलाकर लाता है और महाराज उससे पूछते हैं)
श्रीषेण— (क्रोधित होकर) तो तू है कपिल ! दासी पुत्र होकर तूने खुद को ब्राह्मण का पुत्र बताया, तेरी हिम्मत कैसे हुई यह कपट करने की। सेनापति ! इस दुष्ट को गधे पर बिठाकर पूरे राज्य में घुमाओ ताकि कोई दोबारा ऐसी हरकत न कर सके और फिर इसे राज्य से बाहर निकाल दो। (पुन: आगे बढ़कर सत्यभामा के सिर पर हाथ फेरकर) बेटी ! आज से तू हमारे महल में पुत्री के समान रहेगी।
सत्यभामा— महाराज श्रीषेण की जय हो। प्रभो ! आप सचमुच बहुत दयालु हैं। (और इस प्रकार सत्यभामा महल में सुखपूर्वक रहने लगी,एक दिन अमितगति एवं अरिंजय नाम के दो आकाशगामी मुनिराज वहाँ पधारे। राजा ने उन दोनों को विधिवत् पड़गाहन कर दोनों रानियों के साथ श्रद्धापूर्वक आहारदान दिया। सत्यभामा ब्राह्मणी ने दीन होने पर भी बड़ी भक्ति से आदर सत्कार आदि के द्वारा उन मुनिराजों की सेवा की थी, इसलिए उन सभी ने पात्रदान देकर महान पुण्य का सम्पादन किया। दोनों मुनिराज आहार के पश्चात् आकाशमार्ग से विहार कर गए। राजा स्वयं को कृतकृत्य मानते हुए राज्य कर रहा था। उसके दोनों पुत्र युवा हो चुके थे, एक दिन उसके ज्येष्ठ पुत्र इन्द्र के लिए कौशाम्बी नगरी के राजा महाबल की पुत्री का रिश्ता आया)
(महाराज श्रीषेण राजदरबार में प्रसन्न मुद्रा में बैठे हैं, राजनर्तकी नृत्य कर रही है, तभी एक राजदूत महल में प्रवेश करता है)
द्वारपाल— (अन्दर आकर) महाराज श्रीषेण की जय हो ! स्वामी! कौशाम्बी नगरी से राजा महाबल का दूत आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है।
श्रीषेण—उसे आदर सहित यहाँ लाओ। द्वारपाल—जो आज्ञा महाराज ! (जाकर दूत को साथ में लाता है, दूत हाथ में लाई भेंट महाराज के सम्मुख रखकर कहता है।)
दूत— महाराज श्रीषेण को कौशाम्बी के राजा महाबल का प्रणाम स्वीकार हो। स्वामी ! राज महाबल ने आपके पास मुझे अपनी रूप लावण्य से सुशोभित कन्या श्रीकान्ता के विवाह हेतु प्रस्ताव लेकर भेजा था, वह आपके ज्येष्ठ पुत्र इन्द्र के साथ अपनी पुत्री का पाणिग्रहण संस्कार करना चाहते हैं।
श्रीषेण— (प्रसन्न होकर) ओह ! हमने भी उस कन्या के रूप व गुणों की बहुत प्रशंसा सुनी है। हमें यह प्रस्ताव मंजूर है, जाइए और जाकर महाराज से कह दीजिए कि शुभ मुहूर्त में हम बारात लेकर उनके यहाँ उपस्थित हो जाएंगे।
दूत— जो आज्ञा महाराज ! प्रणाम महाराज ! अब मुझे अनुमति दीजिए। (दूत प्रणाम कर चला जाता है। शुभ मुहूर्त में श्रीकान्ता का विवाह इन्द्र के साथ सम्पन्न हो जाता है, राजा विदाई के समय अपनी कन्या को शिक्षा देने के साथ—साथ उसे अनन्तमती नाम की रूपवती एवं गुणवती विलासिनी देते हैं किन्तु अनन्तमती रूपवान उपेन्द्र पर आसक्त हो उसके साथ काम—भोग आदि करके भ्रष्ट हो गयी, उस विलासिनी के लिए दोनों भाइयों में युद्ध छिड़ गया।
(इन्द्र—उपेन्द्र आमने-सामने हैं, युद्ध छिड़ा है)
इन्द्र— (उपेन्द्र से) देखो उपेन्द्र ! मैं तुम्हें फिर समझा रहा हूँ, मेरी बात मान कर अनन्तमती को छोड़ दो, वर्ना मुझसे बुरा कोई न होगा।
उपेन्द्र— कौन सी बात, किसकी बात ! अनन्तमती सिर्फ और सिर्फ मेरी है, उसे तू तो क्या कोई भी मुझसे अलग नहीं कर सकता, अच्छा यही होगा कि इस सम्बन्ध में तुम मुझसे कोई भी चर्चा न करो।
इन्द्र— तो तू ऐसे नहीं मानेगा।
उपेन्द्र— नहीं, कदापि नहीं।
इन्द्र— फिर तो युद्धभूमि में इस बात का फैसला होकर रहेगा, अगर मैं जीता तो अनन्तमती मेरी और तू जीता तो तेरी।
उपेन्द्र— (क्रोध में) ठीक है, तो युद्धभूमि में ही इस बात का निर्णय होगा । (तभी उन्हें राजा श्रीषेण आकर युद्ध के लिए मना करते हुए समझाते हैं)
श्रीषेण— पुत्र इन्द्र—उपेन्द्र ! एक विलासिनी के लिए युद्ध करना तुम्हें शोभा नहीं देता, युद्ध का विचार त्याग दो और प्रेम से रहो और उस विलासिनी का तुम दोनों ही त्याग कर दो।
दोनों— नहीं पिताजी ! अब तो यह युद्ध होकर रहेगा। (राजा के बार—बार समझाने पर भी वे नहीं मानते हैं तब उन्हें अपनी आज्ञा भंग होने का बहुत दुख हुआ और वह पापकर्म के उदय से विषफल को सूंघकर मर गया)
श्रीषेण—(मन में) ओह ! मेरे दोनों ही पुत्रों ने मेरी आज्ञा नहीं मानी और उस विलासिनी के लिए युद्धभूमि में चले गए अब मेरा जीना निरर्थक है, अब मेरे इन प्राणों को लेकर अथवा जीकर क्या मिलना है (विषफल हाथ में लेकर) मैं इस विषफल को सूंघकर अपना अंत कर लेता हूँ (विषफल सूंघते ही मर जाता है तभी दोनों रानियाँ प्रवेश करती हैं)—
रानियाँ— महाराज ओ महाराज ! स्वामी ओ स्वामी ! (आगे बढ़कर) अरे बहन! देखों तो इन्हें क्या हुआ?
अनिन्दिता— हाँ बहन ! लगता है स्वामी हमें छोड़कर चले गए ” (जोर—जोर से विलाप करने लगती है, पुन: उसे विषफल दिख जाता है और वह उसे सूंघ लेती है) स्वामी ! आपके बिना मैं जीकर क्या करूंगी, जरूर इस विषफल को आपने सूंघा है, मैं भी इससे अपना प्राणान्त कर लेती हूँ। (मर जाती है)
सिंहनिन्दिता— ओह ! यह क्या ! छोटी रानी भी हमें छोड़ गई, महाराज भी चले गए, अरे पुत्रों ! तुमने यह क्या किया, अब मैं भी जीकर क्या करूँ (वह भी विषफल सूंघकर मर जाती है)
उन तीनों का ही प्राणान्त हो जाता है। देखो ! अपमृत्यु अथवा अपघात से मरकर भी केवल उस आहारदान के फल से ही वे तीनों भोगभूमि में आर्य और आर्या हुए, वह सत्यभामा भी प्राणों का त्यागकर धर्म के प्रभाव से उस अनिन्दिता के यहाँ आर्या हुई। उधर वे दोनों भाई युद्ध कर रहे थे, उन्हें मणिकुण्डल नामक विद्याधर ने आकर सम्बोधित किया तब दोनों भाइयों ने अपनी निन्दा कर दीक्षा लेकर तपश्चरण किया और केवलज्ञान प्राप्त किया। देखो ! जिनधर्म की महिमा, कहाँ युद्धभूमि में एक विलासिनी के लिए लड़ने वाले सम्बोधन प्राप्त कर केवलज्ञानी बन गए, कहाँ अपमृत्यु करने वाले भी सुपात्रदान के पुण्य से भोगभूमि में जाकर जन्मे, ऐसे जिनधर्म को नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो” जय बोलो जैनधर्म की जय।
भोगभूमि का दृश्य, दश प्रकार के कल्पवृक्ष लगे हुए हैं और यत्र-तत्र नर-नारी मनोरंजन करते हुए भ्रमण कर रहे हैं। (डांडिया नृत्य में एक बड़ा समूह उपस्थित करें)
भोगभूमि में माता के गर्भ से बेटा-बेटी का युगल जन्म एक बार ही होता है और उनके जन्म लेते ही माता-पिता को छींक और जम्भाई आकर मृत्यु हो जाती है”} राजा श्रीषेण का जीव, दोनों रानियाँ एवं सत्यभामा ब्राह्मणी अत्यन्त सुखों से भरे हुए उस उत्तरकुरू नामक भोगभूमि में आर्य और आर्या हुए और क्रमश: बड़े होकर पति-पत्नी की तरह रहने लगे”किसी समय श्रीषेण आर्य और अनिन्दिता का जीव आर्य अपनी-अपनी आर्या के साथ कल्पवृक्षों की शोभा निहार रहे थे।
१.आर्य — देवी ! ये कल्पवृक्ष कितने सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं। वास्तव में भोगों की भूमि होने के कारण इसका भोगभूमि नाम सार्थक है।
१.आर्या— (प्रसन्न मुद्रा में) सच कह रहे हैं आप ! मन तो करता है कि दिन भर बैठी-बैठी इन कल्पवृक्षों की सुन्दरता निहारती रहूं।
२.आर्या- स्वामी ! वास्तव में यह मन को मोहित करने वाले वृक्ष हैं।
२.आर्य— (स्त्री का हाथ थामते हुए) प्रिये ! मैं तो बस इतना जानता हूँ कि ये सब वैभव, ये सारी सुन्दरता जो भी कुछ है, आपका साथ होने के कारण है।
२.आर्या — (धीरे से हंसते हुए) प्राणनाथ ! आप ऐसी बात कहकर मुझे लज्जित न करें। चलिए स्वामी ! उस ज्योतिरंग कल्पवृक्ष के पास चलें।
2.आर्य— चलिए देवी ! (दोनों चले जाते हैं) १.आर्य— आओ देवी उस मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष के पास चलें।
१.आर्या —स्वामी ! क्या यह मद्य प्रदान करते हैं।
१.आर्य— नहीं देवी ! यह मद्य वह मद्य नहीं है, किन्तु इसमें कामोद्दीपन की सामर्थ्य है इसलिए उपचार से इसे मद्य कहते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार के वृक्षों का रस है जिसे भोगभूमिया लोग सेवन करते हैं।
१.आर्या — स्वामी ! चलिए ना, हम क्रीड़ाभवन में क्रीड़ा हेतु चलें।
१.आर्य— ठीक है देवी ! चलिए, चलते हैं।
(वे दोनों भी क्रीड़ाभवन की ओर चले जाते हैं।)
(एक बार वे चारों एकत्र होकर कल्पवृक्षों से दिव्य वस्तुएँ प्राप्त कर आनन्दमग्न हैं तभी उनमें से एक आर्य कहता है)
१.आर्य— भाई ! इस भोगभूमि में अपार सुख है, दुख का कहीं लेश मात्र भी नहीं है।
१.आर्य— हाँ भाई ! महान् पुण्य के उदय से ही हमारा इस भोगभूमि में जन्म हुआ है।
१.आर्या — सचमुच ! देखो ना। जरा सी भूख की बाधा होने पर हम बेर के समान थोड़ा सा आहार लेते हैं और हमारी तृप्ति हो जाती है।
२.आर्या — हाँ, और वह आहार भी अमृतमय दिव्य एवं महास्वादिष्ट होता है।
स्वर्ग का दृश्य—इन्द्र सभा में अप्सरा का नृत्य[प्रथम दृश्य]सौधर्म स्वर्ग में सभा में इन्द्रगण चर्चा कर रहे हैं—
सौधर्म इन्द्र— हे देवगणों ! आज हमारे स्वर्ग में एक पुण्यशाली आत्मा का जन्म होने वाला है।
एक देव— स्वामी ! आप किस पुण्यशाली की बात कर रहे हैं।
(२) देव— हाँ इन्द्रराज ! यहाँ तो पुण्यशाली आत्मा ही जन्म लेती है, तब आप कुछ भी नहीं कहते, आज कौन सा विशेष जीव यहाँ जन्म लेने वाला है।
(३) इन्द्र— मेरे प्रिय देवगणों ! मुनियों ! मलयदेश के रत्नसंचयपुर नगर में श्रीषेण राजा हुआ जिसने न्यायनीति से राज्य करते हुए सदा पात्रदान दिया किन्तु अपने पुत्रों के विवाद के कारण पापकर्म के उदय से विषफल सूंघकर मर गया—चूंकि उसने पात्रदान दिया था इसलिए वे भोगभूमि में आर्य हुए और वहां से अपनी आयु पूर्ण कर वह यहाँ के श्रीनिलय विमान में श्रीप्रभ देव होगा।
(४) देव— परन्तु स्वामी ! ऐसा विशेष पुण्य तो उनका नहीं दिखता।
इन्द्राणी— हाँ देवराज ! इनमें क्या विशेषता।
इन्द्र— विशेषता है देवी विशेषता है। और विशेषता यह है कि वे देव आज से दशवें भव में भरतक्षेत्र में सोलहवें तीर्थंकर के रूप में जन्म लेंगे।
सभी देव— जय हो, जय हो, भावी तीर्थंकर की जय हो, हे इन्द्रराज ! हम सभी मिलकर उन देवराज के स्वागत की तैयारियाँ करते हैं।
इन्द्रराज— ठीक है देवगण ! आप सब जाइए और तैयारियाँ कीजिए।
(सभी देवगण जाकर उपपाद शैय्या को फुलों से सुसज्जित करते हैं)
स्वर्ग में सुन्दर सुसज्जित शैय्या तैयार है, उस शैय्या पर एक सोलह वर्षीय नवयुवक सो रहा है। बाजे, नगाड़ों की ध्वनि हो रही है, पुष्पों की वर्षा एवं मन्द—मन्द वायु चल रही है, अनेक देव–देवी उस शैय्या के समीप खड़े हैं।
श्रीप्रभ देव—(शैय्या पर उठकर बैठते हैं और महामंत्र का स्मरण करते हैं। पुन: आश्चर्यपूर्वक)—ओह ! मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? इससे पूर्व मैं कहाँ था ? इतनी सुन्दरता, आखिर यह स्थान कौन सा है ?
देवगण— प्रणाम देव ! स्वर्ग में आपका शुभागमन मंगलमयी हो। आप यहाँ सौधर्म स्वर्ग के श्री निलय विमान में श्रीप्रभ देव के रूप में उत्पन्न हुए हैं।
श्रीप्रभ देव—ओह ! (अवधिज्ञान से जानकर) मैं पूर्व जन्म में भोगभूमि में आर्य था, यह सब पात्रदान और सम्यग्दर्शन की महिमा है जो मैं इस स्वर्ग में देव की विभूति को प्राप्त कर रहा हूँ। जिनधर्म की महिमा अचिन्त्य है। मेरी आर्या भी इसी विमान में देवी हुई है। सत्यभामा और अनिन्दिता के जीव भी इसी विमान में शुक्लाप्रभा देवी और विमलप्रभ देव के रूप में जन्में हैं।
देवगण—(समीप जाकर) हे देव ! आप पुण्यवान हैं। इस शैय्या का त्याग कर मंगल स्नान कीजिए और सर्वप्रथम जिनेन्द्र देव की पूजा कर अपने वैभव का निरीक्षण कीजिए।
श्रीप्रभ देव— ठीक है मित्रवर ! श्रीप्रभ देव स्नान आदि से निवृत्त हो जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं पुन: अपने वैभव का निरीक्षण कर स्वर्ग सुख में निमग्न हो जाते हैं, अपनी विद्युत्प्रभा देवी से उन्हें विशेष स्नेह है, साथ ही विमलप्रभ देव एवं शुक्लप्रभा देवी के साथ पूर्व जन्म के संस्कार वश वे अधिक समय व्यतीत करते हैं” तीन ज्ञान के धारी रूपवान, मधुरभाषी वे देव दिव्य माला, वस्त्राभूषण आदि से सुशोभित थे और कभी—कभी परलोक सम्बन्धी सुख प्राप्त करने के लिए कर्मभूमियों में जाकर बड़ी भक्ति से जिनेन्द्रदेव की वन्दना करते थे, तीर्थंकर के समवसरण में जाकर दिव्यध्वनि का पान करते थे तथा समय-समय पर क्रीड़ा आदि भी करते थे]
(श्रीप्रभ देव अन्य देवों के साथ अयोध्या नगरी की वन्दना हेतु जाते हैं)
श्रीप्रभदेव— देखो मित्रों ! यह अयोध्या नगरी शाश्वत जन्मभूमि के रूप में जानी जाती है, यहाँ सतत तीर्थंकरों के जन्म हुआ करते हैं।
देव (१)— स्वामी ! सचमुच यह पवित्र नगरी है, क्या उनके और भी कल्याणक यहाँ पर होते हैं।
श्रीप्रभ— हाँ देव ! उनके गर्भ, जन्म एवं तप थे तीन कल्याणक यहीं होते हैं और कभी—कभी चार कल्याणक भी होते हैं।
देव (२)— स्वामी ! मोक्षकल्याणक कहाँ होता है ?
श्रीप्रभ— मोक्षकल्याणक तो शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर से होता है।
देव (३)—हे देवराज ! क्या शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर से होता है।
श्रीप्रभ— नहीं मित्र ! शाश्वत तीर्थ दो ही हैं अयोध्या और सम्मेदशिखर।
देव (४)— चलिए अब हम सम्मेदशिखर की वन्दना के लिए भी चलते हैं।
एक सुन्दर नृत्य के साथ नाटिका का प्रारम्भमंगल प्रार्थना
(जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नाम की प्रसिद्ध नगरी में सम्यग्दृष्टि, धर्मपरायण, न्याय—नीति में कुशल विद्याधर राजा ज्वलनजटी राज्य करता था, उस राजा की वायुवेगा रानी एवं एक पुत्र अर्ककीर्ति एवं एक पुत्री स्वयंप्रभा थी। राजा न्यायपूर्वक प्रजा का परिपालन करते हुए अपना समय व्यतीत कर रहा था। एक दिन राजसभा में एक वनमाली ने प्रवेश किया राजा ज्वलनजटी की सुन्दर सभा लगी है, वनमाली का प्रवेश—
वनमाली—महाराजा ज्वलनजटी की जय हो।
ज्वलनजटी राजा—कहो वनमाली ! क्या समाचार लाए हो ?
वनमाली—हे देव ! आपके पुण्योदय से मनोहर नामक वन में जगन्नन्दन एवं अभिनन्दन नाम के दो चारण मुनिराज पधारे हैं।
राजा—(खड़े होकर) ओह ! अहोभाग्य! हमारे महान पुण्य का उदय आया है जो हमें दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हो रहे हैं। (तुरन्त सात पैड आगे चलकर परोक्ष में ही उन मुनियों को मस्तक झुकाकर नमस्कार करता है पुन: मंत्रियों एवं सभासदों से कहता है)—
राजा—(मंत्रियों से) मंत्रिगणों ! सभासदों ! चलिए। हम सब मिलकर उन मुनिराज के दर्शनार्थ चलेंगे। अन्त:पुर में भी खबर कर दीजिए, सभी मुनिराज के दर्शन करने चलें। सभी—जो आज्ञा महाराज, हम सब मुनिराज के दर्शनार्थ चलने के लिए तैयार हैं। (राजा पूजन की सामग्री लेकर मंत्रियों, सभासदों, रानियों एवं पुत्रों के साथ जाता है, सभी मुनिराज की तीन परिक्रमा कर उन्हें नमस्कार कर बैठ जाते हैं। राजा भक्तिभाव से उनकी पूजा करता है पुन: उनकी स्तुति करता है—
राजा—नमोऽस्तु गुरुदेव, नमोऽस्तु।
दोनों मुनिराज—(आशीर्वाद देते हुए) सद्धर्मवृद्धिरस्तु।
राजा—हे देव ! आप दोनों ही ज्ञान नेत्र हैं और आप दोनों तपश्चरण रूपी लक्ष्मी से अत्यन्त सुशोभित हैं। आज आप ही मुझे इस संसार सागर से पार कराने में समर्थ हैं।
जगन्नन्दन मुनिराज—हे राजन ! जो जीवों को संसार रूपी महासागर से उठाकर अनन्त सुख से भरे हुए मोक्ष में स्वयं स्थापित कर दे, उसे वास्तविक धर्म कहते हैं। धर्म से ही धर्मात्मा लोगों के लिए लक्ष्मी सदा दासी के समान स्थिर बनी रहती है तथा संसार में जो—जो दुर्लभ वस्तुएं हैं, वे सब धर्म के प्रभाव से अपने आप घर में आ जाती हैं। (इस प्रकार वे मुनिराज राजा को प्रथमत: श्रावक धर्म पुन: मुनिधर्म का उपदेश देते हैं। मुनि का उपदेश सुनकर राजा सम्यग्दर्शन के साथ—साथ गृहस्थों के व्रत स्वीकार कर लेते हैं, स्वयंप्रभा भी व्रतों को ग्रहण करती है। सभी यथायोग्य मुनि के समीप व्रतों को ग्रहण करके राजभवन में वापस लौट आते हैं। एक दिन स्वयंप्रभा ने नियत पर्व के दिन उपवास ग्रहण किया और भक्तिपूर्वक अरिहंत देव की पूजा कर एक विचित्र माला लाकर राजा को समर्पित की।
(राजा ज्वलनजटी बैठे हुए हैं, राजकन्या स्वयंप्रभा का प्रवेश)
स्वयंप्रभा—प्रणाम पिताश्री।
राजा—आयुष्मती होवो पुत्री ! बेटी तुम कुशलपूर्वक तो हो।
स्वयंप्रभा—जी पिताश्री ! सब आपकी अनुकम्पा है। मैंने महाराजश्री से जो व्रत लिये थे, कल उसका उपवास था” पिताश्री! मैं आपके लिए अरहंतदेव के चरणकमलों से स्पर्शित पवित्र माला लाई हूँ। कृपया इसे स्वीकार कीजिए (माला देती है)
राजा—(माला को ले लेते हैं पुन:) बेटी ! तू जा, अब पारणा कर।
स्वयंप्रभा—जी पिताश्री। (चली जाती है)
राजा—(मन में) मेरी पुत्री अब विवाह योग्य हो चुकी है, अब मुझे उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। (तुरन्त द्वारपाल को मंत्री को बुलाने का आदेश देते हैं)
राजा—(ताली बजाकर) द्वारपाल।
द्वारपाल—आज्ञा स्वामिन् ।
राजा—तुरन्त मंत्रियों को हमारे मंत्रणा कक्ष में भेजा जाए।
द्वारपाल—जो आज्ञा प्रजापालक। (चला जाता है, कुछ देर बाद मंत्रियों का प्रवेश)
मंत्रीगण—प्रणाम महाराज ! आपने हमें याद किया।
राजा—जी मंत्रिवर ! आइए, बैठिए। बात यह है कि हमारी पुत्री विवाह योग्य हो चुकी है, हमें उस विषय पर मंत्रणा करनी है इसीलिए आप सभी को कष्ट दिया। (सभी बैठ जाते हैं)
सुश्रुत मंत्री—(मधुर वाणी में) राजन् ! इसी विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी में राजा मयूरग्रीव का पुत्र अश्वग्रीव है, जो तीन खण्ड का स्वामी है, इसलिए अपनी कन्यारत्न उसी को देना चाहिए।
बहुश्रुत मंत्री—हे प्रभो ! श्रेष्ठ कुल, नीरोगी सुन्दर शरीर, शील, आयु, शास्त्र का पठन—पाठन, पक्ष, लक्ष्मी एवं उत्तम परिवार ये नौ गुण वर में होना चाहिए, अश्वग्रीव में ये सब गुण हैं किन्तु आयु बहुत अधिक है इसलिए कोई तरुण वर ढूंढ़ना चाहिए। राजन् ! गगनवल्लभ में राजा सिंहरथ है, मेघपुर में राजा पद्मरथ है, चित्रपुर में राजा अरिंजय है, त्रिपुर में राजा ललितांगद है, अश्वपुर में राजा कनकरथ है, महारत्नपुर में प्रसिद्ध राजा धनञ्जय है। निश्चय कर इनमें से किसी एक के साथ पुण्यवती कन्या का विवाह कर देना चाहिए।
श्रुति मन्त्री—हे महाभाग ! यदि आप कुल, आरोग्य, आयु, रूप आदि सब गुणों से सुशोभित वर को कन्या अर्पण करना चाहते हैं तो सुरेन्द्र कान्तार नगर में मेघवाहन विद्याधर के विद्युत्प्रभ के साथ कन्या का विवाह कीजिए वह निकट मोक्षगामी है और उसकी ज्योर्तिमाला पुत्री को अर्वâर्कीित युवराज के लिए ले लीजिए।
सुमति मन्त्री—हे राजन ! यह कन्या सभी गुणों से विभूषित है इसलिए अलग—अलग विद्याधर राजा उसके लिए प्रार्थना करते हैं इसलिए इस विद्युत्प्रभ को न देकर स्वयंवर की रचना करनी चाहिए। (इन सबकी बातें सुनकर राजा ज्वलनजटी ने पुराणों के अर्थ को जानने वाले तथा ज्ञानी संभिन्नश्रोत नाम के नैमित्तिक से पूछा)
राजा—हे ज्ञानी ! बताओ स्वयंप्रभा का पति कौन होगा ?
ज्ञानी—हे राजन ! पुण्डरीकिणी नगरी में पुरुखा भील ने मुनिराज के समक्ष मद्य, मांसादि का त्याग किया और जैनधर्म को स्वीकार किया जिसके फलस्वरूप वह भरत चक्रवर्ती का पुत्र मारीचिकुमार हुआ जिसने भगवान ऋषभदेव के साथ दीक्षा ली किन्तु भूख—प्यास आदि को सहन न कर सकने से वह कुिंलगी तापसी हो गया। पाप कर्म के उदय से अनेक दुख भोगता रहा पुन: काललब्धि प्राप्तकर राजा प्रजापति की मृगावती रानी से त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ, उसका बड़ा भाई विजय है जो दूसरी रानी भद्रा का पुत्र है। वे दोनों भाई बड़े सुलक्षण हैं और दोनों ही श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के समय में प्रतिनारायण अश्वग्रीव को मारकर तीन खण्ड के स्वामी प्रथम नारायण एवं बलभद्र होंगेंं। इनमें से बलभद्र श्रेयांसनाथ तीर्थंकर से दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष जाएंगे और त्रिपृष्ठ नारायण अशुभ योग से संसार में भ्रमण कर काललब्धि पाकर अन्तिम तीर्थंकर होगा। आपका जन्म महाराज कच्छ के पुत्र नमि के वंश में हुआ है एवं महाराज प्रजापति का जन्म श्री बाहुबली के प्रसिद्ध वंश में हुआ है। हे राजन् ! आपका सम्बन्ध पहले से निश्चित है फिर भी वह सम्बन्ध अब लेना चाहिए जिससे आप भी विद्याधरों के स्वामी हो जाएंगे। यह कथा श्री आदिनाथ तीर्थंकर के वचनों के अनुसार कही है।
ज्वलनजटी—हे ज्ञानी महाराज ! हमें आपकी यह बात बहुत अच्छी लगी, हम इस रिश्ते के लिए तैयार है। (पुन: ज्वलनजटी ने उसे वस्त्र, आभरण आदि से विभूषित किया और इन्द्र नामक दूत को बुलाकर भेंट देकर राजा प्रजापति के पास भेजते हैं, चूँकि त्रिपृष्ठ ने जयगुप्त नामक नैमित्तिक से यह बात पहले ही जान ली थी अत: वह पुष्करखण्डवन में आ जाता है, वहीं वह दूत आकाश से उतरा तब त्रिपृष्ट ने उसका स्वागत किया। राजन् ! गगनवल्लभ में राजा सिंहरथ हैं, मेघपुर में राजा पद्मरथ है, चित्रपुर में राजा अिंरजय है, त्रिपुर में राजा ललितांगद है, अश्वपुर में राजा कनकरथ है, महारत्नपुर में प्रसिद्ध राजा धनञ्जय है। निश्चय कर इनमें से किसी एक के साथ पुण्यवती कन्या का विवाह कर देना चाहिए।
श्रुति मन्त्री—हे महाभाग ! यदि आप कुल, आरोग्य, आयु, रूप आदि सब गुणों से सुशोभित वर को कन्या अर्पण करना चाहते हैं तो सुरेन्द्र कान्तार नगर में मेघवाहन विद्याधर के विद्युत्प्रभ के साथ कन्या का विवाह कीजिए वह निकट मोक्षगामी है और उसकी ज्योर्तिमाला पुत्री को अर्वâर्कीित युवराज के लिए ले लीजिए।
सुमति मन्त्री—हे राजन ! यह कन्या सभी गुणों से विभूषित है इसलिए अलग—अलग विद्याधर राजा उसके लिए प्रार्थना करते हैं इसलिए इस विद्युत्प्रभ को न देकर स्वयंवर की रचना करनी चाहिए। (इन सबकी बातें सुनकर राजा ज्वलनजटी ने पुराणों के अर्थ को जानने वाले तथा ज्ञानी संभिन्नश्रोत नाम के नैमित्तिक से पूछा)
राजा—हे ज्ञानी ! बताओ स्वयंप्रभा का पति कौन होगा ?
ज्ञानी—हे राजन ! पुण्डरीकिणी नगरी में पुरुखा भील ने मुनिराज के समक्ष मद्य, मांसादि का त्याग किया और जैनधर्म को स्वीकार किया जिसके फलस्वरूप वह भरत चक्रवर्ती का पुत्र मारीचिकुमार हुआ जिसने भगवान ऋषभदेव के साथ दीक्षा ली किन्तु भूख—प्यास आदि को सहन न कर सकने से वह कुिंलगी तापसी हो गया। पाप कर्म के उदय से अनेक दुख भोगता रहा पुन: काललब्धि प्राप्तकर राजा प्रजापति की मृगावती रानी से त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ, उसका बड़ा भाई विजय है जो दूसरी रानी भद्रा का पुत्र है। वे दोनों भाई बड़े सुलक्षण हैं और दोनों ही श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के समय में प्रतिनारायण अश्वग्रीव को मारकर तीन खण्ड के स्वामी प्रथम नारायण एवं बलभद्र होंगेंं। इनमें से बलभद्र श्रेयांसनाथ तीर्थंकर से दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष जाएंगे और त्रिपृष्ठ नारायण अशुभ योग से संसार में भ्रमण कर काललब्धि पाकर अन्तिम तीर्थंकर होगा। आपका जन्म महाराज कच्छ के पुत्र नमि के वंश में हुआ है एवं महाराज प्रजापति का जन्म श्री बाहुबली के प्रसिद्ध वंश में हुआ है। हे राजन् ! आपका सम्बन्ध पहले से निश्चित है फिर भी वह सम्बन्ध अब लेना चाहिए जिससे आप भी विद्याधरों के स्वामी हो जाएंगे। यह कथा श्री आदिनाथ तीर्थंकर के वचनों के अनुसार कही है।
ज्वलनजटी—हे ज्ञानी महाराज ! हमें आपकी यह बात बहुत अच्छी लगी, हम इस रिश्ते के लिए तैयार है। (पुन: ज्वलनजटी ने उसे वस्त्र, आभरण आदि से विभूषित किया और इन्द्र नामक दूत को बुलाकर भेंट देकर राजा प्रजापति के पास भेजते हैं, चूँकि त्रिपृष्ठ ने जयगुप्त नामक नैमित्तिक से यह बात पहले ही जान ली थी अत: वह पुष्करखण्डवन में आ जाता है, वहीं वह दूत आकाश से उतरा तब त्रिपृष्ट ने उसका स्वागत किया। राजन् ! गगनवल्लभ में राजा सिंहरथ हैं, मेघपुर में राजा पद्मरथ है, चित्रपुर में राजा अिंरजय है, त्रिपुर में राजा ललितांगद है, अश्वपुर में राजा कनकरथ है, महारत्नपुर में प्रसिद्ध राजा धनञ्जय है। निश्चय कर इनमें से किसी एक के साथ पुण्यवती कन्या का विवाह कर देना चाहिए।
श्रुति मन्त्री—हे महाभाग ! यदि आप कुल, आरोग्य, आयु, रूप आदि सब गुणों से सुशोभित वर को कन्या अर्पण करना चाहते हैं तो सुरेन्द्र कान्तार नगर में मेघवाहन विद्याधर के विद्युत्प्रभ के साथ कन्या का विवाह कीजिए वह निकट मोक्षगामी है और उसकी ज्योर्तिमाला पुत्री को अर्कर्कीित युवराज के लिए ले लीजिए।
सुमति मन्त्री—हे राजन ! यह कन्या सभी गुणों से विभूषित है इसलिए अलग—अलग विद्याधर राजा उसके लिए प्रार्थना करते हैं इसलिए इस विद्युत्प्रभ को न देकर स्वयंवर की रचना करनी चाहिए। (इन सबकी बातें सुनकर राजा ज्वलनजटी ने पुराणों के अर्थ को जानने वाले तथा ज्ञानी संभिन्नश्रोत नाम के नैमित्तिक से पूछा)
राज-