‘‘भरतैरावतयोर्वृद्धि-ह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिणीभ्याम्।’’
भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह काल परिवर्तनरूप वृद्धि-ह्रास होता रहता है। इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि—
‘‘तात्स्थ्यात्तच्छब्द्यसिद्धेर्भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासयोग: अधिकरणनिर्देशो वा, तत्रस्थानां हि मनुष्यादीनामनुभवायु: प्रमाणादिकृतौ वृद्धिह्रासौ षट्कालाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।’’२
उसमें स्थित हो जाने के कारण उसके वाचक शब्द द्वारा कहे जाने की सिद्धि है, इस कारण भरत और ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास का योग बतला दिया है। अथवा अधिकरण निर्देश मान करके उनमें स्थित हो रहे मनुष्य, तिर्यञ्च आदि जीवों के अनुभव, आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, सुख, आदि का वृद्धि-ह्रास समझना चाहिये।
आगे के सूत्र में स्वयं ही श्री उमास्वामी आचार्य ने कह दिया है।
‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’।।२९।।
इन दोनों क्षेत्रों से अतिरिक्त जो भूमियाँ हैं वे ज्यों की त्यों अवस्थित हैं अर्थात् अन्य हैमवत आदि क्षेत्रों में जो व्यवस्था है सो अनादिनिधन है, वहाँ षट्काल परिवर्तन नहीं है।
इस बात को इसी ग्रन्थ में चतुर्थ अध्याय के इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानन्द आचार्य ने अपने शब्दों में ही स्पष्ट किया है—
‘‘मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ?।।१३।।
इसकी हिन्दी पं. माणिकचंद जी न्यायाचार्य ने की है, वह इस प्रकार है—
‘‘वह भूमि का नीचा-ऊँचापन भरत-ऐरावत क्षेत्रों में कालवश हो रहा देखा जा चुका है। स्वयं पूज्यचरण सूत्रकार का इस प्रकार वचन है कि भरत-ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास छह समय वाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों करके हो जाते हैं अर्थात् भरत और ऐरावत में आकाश की चौड़ाई न्यारी-न्यारी एक लाख के एक सौ नब्बे वें भाग यानी पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन की ही रहती है किन्तु अवगाहन शक्ति के अनुसार इतने ही आकाश में भूमि बहुत घट-बढ़ जाती है। न्यून से न्यून पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन भूमि अवश्य रहेगी। बढ़ने पर इससे कई गुनी अधिक हो सकती है। इसी प्रकार अनेक स्थल कहीं बीसों कोस ऊँचे, नीचे, टेढ़े, तिरछे, कोनियाये हो रहे हो जाते हैं अत: भ्रमण करता हुआ सूर्य जब दोपहर के समय ऊपर आ जाता है, तब सूर्य से सीधी रेखा पर समतल भूमि में खड़े हुए मनुष्यों की छाया िंकचित् भी इधर-उधर नहीं पड़ेगी किन्तु नीचे-ऊँचे-तिरछे प्रदेशों पर खड़े हुए मनुष्यों की छाया इधर-उधर पड़ जाएगी क्योंकि सीधी रेखा का मध्यम ठीक नहीं पड़ा हुआ है। भले ही लकड़ी को टेढ़ी या सीधी खड़ी कर उसकी छाया को देख लो।’’
‘‘तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरादिभिर्वृद्धिह्रासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं, गौणशब्दाप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात्। तेन भरतैरावतयो: क्षेत्रयोर्वृद्धिह्रासौ मुख्यत: प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुल्लंघिता स्यात्।’’
थोड़े आकाश में बड़ी अवगाहना वाली वस्तु के समा जाने में आश्चर्य प्रगट करते हुए कोई विद्वान् यों मान बैठे हैं कि भरत-ऐरावत क्षेत्रों की वृद्धि-हानि नहीं होती है किन्तु उनमें रहने वाले मनुष्यों के शरीर की उच्चता, अनुभव, आयु, सुख आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे सूत्रकार द्वारा समझाए गये हैं। अन्य पुद्गलों करके भूमि के वृद्धि और ह्रास सूत्र में नहीं कहे गये हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये क्योंकि गौण हो रहे शब्दों का सूत्रकार ने प्रयोग नहीं किया है अत: मुख्य अर्थ घटित हो जाता है।…… इसलिये भरत-ऐरावत शब्द का मुख्य अर्थ पकड़ना चाहिये। तिस कारण भरत और ऐरावत दोनों क्षेत्रों की वृद्धि और हानि हो रही मुख्यरूप से समझ लेनी चाहिये। हाँ, गौण रूप से तो उन दोनों क्षेत्रों में ठहर रहे मनुष्यों के अनुभव आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे समझ लो, यों तुम्हारे यहाँ सूत्रकार का तिस प्रकार का वचन सफलता को प्राप्त हो जावो और क्षेत्र की वृद्धि या हानि मान लेने पर प्रत्यक्ष सिद्ध या अनुमान सिद्ध प्रतीतियों का उल्लंघन नहीं किया जा चुका है।
भावार्थ—समय के अनुसार अन्य क्षेत्रों में नहीं केवल भरत-ऐरावत में ही भूमि ऊँची-नीची, घटती-बढ़ती हो जाती है। तदनुसार दोपहर के समय छाया का घटना-बढ़ना या कथंfिचत् सूर्य का देर या शीघ्रता से उदय-अस्त होना घटित हो जाता है। तभी तो अगले ‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’ इस सूत्र में पड़ा हुआ ‘भूमय:’ शब्द व्यर्थ संभव न होकर ज्ञापन करता है कि भरत-ऐरावत क्षेत्र की भूमियाँ अवस्थित नहीं हैं। ऊँची-नीची घटती-बढ़ती हो जाती हैं।इसी ग्रन्थ में अन्यत्र लिखा है कि कोई गहरे कुएँ में खड़ा है उसे मध्याह्न में दो घंटे ही दिन प्रतीत होगा बाकी समय रात्रि ही दिखेगी।
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आज जो भारत और अमेरिका आदि में दिन-रात का बहुत बड़ा अन्तर दिख रहा है वह भी इस क्षेत्र की वृद्धि-हानि के कारण ही दिख रहा है तथा जो पृथ्वी को गोल नारंगी के आकार की मानते हैं उनकी बात भी कुछ अंश में घटित की जा सकती है। अर्थात् वर्तमान की पृथ्वी को अर्धगोलक-आधी नारंगी के समान माना जा सकता है, ऐसा कुछ विद्वानों का अभिमत है।
श्री यतिवृषभ आचार्य कहते हैं—छठे काल के अंत में उनंचास दिन शेष रहने पर घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है। उस समय सात दिन तक महागम्भीर और भीषण संवर्तक वायु चलती है जो वृक्ष, पर्वत और शिला आदि को चूर्ण कर देती है पुन: तुहिन—बर्फ, अग्नि आदि की वर्षा होती है अर्थात् तुहिनजल, विषजल, धूम, धूलि, वङ्का और महाअग्नि इनकी क्रम से सात-सात दिन तक वर्षा होती है अर्थात् भीषण वायु से लेकर उनंचास दिन तक विष, अग्नि आदि की वर्षा होती है। ‘‘तब भरतक्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। वङ्का और महाअग्नि के बल से आर्यखण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कंध स्वरूप को छोड़कर लोकान्त तक पहुँच जाती है।’’यह एक योजन २००० कोश अर्थात् ४००० मील का है। इस आर्यखण्ड की भूमि जब इतनी बढ़ी हुई है तब इस बात से जो पृथ्वी को नारंगी के समान गोल मानते हैं उनकी बात कुछ अंशों में सही मानी जा सकती है। हाँ, यह नारंगी के समान गोल न होकर कहीं-कहीं आधी नारंगी के समान ऊपर में उठी हुई हो सकती है।