निर्मापितास्ततो घण्टा जिनबिम्बैरलंकृता:।
परार्घ्यरत्ननिर्माणा: संबद्धा हेमरज्जुभि:१।।८७।।
लम्बिताश्च पुरद्वारि ताश्चतुा\वशतिप्रमा:।
राजवेश्ममहाद्वारगोपुरेष्वप्यनुक्रमात्।८८।।
यदा किल विनिर्याति प्रविशत्यप्ययं प्रभु:।
तदा मौल्यग्रलग्नाभिरस्य स्यादर्हतां स्मृति:।।८९।।
स्मृत्वा ततोऽर्हदर्चानां भक्त्या कृत्वाभिनन्दनाम्।
पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविशंश्च स पुण्यधी:।।९०।।
रेजु: सूत्रेषु संप्रोक्ता घण्टास्ता: परमेष्ठिनाम्।
सदर्थघटिताष्टीका ग्रंथानामिव पेशला:।।९१।।
लोकचूडामणेस्तस्य मौलिलग्ना विरेजिरे।
पादच्छाया जिनस्येव घण्टास्ता लोकसंमता:।।९२।।
रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिना।
दृष्ट्वार्हद्वन्दनाहेतोर्लोकोऽप्यासीत्तदादर:।।९३।।
पौरैर्जनैरत: स्वेषु वेश्मतोरणदामसु।
यथाविभवमाबद्धा घण्टास्ता सपरिच्छदा:।।९४।।
आदिराजकृतां सृष्टिं प्रजास्तां बहुमेनिरे।
प्रत्यगारं यतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिका:।।९५।।
वन्दनार्थं कृता माला यतस्ता भरतेशिना।
ततो वन्दनमालाख्यां प्राप्य रूिंढ गता: क्षितौ।।९६।।
धर्मशीले महीपाले यान्ति तच्छीलतां प्रजा:।
अताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजा:।।९७।।
तदनन्तर उन्होंने बहुमूल्य रत्नों से बने हुए, सुवर्ण की रस्सियों से बँधे हुए और जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं से सजे हुए बहुत से घण्टे बनवाये तथा ऐसे-ऐसे चौबीस घण्टे बाहर के दरवाजे पर, राजभवन के महाद्वार पर और गोपुर दरवाजों पर अनुक्रम से टँगवा दिये।।८७-८८।। जब वे चक्रवर्ती उन दरवाजों से बाहर निकलते अथवा भीतर प्रवेश करते तब मुकुट के अग्रभाग पर लगे हुए घण्टाओं से उन्हें चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो आता था। तदनन्तर स्मरण कर उन अरहन्तदेव की प्रतिमाओं को वे नमस्कार करते थे इस प्रकार पुण्यरूप बुद्धि को धारण करने वाले महाराज भरत निकलते और प्रवेश करते समय अरहन्तदेव की पूजा करते थे।।८९-९०।। सूत्र अर्थात् रस्सियों से सम्बन्ध रखने वाले वे परमेष्ठियों के घण्टा ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो उत्तम-उत्तम अर्थों से भरी हुई और सूत्र अर्थात् आगम वाक्यों से सम्बन्ध रखने वाली ग्रंथों की सुन्दर टीकाएँ ही हों।।९१।। महाराज भरत स्वयं तीनों लोकों के चूड़ामणि थे उनके मस्तक पर लगे हुए वे लोकप्रिय घण्टा ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्रदेव के चरणों की छाया ही हो।।९२।। निधियों के स्वामी भरत ने अर्हंतदेव की वन्दना के लिए जो घण्टा रत्नों के तोरणों की रचना में स्थापित किये थे उन्हें देखकर अन्य लोग भी उनका आदर करने लगे थे अर्थात् अपने-अपने दरवाजे के तोरणों की रचना में घण्टा लगवाने लगे थे। उसी समय से नगरवासी लोगों ने भी अपने-अपने घर की तोरणमालाओं में अपने-अपने वैभव के अनुसार जिनप्रतिमा आदि सामग्री से युक्त घण्टा बाँधे थे।।९३-९४।। उस समय प्रथम राजा भरत की बनायी हुई इस सृष्टि को प्रजा के लोगों ने बहुत माना था, यही कारण है कि आज भी प्रत्येक घर पर वन्दन मालाएँ दिखाई देती हैं।।९५।। चूँकि भरतेश्वर ने वे मालाएँ अरहन्तदेव की वन्दना के लिए बनवायी थीं इसलिए ही वे वन्दनमाला नाम पाकर पृथिवी में प्रसिद्धि को प्राप्त हुई हैं।।९६।। यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा धर्मात्मा नहीं होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा नहीं होती है, यह नियम है कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है।।९७।।