-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
तर्ज—फूलों सा चेहरा तेरा……
सार्थक हो जीवन मेरा, पाया जो वरदान है।
पुण्यकार्य कर सकूँ, भवसमुद्र तर सकूँ, मन में ये अरमान है।। टेक.।।
इस तन में है इक चैतन्य आत्मा,
उसका ही सारा चमत्कार है।
जिस दिन निकल जाय तन से वो आत्मा,
रह जाता पुद्गल का संसार है।।
नरजनम को पाके, आत्मतत्त्व ध्याके, पाना परममुक्ति का धाम है।
जड़ चेतन को समझूँ अलग, यही ज्ञानी की पहचान है।
पुण्यकार्य कर सकूँ, भवसमुद्र तर सकूँ, मन में ये अरमान है।।१।।
चारों गती में मानुषगती ही,
कहलाती सबसे उत्तम यहाँ।
क्योंकि उसी के द्वारा सभी जन,
करते हैं आतमचिंतन यहाँ।।
सिद्ध जो बने हैं, सिद्ध जो बनेंगे, नरतन से ही पाते निजधाम हैं।
विषयों में फंसना नहीं, देते गुरू ज्ञान हैं।
पुण्यकार्य कर सकूँ भवसमुद्र तर सकूँ, मन में ये अरमान है।।२।।
जिनवर की पूजा, गुरुओं की भक्ती,
स्वाध्याय करके संयम धरूँ।
शक्ती के अनुसार करके तपस्या,
दानी बनूँ कुछ नियम भी करूँ।
चन्दनामती ये, कर्म षट् कहे हैं, हो इनसे आतम का कल्याण है।
क्रम क्रम से पाना है फिर, संयम सकल धाम है।
पुण्यकार्य कर सकूँ, भवसमुद्र तर सकूँ, मन में ये अरमान है।।३।।