अथानंतरं भवदेवमुनिना स्वगुरो: सौधर्माचार्यवर्यस्य सकाशे सविनयं सर्वं वृत्तं आलोचितं। तदानीं गुरुरपि तस्य पूर्वदीक्षाछेदं कृत्वा पुनरपि संयमे तं प्रस्थापितवान्। तत: प्रभृत्यसौ मुनिर्भावलिंगी श्रमण: सन् भावविशुद्ध्या साक्षात् विरागमूर्तिर्जितेन्द्रियो जात:।
अयं धीरवीर: स्वशरीरेऽपि नि:स्पृह:, किन्तु मुक्तिसंगमे सस्पृह आसीत्। क्षुत्पिपासादिपरिषहाणां परमसमभावत: सहिष्णु: सुखदु:खयो: शत्रुमित्रयो: लाभालाभयोर्जीवितमरणर्योिनंदास्तुत्योश्च समपरिणामो निर्विकारो बुद्धिमान् संजात:। इत्थं तपश्चरंतौ बहूनि वर्षाण्यतीत्य अंतकाले भावदेवभवदेव नामानौ उभौ अपि मुनिवरौ पंडितमरणेन प्राणान् त्यक्त्वा तृतीयसनत्कुमार स्वर्गे देवौ अजनिषातां। सम्यक्त्वव्रतमाहात्म्येन चिरकालं तत्र दिव्यसुखान्यनुभवेताम्।
अनंतर आर्यिका द्वारा सम्बोधन को प्राप्त हुए भवदेव मुनिराज ्नो अपने गुरु सौधर्म आचार्यवर्य के पास जाकर विनय सहित सर्व वृत्तांत (दोषों) की आलोचना की। उस समय गुरु ने भी उनके पूर्व की दीक्षा का छेद करके पुनरपि उन्हें संयम में स्थापित किया। अर्थात् पुनर्दीक्षा प्रदान की। तब से ये मुनिराज भावलिंगी श्रमण बन गये और भावों की विशुद्धि से साक्षात् वैराग्यमूर्ति इंद्रिय विजेता हो गये। ये धीर, वीर मुनिराज अपने शरीर में भी निस्पृह थे किन्तु मुक्ति लक्ष्मी के संगम में स्पृहावान-इच्छुक थे। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि परीषहों को परम साम्य भाव से सहन करने वाले थे। सुख, दु:ख, शत्रु, मित्र, लाभ, अलाभ, जीवन, मरण और निंदा, स्तुति में समभाव धारण करते हुए निर्विकारी और बुद्धिमान हो गये थे। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए बहुत से वर्षों को बिताकर अंत समय में भावदेव-भवदेव नाम के ये दोनों मुनिराज पंडित मरण से प्राणों का त्याग करके तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग में देव हो गये। वहाँ पर सम्यक्त्व और व्रतों के महात्म्य से चिरकाल तक दिव्य सुखों का अनुभव करते रहे हैं।