उनका गुण वर्णन करूं, आत्मशुद्धि के काज ||१||
शीतल जिन जन्मस्थली, भद्दिलपुर शुभ तीर्थ ,
चालीसा उनका कहूँ ,पाऊँ आतम तीर्थ ||२||
ढाई द्वीप में भरतक्षेत्र है, जिसमें स्थित आर्यखंड है ||१||
आर्यखंड में त्रय कालों में ,चौबिस होते तीर्थंकर हैं ||२||
जन्मभूमि चौबिस जिनवर की, शाश्वत तीर्थ अयोध्या होती ||३||
हुन्डावसर्पिणी कालदोषवश, पांच तीर्थंकर ही उस भू पर ||४||
अलग-अलग बाकी तीर्थंकर ,जन्मे उनमें से शीतल जिन ||५||
श्री भद्द्रिकापुरी में जन्मे, झारखण्ड में है स्थित वो ||६||
जिला हजारीबाग में आता, भद्दिलपुर जी तीर्थ कहाता ||७||
पुरातात्विक बहु सामग्री , जिनशासन की महिमा कहती ||८||
चैत्र कृष्ण अष्टमि तिथि आई, तीन लोक में खुशियाँ छाई ||९||
माँ के गर्भ पधारे प्रभुवर ,धनद रत्न बरसाता सुन्दर ||१०||
माँ ने सोलह सपने देखे, उत्तर पाकर मन में हरषे ||११||
रजा दृढरथ दान लुटाएं , माघ कृष्ण द्वादश प्रभु आये ||१२||
देवों के भी आसन कम्पे , सभी भद्द्रिकापुर आ पहुचें ||१३||
जन्मकल्याणक खूब मनाया, तांडव नृत्य किया हरषाया ||१४||
यौवन आया ब्याह रचाया , राज्य किया वैराग्य समाया ||१५||
हिम का नाश निमित्त बना था, माघ बदी बारस का दिन था ||१६||
सुरपति संग सहेतुक वन जा, नमः सिद्ध कह धारी दीक्षा ||१७||
तिथी पौष वदि चौदस आई, केवलज्ञान हुआ सुखदायी ||१८||
समवसरण रच गया अधर में, दिव्यध्वनी खिर उठी थी क्षण में ||१९||
जिसने उसका पान कर लिया, अपना था उत्थान कर लिया ||२०||
शीतल प्रभु के चार कल्याणक ,हुए पूज्य उस पावन भू पर ||२१||
तब से धरा पवित्र हो गयी , सुर नर मुनिगण से पूजित थी ||२२||
वर्तमान में भद्दिलपुर के, निकट एक पर्वत मनहारी ||२३||
नाम है कुलुहा पहाड़ उसका , पुरातात्विक साक्ष्य हैं भारी ||२४||
वहीं सहेतुक वन है आता ,केवलज्ञान से उसका नाता ||२५||
गिरि सम्मेद से मोक्ष पधारे, श्री शीतल जिनराज हमारे ||२६||
उस भू का था दृश्य निराला , मन को बहुत लुभाने वाला ||२७||
जब-जब हुए वहाँ कल्याणक , इन्द्र सपरिकर आया तत्क्षण ||२८||
ज्ञानकल्याणक का क्या कहना , अद्भुत समवसरण की महिमा ||२९||
बारह गुणा प्रभू से ऊंचा , बारह योजन से था दिखता ||३०||
देह स्वर्ण सम नब्बे धनु की , लक्ष पूर्व वर्षायु प्रभू की ||३१||
कल्पवृक्ष है चिन्ह प्रभू का, कल्पतरू सम फल को देता ||३२||
जब तक केवलज्ञान न पाऊँ , बस प्रभु तेरी शरणा आऊँ ||३३||
जन्मभूमि को शीश झुकाऊँ , सार्थक अपना जन्म कराऊँ ||३४||
हुआ उपेक्षित वह भी तीरथ , किन्तु बढ़ी अब उसकी कीरत ||३५||
साक्ष्य अनेकों प्राप्त हुए हैं, अब भक्तों के भाग्य जगे हैं ||३६||
गणिनी ज्ञानमती माताजी , प्राप्त हुई प्रेरणा उन्हीं की ||३७||
तीरथ ने नव स्वरूप पाया, जिनशासन यश जग में छाया ||३८||
जय हो जन्मभूमि की जय हो, शीतल जिनभक्ती अक्षय हो ||३९||
पुनर्जन्म का दुःख ना पाऊँ , भाव यही ‘इंदू’ मन लाऊँ ||४०||
शीतल जिनवर की जन्मभूमि , यात्रा जो भविजन करते हैं
उनका वंदन अर्चन करके, चालीसा विधिवत करते हैं
मन वच तन शीतल हो जाता , आत्मिक शीतलता भी पावे
त्रैलोक्यपती के सुमिरन से ,आत्मा तीरथ सम बन जावे ||१||