अथानन्तर भरत महाराज ने किसी समय उज्ज्वल दर्पण में अपना मुखकमल देखकर परम सुख के स्थान स्वरूप भगवान् ऋषभदेव के पास से आये हुए दूत के समान सफेद बाल देखा।।३९२।। उसे देखकर जिनका सब मोहरस गल गया है, जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, जो आत्महित को ग्रहण करने के लिए उद्युक्त हैं और जिनकी वैराग्यविषयक इच्छा अत्यन्त सुदृढ़ तथा वृद्धिशील है, ऐसे भरत ने अपने राज्य को जीर्णतृण के समान मानकर अपने पुत्र अर्ककीर्ति को अपनी लक्ष्मी से युक्त किया अर्थात् अपनी समस्त सम्पत्ति अर्ककीर्ति को प्रदान कर दी।।३९३।। जिसने समस्त तत्त्वों को जान लिया है और जो हीन जीवों के द्वारा अगम्य मोक्षमार्ग में गमन करना चाहते हैं, ऐसे चक्रवर्ती भरत ने मार्ग हितकारी भोजन के समान प्रयासहीन यम तथा समितियों से पूर्ण संयम को धारण किया था, सो ठीक ही है, क्योंकि पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को समझने वाले पुरुष संयम के सिवाय अन्य किसी पदार्थ की प्रार्थना नहीं करते हैं ?।।३९४।। उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रगट हो गया। उनकी वैसी भव्यता उसी समय प्रकट हो गई सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति बड़ी विचित्र होती है।।३९५।। जो भरत पहले अपने देश में उत्पन्न हुए राजाओं से ही पूजित थे, वे अब इन्द्रों के द्वारा भी वंदनीय हो गये। इतना ही नहीं, तीनलोक के स्वामी भी हो गये, सो ठीक ही है जो कठिन तपश्चरण ग्रहण करने के लिए समर्थ रहता है, उसे क्या-क्या वस्तु साध्य नहीं है अर्थात् सभी वस्तुएँ उसे साध्य हैं।।३९६।। मुनिरूपी हंस जिनसे परिचित हैं, जो धर्म की वर्षा करते रहते हैं, जो आकाश में निवास करते हैं, निर्मल हैं, उत्तमवृत्ति वाले हैं (पक्ष में ऊँचे स्थान पर विद्यमान रहते हैं) और जो भव्य जीवरूपी धानों में मोक्षरूपी पूर्ण फल लगाने वाले हैं, ऐसे भरत महाराज ने शरदऋतु के मेघ के समान समस्त देशों में विहार किया।।३९७।। चिरकाल तक विहार कर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूह का बहुत भारी कल्याण किया है, ऐसे भरत महाराज ने अपनी आयु की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति बाकी रहने पर योगनिरोध किया और औदारिक, तैजस तथा कार्माण इन तीन शरीररूप बंधनों के नष्ट होने पर सम्यक्त्व आदि सारभूत गुण ही जिनकी मूर्ति रह गयी है, जो प्रकाशमान हैं, जगत्त्रय के चूड़ामणि हैं और सुख के भाण्डार हैं, ऐसे वे भरतेश्वर आत्मधाम में स्थित हो गये, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गये।।३९८।।
भावार्थ-केवली भगवन्तों की क्रियाएँ इच्छापूर्वक नहीं होती हैं, निसर्गत: होती हैं, क्योंकि उनके मोहनीय कर्म आदि चार घातिया कर्मों का अभाव हो गया है।