यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।। टेक.।।
यहाँ तीर्थंकर प्रभु लार्ड गॉड, साधूजन सेन्ट कहाते हैं। हो……
यहाँ गुलदस्ते की भांति कई, जाती व पंथ आ जाते हैं।। हो……
चैतन्य तत्त्व की प्राप्ती का-२, संचालित यहाँ से पाठ हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।१।।
भारत को भारत रहने दो, इण्डिया न यह बनने पाए। हो……
इसकी आध्यात्मिक संस्कृति का, अपमान नहीं होने पाए।। हो……
यहाँ ऋषभ, राम, महावीर, बुद्ध-२, का अमर सदा सिद्धान्त हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।२।।
यहाँ की सीता सम नारी पर, छाया न किसी की पड़ पाए। हो……
यहाँ जन्मीं ब्राह्मी माता सम, माँ ज्ञानमती के गुण गायें।। हो……
‘‘चन्दनामती’’ भारत की संस्कृति-२, का तब ही उत्थान हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।३।।
जय हो जय हो-भरत का भारत (३ बार सब मिलकर बोलें)
भरतस्य भारतम्
जय भारतम् जय भारतम् जय भारतम् जय भारतम्
भरतस्य भारतम्
-गीत-
हम भरत के भारत में है, अभिमान करो रे।
इस सोने की चिड़िया पे, स्वाभिमान करो रे।।
आम्ही भरताच्या भारत मधे, अभिमान करायचे।
ही स्वर्ण चिड़िया आहे, स्वाभिमान करायचे।।
जिकड़े भरतां ने कठिन तपस्या केली होती।
जिकड़े ऋषि मुनि ने आत्मप्रभा रति केली होती।।
तिकड़े आम्ही जन्म घेतो, हे अभिमान करायचे।
आम्ही भरताच्या भारत मधे अभिमान करायचे।
गेहवुनन्नदु देहवु नन्नदु येन्नु वेया वरमरुळेला।
नेहव माडिद वस्तु गळाववु निन्नोड नेन्दुगु वरलिल्ला।।
नीरू हालू सेरिद परियलि जीव शरीर बगेयुतिरू।
नीर निळुद वर हालु नेळव चिरु चिन्मय हंस निनागुतिरु।।
भव्यात्माओं! क्या कहा है इस कन्नड़ बारह भावना की अन्यत्व भावना में-गेहवु नन्नदु अर्थात् घर-मकान-कोठी-बंगला-कार-मोटर सब कुछ आत्मा से भिन्न है।
भरत चक्रवर्ती यही तो चिन्तन करते थे कि मेरा यह छह खण्ड का विशाल राज्य-हाथी-घोड़े-नवनिधि-चौदह रत्न सब कुछ मेरे नहीं है-मेरी आत्मा से इनका कोई संबंध नहीं है, ये सर्वथा मुझसे भिन्न हैं-पर हैं-पुद्गल हैं-नश्वर हैं…….आदि।
आगे और क्या कहा है कि भरत जी क्या चिन्तन करते हैं-देहव नन्नदु अर्थात् मेरा शरीर भी मेरा अपना नहीं है, एक दिन यह भी नष्ट होने वाला है यदि अक्षय-अविनश्वर शरीर पाना है तो तपस्या करना पड़ेगा, इस नश्वर शरीर से मोह छोड़कर अनन्तकाल तक रहने वाले शरीर को पाना होगा। वह शरीर कौन सा है ? ‘‘ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता’’ अर्थात् द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म इन तीन प्रकार के कर्ममलों से रहित ज्ञानशरीरी हैं सिद्ध भगवान्! वैसा ही ज्ञानशरीर भरत जी प्राप्त करने के लिए आत्मतत्त्व का सदैव चिंतन करते थे।
‘‘भरत जी घर में वैरागी’’ की बात सुन-सुन कर एक बार अयोध्या के एक नागरिक ने राजसभा में भरत चक्रवर्ती से प्रसन्न किया-
महाराज! गलती की माफी चाहता हूँ।
एक प्रश्न का उत्तर आपसे जानना चाहता हूँ।
पूछो, मेरे बंधुवर! भरतराज ने कहा,
तब कहने लगा वह नागरिक सहृदयता से-
राजन्! आपके पास इतनी सम्पत्ति
छियानवे हजार रानियाँ हैं,
अतुल्य सेना और ३२ हजार मुकुटबद्ध
राजाओं की ३२ हजार राजधानियाँ हैं।
और जाने क्या-क्या है ?
मैं नहीं जानता, आपके मन में क्या है ?
लेकिन जनता का प्रश्न है कि-
आप वैâसे हो सकते हैं घर में वैरागी?
भगवान आत्मा के प्रति वैâसे हो सकते हैं रागी ?
स्वामी! हम भी आपसे शिक्षा चाहते हैं।
आप बताएं, तो आप जैसी दीक्षा चाहते हैं।
बोले चक्रवर्ती भरत जी!
छह खण्ड के अधिप जी!
मैं आपके प्रश्न का उत्तर बताऊँगा
बिल्कुल सच-सच समझाऊँगा।
किन्तु उससे पहले
आप मेरी बात सुनो
पहली बार मेरे महल में आए हो
आपका यहाँ स्वागत है
पहले पूरा महल घूमो, देखो और मन में गुनो
खुश हुआ वह अयोध्या का नागरिक
बोला, राजन्! आप भेजें मेरे साथ एक नागरिक
फिर भेजा भरत ने उसके साथ एक सिपाही
नागरिक के हाथों में दिया कटोरा पूरा तेल भर के
सिपाही चला हाथ में नंगी तलवार ले करके
बोले भरतराज
हे मेरे बंधुवर! अयोध्या के प्रिय नागरिक!
आप घूमें पूरा महल
तेल की एक बूंद गिरे ना
यदि गिर गई तो
आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा
बस, इतना ही कहना है तुमसे मेरे बंधुवर!
महल में घूमकर वापस आओ,
मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूँगा
चला नागरिक सुनो मेरे भाई,
केवल उसने दृष्टि तेल के कटोरे पर लगाई।
पूरा महल घूमकर राजसभा में वो आया,
राजन ने पूछा-क्या क्या देख पाया,
वह बोला-मैं कुछ भी न देख पाया,
क्योंकि आपने मुझ पर तलवार लटकाया।
मैं तो देखता रहा कटोरा,
वह भरा है या अधूरा।
मुझे तो चिंता है अपनी जान की,
नहीं है चाह अपने मान सम्मान की।
यह दृश्य देखकर बोले राजा भरत जी,
ओ मेरे बंधुवर!
मिल गया तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर
सुनो! मेरे राज की बात,
चूँकि मेरे सर पर सदा लटक रही है काल की तलवार
मैं अपनी आत्मा के प्रति सजगता के लिए रहता हूँ सदा तैयार
न जाने कब काल आ जाएगा,
मुझसे मेरा राज्य छुड़ा कर ले जाएगा।
इसीलिए मैं अपने कर्तव्य में लीन रहता हूँ,
गृहस्थ धर्म के पालन में तल्लीन रहता हूँ।
झुक गया मस्तक अयोध्या के नागरिक का
बोला राजन्! अब मिल गया उत्तम हम सबके प्रश्न का।
बंधुओं! आपने अब जान लिया,
एक नागरिक के माध्यम से
सारी अयोध्या और छह खण्ड वसुधा ने जाना था सब युग में
तब से ही पुराणों ने घोषित कर दिया
भरत जी घर में वैरागी, भरत जी घर में वैरागी
जय हो वैरागी भरत भगवान की-२
इस प्रकार का इतिहास
भरत का वैराग्य,
अमर हो गया भारत में
देश का नाम भारत पड़ गया,
उन्हीं के नाम से
सुनो भाई-बहनों!
यहीं यह इतिहास खतम नहीं हो जाता है,
आगे उनके महाव्रतरूप त्याग से जुड़ जाता है।
एक दिन दर्पण में मुख देखते हुए सिर पर सफेद बाल को देखकर
भरत जी को हो गया राज्य से पूर्ण वैराग्य
छोड़ दिया रानियाँ और छोड़ दिया पूरा छह खण्ड का साम्राज्य
जीर्णतृण के समान सब कुछ छोड़कर पीछे मुड़कर कभी देखा नहीं,
जाकर वैâलाश पर्वत पर जैनेश्वरी मुनि दीक्षा लेकर
केशलोंच करने लगे
बस देखते ही देखते
केशलोंच के मध्य ही उन्हें हो गया केवलज्ञान
उन्हें प्राप्त हो गया आतमज्ञान
ना ही किया आहार
ना गये किसी के द्वार
वे तो गये उस गिरि पर, वैâलाश पर्वत पर
जहाँ गये उनके पिता ऋषभदेव भगवान
वे कर्म नष्ट कर वहीं से गये थे शिवधाम
प्रभु के मोक्ष जाने पर जहाँ दुखी हुए थे कभी भरत
पुत्र ऋषभसेन गणधर जी के सम्बोधन से
बोध को प्राप्त हुए थे यही भरत
आज वे भरत वहीं जाकर
पर्वत के पवित्र परमाणु पाकर
सारे दु:खों से छूटकर
आत्मसुख में निमग्न हो गये
इधर माता यशस्वती अपने पौत्र अर्ककीर्ति से कहती हैं-