भरत इति संज्ञा कुत:?
भरतक्षत्रिययोगाद्वर्षो भरत:।।१।। विजयार्धस्य दक्षिणातो जलधेरुत्तरत: गंगासिन्धवो-र्बहुमध्यदेशभागे विनीतानामनगरी द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तारा। तस्यामुत्पन्न: सर्वराजलक्षणसम्पन्नो भरतो नामाद्यश्चक्रधर: षट्खण्डाधिपति:। अवसर्पिण्या राज्यविभागकाले तेनादौ भुक्तत्वात् तद्योगाद्भरत-इत्याख्यते वर्ष:।
अनादिसंज्ञासंबंन्धाद्वा।।२।। अथवा जगतोऽनादित्वादहेतुका अनादिसंबंधपारिणामिकी भरतसंज्ञा। अथ क्व भरत इति ? अत्रोच्यते-
हिमवत्समुद्रमध्ये भरत:।।३।। हिमवतोऽद्रेस्त्रयाणां समुद्राणां पूर्वदक्षिणाऽपराणां मध्ये भरतो वेदितव्य:। स पुनर्गङ्गासिंधूभ्यां विजयार्धेन च षड्भागसंविभक्त:।
प्रश्न-इसका नाम भरतक्षेत्र क्यों है ?
उत्तर-भरत क्षत्रिय के योग से इसको भरतक्षेत्र कहते हैं। विजयार्ध से दक्षिण, लवण समुद्र से उत्तर और गंगा एवं सिंधु नदी के मध्य भाग में बारह योजन लंबी और नवयोजन चौड़ी विनीता नामक नगरी है, उसमें सर्व राजलक्षणों से सम्पन्न भरत नाम का षट्खंडाधिपति चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है। इस अवसर्पिणी के राज्य विभाग काल में उसने ही सर्वप्रथम इस क्षेत्र का उपभोग किया (अनुशासन किया) था इसलिए उसके अनुशासन के कारण इस क्षेत्र का नाम भरतक्षेत्र पड़ा है।।१।।
अथवा भरत यह संज्ञा अनादिकालीन है अथवा यह संसार अनादि होने से अहेतुक हैं, इसलिए भरत यह नाम अनादि संबंध पारिणामिक है अर्थात् बिना किसी कारण के स्वाभाविक है। यह भरत क्षेत्र कहाँ है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं।।२।।
हिमवान पर्वत और तीन समुद्रों के मध्य में भरतक्षेत्र है। हिमवान् पर्वत के और पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम में इन तीन समुद्रों के मध्य में भरतक्षेत्र है अर्थात् जिसके उत्तर में हिमवान पर्वत है तथा पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा में समुद्र है। इस क्षेत्र के गंगा, सिंधु और विजयार्ध पर्वत से विभक्त होकर छह खण्ड हो जाते हैं।
(राजवार्तिक, पृ. ४६६)