शाश्वत तीर्थ अयोध्या में युग की आदि में तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव हुए हैं। उनका जन्म चैत्र कृष्णा नवमी को हुआ है। भगवान के जन्मते ही सौधर्मेन्द्र आदि इंद्रों ने असंख्य देव-देवियों के साथ नगरी की तीन प्रदक्षिणा दी थीं। पुनश्च तीर्थंकर शिशु को ले जाकर सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर जन्माभिषेक करके जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। प्रभु ऋषभदेव के पिता महाराज नाभिराय ने युवावस्था में यशस्वती और सुनंदा दो कन्याओं के साथ प्रभु का विवाह कर दिया था। ऋषभदेव की यशस्वती रानी से ‘भरत’ का जन्म चैत्र कृ. नवमी को ही हुआ है। ये चक्रवर्ती हुए हैं। महारानी यशस्वती ने पुन: ९९ पुत्र व ब्राह्मी पुत्री को जन्म दिया है। सुनंदा रानी ने पुत्र बाहुबली व सुंदरी पुत्री को जन्म दिया है।
ऐसे श्री ऋषभदेव के १०१ पुत्र व दो पुत्रियाँ थीं। प्रभु ने सभी पुत्रों व पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं व कलाओं में निष्णात किया है।
अनंतर भरत को राज्य सौंपकर चैत्र कृ. नवमी को ही जैनेश्वरी दीक्षा ली है।
भरत को एक दिन प्रभु पिता को केवलज्ञान, चक्ररत्न की उत्पत्ति और पुत्ररत्न की प्राप्ति एक साथ तीन समाचार मिले, तब उन्होंने प्रभु के समवसरण में दर्शन कर मुख्य श्रोता का पद प्राप्त किया है। पुन: चक्ररत्न की पूजा आदि करके पुत्र जन्मोत्सव मनाया। अनंतर चक्ररत्न को आगे कर छह खण्ड पर दिग्विजय किया है। अनंतर किसी समय दीक्षा लेते ही तत्क्षण केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। पुन: मोक्षधाम को प्राप्त हुए हैं।
इन ऋषभदेव के पुत्र ‘भरत’ के नाम से देश का नाम भारत पड़ा है। ऐसा वर्णन जैन व जैनेतर, वैदिक ग्रंथों में आया है।
ह्री ँ में श्वेत अर्धचंद्र में चंद्रप्रभ-पुष्पदंत स्वामी, नीली बिन्दु में मुनिसुवत व नेमिनाथ, लाल कला में पद्मप्रभ व वासुपूज्य स्वामी, ‘ई’ की मात्रा में सुपार्श्वनाथ व पार्श्वनाथ पुन: पीले ‘ह्र’ में शेष सोलह तीर्थंकर विराजमान हैं। ऐसे पंचवर्णी ‘ह्री ँ’ में पाँचों वर्ण के चौबीस तीर्थंकर विराजमान हैं।
राजधानी दिल्ली के कनॉट प्लेस क्षेत्र में निर्मित श्री भरत ज्ञानस्थली तीर्थ पर विराजमान प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को, प्रथम चक्रवर्ती भरत सिद्ध भगवान को और ‘ह्री ँ’ में विराजमान चौबीसों तीर्थंकरों को मेरा अनंत अनंत बार नमस्कार होवे।