भरत क्षेत्र में ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम लंबा,५०योजन चौड़ा और २५ योजन ऊँचा,तीन कटनी वाला विजयार्ध पर्वत है। हिमवान पर्वत से गंगा, सिंधु नदी निकलकर नीचे गिरकर इस विजयार्ध पर्वत की गुफा से बाहर निकलकर भरत क्षेत्र में बहती हुई पूर्व-पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। इससे भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। इसमें से दक्षिण तरफ के बीच का आर्यखण्ड है ? और शेष पांच मलेच्छ खण्ड हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी छह खण्ड हैं।
इन भरत और ऐरावत के आर्यखण्ड में ही षट्काल परिवर्तन होता है।
विदेह क्षेत्र-विदेह के ठीक बीच में सुदर्शन मेरु होने से उसके पूर्व विदेह, पश्चिम विदेह ऐसे दो भाग हो जाते हैं। सुदर्शन मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु है वहाँ उत्तम भोगभूमि है। सुदर्शन मेरु की चारों विदिशाओं में एक-एक गजदंत है जो कि निषध और नील पर्वत को स्पर्श कर रहे हैं। पूर्व-पश्चिम विदेह में सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ देश हो जाते हैं। इन बत्तीसों विदेहों में भी मध्य में विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों के निमित्त से छह-छह खण्ड हो गये हैं। वहाँ के आर्यखण्ड में सदा ही चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसी कर्मभूमि रहती है इसीलिए ये बत्तीस शाश्वत कर्मभूमि हैं। वहाँ पर सदा ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र होते हैं। सदा ही केवलियों का , मुनियों का विहार चालू रहता है।
अन्य क्षेत्रों की व्यवस्था-हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि हैं। वहाँ के मनुष्य युगल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरते हैं। इनकी एक पल्य की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊँचाई एक कोश है। ये मनुष्य दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त करते हैं। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि हैं। वहाँ के मनुष्योें की उत्कृष्ट आयु दो पल्य और शरीर की ऊँचाई दो कोश है। विदेह में स्थित देवकुरु में उत्तम भोगभूमि है। वहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य और शरीर की ऊँचाई तीन कोश है। ये छहों भोगभूमियाँ सदा काल एक सी रहने से शाश्वत भोगभूमि कहलाती हैं।
जम्बू-शाल्मली वृक्ष-उत्तरकुरु में ईशान कोण में पृथ्वीकायिक रत्नमयी जंबूवृक्ष है और देवकुरु में आग्नेय कोण में शाल्मलीवृक्ष है।
काल परिवर्तन कहाँ-कहाँ इस प्रकार जंबूद्वीप में शाश्वत कर्मभूमि ३२ एवं शाश्वत भोगभूमि ६ हैं। वहाँ षट्काल परिर्वतन नहीं हैं। भरत ऐरावत के आर्यखण्डों में षट्काल परिवर्तन होता है। अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा,दुषमा-सुषमा,दुषमा और अतिदुषमा ये अवसर्पिणी के भेद हैंं, ऐसे अतिदुषमा से लेकर सुषमासुषमा तक उत्सर्पिणी के भेद हैं। भरत,ऐरावत के आर्यखण्ड में प्रथमकाल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। द्वितीयकाल में मध्यम एवं तृतीयकाल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। चतुर्थकाल में विदेह जैसी कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। इस काल में तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुष होते हैं। केवलियों का चतुर्थकाल में मोक्षगमन चालू रहता है पुन: पंचमकाल में तीर्थंकर तथा केवलियों का अभाव होने से धर्म का ह्रास होने लगता है। छठे काल में धर्म, राजा और अग्नि का सर्वथा अभाव हो जाने से मनुष्य पशुवत् जीवन यापन करते हैं और बहुत ही दु:खी तथा वस्त्र आदि से रहित होते हैं। यह कालपरिवर्तन भरत, ऐरावत क्षेत्र के सिवाय अन्यत्र नहीं होता है।
म्लेच्छखण्ड-जंबूद्वीप के ३२ विदेह के ५-५ म्लेच्छखण्ड ऐसे (३२*५=१६०) एक सौ साठ म्लेच्छखण्ड हैं तथा भरत और ऐरावत क्षेत्र के ५-५ म्लेच्छखण्ड मिलकर १७० म्लेच्छखण्ड हैं। विदेह के म्लेच्छखण्डों में सदा चतुर्थकाल के आदि जैसी एवं भरत , ऐरावत के म्लेच्छखण्डों में चतुर्थकाल के आदि से लेकर अंत जैसी व्यवस्था रहती है।
विद्याधर श्रेणियां-भरत, ऐरावत के विजयार्ध में दक्षिण श्रेणी में ५० और उत्तरश्रेणी में ६० ऐसी ११० नगरियाँ हैं जहाँ पर मनुष्यों का निवास है, ये मनुष्य कर्मभूमिज हैं। जाति,कुल और मंत्रों से विद्याओं को प्राप्त कर विद्याधर कहलाते हैं। यहाँ पर तथा भरत, ऐरावत के ५-५ म्लेच्छखण्ड में चतुर्थकाल की आदि से अंत तक व्यवस्था रहती है। ऐसे ही ३२ विदेहों के ३२ विजयार्धों पर दोनों श्रेणियों में ५५-५५ ऐसी ११०-११० नगरियों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं। वहाँ पर सदा चतुर्थकाल के आदि जैसी ही व्यवस्था रहती है।
वृषभाचल-पांच म्लेच्छ खण्डों के मध्य के म्लेच्छखण्ड में एक वृषभाचल पर्वत है। चक्रवर्ती षट्खण्ड विजय करके इस पर अपनी प्रशस्ति लिखता है। ऐसे ३४ आर्यखण्ड के सदृश ३४ वृषभाचल हैं।
नाभिगिरि-हैमवत, हरि, रम्यव्â और हैरण्यवत इन चारों क्षेत्रों में ठीक बीच में एक-एक नाभिगिरि पर्वत होने से ४ नाभिगिरि हैं।
अकृत्रिम चैत्यालय-सुदर्शन मेरु के १६, गजदंत के ४ ,जंबू-शाल्मलिवृक्ष के २, वक्षार के १६, विजयार्ध के ३४ और कुलाचलों के ६ ऐसे ·७८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
धातकीखण्ड द्वीप-यह द्वितीय द्वीप चार लाख योजन विस्तृत है। इसके दक्षिण, उत्तर में चार लाख योजन लंबे, एक हजार योजन चौड़े दो इष्वाकार पर्वत हैं। इनके निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग हो गये हैं। दोनों भाग में विजय, अचल नाम के सुमेरु पर्वत हैं। भरत आदि सात क्षेत्र, हिमवान आदि छह कुलाचल और गंगा आदि चौदह महानदियां हैं अत: धातकीखण्ड द्वीप में प्रत्येक रचना जंबूद्वीप से दूनी है। अंतर इतना ही है कि वहाँ पर क्षेत्र आरे के समान आकार वाले हैं तथा दो इष्वाकार पर्वत के दो जिनमन्दिर अधिक हैं। वहां पर जंबूवृक्ष के स्थान पर धातकीवृक्ष है।
पुष्करार्धद्वीप-पुष्करार्धद्वीप के दक्षिण और उत्तर में आठ लाख योजन लंबे दो इष्वाकार पर्वत हैं। बाकी शेष रचना धातकीखण्डवत् है। यहां पर दोनों भाग में मंदर और विद्युन्माली मेरु हैं तथा यहां पर क्षेत्र भी आरे के समान हैं। यहां जंबूवृक्ष के स्थान पर पुष्करवृक्ष है। जंबूद्वीप के क्षेत्र, पर्वतों की जितनी लंबाई, चौड़ाई आदि है उनकी अपेक्षा धातकीखण्ड के क्षेत्रादि की अधिक तथा पुष्करार्ध के क्षेत्रादि की उनसे भी अधिक है। जैसे जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र का विष्कम्भ ५२६-६/१९ योजन है। धातकीखंड के भरत क्षेत्र का विष्कम्भ १८५४७-१५५/२१ योजन है। पुष्करार्धद्वीप के भरत क्षेत्र का विष्कंभ ६५४४६-१३/२१२ योजन है।
कुभोगभूमि-लवण समुद्र के अभ्यंतर तट की दिशाओं में ५०० योजन जाकर १००-१०० योजन विस्तृत चार द्वीप हैं तथा चारों विदिशा में ५०० योजन जाकर ५५ योजन विस्तृत द्वीप हैं। इन दिशा-विदिशा के अंतराल में ५५० योजन जाकर ५०-५० योजन विस्तृत आठ द्वीप हैं तथा हिमवान पर्वत, भरत संबंधी विजयार्ध पर्वत, शिखरी पर्वत और ऐरावत संबंधी विजयार्ध पर्वत इन चारों पर्वतों के दोनों-दोनों तटों के निकट समुद्र में ६०० योजन जाकर २५-२५ योजन विस्तृत आठ द्वीप हैं। इसी तरह ४+४+८+८=२४ कुमानुषद्वीप हैं। ये सभी द्वीप जल से एक योजन ऊपर हैं। लवण समुद्र के बाह्य तट पर भी ऐसे ही २४ द्वीप हैं। इसी तरह कालोद समुद्र के अभ्यंतर और बाह्य दोनों तट संबंधी २४-२४ द्वीप हैं। कुल मिलाकर २४+२४+२४+२४=९६ कुमानुषद्वीप हैं।
दिशागत द्वीप में जन्म लेने वाले मनुष्य क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। विदिशागत द्वीपों में इस क्रम से शुष्कलि सदृश कर्ण वाले, कर्णप्रावरण जिन्हें ओढ़ लें ऐसे कान वाले, लंबे कान वाले और खरगोश सदृश कान वाले मनुष्य हैं। आठ और दिशाओं में क्रम से सिंहमुख, अश्वमुख, भेड़मुख, सूकरमुख, व्याघ्रमुख, घुग्घूमुख और बंदरमुख वाले हैं। पर्वतों के तट संबंधी पूर्व दिशा में क्रम से मीनमुख, मेघमुख और दर्पणमुख वाले हैं तथा पर्वतों के तट संबंधी पश्चिम दिशा में क्रम से कालमुख, गोमुख, विदुनमुख और हाथीमुख वाले मनुष्य रहते हैं।
दिशागत द्वीपों के मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और वहाँ की अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं तथा कल्पवृक्षों से प्रदत्त फलों का भोजन करते हैं। वहाँ पर युगलिया स्त्री, पुरुष जन्म लेते हैं और एक पल्य की आयु भोग कर युगल ही मरण करते हैं। यहाँ की सारी व्यवस्था जघन्य भोगभूमि सदृश बतायी है उनसे अतिरिक्त शेष सभी शरीर का आकार मनुष्य सदृश ही है इसीलिये ये कुमानुष कहलाते हैं। यहां कर्मभूमि में कोई जीव कुत्सित पुण्य संचित करके कुमानुष योनि में जन्म लेते हैं। इस प्रकार से ढाई द्वीप और दो समुद्र में भोगभूमि, कुभोगभूमि, आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड तथा विद्याधरश्रेणी की अपेक्षा मनुष्यों के निवास स्थान पांच प्रकार के हो गये हैं। जंबूद्वीप में जितनी रचना है संख्या में उसकी अपेक्षा दूनी रचना धातकीखण्ड में तथा वैसी ही पुष्करार्ध में है जैसे कि जंबूद्वीप में भोगभूमि ६ हैं तो धातकीखण्ड में १२ हैं इत्यादि, सबका स्पष्टीकरण-
शाश्वत भोगभूमि ६*५=३०। हैमवत, हरिक्षेत्र, देवकुरु,उत्तरकुरु, रम्यक, हैरण्यवत क्षेत्र में शाश्वत भोगभूमि हैं। ३२*५=१६० विदेह संबंधी ।
अशाश्वत भोगभूमि १० । ५ भरत, ५ ऐरावत के आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन के ३५३ काल में।
आशाश्वत कर्मभूमि १०। ५ भरत, ५ ऐरावत के आर्यखंड, छह काल के आर्यखंड ·१७०।
विदेह१६०+भरतक्षेत्र ५+ऐरावत ५ ·१७० (परिवर्तन में ३-३ काल) म्लेच्छखण्ड ८५० । यहां के मनुष्यक्षेत्र से म्लेच्छ हैं, जाति और क्रिया से नहीं।
विद्याधर श्रेणी २४०। यहां के मनुष्य आकाशगामी आदि विद्या से सहित होते हैं।
कुभोगभूमि ९६·लवण समुद्र की ४८+कालोदधि समुद्र की ४८=९६।
ढाई द्वीप के मुख्य-मुख्य पर्वत
१. सुमेरु पर्वत ५ | २. जंबू शाल्मली आदि वृक्ष १० |
३. गजदंत २० | ४. कुलाचल (हिमवान आदि) ३० |
५. वक्षार ८० | ६. विजयार्ध १७० |
७. वृषभाचल १७० | ८. इष्वाकार ४ |
९. नाभिगिरि २० |
अकृत्रिम चैत्यालय ३९८ हैं (ढाई द्वीप संबंधी)
१. पांच सुमेरु पर्वत के ८० | २. जंबू आदि दश वृक्ष के १० |
३. बीस गजदंत के २० | ४. तीस कुलाचल के ३० |
५. अस्सी वक्षार के ८० | ६. एक सौ सत्तर विजयार्ध के १७० |
७. चार इष्वाकार के ४ | ८. मानुषोत्तर पर्वत की चार दिशा के ४ |
कुल ८०+१०+२०+३०+८०+१७०+४+४=३९८, इन्हीं में नंदीश्वर द्वीप के ५२, कुण्डलगिरि के चार और रुचकगिरि के चार चैत्यालय मिला देने से मध्यलोक के सब जिनचैत्यालय ४५८ हो जाते हैं। इनको मेरा सिर झुकाकर नमस्कार होवे ।