तीर्थंकर ऋषभदेव के दो रानियाँ थीं-यशस्वती और सुनंदा। महारानी यशस्वती ने एक समय राजमहल में सोते हुए पिछली रात्रि में पाँच स्वप्न देखे-प्रात: स्नान आदि से निवृत्त हो पति प्रभु ऋषभदेव के निकट पहुँचकर स्वप्नों का फल जानना चाहा-
प्रभु ऋषभदेव ने कहा-देवि! तुमने जो
(१) प्रथम स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा है-उसका फल यह है कि तुम्हारा पुत्र ‘चक्रवर्ती’ होगा।
(२) द्वितीय स्वप्न में सूर्य और चंद्रमा देखा है-उसका फल सूर्य के सदृश प्रतापी एवं चंद्रमा के समान कांतिमान होगा।
(३) सरोवर के देखने से वह अनेक पवित्र लक्षणों से सहित शरीर वाला होगा।
(४) पृथ्वी को ग्रसित होती हुई देखने से वह समस्त छह खण्ड पृथ्वी का पालन करने वाला होगा।
(५) समुद्र को देखने से वह पुत्र चरमशरीरी होकर संसार समुद्र को पार करने वाला होगा।
इसके सिवाय वह पुत्र तुम्हारे सौ पुत्रों में ज्येष्ठ एवं इक्ष्वाकुवंश को आनंदित करने वाला होगा।
पति के वचनों को सुनकर आनंदित हुई यशस्वती महारानी ने सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए जीव को गर्भ में धारण किया था।
अनंतर क्रमश: नौ माह व्यतीत होने पर शुभ दिन में चैत्र कृ. नवमी के दिन पुत्र को जन्म दिया। महाराजा नाभिराय एवं महारानी मरुदेवी ने उस समय पौत्र जन्म की खुशी में अनेक उत्सव मनाये। राजमहल में तो करोड़ों प्रकार के वाद्य बजाये गये और तो क्या देवों ने भी उस समय आकाश से पुष्प वर्षा शुरू कर दी। अयोध्या में उत्सव-महोत्सव के साथ ही प्रभु ऋषभदेव ने खूब ही दान दिया था।
उस समय-
प्रमोदभरत: प्रेमनिर्भरा वंधुना तदा।
तमाहृद् भरतं भावि समस्तभरताधिपम्।।१५८।।
तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम्१।।१५९।।
उस समय प्रेम से बंधुओं ने बड़े भारी हर्ष से, समस्त भरत के अधिपति होने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से पुकारा था। इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं, ऐसा यह हिमवान पर्वत से लेकर समुद्रपर्यंत का क्षेत्र ‘चक्रवर्तियों का क्षेत्र’ उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम से ही ‘भारतवर्ष’ रूप से प्रसिद्ध हुआ है।
भगवान ऋषभदेव ने स्वयं अपने पुत्र के ‘अन्नप्राशन’, चौल (मुंडन) और उपनयन (यज्ञोपवीत) आदि संस्कार किये थे२।
बालक भरत की समस्त क्रियाएं पिता को प्रिय एवं सभी परिवार को अतिशय मनोहारी थीं।