पाँच म्लेच्छ खंड और विद्याधर श्रेणियों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी में क्रम से चतुर्थ और तृतीय काल के प्रारंभ से अंत तक हानि व वृद्धि होती रहती है अर्थात् इन स्थानों में अवसर्पिणी में चतुर्थ काल के प्रारंभ से अंत तक हानि और उत्सर्पिणी काल में तृतीय काल के प्रारंभ से अंत तक वृद्धि होती ही रहती है। यहाँ अन्य कालों की प्रवृत्ति नहीं होती है।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में अरहट की घड़ी के समान अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनंतानंत होते हैं। असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी की शलाकाओं के बीत जाने पर हुंडावसर्पिणी नाम से प्रसिद्ध एक काल आता है जो कि आजकल चल रहा है। इस हुंडावसर्पिणी काल के भीतर सुषमदुषमा काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पड़ने लगती है और विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। इसके अतिरिक्त इसी काल में कल्पवृक्षों का अंत और कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ हो जाता है उस काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। चक्रवर्ती का विजय भंग और थोड़े से ही जीवों का मोक्ष गमन, चक्रवर्ती द्वारा की गयी द्विजों के वंश की उपत्ति होती है। दुषमसुषमा काल में अट्ठावन ही शलाका पुरुष होते हैं और मध्य में धर्म तीर्थ की व्युच्छित्ति भी होती है।
ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा इसके अतिरिक्त सातवें तेइसवें और अंतिम तीर्थंकर के ऊपर उपसर्ग भी होता है। तृतीय-चतुर्थ, पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट पापिष्ट, कुदेव, कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। चाण्डाल, शबर, पुलिंद, किरात इत्यादि जातियाँ उत्पन्न होती हैं तथा दुषमकाल में ब्यालीस कल्की व उपकल्की होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि, भूकम्प वङ्कााग्नि आदि विचित्र भेदों को लिये हुये नाना प्रकार के दोष इस हुंडावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं।