खाने की अपेक्षा पचाने से ही सामर्थ्य में वृद्धि होती है। रुग्ण व्यक्ति खाता है, किन्तु पचाने की शक्ति उसमें न होने से खाया हुआ पदार्थ बाधक होता है वही बात ज्ञान की भी है। ज्ञान अल्प क्यों न रहे वह पक्क होना चाहिये।
९-८-१९२९
(२)
परोपकार के लिए यह शरीर हमें प्राप्त हुआ है। यह बात ध्यान में रखकर उसी के लिए वह व्यतीत करना चाहिए। जनसेवा, राष्ट्रसेवा एवं आत्मसेवा यही ध्येय सम्मुख रखना इष्ट है।
९-८-१९२९
(३)
गपसप लगाने में वा, अन्य अनुपयुक्त बातों की ओर निरर्थक नष्ट होने वाली अपनी शक्ति यदि विचार—सामथ्र्य एवं इच्छाशक्ति के विकास में खर्च की तो हम स्व—परकल्याण करने में समर्थ हो सकते हैं।
७-३-१९३०
(४)
आत्मस्वभाव का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर कर्मों के उदय के अनुसार उत्पन्न होने वाले इष्ट—अनिष्ट प्रसंगों में सुख—दु:ख न मानकर समताभाव धारण करने में एवं निरंतर धर्मसेवा व पर उपकार करने में काल व्यतीत हो तो जीवन की सफलता समझनी चाहिये। धर्म का विघातक भय सर्वथैव त्यागना चाहिये।
२८-१२-१९३०
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(५)
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शाश्वत एवं अक्षत सुख का निर्झर बाहर नहीं है, वह आत्मा के भीतर है, यह दृढ श्रद्धा होनी चाहिये। ‘सुख बाहर है’ इस भ्रम से यह जीव अनंत काल से संसार में नाना दुख भोगता हुआ निरंतर भटक रहा है। इस भ्रम को पूर्णतया त्यागकर शुद्ध एवं दिव्य सुख की खोज आत्मा में ही करनी चाहिये। इससे निज दिव्य स्वभाव का लाभ व अनुभूति इसी जन्म में अंशत: क्यों न हो प्राप्त होते ही परपदार्थविषयक इष्टनिष्ट कल्पनाएँ नष्ट हो जाती हैं।
१९-१२-१९३१
(६)
‘हम सब परमात्मा हैं। अतएव हम व्यक्तिओं की सेवा नहीं करते, अपितु परमात्मा की सेवा करते हैं।’ यह भावना जागृत रखकर ही सब गृहकार्य करना चाहिये। परिणाम—विशुद्धि के लिए परपर्याय बुद्धि न रहे इसलिए सावधानता रखनी चाहिये।
४-२-१९३२
(७)
लोभादि कषायों में मंदता लाकर आत्मभावना भानी चाहिए। परमात्मा के गुणों का नित्य स्मरण व िंचतन करना चाहिए। तथा प्रतिदिन पर्याप्त समय इस काम के लिए व्यतीत करने के अनुकूल सामग्री का संचय कर नर जन्म की सार्थकता करनी चाहिए।
८-२-१९३२
(८)
‘पर का ग्रहण न करना तथा आत्मस्वभाव का त्याग न करना’ यही ज्ञानी पुरुष का जीवनसूत्र है।
४-३-१९३२
(९)
तत्त्वज्ञान का प्रयोग आपत्काल में भी परम शान्ति प्रदान करता है। आपदा को घबराना इष्ट नहीं, दुख भी मानना इष्ट नहीं है।
४-१२-१९३२
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(१०)
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अपना घर सत्य, प्रामाणिकता, परोपकार—प्रियता, नम्रता, विवेक, धर्माचरण, साधर्मी बांधवों से वात्सल्यभाव, गुणैकदृष्टि, प्रसन्नवृत्ति आदि गुणों का परंधाम होना चाहिये।
१५-१२-१९३२
(११)
आत्मिक गुणों का जैसा जैसा विकसन होता है वैसी वैसी आन्तरिक सुखसंपदा व्यक्त होती है। सच्ची संपदा वही है। बाह्य संपदा नाममात्र संपदा है। वह अंशमात्र एवं यदि प्रयोग किया तो सच्ची संपदा का साधनमात्र है।
१५-१२-१९३२
(१२)
लौकिक बाह्य दृष्टि का त्याग कर विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अंतरंग दृष्टि धारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। वैषयिक सुख को त्याग किये बगैर आत्मिक संपदा का शाश्वत स्वरूप अनुभव में नहीं आता।
१५-१२-१९३२
(१३)
समाचीन श्रद्धा, ज्ञान एवं त्याग इस त्रयी में आत्मिक गुणों का पूर्ण विकास है। समाचीन श्रद्धा और ज्ञान इस द्वय को सर्वप्रथम प्राप्त करना चाहिये। जिसे परद्रव्य जाना, माना उसका मोह, आसक्ति श्रद्धा एवं ज्ञान से भिन्न कर देना चाहिये। तत्पश्चात् क्रमश: कषायों की मंदता के अनुसार वह आसक्ति क्रिया से भी अलग कर देने से ध्येयसिद्धि समीप आ रही है ऐसा समझना चाहिये।
१५-१२-१९३२
(१४)
परिणाम—वशुद्धि यही सच्चा धर्म है। उसके लिए दिनरात अथक यत्न करना चाहिये।
१२-७-१९३२
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(१५)
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इंद्रियों की तृप्ति के लिए मनुष्ट यथेच्छ खर्च करता है। धर्मसाधना के लिए उसका कुछ अंश खर्च किया तो क्या नुकसान है ? प्रत्युत वह सत्कार्य में ही हुआ ऐसा समझना चाहियें।
१६-७१९३२
(१६)
अपना मकान प्रतिदिन झाडू लगाकर स्वच्छ किया जाता है, न किया तो वह अस्वच्छता निवास बन जाता है। वही बात आत्मा की है। दोषों का बार—बार प्रतिक्रमण, प्रायश्चित आदि से परिमार्जन करने से पावित्र्य की वृद्धि होती है, पाप का बोझा कम होता है।
१६-७-१९३२
(१७)
जिस मात्रा में इच्छाशक्ति प्रबल होती है उस मात्रा में मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, यह नियम है। इसलिए इस अमोघ शक्ति का विकास करने का अमूल्य अवसर कभी भी नहीं गमाना चाहिये।
१६-७-१९३२
(१८)
मनुष्य का मन दुर्बल हो तो ब्राह्य परिस्थिति के गतिशील प्रवाह में वह बहता रहता है। समय पर उसे न रोका गया तो वह कहाँ तक बहते जायेगा कह नहीं सकते। अत: मन की दुर्बलता का निष्कासन जितना जल्द होगा उतना अच्छा है।
१०-७-१९३३
(१९)
आयु का काल शीघ्र गति से जा रहा है। मृत्यु कब प्राप्त होगा इसका नियम नहीं। ऐसी परिस्थिति में ‘आत्तसारं वपु: कुर्या: तथात्मन् तत्क्षयेऽप्यभी:।’ इस शरीर से समय पर ही पर्याप्त काम लेना चाहिये। इससे उसका वियोग हुआ तो भी भय का कारण नहीं रहता। इस आचार्योक्ति के अनुसार आचरण की ओर मन: प्रवृत्ति लगानी चाहिये।
१०-७-१९२२
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(२०)
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मोहनीय कर्म का उदय चैन नहीं मिलने देता। तथापि इसके लिए एक ही उपाय है और वह परमात्म—अमृतसेवन। परमात्मस्वरूप में लीन रहने में जो रस, जो आनंद है वह अन्यत्र नहीं है। भगवंत का यह वचन कितना श्रद्धेय एवं अनुष्ठेय है परमात्मचिंतन से मोह का साम्राज्य तुडवाने का अनंत सामथ्र्य प्राप्त होता है। अत: उसके लिए अवश्य यत्न करना चाहिये।
१०-७-१९३३
(२१)
स्वपरसेवा का अवसर गवाना नहीं चाहिये। इसमें अल्पभी प्रमाद नहीं होना चाहिये। गपसप लगाना वा निरर्थक बाते करना पूर्णतया त्यागने के लिये स्वयं सीखना चाहिये, छात्रों को भी सीखाना चाहिये ध्येय का नित्य स्मरण रखने से ऐसा नहीं होता। ‘जाते घडि ही अपुली साधा, करा काय ते अता करा।’ बीतता समय अपना मानकर जो कुछ करना है वह इसी समय में करो। यह सदुक्ति दृष्टि—सम्मुख रखनी चाहिये।
३०-१०-१९३३
(२२)
Regularity, Persistence and System are the keys of success. . नियमितता, चिकाटी एवं सुयोग्य पद्धति यशप्राप्ति की कुंजी है।
३०-१२-१९३३
(२३)
उच्च महात्वाकांक्षा एवं दीर्घ उद्यम के संयोग से जीवन सफल बनता है। व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता अल्प क्यों न हो कुछ बिघडता नहीं। जितनी क्षमता है उसका प्रतिदिन नियमित रूप से एवं सुयोग्य रीति से प्रयोग करने से मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकते है।।
३०-१०-१९३३
(२४)
किसी भी वस्तु में स्थित आसक्ति वहाँ से निकाल डालने पर इष्ट फल, सहज रीति से मिलता है। तनाव देने से वस्तु फटती है। (Let the nature follow its own course’.. निसर्ग को निजक्रम से चलने दो) इस तत्त्व में परम शान्ति एवं समाधान है।
२८-४-१९३४
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(२५)
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निसर्ग के प्रतिकूल दिनरात हमारे प्रयत्न चल रहे हैं। यह सब मोह का प्रताप है, अन्य क्या है? ज्ञाता, द्रष्टा बनकर सृष्टि को तमाशा देखने में एक प्रकार का विशेष आनंद है। किन्तु अपना चित्त शान्त रहे तो ना ?
२८-४-१९३४
(२६)
हमारा अहंकार हमें कहाँ स्वस्थ बैठने देता ! भ्रम से यह जीव मन—वचनकाय की क्रियाओं को निज मानकर संसार में भटक रहा है। मोह के इस दुर्विलासताकाधि:कार!
२८-७-१९३४
(२७)
वस्तुस्वभाव का विचार जैसा जैसा बढ़ते जाता है वैसा वैसा आनंद भी बढ़ते जाता है। इस आनंदमेंही हमारे अशुभ कर्मों का बोझा कम करने की अद्भुत शक्ति है।
२८-४-१९३४
(२८)
गुरुकुल संस्था का पवित्र कार्य अविरत चलते रहना हम सबके लिए भूषणार्ह है। वह अन्त तक यशस्वितया चलाना प्रत्येक का कर्तव्य है। क्योंकि धर्मशील व्यक्तिओं के बिना धर्म नहीं रह सकता। धर्मशिक्षा के बिना धर्मशील पुरुष नहीं बन सकते। अत: ऐसी शिक्षासंस्थाओं समान धर्मायतन यह कार्य कष्टतर हो तो भी, शुरु रखना समाज हित के लिए है।
२९-४-१९३४
(२९)
बोया हुआ उगता ही है ऐसा नहीं। किन्तु जो उगता है वह बोये बगैर नहीं। अत: निष्काम बुद्धि से धर्मसेवा एवं निज पवित्र कार्य करने का उद्यम करना चाहिये। फल कर्माधीन है। उसमें लेशमात्र आसक्ति न रखना चाहिये। क्योंकि सामग्री के उत्तमोत्तम चयन के लिए उद्यम एवं फल में अनासक्ति यही कार्य साधना का रहस्य है।
१-६-१९३४
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(३०)
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प्रेम की अल्प भेट भी अमूल्य होती है। उसमें सद्भक्ति एवं सद्भावना ओतप्रोत भरी रहती है।
९-८-१९३४
(३१)
कोई भी शकट चलाने के लिए दो चक्कों की जरूरत होती है। राजा व प्रधान के बिना राज्यशकट नहीं चलता। गृहस्थाश्रम में स्त्री—पुरुष चाहिये। इसी प्रकार संस्थारूपी शकट भी अकेले से नहीं चलता। उसे भी एक हृदय के कम से कम दो व्यक्ति चाहिये।
१७-८-१९३४
(३२)
प्रेम एवं सहकार यशस्वी संस्था—संचालन के दो सूत्र है।
१७-८-१९३४
(३३)
जीवन में सदाचार के समान अन्य सुख नहीं है। उच्च विचार, सत्य व प्रेमपूर्ण उच्चार एवं हितकर आचार इस साधन त्रयीसेही मनुष्य सुखी होता है।
३०-८-१९३४
(३४)
सत्य वचन, विनय एवं ब्रह्मचर्य इस त्रयी की यथार्थ पालना मनुष्य में विशेष सामथ्र्य निर्माण करती है।
३०-८-१९३४
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(३५)
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क्षण—क्षण का सदुपयोग, निरंतर व्यवसाय एवं शुद्ध विचार करने की आदतें लगाने से इसी जन्म में दिव्य आनंद की प्राप्ति अवश्य होगी।
६-१०-१९३४
(३६)
अनुशासन, स्वच्छता अेवं उत्साह में यहाँ के छात्र अग्रेसर हैं। रसोई के व्यतिरिक्त अन्य सब काम यहाँ के छात्र ही करते हैं। अत: उनमें स्वावलंबन की प्रवृत्ति बढ़ रही है। बाल्यावस्था के इन आदतों से छात्रों में स्वाभिमान एवं श्रमनिष्ठा वृद्धिगंत होती है। उच्च—नीचता की भावना दूर होती है। रिक्त समय कम मिलने से उन्हें निरर्थक बातों के लिए समय ही नहीं मिलता। उनका रात और दिन का पूर्ण समय अध्ययन, काम और विश्राम में ही व्यतीत होता है।
(३७)
आप अध्ययन करें, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति करें, इस ओर हमारी नजर है। धर्मसेवा, करने वाले हजारों युवक आपमें से निर्माण होना चाहिये। स्वार्थ त्यागी, उत्साही, बलवान, शुद्ध विचारी, चारित्रय संपन्न वीर युवकों की आज राष्ट्र को जरूरत हैं। ऐसे महान पुरुषों की मालिका में आप सबके नाम प्रकाशित होवे यही हमारी र्हािदक इच्छा है।
१०-१२-१९३४
(३८)
युवा पिढ़ी के जीवन को आकार देकर जिनधर्म की प्रभावना के लिए उन्हें योग्य व समर्थ बनाना हम सबके हाथ में है। नींव जितनी पक्की रहेगी उतनी भावी वास्तु भव्य व आदर्श बनेगी।
१०-१२-१९३४
(३९)
समाज ने अपने हाथ सौंपा गया यह धर्मध्वज शान से फहरता रहे इसलिये यत्न होना आवश्यक है। धर्म—उद्योत सरीखे महान कार्य त्याग पर ही निर्भर है। त्यागभावना का यह बीज बालकों की मनोभूमिका में बोकर उसकी देखभाल करने वाले मालाकार की भूमिका हम सबने स्वीकर कर आश्रम को बालोद्यान बनाना चाहिये।
१०-१२-१९३४
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(४०)
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कार्यकर्ताओं पर सौंपे हुए कार्य का साप्ताहिक इतिवृत्त संस्थाप्रमुख को नियमित रूप से प्राप्त होना चाहिये। इससे प्रत्येक विभाग का कार्य किस प्रकार चल रहा है। इसकी जानकारी मिलती है,एवं आवश्यक मार्गदर्शन दिया जा सकता है। छोटा बड़ा काम करने की यही पद्धति है। स्वीकृत जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति दक्षतापूर्वक निभा रही है या नहीं इस ओर ध्यान देना वरिष्ठ अधिकारियों का काम है। इससे कार्य में अनुशासन एवं नियमितता रहेगी। कर्तव्य सर्वदा निष्ठुर होता है।
२२-१-१९३५
(४१)
किसी कार्य की जिम्मेदारी स्वीकार न करना अच्छा है, किन्तु व स्वीकारने पर उसकी यथोचित पालना होने के लिए पूरा यत्न करना प्रधान कर्तव्य है। यही धीमतों का लक्षण माना गया है।
अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम्।
प्रारब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं बुद्धिलक्षणम्।।
२२-१-१९३५
(४२)
ध्यान में रखना चाहिये कि पैसा यह साधन है एवं विद्या, धर्म सद्गुण साध्य है। साधनों के पीछे लगकर साध्य को गवाना सुज्ञता नहीं।
४-२-१९३५
(४३)
निर्मल एवं पवित्र हृदय में ही ईश्वररत्व का निवास होता है। अत: जीवन पवित्र एवं मंगल बनाना हो तो उसे अन्तर्बाह्य शुचि करना चाहिये।
१३-२-१९३५
(४४)
वर्तमान समय का जो सदुपयोग करता है उसका भविष्य उज्ज्वल होता है।
१३-२-१९३५
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(४५)
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बालकों के सुसंस्कारित करने के लिए विचार एवं वाणी की ओर सूक्ष्म ध्यान अवश्य देना चाहिये।
७-३-१९३५
(४६)
ज्ञान के संस्कार विचारों का स्तर सुधारने के लिए उपयुक्त है। यह स्तर जितना उच्च रहेगा उतना ही बालकों का जीवन उन्नत बनेगा यह नियम है। अत: जब समय मिले तब कहानियों तथा महान पुरुषों की जीवन गाथाओं से उनका ज्ञान एवं मन की पवित्रता वृद्धिगंत करनी चाहिए।
७-३-१९३५
(४७)
दोष—दिग्दर्शन करने वाले विश्व में अल्प मात्रा में है। ये लोग दोषों को निष्कासित करने के लिए सहायक होने से वे शत्रु नहीं, वस्तुत: मित्र ही है।
११-५-१९३५
(४८)
दोष—दिग्दर्शन करने वालों की ओर उपकृत भावना से, मित्रता की दृष्टि से देखना सीखना चाहिये। जीवन—विकास का यही सुलभ मार्ग है।
११-५-१९३५
(४९)
जिसका मन सुदृढ़ अेवं मजबूत होता है वही जीवन में उपस्थित आपत्तियों से लढ़ सकता है, लढ़ने में टिक सकता है। जिसका हृदय दुर्बल है ऐसा आदमी कितना भी शरीर से पुष्ट हो, वह आपत्तियों के सामने हताश होता है।
२३-७-१९३५
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(५०)
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दुर्बल मन में नानाविध कुविचार उत्पन्न होते हैं। कुविचारों से मनस्ताप और मनस्ताप से निराशा आती है। कभी कभी तो उसकी जीने की इच्छा नष्ट हो जाती है। मन की यह दुर्बलता अन्त में अशान्ति एवं दु:खों का कारण बनती है। अत: शरीर—सामथ्र्य के साथ ही मनोबल बढ़ाना सीखना चाहिये।
२३-७-१९३५
(५१)
मन की शक्ति ध्येयनिष्ठा से सदा उत्सपूर्त होती है। उच्च ध्येय का स्मरण यही मन की ऊर्जा एवं स्पूर्त है। जिसके सम्मुख कुछ भी ध्येय नहीं होता उसे वह कहाँ से मिलेगी ? तात्पर्य, ध्येयनिष्ठा यही जीवन की महाशक्ति है। ध्येयहीन जीवन एक प्रकार का मृत्यु ही है।
२३-७-१९३५
(५२)
बालक समाज एवं राष्ट्र की महान संपदा है। उनका योग्य संगोपन, संवर्धन जिस मात्रा में होगा उतना ही समाज एवं राष्ट्र का अधिक कल्याण होगा। उनके गुण—ाqवकास पर ही समाज और राष्ट्र का विकास निर्भर है। अत: उनका गुण विकास जितना अधिक हो उतना इष्ट है।
११-८-१९३५
(५३)
जीने का सही आनंद सदगुणों के वुद्धि में है। यह बात छात्रों के मन पर निरंतर उत्कीर्ण करनी चाहिए। जिन गुणों से उनका जीवन उदात्त, उन्नत और आदर्श बने, सामान्य से असामान्य बने ऐसे गुणों की आराधना करने की ओर उनकी प्रवृत्ति रहें, उनकी अभिरुचि विकसित हो ऐसा यत्न करना चाहिये।
११-८-१९३५
(५४)
उदात्त एवं उन्नत ध्येय से प्रेरित होकर अपने तथा साथियों के विकास के लिए आवश्यक अन्य उपाय करने की ज्वलन्त इच्छा एवं आकांक्षा रखना यही सच्ची महत्त्वाकांक्षा है। ऐसी महात्त्वाकांक्षा व्यक्ति का जीवन उन्नत बनाती है और साथ ही साथियों का भी जीवन उन्नत बनाने में सहायक होती है।
१५-९-१९३५
==
(५५)
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समुद्र नि:शब्द होता है किन्तु उसकी गहराई सब कोई जानता है। उसी प्रकार उच्च महत्त्वाकांक्षा वाले पुरुष न बोलते हुए भी उनके हृदय एवं विचारों की गहराई सम्पर्वâ में आने वाले व्यक्तियों के ध्यान में आये बगैर नहीं रहती। जीवन में दिव्य भव्यत्व की महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति को उन्मत बनाती है। उसकी महत्ता अेवं भाग्य बढाती है।
१५-९-१९३५
(५६)
व्यक्ति को विवेकी और महत्त्वकांक्षी बनना हो तो उसने अपनी इन्द्रियों एवं मन को स्वाधीन और संयमित रखना सीखना चाहिये। जिनकी इन्द्रियों आत्मवश नहीं है और मन कामक्रोधादिक विचारों के शीघ्र वश होता है, वह कभी भी बड़ा नहीं बन सकता और जीवन में शान्ति एवं संतोष नहीं पा सकता।
२५-९-१९३५
(५७)
सच्चे सुख व शान्ति की अपेक्षा रखने वाले व्यक्ति ने सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियाँ एवं मन स्वाधीन रखना चाहिये। उन पर संयम का अंकुश रखना सीखना चाहिये। जो व्यक्ति इसमें सफलता पाता है। उसका जीवन उन्नत और सफल होता है।
२५-९-१९३५
(५८)
बाल्यकाल सामान्यत: अनुकरणशील होता है। ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरे जना:। यह सूक्ति कार्यकर्ताओं एवं अध्यापकों ने ध्यान में रखनी चाहिये। संयम का पाठ अपने से ही प्रारम्भ करना चाहिये।
२५-९-१९३५
(५९)
विवेकी पुरुष धर्माचरण का प्रारम्भ अपने से ही करता है। अपने निजी जीवन में धर्म न उतारते अन्य जनों को उपदेश देना निरर्थक है।
११-१०-१९३५
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(६०)
==
प्रथम आत्महित करना चाहिये, पश्चात् यथाशक्ति परहित। किन्तु दोनों में आत्महित को प्राथमिकता देनी चाहिये।
११-१०-१९३५
(६१)
मनुष्य हमेशा दूसरों का सुधार करने की इच्छा करता है। उसे अपने दिये तले का अंधेरा दीखता नहीं। इसी कारण वह अपनी सुधार की और ध्यान नहीं देता और दूसरों का सुधार उससे नहीं होता। यथार्थ से व्यक्ति अपना सुधार कर सकती है। और यदि वह सफल हुई तब ही दूसरों के सुधार का वह निमित्त बन सकती है।
१२-१०-१९३५
(६२)
पाप भाव यह अपना पहला शत्रु है। वही आत्मा का घात करता है। व्यक्ति स्वयं शत्रु नहीं, घातक नहीं है। तत्संबधित द्वेषभावना, दुष्टता घातक है। यह श्रद्धा जागृत होने की आवश्यकता है।
२५-१०-१९३५
(६३)
‘पांप अराति: धर्मो बन्धु:।’ पाप आत्मा का शत्रु है और धर्म बंधु है। ऐसा आचार्य श्री समन्तभद्र ने रत्नकाण्ड श्रावकाचार ग्रंथ में कहा है। इसका मथितार्थ ध्यान में रखकर पापक्रिया एवं पापभाव से अपनी रक्षा करनी चाहिये। आत्मसुधार का यह प्रथम चरण है।
२५-१०-१९३५
(६४)
पाप का द्वेष कीजिये, पापी व्यक्ति का नहीं। व्यक्ति समीचीन उपदेश से वा सत्समागम से, आज नहीं कल, सुधर सकता है। किन्तु तब तक पाप की घृणा, अरुचि बढ़ती नहीं तब तक उसमें सुधार कैसा हो सकेगा ?
२५-१०-१९३५
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(६५)
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सामान्यत: जीवन में भीरुता दुर्गण माना गया है। किन्तु ‘पापभीरुता’ का अन्तर्भाव सद्गुणों में किया गया है। विवेकी पुरुष अपने से पाप न घड़ने के लिए सावधान रहता है। यदि स्खलनवश भूल हुई तो वह आत्मनिन्दा कर प्रायश्चित लेता है और आत्मशुद्धि करता है।
२५-१०-१९३५
(६६)
जो कार्य प्रथम करना आवश्यक है वह पहले करना चाहिये। पहला कार्य आधे में ही छोड़कर दूसरा प्रारम्भ करने से चित्त द्विधा होता है। और दोनों कार्यों में सफलता नहीं मिलती यह अनुभव है। समय पर उचित कार्य का आरम्भ करना एवं वह दृढता से करना कार्य की आधे से भी अधिक सफलता है। ‘एक समय एक ही कार्य’ यह यशप्राप्ति की कुंजी है।
७-११-१९३५
(६७)
शील, ज्ञान एवं प्रेम गुरुकुल संस्था के अन्तश्चर प्राण और व्यवस्था एवं सेवा बहिश्वर प्राण समझकर उनकी पालना एवं रक्षा जितनी अधिक हो उतनी करनी चाहिये। संस्था एवं छात्रों का उत्कर्ष उन्हीं पर निर्भर है।
१७-११-१९३५
(६८)
जीवन में सच्चा सुख समीचीन ज्ञान से ही प्राप्त होता है। वह सब दु:खों का हरण करने में परम अमृत है। ज्ञान को मानव का तृतीय नेत्र माना जाता है। यदि वह सम्यज्ञान हो तो क्या कहे ? ‘ज्ञानेन पुंसां सकलार्थसिद्धि:।’ ज्ञान से पुरुषों के सब प्रयोजन सिद्ध होते हैं। अत: छात्रों, अध्यापकों एवं कार्यकर्ताओं ने अपना ज्ञान निरन्तर र्विधष्णु रखना चाहिये।
२६-११-१९३५
(६९)
शील की सुरक्षा, ज्ञान की पिपासा एवं पारस्परिक प्रेम की वृद्धि छात्रों में निरन्तर बढ़ती रहनी चाहिये। उस ओर सबका ध्यान रहना चाहिये। उसी प्रकार उनका निवास स्थान, बक्सा, कपड़ा तथा अन्य वस्तु सुव्यवस्थित होनी चाहिये। शरीर स्वच्छ एवं निरामय तथा मन प्रसन्न एवं उत्साहित होना चाहिये। यदि कोई बीमार हो तो उसकी सेवा—शुश्रूषा दक्षतापूर्वक करनी चाहिये। दु:खी जनों की सेवा करने का पाठ इससे मिलता है। सामूहिक जीवन में यह बात अति आवश्यक है।
१७-११-१९३५
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(७०)
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सुद्विद्या का फलित सदाचार में है। जिस विद्या को सत्कृति की जोड नहीं, वह किस काम की? मानव जीवन की श्रेष्ठता एवं सफलता ज्ञान के साथ ही निष्ठा और सत्प्रवृत्ति पर निर्भर है।
१७-१२-१९३५
(७१)
जो पुरुष अपनी संपति का उपयोग दान के लिए, विद्या का सदाचार के लिए, चितनशक्ति का परमात्मतत्व—िंचतन के लिए और वाणी का परोपकार के लिए करता है, वह धन्य है। वह त्रिभुवन में श्रेष्ठ है। मानव जीवन का मूल्य वृद्धिगंत करने वाली ये चार बातें अपने हृदयपटल पर अंकित होनी चाहिये।
२४-१२-१९३५
(७२)
गुणविकास के यत्नों में सातत्य रखना आवश्यक है। इच्छा के अनुसार फल मिले या न मिले, हमने निष्ठापूर्वक सही ढंग से यत्न करना चाहिये। उसमें प्रमाद वा निराशा नहीं होनी चाहिये। दृढ़ प्रयत्न करने पर भी यदि अभीष्ट फलप्राप्ति न हो तो भी प्रयत्न करते समय विचार एवं भावनाएँ साथ होने से उनका सुफल पुण्यबंध के रूप में अवश्य मिलेगा इसमें संदेह नहीं।
८-१-१९३६
(७३)
प्रत्येक विषय का अध्ययन किस प्रकार करना चाहिये इसका ज्ञान विषय—अध्यापकों से छात्रों को मिलना चाहिए। उससे अभ्यास की पद्धति के अज्ञान से होने वाली शक्ति की हानि कम होगी। इतना ही नहीं कम समय में अधिक अध्ययन होकर अन्य छात्रों की उपलब्धि तक वे जल्द ही पहुँच सकते हैं। मर्यादित समय में पर्याप्त अध्ययन करना यह एक कला है।
(७४)
आनन्द का उद्गम सदुगुणों में है। यदि निरन्तर आनन्द की प्राप्ति चाहते हो तो सदुगुणसंपन्न बनना और अपने दोषों का अवलोकन कर उन्हें निष्कासित करना चाहिये। इंद्रियों के विषयों का सेवन करने में जितना आनन्द है उससे बहुगुणा आनन्द सदगुण सम्पन्न बनने में है।
१९-१०-१९३६
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(७५)
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प्रकृति की स्वस्थता के लिए हर एक बात में नियमितता आवश्यक है। घुमना एवं व्यायाम प्रतिदिन नियमित रूप से, अन्य सब कार्य छोड़कर करना चाहिये। उसमें स्खलन काम का नहीं है। भोजन में अनियमितता नहीं होनी चाहिये। संध्यासमय जितना पचा सकते, उतना ही आहार ग्रहण करना चाहिये। निद्रा आती है इस कारण पर्याप्त आहार न लेना समझदारी का काम है ऐसा मुझे नहीं लगता। सांयकालीन घुमना नहीं टालना चाहिये अन्य कार्यों में व्यस्त होकर महत्त्वपूर्ण नित्य दैनिक कार्यक्रम टालना अपनी ही वंचना है।
२८-१०-१९३६
(७६)
नियमितता बिना इच्छा शक्ति की वृद्धि नहीं होती और इच्छाशक्ति के मन: पूर्वक प्रयोग किये बिना नियमितता नहीं आती। ऐसा दोनों में पारस्परिक अन्योन्याश्रयी संबंध है। इच्छाशक्ति की जिस मात्रा में वृद्धि होगी उस मात्रा में जीवन अधिक उन्नत बनेगा तथा लोक—कल्याण अधिक अच्छा करने की शक्ति मिलेगी।
२८-१०-१९३६
(७७)
स्वच्छ मनोमन्दिर में जिस प्रकार परमात्मा का निवास होता है उसी प्रकार स्वच्छता में सर्वत्र लक्ष्मी निवास करती है। परिसर में आदर्श स्वच्छता चाहिये। थोड़ा कष्ट सहन करने की आदत लगायी गयी तो परमानन्द देने वाली स्वच्छता वातावरण में अवश्य निर्माण होगी।
२९-१०-१९३६
(७८)
कार्य विभाजन कर अपने हिस्से का काम सुचारु रूप से करना सीखना चाहिये। उसके लिए आवश्यक अर्हता प्राप्त करनी चाहिये। ‘पात्रतां नीतमात्मानं, स्वयं याान्ति हि सम्पद:।’ यह आचार्योक्ति हृत्पटल पर उत्कीर्ण करनी चाहिये। अपना भविष्य उज्जवल बनाना अपने ही हाथ में है।
२५-१०-१९३६
(७९)
निज शक्ति की यथार्थ कल्पना अपने को होनी चाहिये। वह जानकर ही कार्यभार स्वीकारना चाहिये। यह मैं करता हूँ, वह भी मैं करुंगा ऐसा कहना और अनेक कामों का बोझ सिर पर लेना और काम न हुआ तो चिन्ता करते बैठना अपनी शक्ति का व्यर्थ अपव्यय है।
३१-१०-१९३६
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(८०)
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अमुक एक व्यक्ति को काम सौंपा गया था, वह उसने नहीं किया इसलिए वह स्वयं करने से या दूसरों से करा लेने से अनुशासनहीनता बढ़ती है। ऐसा करने से अपने को और दूसरों को भी अनुशासननतापूर्ण और नियोजनबद्ध कार्य करने की आदत नहीं लगती।
३१-१०-१९३६
(८१)
नेता ने अपने कार्य में पूरी शक्ति लगानी चाहिये। इसीलिये नीतिशास्त्र में कहा गया है, ‘योजकस्तत्र दुर्लभ:।’ सब बातें आसानी से प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु योजक मिलना महादुर्लभ है। किन लोगों से , कैसा किस प्रकार काम करा लेने से वह सुंदर, स्थिर एवं यशस्वी होगा इसकी योजना जो कर सकता है वही ‘योजक’ है।
(८२)
मन की पवित्रता रखने के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिये। रिक्त समय में चित्त की शुद्धि करने वाले ग्रंथों का नित्य पठन करना चाहिये। इसी प्रकार परिणामविशुद्धि के लिए उपयुक्त सत्समागम भी निरन्तर प्राप्त करना चाहिये।
१-११-१९३६
(८३)
अन्तर्दृष्टी परमात्मस्वरूप की ओर तथा बाह्य दृष्टि संसार की ओर रखनी चाहिये। दोनों को संसार में नहीं लगाना चाहिये। सुख के समय परमात्मा का स्मरण करने वाले ही दु:ख सागर पार कर सकते हैंं और यह शक्ति भेदविज्ञान के बिना प्राप्त नहीं होती।
१६-११-१९३६
(८४)
आसक्ति रखने से वस्तु दूर दूर जाती है, किन्तु निराकुलता से प्रयास हुआ तो वस्तु आप ही आप समीप आती है। निरासक्ति से मोक्षलक्ष्मी की वरमाला मिलती है फिर अन्य सम्पदा का क्या?
३०-११-१९३६
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(८५)
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दुष्कर्मों के उदय से आपत्तियाँ आती ही हैं। पुण्यकर्मों का उदय तीर्थंकरों के समान लोगों को भी सदैव नहीं होता है। हम जैसे व्यक्तिओं का कहां? तथापि हताश नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार परद्रव्य की आसक्ति श्रद्धा से हटा दी गयी है उस प्रकार वह मन से भी हटा देने का प्रयास करना चाहिये।
३०-११-१९३६
(८६)
लक्ष्मी, वैभव, जीवित सब अंशाश्वत हैं। क्षण का भी विश्वास नहीं है। संसार का यह स्वरूप समझकर निरन्तर जिनपूजा, दान, स्वाध्याय, ध्यान आदि धर्मकार्यों में रत रहना चाहिये। इससे परिणामों की शान्ति बढेगी और परम कल्याण होगा।
२४-१-१९३७
(८७)
पुण्य से ही अभीष्ट सिद्धि होती है और पुण्य धर्म से होता है। अत: जितनी धर्माराधना होगी व पुण्य संचय होगा उतनी इष्ट सिद्धि होगी।
१९-२-१९३७
(८८)
सुखी हो या दु:खी प्रत्येक जीव ने संसार में धर्म करना ही चाहिये। सुखी व्यक्ति ने सुख की वृद्धि के लिए धर्म सेवन करना चाहिये और दुखी व्यक्ति ने दु:ख का नाश करने के लिए धर्माराधना करनी चाहिये।
१९-२-१९३७
(८९)
तैलबिंदु जिस प्रकार जल में सर्वत्र फैलता है उसी प्रकार अल्प मात्रा में और बालक से भी सुने हुए सदुपदेश के दो शब्द व्यक्ति के अन्तरात्मा में सर्वत्र फैलते हैं और उसे जागृत कर धर्म—प्रवण बनाते हैं।
२१-४-१९३७
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(९०)
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दैनंदिनी नित्य लिखनी चाहिये। उससे मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करने की आदत लगती है अपने दोषों का ज्ञान होता है और धीरे धीरे उन्हें टालने की सहजप्रवृत्ति होती है। आत्मोत्कर्ष का यही राजपथ है।
(९१)
अपने गुणदोष स्वयं जानना इसे आचार्यों ने परमविज्ञान कहा है। अपने दोष दिखाने वाले को जो अपना गुरु मानता है, उस पर क्रोध न कर उसे धन्यवाद देता है वही सच्चा ज्ञानी है।
(९२)
मृत्यु का आगमन कब होगा यह बता नहीं सकते। ऐसी स्थिति में अपने शरीर से पर्याप्त काम लेना चाहिये। ऐसा करने से उसका कभी भी वियोग हुआ तो घबराने का कारण नहीं रहता।
(९३)
कम बोलो, किन्तु मधु बोलो। सोचकर बोलो। बोलने में जल्द बाजी मत करो। जिव्हा पर नियंत्रण रखिये। ‘गम खाना और कम खाना’ यही सर्वोत्तम।
(९४)
भावना व्यक्ति की प्रगति के लिए कारण है। परन्तु उसको विवेक का अंकुश अवश्य चाहिये। यदि न हो तो वह भावना विनाश का कारण होगी।
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(९५)
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जो व्यक्ति अनन्तानन्त जीवों का हित, कल्याण एवं सुख की इच्छा करती है, उसका कल्याण होता है। वही सुखी होता है। सुखी बनने का यह मार्ग कितना सुलभ है ? सपने में भी पर का अकल्याण नहीं सोचना चाहिये।
(९६)
अपने दोषों का अवलोकन कर उनके निष्कासन के लिए अभ्यास की जरूरी है। यहाँ यश मिले या न मिले, किये गये प्रयास कभी भी विफल नहीं होते।
(९७)
दूसरों ने की हुई िनदा—प्रशंसा से हमारा कुछ नहीं बिगडता, किन्तु अपने राग—द्वेषादि परिणामों से ही अपना नुकसान होता है।
(९८)
‘मैं, मैं’ यह अहंभाव ही सब दु:खों की जड है। जब तक वह गलता नहीं तब तक शुद्ध आत्मकथा का लाभ नहीं होता है, न परिणामों की विशुद्धि।
(९९)
समय एवं धन की बचत, आतिथ्य, योजकता, वैयावृत्य तथा पुन:परीक्षण जीवन की व्यवहार—पंचसूत्री है।
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(१००)
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हित, मित और प्रिय भाषण वाणी के विभूषण है। परिमित बोलना यह सत्पुरुषों का गुण है।
(१०१)
आत्महित एवं परहित के लिए ही अपना जीवन है यह बात ध्यान में रखनी चाहिये। स्वयं तदनुसार आचरण कर अन्य हजारों लोगों के सम्मुख अपना जीवन अनुसरणीय एवं आदर्शभूत रखना चाहिये। भवितव्यता स्वाधीन है। भविष्य उज्जवल बनाने का काम वर्तमान में करना है। वर्तमान का सदुपयोग करने से भविष्य उज्जवल बनता है।
१८-४-१९३७
(१०२)
अतिथि के आगमन के कारण स्वच्छता रखना और स्वयं अपने को अतिथि समझकर निरन्तर स्वच्छता रखना इसमें महदन्तर है। विवेकी पुरुष दूसरे प्रकार की स्वच्छता का भोक्ता होता है।
२०-४-१९३७
(१०३)
जिसका अन्तरंग निर्मल और वाणी मधुर है वही सत्पुरुष समझना चाहिये। इन दो बातों को पाकर अपना नाम सत्पुरुषों की मालिका में समाविष्ट करना यही नर जन्म के कर्तव्य की पालना करना है।
२०-४-१९३७
(१०४)
परिणामों की विशुद्धता एवं ज्ञान में वृद्धि दुर्लक्षित नहीं होनी चाहिये। देहरूप माटी का िंपड अन्त में मिट्टी में ही मिलने वाला है। ऐसे देह का उपयोग परोपकार के लिए करना चाहिये। ‘परोपकारार्थमिदं शरीरम्।’ यह तत्व हृदय पर उत्कीर्ण कर उसकी पालना निरंतर होनी चाहिये।
२०-४-१९३७
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(१०५)
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मंगल विचार, मंगल उच्चार एवं मंगल आचार यह मंगलत्रयी मंगलकर है, इस में लेशमात्र संशय नहीं। यही सुख की वुंâजी है। ऐसा मंगल जीवन स्वयं बनाना चाहिये और दुसरों भी बनाने में हृदय से मदद करनी चाहिये।
७-५-१९३७
(१०६)
आप सब लोगों ने धर्मध्यान में निरन्तर सावधान रहना चाहिये। बीता क्षण पुनश्च लौट नहीं आता यह ध्यान में रखना चाहिये। एक एक क्षण का मूल्य कोट्यवधि रुपयों से अधिक होता है। एक एक श्वास का मूल्य त्रिलोक से भी अधिक है। यह बात ध्यान में रखकर निरन्तर धर्मसंग्रह करना चाहिये।
४-४-१९३७
(१०७)
व्यवस्थितता के बराबर नियमितता भी आवश्यक है। वाणी मधुर होनी चाहिये। परच्छिद्रान्वेषण दृेष्टि नहीं होनी चाहिये। सदैव गुणों की ओर दृष्टि चाहिये। विचारों का स्तर उच्च होना चाहिये। इन्द्रिय संयमन के लिए प्रयास करना चाहिये। एक क्षण भी प्रमाद में व्यर्थ नहीं जाना चाहिये।
८-५-१९३७
(१०८)
हेय और उपादेय का ज्ञान होने पर भी यदि हेय त्यागने की और उपादेय ग्रहण करने की प्रवृत्ति न हो तो प्राप्त तत्त्वज्ञान का क्या उपयोग ? दीप हाथ में होकर भी यदि मनुष्य गड्ढे में गिरा तो उस दीप का क्या फायदा ?