रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
तर्ज—दे दी हमें आजादी……
दे दी जगत को ज्ञानमती मात सी मिसाल।
हे रत्नमती मात! तुमने कर दिया कमाल।। टेक.।।
तुमको दहेज में मिला इक ग्रन्थ अनोखा।
श्री पद्मनन्दिपंचिंवशती था अनूठा।।
उस ग्रंथ के स्वाध्याय का रक्खा सदा ख्याल।
हे रत्नमती मात तुमने कर दिया कमाल।।१।।
संसार से विराग का उससे सबक मिला।
तब ज्ञानमती नाम का पहला कुसुम खिला।।
इनसे जली है ज्ञानज्योति की नई मशाल।।
हे रत्नमती मात तुमने कर दिया कमाल।।२।।
माताओं के लिए तेरी आदर्श कहानी।
जीवित सदा रहेगी तेरी त्याग निशानी।।
माता स्वयं पुत्री के चरण में नवाती भाल।।
हे रत्नमती मात तुमने कर दिया कमाल।।३।।
यह जम्बूद्वीप की कृती तेरी ही कृती है।
उसके सभी कणों में बसी रत्नमती हैं।।
माता की वंदना में ‘चंदना’ का झुका भाल।।
हे रत्नमती मात तुमने कर दिया कमाल।।४।।
रचयित्री-बाल ब्र.कु. माधुरी शास्त्री
तीरथ करने चली मोहिनी, शान्ति मार्ग अपनाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
एक बार जब गई मोहिनी, साधु चतुर्विध संघ जहाँ।
वह अजमेर धर्म की नगरी, दिखता चौथा काल वहाँ।।
तीर्थवंदना शुरू वहीं से, हुई मुक्तिपथ पाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
धन्य तिथि मगसिर बदि तृतिया, वरदहस्त गुरु का पाया।
संयम की अनमोल डोर वे, भवसागर से तिरवाया।।
रत्नमती बन गई मोहिनी, गाथा अमर बनाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
सुखशान्ती का वैभव पाकर कहें मोहिनी माता है।
जैनी दीक्षा त्याग तपस्या, का विराग से नाता है।।
जग की ममता नहीं ‘‘माधुरी’’ हुई सफल माँ पाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
रचयित्री-ब्र.कु. माधुरी शास्त्री
रत्नमती माताजी को हम नित प्रति शीश झुकाते हैं।
उनके मंगल आदर्शों का किंचित् दर्श कराते हैं।।टेक.।।
नारी शील कहा जग में, आभूषण अवनीतल में।
सर्व गुणों की छाया है, वैâसी अनुपम माया है।।
इसीलिए इस नारी ने, तीर्थंकर से पुत्र जने।
भारत जिससे धन्य हुआ, सर्वकला सम्पन्न हुआ।।
यहीं वृषभ तीर्थंकर ने, आदिब्रह्म शिवशंकर ने।
शांति मार्ग को बतलाया, जग में जीना सिखलाया।।
यहीं है सीतापुर नगरी, जहाँ महमूदाबाद पुरी।
वहीं मोहिनी जन्म लिया, जीवन जिनका धन्य हुआ।
भक्तिसुमन का हार लिये हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।१।।
मोहिनि से इक निधी मिली, संस्कारों की विधी फली।
मैना का जब जन्म हुआ, इक अपूर्व आनंद हुआ।।
मैना पिंजड़े से उड़कर, गृह बंधन में ना पड़कर।
आई इस भूमण्डल पर, ज्ञानमती माता बनकर।।
सरस्वती अवतार हुआ, चकित आज संसार हुआ।
जिनकी ज्ञान कलाओं से, भाव भरी प्रतिभाओं से।।
वर्णन हम क्या कर सकते, जग को नहिं बतला सकते।
उन अनन्य उपकारों को, सम्यग्ज्ञान विचारों को।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।२।।
जो कुछ भी है तेरा है, माँ का ही सब घेरा है।
माँ के संस्कारों की दुनियाँ, जिनका साँझ सबेरा है।।
उनमें ही अवतीर्ण हुआ, एक चाँद विस्तीर्ण हुआ।
शीतल चन्द्र रश्मियों से, अमृतमयी झरिणियों से।।
मानो सुधाबिन्दु झरतीं, स्याद्वाद वाणी खिरती।
ज्ञानमती का ज्ञान विमल, शुद्धात्मा श्रद्धान अमल।।
तुमने उन्हें प्रदान किया, निज का भी उत्थान किया।
रत्नत्रय को प्राप्त किया, आत्मतत्त्व श्रद्धान किया।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।३।।
माता हो तो ऐसी हो, जीवन परम हितैषी हो।
मोक्षमार्ग में साधक हो, मिथ्यातम में बाधक हो।।
जाने कितनी माताएँ, सन्तानों की गाथाएं।
केवल ममता भरी कथा, छिपी हृदय में मोह व्यथा।।
पर क्या कोई कर सकता, आत्मनिधी को भर सकता।
निधी ‘माधुरी’ आत्मा में, प्रगट किया परमात्मा ने।।
जैनधर्म महिमाशाली, ग्रहण करे प्रतिभाशाली।
सुखद शान्ति का दाता है, परमातम प्रगटाता है।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।४।।
तर्ज-झूठ बोले कौआ काटे……
अम्मा रूठे पापा रूठे, रूठे भाई और बहना।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी तुम देखते रहना।।
माँ- मानो बेटी बात हमारी आयु अभी तोड़ी है।
इतनी आयु में क्यों बिटिया त्याग से ममता जोड़ी है।
दीक्षा में है कष्ट घनेरे तुमरे बस की न सहना।।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी………….
माताजी- कष्टों का ही नाम है जीवन क्यों घबराती हो माता।
झूठे सांसारिक सुख हैं और झूठा है जग का नाता।
वीरा के चरणों में बीते….मेरे दिन और रैना।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी………….
पिताजी- ऐसा ना सोचो बिटिया तुम बड़े लाड़ से पाली हो।
सम्पन्न है परिवार ये सारा फिर भी कोठी खाली हो।
हम बेटी हैं बाप तुम्हारे….कहना मान लो अपना।।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी………….
भाई- माँ का कहना मानो दीदी हम सब तुमरी चरण पड़े।
वैâसे मन को कड़ा करोगी जब हम रोयेंगे खड़े खड़े।
रक्षाबंधन जब आयेगा….मेरे याद आये बहना।।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी………….
समझाया सब घर वालों ने कोई रहा नहीं बाकी
छोटे भाई रोते आये हाथ में लेके इक राखी।
इसको बहना बांधती जाओ…..ये है प्यार का गहना।।
मैं दीक्षा लेने जाऊँगी….तुम देखते रहना।। अम्मा रूठे….
भजन
मैं तुलसी तेरे आँगन की….
मैं सेवक तेरे चरणन का।
पूरा करो माँ-पूरा करो माँ
लक्ष्य तरणन का।।मैं सेवक……..
जो भी तेरे दर पे आता
खाली ना वो लौट के जाता
पाता लाभ तेरे दर्शन का
मैं सेवक तेरे चरणन का।।
जैन अजैन माँ जो भी आए
मनवांछित फल वो पा जाए
क्षय चाहे अपने करमन का
मैं सेवक तेरे चरणन का।।
मान करे सम्मान करे माँ
हर पल तेरा ध्यान करे माँ
सबको चाव तेरे सुमरन का
मैं सेवक तेरे चरणन का।।
जन्म जन्म से साथ हूँ तेरे
अब तो कटें भव बंधन मेरे।
मैं अभिलाषी तेरे दरशन का
मैं सेवक तेरे चरणन का।।
रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
( मैना से ज्ञानमती )
इक रात को इक माता पुत्री का आपस में संवाद चला।
तुम राग विराग कथाएं सुनकर बोलो किसका स्वाद भला।।टेक.।।
मां ‘मोहिनी’ थी बेटी ‘मैना’ दोनों ममता की मूरत थीं।
ममकार नहीं था दोनों में केवल मकार की सूरत थीं।।
‘मैना’ संज्ञा सार्थक करने हेतू मैना का स्वर बदला।।तुम.।।१।।
माता की ममता पिघल पिघल कर आँसू बनकर निकल रही।
बेटी का दृढ़ निश्चय सुनकर मोहिनी और भी विकल हुई।।
मां बोली कच्ची कली मेरी तू क्या जाने परिणाम भला।।तुम.।।२।।
पुत्री बोली कच्ची कलियों ने भी यह त्याग निभाया है।
देखो चन्दनबाला ब्राह्मी मां ने इतिहास बनाया है।।
मैं भी वह पथ अपनाऊंगी दो आज्ञा माँ! इक बार भला।।तुम.।।३।।
जैसे जम्बूस्वामी ने अपनी चार पत्नियों के संग में।
वैराग्य कथा जारी रक्खी नहिं रमें रानियों के रंग में।।
फिर प्रात: महल तजा उनने दीक्षा लेकर जीवन बदला।।तुम.।।४।।
वैसे ही मैना ने अपनी माता को कथा सुनाई थी।
श्री पद्मनन्दि आचार्य रचित दुर्लभ पंक्तियां सुनाई थीं।।
मां कबसे हम सबका चारों गतियों में परिवर्तन न टला।।तुम.।।५।।
कभी इन्द्र का पद पाया मैंने कभी नरक निगोदों में भटका।
तिर्यंच मनुज पर्यायों में बस यूँ ही पड़ा रहा अटका।।
बहु पुण्ययोग से श्रावक कुल में सच्चे ज्ञान का दीप जला।।तुम.।।६।।
मां बोली ये सब शास्त्रों की बातें तुमने अपना ली हैं।
पर सदी बीसवीं में बोलो किस कन्या ने दीक्षा ली है।।
तुम जैसी सुकुमारी कन्या के बस की नहीं विराग कला।।तुम.।।७।।
फिर एक चुनौती प्यार भरी दे मैना मां से बोल पड़ी।
यदि तुम मेरी सच्ची मां हो तो दे दो स्वीकृति इसी घड़ी।।
हे मां! अब तक तो ममता दी अब समता की नव ज्योति जला।।तुम.।।८।।
विश्वास मात को था मेरी बेटी दृढ़ नियम निभाएगी।।
पर सोच रही मेरी बच्ची वैâसे यह सब सह पाएगी।
इतिहास अगर यह रच देगी तो बालाओं का मार्ग खुला।।तुम.।।९।।
सच्ची मां का कर्तव्य सोच माता ने स्वीकृति दे डाली।
अवरुद्ध कंठ से बोल पड़ीं बेटी मैं बड़ी भाग्यशाली।।
हो गई विजय वैराग्य पक्ष की राग मोह तब हार चला।।तुम.।।१०।।
वैराग्य के ये अंकुर मैना ने बचपन से ही उगाए थे।
उनको पुष्पित करने मानो इक मुनिवर अवध में आए थे।।
बाराबंकी में देशभूषणाचार्य गुरू का संग मिला।।तुम.।।११।।
सन् बावन की आश्विन शुक्ला चौदश रात्री की यह घटना।
तब शरदपूर्णिमा को प्रात: मैना ने पूर्ण किया सपना।।
निज जन्मदिवस ही ब्रह्मचर्यव्रत पा मानो शिवद्वार खुला।।तुम.।।१२।।
मां बेटी की ये चर्चाएं जग को आदर्श सिखाती हैं।
कर सको न यदि तुम त्याग तो पर को मत रोको समझाती हूँ।।
‘‘चन्दनामती’’ उस माँ ने पुन: अपने जीवन को भी बदला।।तुम.।।१३।।