इस भरत क्षेत्र के बिल्कुल मध्य भाग में रजतमय, नाना प्रकार के उत्तम रत्नों से रमणीय ‘‘विजयार्ध’’ नाम का उन्नत पर्वत स्थित है। यह पर्वत पच्चीस योजन ऊँचा, पचास योजन प्रमाण मूल में विस्तार से युक्त, ऊँचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण नींव से सहित, पूर्व-पश्चिम समुद्र को स्पर्श करने वाला और तीन श्रेणियों में विभक्त कहा गया है।
विजयार्ध की ऊँचाई २५ योजन, मूल विस्तार ५० योजन, एवं नींव ६-१/४ योजन। दस योजन ऊपर जाकर इस पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में दस योजन विस्तार से युक्त विद्याधरों की एक-एक श्रेणी है। विजयार्ध के आयाम-लम्बाई प्रमाण विद्याधरों की श्रेणियाँ हैं तथा नाना प्रकार के तोरणों से शोभायमान दोनों तरफ एक-एक वेदी (ऊँची दीवाल सदृश) है। इस विजयार्ध पर पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर दक्षिण दिशा की श्रेणी में पचास और उत्तर श्रेणी में साठ नगर स्थित हैं। ये एक-एक नगर हिन्दुस्तान से भी कई गुने बड़े समझना चाहिए।
उन नगरों के नाम-किंनामित, किन्नरगीत, बहुकेतु, पुंडरीक, सिंहध्वज, श्वेतकेतु, गरुड़ध्वज, श्रीप्रभ आदि सुंदर-सुंदर नाम वाले ११० नगर हैंं। जो कि विजयार्ध की लम्बाई में पक्ति से स्थित हैं।
विद्याधरों के ये श्रेष्ठ नगर अनादिनिधन, स्वभावसिद्ध अनेक प्रकार रत्नमय तथा गोपुर, प्रासाद और तोरणादि से सहित हैं। इन नगरों में उद्यान वनों से संयुक्त, पुष्करिणी, कूप एवं वापिकाओं से सहित और फहराती हुई ध्वजा, पताकाओं से सुशोभित रत्नमय प्रासाद हैं। इन पुरों में रमणीय उत्तम रत्न और सुवर्णमय नाना प्रकार के जिन मंदिर स्थान-स्थान पर शोभायमान हैं।
इन नगरों के बाहरी विशाल प्रदेश प्रफुल्लित कमल वनों वाले और वापी समूहों से युक्त उद्यान वनों से मंडित हैं। कल्हार, कमल, कुवलय और कुमुदों से उज्ज्वल जलप्रवाह से परिपूर्ण बहुत से दिव्य तालाब हैं। जुवार, तुवर, तिल, जौ, गेहूं और उड़द इत्यादि धान्यों से परिपूर्ण खेत शोभित होते हैं। ये नगर बहुत से दिव्य ग्रामों से सहित, दिव्य महा पट्टनों से रमणीय कर्वट, द्रोणमुख, संवाह और मटंबों से परिपूर्ण पद्म-रागादिक रत्नों की खानों से सुशोभित धन-धान्य की वृद्धि से रमणीय दिव्य मनुष्यों से परिपूर्ण हैं।
इन नगरों में रहने वाले उत्तम विद्याधर मनुष्य कामदेव के समान बहुत प्रकार की विद्याओं से संयुक्त हमेशा ही छह कर्मों से सहित होते हैं। इन विद्याधरों की स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश, दिव्य लावण्य से रमणीय और बहुत प्रकार की विद्याओं से समृद्ध हैं।
यहाँ के मनुष्य अनेक प्रकार की कुलविद्या, जातिविद्या, और साधित विद्याओं के प्रसाद से हमेशा ही अनेक प्रकार के सुख का अनुभव करते रहते हैं। ये सभी विद्याधर नगर, अनेक उद्यानों से विभूषित जिन भवनों से युक्त हैं। इनका सम्पूर्णतया वर्णन के लिए कौन समर्थ हो सकता है।
इन विद्याधरों के आगे दस योजन ऊपर जाकर विजयार्ध पर्वत के दोनों ही पार्श्व भागों में दस योजन विस्तार वाली आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। ये श्रेणियाँ उत्कृष्ट कल्पवृक्षों से रमणीय, सुवर्णमय वेदिका (ऊँची दीवार के परकोटे सदृश) से सहित, उत्कृष्ट गोपुरों से सुंदर, फलित उपवनों से परिपूर्ण, प्रचुर वापी एवं तालाबों से सहित, उत्तम अप्सराओं की क्रीड़ाओं से युक्त, बहुत से मणिमय भवनों से परिपूर्ण, परिखा एवं प्राकार से वेष्टित हैं। इन दक्षिण-उत्तर श्रेणियों में उत्तम दिव्य रूप के धारी सौधर्म इंद्र के वाहन जाति के व्यंतर देव रहते हैं।
इन आभियोग्य पुरों से पाँच योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तार वाला विजयार्ध पर्वत का उत्तम शिखर है।
यह शिखर इंद्र धनुष के सदृश, विशाल व उत्तम वेदिकाओं (परकोटे सदृश दीवालों) से वेष्टित, बहुत तोरण द्वारोें से संयुक्त और विचित्र रत्नों से रमणीय है। वहाँ पर स्फुरायमान उत्तम रत्नों के किरण समूहों से युक्त समभूमि भाग में सुवर्ण और मणियों से मंडित दिव्य नौ कूट स्थित हैं। इन कूटों में पूर्व दिशा के क्रम से सबसे प्रथम सिद्धकूट, पुन: भरतकूट, खण्डप्रपात, माणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, तिमिश्रगुह, उत्तर भरत-कूट, और पश्चिम दिशा के अंत में वैश्रवण कूट है। इन कूटों की ऊँचाई सवा छह योजन और मूल में विस्तार भी सवा छह योजन है। मध्य में कूटों का विस्तार ४ योजन १/४ कोस तथा शिखर के पास में विस्तार ३ योजन १/२ कोस प्रमाण है।