कतिपयमासानंतरं संघसहितो सौधर्मो गणी विहरन् सन् तत्रैव वर्धमाननगरे समागत्य नगरात् बहि: उद्याने स्थित:। केचित् मुनयो ध्याने स्थित्वा तपश्चर्यां कुर्वन्त आसन्, केचित् मुनय: स्वाध्याये निरता बभूवु:। तदानीं भवदेवमुनि: आहारछद्मात् नगरे प्रविष्ट: मार्गे गच्छन् सन् एकं उन्नतं जिनमंदिरमअपश्यत् तदा मंदिरस्यांत: प्रविश्य त्रि:प्रदक्षिणीकृत्य भक्तिभावेन जिनेन्द्रप्रतिमां अनंसीत्। तत्रैव चैत्यालये काचित् आर्यिका आसीत् सा मुनिराजं दृष्ट्वा नमस्कृत्य रत्नत्रयकुशलं अपृच्छत्। मुनिरपि आर्यिकाया: कुशलं पृच्छ्वा पृच्छति स्म।
हे आर्ये! अत्र नगरे भावदेवभवदेवनामानौ उभौ सहोदरौ आस्तां, कनिष्ठस्य भवदेवस्य नवोढा भार्या क्वास्ते?
तदानीं आर्यिकया मनसि चिंंतितं अयमेवभवदेवमुनि: दृश्यते, स्खलितमना: समायात:, भीता सती सा सर्वं पूर्ववृत्तं निवेद्य बहुभिर्दृष्टांतै संबोध्य स्थितीकरणं कृत्वा वदति स्म। हे मुने! भवदेवस्य पत्नी सा एवाहं भवदेवस्य मुनिदीक्षानंतरं स्वद्रव्येण एतज्जिनमंदिरं निर्माप्य पंचकल्याणप्रतिष्ठां कारयित्वार्यिका जाताहम्।
एतत् श्रुत्वा भवदेवस्य मनसि विषयभोगात् महती ग्लानि: संजाता, तां आर्यिकां पुन: पुन: स्तुत्वासौ व्याघुट्य स्वसंघे प्रत्यागत:।
कुछ महीने निकल जाने के बाद वे ही सौधर्म आचार्य संघ सहित विहार करते हुए उसी वर्धमान नगर के बाहर बगीचे में ठहर गये। कुछ मुनिगण ध्यान में लीन होकर तपश्चर्या करने लगे और कुछ मुनि अपने स्वाध्याय में तत्पर हो गये। उसी समय भवदेव मुनि आहार के बहाने नगर में घुसे। जाते हुए मार्ग में एक अत्युन्नत भव्य जिनमंदिर देखा। तब मंदिर में जाकर तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिभावपूर्वक जिनेन्द्र प्रतिमा को नमस्कार किया। उसी चैत्यालय में एक आर्यिका रहती थींं उन्होंने आकर मुनिराज को नमस्कार करके रत्नत्रय की कुशल पूछी, मुनिराज भी आर्यिका की कुशल पूछकर बोले कि हे आर्ये! इसी नगर में भावदेव भवदेव नाम के दो सगे भाई रहते हैं। उनमें से छोटे भाई की नव विवाहिता पत्नी कहाँ है ? आपको मालूम है क्या ?
इतना सुनते ही वह आर्यिका समझ गई कि ये ही भवदेव मुनि हैं, जो कि स्खलित होकर आ गये हैं। उस समय वह बहुत ही घबरा गई और सभी पूर्व वृत्तान्त को बतलाकर अनेकों दृष्टांतों से मुनि को संबोधित करते हुए उसका स्थितीकरण करके बोली हे मुनिराज! वह भवदेव की पत्नी मैं ही हूँ। भवदेव की मुनि दीक्षा के अनंतर अपने धन से इस जिनमंदिर का निर्माण कराके पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराकर
मैंने संसार समुद्र से पार होने के लिए यह आर्यिका दीक्षा ले ली है।
इतना सुनकर भवदेव के मन में विषय भोगों के प्रति बहुत ही ग्लानि उत्पन्न हो गई। उस आर्यिका की बार-बार स्तुति करते हुए वे मुनिराज वहाँ से चलकर वापस संघ में आ गये।