अथ कदाचित् विहरन् सन् ससंघ: श्री सौधर्माचार्यवर्य: भावदेवमुनिना सार्धं तत्रैव वद्र्धमानपुरे आगत:। तदानीं विशुद्धबुद्धिधारी भावदेवमुनि: स्वानुजं भावदेवं स्मरतिस्म, असौ नगरे विख्यातो विषयासक्त: एकांतमतानुयायी स्वहितं नाज्ञासीत्। करुणाद्र्रमना: भावदेवमुनि: तस्य संबोधनार्थं गुरोरनुज्ञां गृहीत्वा संघात् निर्गत्य भवदेवगृहे आगत्याहारं लब्धवान्। अनंतरं धर्मामृतै: परितप्र्य स्वस्थानं प्रति आगच्छत्, भवदेवोऽपि विनयेन् अग्रजं अनु: व्रजन् मध्ये मार्गत: प्रत्यागंतुं उत्सुको नवोढावधूं नागवसुं स्मारं-स्मारं व्याकुलितो जात: तस्य करे विवाहस्य कंकणं आसीत्। परन्तु अग्रजस्याज्ञामंतरेण कथं गच्छेयम्? इति संचिंत्य तमनु संघे समायात:। इमौ समायतौ विलोक्य सर्वे मुनयोऽवोचन् हे भावदेवमुने! त्वं धन्योऽसि यत् स्वानुजं आनीतवान्, भावदेवेनापि उक्तं मुमुक्षुरयं, दीयतां दीक्षामस्मै। भवदेवोपि मनसि विचारयति यदहं नवविवाहितावधूं त्यजामि तर्हि मम हृदि शांतिर्नास्ति, यदि दीक्षां न गृण्हामि तर्हि अग्रजस्य गौरवहानिर्भविष्यति, किं करोमि ? क्षणं मनसि वितक्र्य पुन: दीक्षामेवाग्रहीत्, तथापि सशल्योऽयं स्मराग्निना दह्यमानोऽहर्निशं स्वपत्न्या अस्मातर्। गुरूजनै: सार्धं ध्यानाध्ययनतपोव्रतेषु अपि सदैव संलग्नो दृश्यते स्म।
कदाचित् विहार करते हुए अपने संघ सहित सौधर्माचार्यवर्य भावदेव मुनि के साथ-साथ उसी वद्र्धमान नगर में पधारे। उस समय विशुद्ध बुद्धिधारी भावदेव मुनि ने अपने छोटे भाई भवदेव का स्मरण किया। वह उस नगर में प्रसिद्ध था विषयासक्त, एकांत मतानुयायी अपने हित को नहीं समझता था। अत्यन्त करुणा से प्रेरित होकर भावदेव मुनि ने उसके संबोधन के लिए गुरु से आज्ञा ले ली और संघ से चलकर भवदेव के यहाँ आकर आहार ग्रहण किया। अनंतर धर्मरूपी अमृत का पान कराकर वे संघ में चल पड़े, तब वह भवदेव भी विनयवृत्ति से गुरु के साथ-साथ चलने लगा, मार्ग से वापस आना चाहता हुआ वह बार-बार अपनी नव विवाहित स्त्री का स्मरण कर रहा था, उसके हाथ में विवाह का कंकण बंधा हुआ था, अर्थात् उसी दिन उसका विवाह हुआ था। किन्तु भावदेव मुनि मौन से चले जा रहे थे उनकी आज्ञा न मिलने से मैं घर वापस कैसे जाऊँ? ऐसा सोचकर बस उन्हीं के साथ संघ तक आ गया। तब मुनियों ने कहा कि हे भावदेव मुनि! तुम धन्य हो जो भाई को साथ ले आये हो, भावदेव ने भी कहा कि हे भगवन्! यह मुमुक्षु है। उसे दीक्षा दे दीजिए। भवदेव मन में सोचने लगा कि मैं क्या करूं, यदि घर नहीं जाकर नव विवाहित पत्नी का त्याग करता हूँ, तो मुझे आर्तध्यान बना रहेगा और यदि दीक्षा नहीं लेता हूँ, तो भाई का गौरव घटेगा। अनेक प्रकार से ऊहापोह कर करके उसने दीक्षा ही ले ली। वह शल्य सहित होता हुआ काम अग्नि से जलता हुआ अपनी पत्नी का प्रतिदिन स्मरण करता रहता था। फिर भी साधुओं के साथ ध्यान अध्ययन तप व्रत आदि में भी संलग्न हो रहा था।