चक्रवर्ती भरत ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचकर भगवान की वंदना-स्तुति करते हैं। भगवान के चरणों में नमस्कार करते समय उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है-
भक्त्या प्रणमतस्तस्य भगवत्पादपंकजे।
विशुद्धिपरिणामांग-मवधिज्ञानमुद्बभौ।।२८।।
भक्तिपूर्वक भगवान के चरणों को प्रणाम करते हुए भरत के परिणाम इतने विशुद्ध हो गये थे कि उनके उसी समय ‘अवधिज्ञान’ उत्पन्न हो गया।उपासकाध्ययन अंग के अनुसार भरत चक्रवर्ती ने ‘इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप’ का भी उपदेश दिया था। इज्या-पूजा, वार्ता-खेती आदि किसी भी क्रिया के द्वारा ‘आजीविका’ करना। दान-चार प्रकार के दान देना। स्वाध्याय-धार्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन करना, संयम-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करना और तप-तपश्चरण आदि के द्वारा व्रत आदि करते रहना।