तर्ज—जंगल के काटों पे……
प्रभु! मेरा मन कब पावन होगा, पाप रहित कब यह मन होगा।
गुरु वाणी को सुनकर तन मन पावन होगा।।प्रभु! मेरा.।। टेक.।।
कभी सताया निर्बल प्राणी, हिंसा में आनंद लिया।
कभी झूठ चोरी के कारण, अशुभ कर्म का बंध किया।।
सोचा न इसका क्या फल होगा, पाप रहित कब यह मन होगा।।१।।
कभी पशू बनकर मैंने भी, दु:ख असंख्य उठाये हैं।
कभी नरक में जाकर, कर्मों के फल मैंने पाये हैं।।
पाप कर्म का यह फल होगा, पाप रहित कब यह मन होगा।।२।।
पुण्ययोग से नर तन पाकर, तीरथ व्रत अरु भजन किया।
दीन दुखी की सेवा करके, निज मन को सन्तुष्ट किया।।
इनसे ही सुरगति पावन होगा, पाप रहित कब यह मन होगा।।३।।
नर तन से चारों गतियों का, मार्ग प्राप्त हो सकता है।
नर ही तो ‘चंदनामती’, नारायण भी बन सकता है।।
करना निजातम चिन्तन होगा, पाप रहित कब यह मन होगा।।४।।