आज मैं आपको ले चलती हूँ भगवान ऋषभदेव के काल में, जब भगवान बाहुबली ध्यानारूढ़ थे उस समय उनके मन में कभी-कभी विकल्प चलता था कि मुझसे मेरे भाई भरत को कष्ट हुआ है और जब भरत ने आकर उनकी पूजा-भक्ति की, जिनेन्द्र भक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया तब भगवान बाहुबली को दिव्य केवलज्ञान की उत्पत्ति हो गई।
भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली दीक्षा लेकर तपश्चर्या में लीन हो गए, सर्पों ने उनके ऊपर वामी बना ली पर वे निश्चल ध्यानारूढ़ रहे। समीचीन धर्मध्यान के बल से भगवान बाहुबली के तप की शक्ति परिपूर्ण हो चुकी और भगवान लेश्या की विशुद्धि को बढ़ाते हुए शुक्लध्यान के सम्मुख हो रहे हैं। अब वे स्वस्थान अप्रमत्त को उल्लंघन कर सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में पहुँच चुके हैं, आठवें गुणस्थान के सम्मुख हो रहे हैं।
एक वर्ष का उपवास समाप्त हो चुका। इसी समय भरतेश्वर महाराज आते हैं और उनके ध्यान के प्रभाव को देखकर अतिशय गदगद् होते हुए भक्तिभाव से साष्टांग नमस्कार करके स्तुति करते हैं ‘‘हे योगराज! जय हो, जय हो, आपकी जय हो। अहो। धन्य है आपकी तपश्चर्या, धन्य है आपका ध्यान, धन्य है आपकी निश्चलता और धन्य है आपकी अध्यात्मवृत्ति।
प्रभो! धन्य है आपका धैर्य और धन्य है आपकी एकाग्रता। भगवन्! आपके निश्चल धर्मध्यान का माहात्म्य अद्भुत है, अपूर्व है। अहो! देखो, वन के क्रूर जन्तुओं के परस्पर की प्रीति, इस तपोवन में सदा ही बसंत ऋतु की बहार। धन्य हो प्रभो! आपने आहारादि संज्ञाओं को, क्रोधादि कषायों को जीत लिया है। संपूर्ण परीषहों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं।’’ इत्यादि स्तुति करते हुए कल्पवृक्षों की दिव्य सामग्री जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल तथा उत्तम-उत्तम रत्नों से योग चक्रेश्वर भगवान बाहुबली के चरणों की पूजा कर रहे हैं।
इसी बीच भगवान बाहुबली क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में चढ़कर दशवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में पहुँचते हैं और वहाँ पर मोहनीय कर्म को निर्मूल नष्ट कर तत्क्षण ही क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। वहाँ पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीनों कर्मों को निर्मूल चूर करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान रूप परमोत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त कर लेते हैं। इस कार्य में प्रभु को मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही समय लगता है।
संक्लिष्टो भरताधीश: सोऽस्मत्त इति यत्किल।
हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजापेक्षि केवलम्।।१६८।।
‘ये भरतेश्वर मेरे से संक्लेश को प्राप्त हुए हैं-मेरे निमित्त से इन्हें दु:ख पहुँचा है। यह विचार बाहुबली के हृदय में आ जाया करता था जो कि भरत के प्रति सौहार्द रूप था। इसलिए केवलज्ञान होने में भरत के पूजा की अपेक्षा रही थी। ‘यह संपूर्ण धरा भरत की भूमि है’, ऐसा समझकर ही वे ध्यान में दो तलवे के बल खड़े हुए थे। भरत का ही सर्वत्र साम्राज्य होने से उन्होंने आहार नहीं लिया था।
‘मैं भरत की भूमि में खड़ा हूँ’ उनके मन में यह शल्य थी इसीलिए उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ था और जब भरत ने समझाया-‘अहो! यह वसुधा किसकी रही है?’ तब उनके मन की शल्य दूर होने से उन्हें केवलज्ञान हुआ। ऐसी जो किंवदन्ती है वह भगवज्जिनसेनाचार्य के आदिपुराण ग्रंथ से मेल नहीं खाती है। क्योंकि इस प्रकार की शल्य के होने पर उन्हें मन:पर्ययज्ञान और अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ नहीं हो सकती थीं। उनके ध्यान को धर्मध्यान संज्ञा नहीं आ सकती थी और उनके ध्यान के प्रभाव का ऐसा चमत्कार भी नहीं हो सकता था जैसा कि आदिपुराण में वर्णित है। अत: भगवान बाहुबली के शल्य मानना असंगत है। वास्तव में उन्होंने एक वर्ष का उपवास और योग दीक्षा लेते ही ग्रहण कर लिया था, ऐसा वर्णन आया है।
इधर भरत सम्राट की पूजा चल रही है उधर एक समय में ही भगवान बाहुबली इस भूतल से ५००० धनुष (२०००० हाथ) प्रमाण ऊपर आकाश में अधर पहुँच जाते हैं। इंद्रों के आसन कंपित होते ही उसी समय वे लोग स्वर्ग से आकर दिव्य गंधकुटी की रचना कर देते हैं। भगवान बाहुबली गंधकुटी के मध्य कमलासन पर चार अंगुल अधर विराजमान हो जाते हैं।
उस समय स्वर्ग के नंदनवन के वृक्षों को भी हिलाने में चतुर तथा गंगानदी की बूंदों से मिश्रित ऐसी सुगंधित हवा धीरे-धीरे चल रही है। देवगण आकाश में दुंदुभि बाजे बजा रहे हैं, कल्पवृक्षों के खिले हुए रंगबिरंगे फूलों की वर्षा कर रहे हैं, भगवान के मस्तक के ऊपर देवरूपी कारीगरों के द्वारा बनाये गये रत्नों के छत्र सुशोभित हो रहे हैं, प्रभु जिस पर आसीन हैं ऐसा वह सिंहासन बहुमूल्य दिव्य मणियों से निर्मित है, देवगण भगवान के दोनों बाजू में खड़े होकर चंवर ढोर रहे हैं और भगवान के पीछे सुंदर अशोक वृक्ष दर्शक के शोक को नष्ट कर रहा है।
ऐसी इस गंधकुटी के मध्य भगवान बाहुबली विराजमान हैं। इस गंधकुटी में बारह कोठे बने हुए हैं। यथायोग्य अपने-अपने कोठे में आकाशगामी ऋद्धिधारी आदि महामुनि विराजे हैं, क्रम से चतुर्निकाय देव-देवियों का समूह आर्यिकाएं-श्राविकाएं और तिर्यंच भी अपने-अपने कोठे में आकर बैठ गये हैं।
सभी लोग बीस हजार सीढ़ियों को अल्प समय में ही पार कर भगवान के सन्मुख पहुँच जाते हैं और अतिशय प्रसन्न हो स्तुति करते हैं- हे भगवन्! आपने अपनी आत्मा से कर्म कलंक को दूर कर दिव्य, अक्षय, अनंत ऐसा केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। आप अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य इन अनंत चतुष्टय के धनी बन गये हैं। हे नाथ! आपने स्वयं अपने द्वारा अपने लिए अपने आप से अपने में अपने को ही ध्याकर अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया है अत: अब आप पूर्ण स्वतंत्रता को और पूर्ण शांति को प्राप्त कर चुके हैं।
अत: आपकी जय हो, जय हो, जय हो। हे नाथ! आप ध्यानचक्र के द्वारा संपूर्ण अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर तीन लोक के अखण्ड साम्राज्य के स्वामी हो चुके हैं। हे ध्यानधुरंधर! आप जैसा निश्चल ध्यान हमें भी प्राप्त हो।’’ इत्यादि रूप वाक्यों से स्तुति करके पुन:-पुन: नमस्कार करते हैं अनंतर अपने सभी मंत्रियों, अनेक राजाओं, अंत:पुर की समस्त स्त्रियों, पुत्र-पुत्रियों एवं ‘पुरोहितजनों के साथ भगवान की अनुपम पूजा करते हैं।
गंगाजल की जलधारा देते हैं, दिव्य कल्पवृक्ष से उत्पन्न केशर के सुवर्णसदृश चंदनद्रव को चढ़ाते हैं, मोतियों के अक्षत पुंज रचते हैं, पारिजात, मंदार आदि कल्पवृक्षों के दिव्य पंचरंगी पुष्पों से पुष्पांजलि करते हैं, अमृत के पिंडरूप नैवेद्य को चढ़ाते हैं, रत्नों के दीप से आरती उतारते हैं, कल्पवृक्ष के टुकड़ों से बनी हुई सुगंधित धूप खेते हैं और फलों के स्थान पर रत्नों सहित समस्त निधियों को चढ़ा देते हैं।
रत्नों के पुंज से युक्त अष्टद्रव्य मिश्रित अघ्र्य समर्पित करते हैं। इस विषय में अधिक कहाँ तक कहा जावे, संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि उस समय भरत सम्राट के द्वारा की गई भगवान बाहुबली की पूजा अपने आप में एक अनुपम होने से वही उपमान थी और वही उपमेय थी उसके लिए अन्य कोई उपमा नहीं दी जा सकती है।
अहो! प्रथम तो ये बाहुबली भरत के छोटे भाई हैं, दूसरी बात भरत को धर्म से अतिशय प्रेम है, तीसरी बात उन दोनों का पूर्व के अनेक जन्मों से संबंध चला आ रहा है और चौथी बात उन दोनों में आपस में बहुत भारी प्रेम रहा आया है। इन चारों में से एक-एक भी भक्ति की अधिकता को बढ़ाने वाले हैं पुन: यदि ये चारों सामग्री एक साथ मिल जावें, फिर भला उस समय की भक्ति के बारे में क्या कहा जा सकेगा?
भरत महाराज ने केवलज्ञान होने के पहले जो पूजा की है वह अपने अपराध को दूर करने के लिए की थी और जो केवलज्ञान के बाद में की है वह केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की है।
स्वर्ग से आये हुए इंद्रगण भी अपने असंख्य परिवार देवों के साथ भगवान बाहुबली की अनुपम स्तुति करते हैं- ‘हे तीन लोक के नाथ! आपने जैसा ध्यान किया है वैसा ध्यान आपके सिवाय और कौन कर सकता है? इसलिए आप ध्यान के चक्रवर्ती हैं। हे भगवान्! अनंत संसार में भटकते हुए हम संसारी प्राणियों को हाथ का अवलंबन देकर मोक्षमार्ग में स्थापित कीजिए। हे स्वामिन्! संसार के अनंत दु:खों से हम लोगों की रक्षा कीजिए।’
इत्यादि स्तोत्रों से स्तुति करके पुन:-पुन: वंदना करते हैं। तदनंतर सभी इन्द्रगण भी अपने-अपने परिकर के साथ और इंद्राणियों के साथ मिलकर स्वर्गलोक की दिव्य सामग्री से अनुपम पूजा करते हैं। पुन: सभी लोग अपने-अपने कोठे में बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि से दिव्य धर्म सुधारस का पान कर रहे हैं। भगवान बाहुबली उपदेश दे रहे हैं। उस समय न उनके ओठ हिलते हैं, न कंठ तालु आदि का व्यापार होता है, न मुख पर किंचित् परिवर्तन होता है और न उनके हाथ ही उठते हैं। केवल उनके मुखकमल से बिना प्रयत्न के निरक्षरी दिव्यध्वनि खिर रही है।
भक्त लोग अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ रहे हैं अत: वह सात सौ अठारह भाषा रूप अथवा सभी उपस्थित जनों की भाषा में परिणत होने से संख्यात भाषारूप हो रही है इसलिए वह साक्षरी भी है। भगवान कहते हैं-
अनादि अनंतरूप इस संसार समुद्र को पार करने के लिए समीचीन धर्म ही एक उत्तम जहाज है। अत: यदि तुम लोग जन्म-मरण के दु:खों से शांत हो चुके हो और अब उनसे छूटना चाहते हो तो इस रत्नत्रयरूपी धर्म जहाज का आश्रय लेवो। यह धर्म ही इस लोक में धन, संपत्ति, परिवार की अनुकूलता, शारीरिक स्वस्थता, संतति और समृद्धि को करने वाला है।
यह धर्म ही परलोक में इन्द्र के ऐश्वर्य को, कामदेव, बलभद्र, चक्रवर्ती आदि के भोगों को देने वाला है और यह धर्म ही नरक, निगोदों के दु:खों से निकालकर उत्तम मोक्षसुख को भी प्रदान करने वाला है। इसलिए इसी को हृदय में धारण करो।’ इत्यादि रूप से भगवान के दिव्य उपदेशामृत का पान कर भरत सम्राट पुन:-पुन: उन्हें नमस्कार कर अपनी अयोध्या नगरी में वापस आ जाते हैं। इंद्र की प्रार्थना के नियोगमात्र से वीतरागी भगवान बिना इच्छा के नैसर्गिक ही भव्यों के हितार्थ इस भारतभूमि में ‘श्रीविहार’ करते हैं।
उनके चरणों के तले दिव्य कमलों की रचना होती चली जा रही है और उनका विहार आकाशमार्ग में ही हो रहा है। पुष्पों की वर्षा, दिव्य सुगंधित गंधोदक की वर्षा हो रही है, दिव्य सुरभित पवन बह रही है, देव दुंदुभि बज रही है और आकाश तथा भूमंडल को एक करते हुए देव, विद्याधर व मनुष्यगण प्रभु के पीछे-पीछे चल रहे हैं। बहुत काल तक श्रीविहार करते हुए और अपनी दिव्यवाणी रूप अमृत से असंख्यात भव्यजीवरूपी खेती का सिंचन करते हुए भगवान बाहुबली कैलाशपर्वत पर पहुँचते हैं वहाँ पर भगवान ऋषभदेव के समवसरण में केवलियों के कोठे में विराजमान हो जाते हैं।
कालांतर में योग-निरोध कर अघातिया कर्मों का भी नाश कर शाश्वत मुक्ति साम्राज्य को प्राप्त कर लेते हैं। वहाँ पर सदा-सदा के लिए अपने ही आत्मा से उत्पन्न हुए सहज परमानंदामृत का पान कर रहे हैं। अब उन्हें न जन्म लेना है, न मरना है, न संसार के सुख-दु:खों को ही भोगना है। वहाँ न उन्हें भूख है, न प्यास है, न चिंता है, न पराजय है, न व्याधि है और न क्लेश ही है।
अक्षय, अध्याबाध अनंत सुख का अनुभव करते हुए वे भगवान अनंत काल तक वहीं पर रहेंगे। इस युग में चरमशरीरियों में सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाले ऐसे बाहुबली भगवान हमें भी सुगति प्रदान करें और आप सब उनकी भक्ति कर सुगति को प्राप्त करें यही मंगल आशीर्वाद है।