यह उन्हीं भरतजी के जीवन का उदाहरण है जिनके नाम पर हमारे देश का ‘‘भारत’’ यह नाम पड़ा है। अयोध्या के राजिंसहासन पर राजा भरत आसीन हैं, प्रजा बैठी हुई है। प्रात:काल की मंगलबेला में वनमाली, सेनापति और महल की दासी राजसभा में पहुँचकर सन्देश देते हैं— (उच्च स्वर में)
वनमाली — भगवान् ऋषभदेव की जय हो, महाराजा भरत की जय हो। महाराज !
सबेरे—सबेरे मैं एक शुभ—सन्देश लेकर आया हूँ। राजन् ! पुरिमतालपुर के उद्यान में आपके पिता श्री ऋषभदेव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। वहाँ इन्द्रगण उत्सव मना रहे हैं, देव दुन्दुभि बाजे बजा रहे हैं। महाराज ! एक और आश्चर्य, वहाँ आकाश में अधर समवसरण की रचना बनाई गई है उसमें बीचोंबीच में प्रभु ऋषभदेव विराजमान हैं जो करोड़ों सूर्य के समान सुशोभित हो रहे हैं।
सेनापति — राजाधिराज भरतेश ! आज आपकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है जो आपको चक्रवर्ती पद प्राप्त कराने का प्रतीक है।
दासी — अरे महाराज सुनिये ! आपकी महारानीजी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। राजन! चलिए ! जल्दी से बेटे का मुँह देखिये और पुत्र जन्म का उत्सव मनाइए।
भरत — (हर्ष से रोमांचित हो सिंहासन से उठकर) नमोस्तु भगवन् ! ऋषभदेव भगवान् को मेरा कोटि—कोटि नमन। हे प्रभो ! हर्षातिरेक से मेरा रोम—रोम पुलकित हो रहा है। वनमाली ! सुनो, इस शुभ समाचार को सुनाने के उपलक्ष्य में लो यह पुरस्कार (अपना हार उतारकर वनमाली को देते हैं) बीच में डायरेक्शन—
वनमाली, सेनापति, दासी पहुँचे देने शुभ सन्देश। एक साथ पाए राजा ने तीन—तीन मुख से सन्देश।।
भरत —बहुत अच्छा सेनापति जी ! तुम चक्ररत्न की रक्षा करो और यह लो अपना पुरस्कार (दूसरा इनाम प्रदान करते हैं)
डायरेक्शन—
इतने में दौड़ी आई, इक दासी महलों से आई। बोली सुन लो मेरी बात, अन्त:पुर में चलो महाराज।
भरत — (दासी से) बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर ! पुत्र जन्म का समाचार सुनाने के लिए ले तू भी अपना पुरस्कार। हाथ का कड़ा उतारकर उसे देते हैं) ये तीनों समाचार एक साथ सुनकर भरत विचारमग्न हो गये, पुन: कहने लगे— भरतपुरुषार्थ चार ही माने हैं, ग्रन्थों में खूब बखाने हैं। धर्म, अर्थ, काम औ मोक्ष, इनसे क्रमश: मिलता मोक्ष।।सुनो ! मेरे मंत्री, सेनापति और सभासदों ! आज मुझे एक ही साथ जो तीन समाचार ज्ञात हुए हैं उनमें प्रथम ‘धर्म पुरुषार्थ’का प्रतीक है केवलज्ञान का सन्देश, चक्ररत्न की उत्पत्ति अर्थ पुरुषार्थ का सूचक है और तृतीय काम पुरुषार्थ का फल है पुत्र की प्राप्ति। मैं सर्वप्रथम भगवान् के समवसरण में जाकर धर्म का श्रवण करूँगा, वहाँ भगवान् ऋषभदेव की ऐसी दिव्य पूजा करूँगा कि मैं भी शीघ्र पूजक से पूज्य बन जाऊँ एवं पुन: इस संसार में वापस न आऊँ।चले भरत सामग्री लेकर,उनके संग चला बहु परिकर। जय जय जय से गूँजा अम्बर,जय हो ऋषभदेव जिनवर।।आदि ब्रह्मा ऋषभदेव भगवान् की जय हो, भगवान् के समवसरण की जय हो, केवलज्ञान महोत्सव की जय हो। समवसरण में पहुँचकर भरत स्तुति करते हैं—
हे नाथ ! आप दर्श करके हर्ष हो रहा। आनन्द अश्रु झर रहे सब पाप धो रहा।। जीवन सफल हुआ मैं आज धन्य हो गया। प्रभु भक्ति से निज सौख्य में निमग्न हो गया।।
पुन: मनुष्यों की सभा वाले कोठे में बैठकर दिव्यध्वनि सुनने लगे। (ऊँकारमयी ध्वनि चलती है) तब वहाँ उपस्थिति सौधर्म इन्द्र बोल पड़ा—
इन्द्र — प्रमुख श्रोता की पात्रता, है भरतराज में सार्थता। इस समवसरण के प्रथम पात्र, राजाधिराज तुम जनम सार्थ। (थोड़ी देर के बाद भरत समवसरण से बाहर निकलकर वापस अयोध्या नगरी की ओर चले) प्रगटा पुन: अर्थ पुरुषार्थ, आयुधशाला में गये महाराज। चक्ररत्न सम्मान किया, अन्त:पुर फिर प्रस्थान किया।।चक्ररत्न की पूजा करके अन्त:पुर पहुँचकर भरत कहते हैं—
भरत —अब सभी मिलकर पुत्र का जन्मोत्सव मनाओ, मेरे सारे खजाने खोल दो और प्रजा को खूब धन—सम्पत्ति बाँटो। सभी मिलकर गाते हैं—
हम सब मनाएँ मिल खुशियाँ—
मनाएँ मिल खुशियाँ, हमें सब कुछ मिल गया है।।टेक.।। प्रथम मिला जिनवर का दर्शन! समवसरण में कर ली पूजन।। हम सब मनाएँ मिल खुशियाँ—मनाएँ मिल खुशियाँ, हमें सब कुछ मिल गया है।।१।। चक्ररत्न की प्रभा निराली पुत्ररत्न की आभा निराली। हम सब मनाएँ मिल खुशियाँ—मनाएँ मिल खुशियाँ, हमें सब कुछ मिल गया है।।२।। जन्मोत्सव का अवसर आया, मुँहमाँगा धन सबने पाया। हम सब मनाएँ मिल खुशियाँ, मनाएँ मिल खुशियाँ, हमें सब कुछ मिल गया है।।३।।
बन्धुओं ! सम्राट भरत इसीलिए इतिहास पुरुष बन गए कि अपने जीवन में उन्होंने श्रावक के कर्तव्यों का पूर्ण पालन किया और ऋषभदेव के समवसरण में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर पुन: मुनि बनकर अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर भगवान् बन गये थे। इसीलिए ‘‘भरत जी घर में वैरागी’’ की सूक्ति जगत में प्रसिद्ध है।