प्रस्तुतकर्त्री – गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी
भव्वजणमोक्खजणणं मुणिंददेविंदपणदपयकमलं।
णमिय अभिणंदणेसं भावणलोयं परूवेमो।।१।।
रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि।
भवणसुराणं भवणाइं होतिं वररयणसोहाणि।।७।।
सोलयसहस्समेत्तो खरभागो पंकबहुलभागो वि।
चउसीदिसहस्साणिं जोयणलक्ख दुवे मिलिदा।।८।।
असुरा णागसुवण्णा दीओवहिथणिदविज्जुदिसअग्गी।
वाउकुमारा परया दसभेदा होंति भवणसुरा।।९।।।
चूडामणिअहिगरुडा करिमयरा वड्ढमाणवज्जहरी।
कलसो तुरवो मउडे कमसो चिण्हाणि एदाणि।।१०।।
चउसट्ठी चउसीदी बावत्तरि होंति छस्सु ठाणेसु।
छाहत्तरि छण्णउदी लक्खाणिं भवणवासिभवणाणिं।।११।।
एदाणं भवणाणं स्ंसि मेलिदाण परिमाणं।
बाहत्तरि लक्खाणिं कोडीओ सत्तमेत्ताओ।।१२।।
दससु कुलेसुं पुह पुह दो दो इंदा हवंति णियमेण।
ते एस्ंसि मिलिदा वीस विराजंति भूदीहिं।।१३।।
भवणा भवणपुराणिं आवासा अ सुराण होदि तिविहा णं।
रयणप्पहाए भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा।।२२।।
दहसेलदुमादीणं रम्माणं उवरि होंति आवासा।
णागादीणं केसिं तियणिलया भवणमेमसुराणं।।२३।।
अप्पमहद्धियममज्झिमभावणदेवाण होंति भवणाणि।
दुगबादालसहस्सा लक्खमधोधो खिदीय गंताउ।।२४।।
अप्पमहद्धियमज्झिमभावणदेवाण वासवित्थारो।
समचउरस्सा भवणा वज्जामयद्दारछज्जिया सव्वे।।२५।।
बहलत्ते तिसयाणिं संखासंखेज्जजोयणा वासे।
संखेज्जरुंदभवणेसु भवणदेवा वसंति संखेज्जा।।२६।।
संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा (?)।
भवणसरूवा एदे वित्थारा होइ जाणिज्जो ।।२७।।
जो भव्य जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके चरणकमलों में मुनीन्द्र अर्थात् गणधर एवं देवों के इन्द्रों ने नमस्कार किया है, ऐसे अभिनन्दन स्वामी को नमस्कार करके भावन-लोक का निरूपण करते हैं।।१।।
रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग और पंकबहुलभाग में उत्कृष्ट रत्नों से शोभायमान भवनवासी देवों के भवन हैं।।७।।
इन दोनों भागों में से खर भाग सोलह हजार योजन और पंकबहुलभाग चौरासी हजार योजन प्रमाण मोटा है। उक्त दोनों भागों की मोटाई मिलकर एक लाख योजन प्रमाण है।।८।। खरभाग की मोटाई १६०००±पंकबहुलभाग ८४०००·१००००० योजन । असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार, इस प्रकार भवनवासी देव दश प्रकार के हैं।।९।।
उपर्युक्त दश भवनवासी देवों के मुकुट में क्रम से चूड़ामणि, सर्प, गरुड़, हाथी, मगर, वद्र्धमान (स्वस्तिक), वङ्का, सिंह, कलश और तुरग, ये (दश) चिह्न होते हैं।।१०।। चौंसठ लाख, चौरासी लाख, बहत्तर लाख, छह स्थानों में छियत्तर लाख और छियानबे लाख, इस प्रकार क्रम से दश स्थानों में उन भवनवासी देवों के भवनों की संख्या है।।११।। असुरकुमार ६४०००००, नागकुमार ८४०००००, सुपर्णकुमार ७२०००००, द्वीपकुमार ७६०००००, उदधिकुमार ७६००००००, स्तनितकुमार ७६०००००, विद्युत्कुमार ७६०००००, दिक्कुमार ७६०००००, अग्निकुमार ७६०००००, वायुकुमार ९६०००००। इन सब भवनों के प्रमाण को एकत्र मिलाने पर सात करोड़ बहत्तर लाख होते हैं।।१२।।
७,७२०००००। उपर्युक्त दश भवनवासियों के नियम से पृथव्क़-पृथव्क़ दो-दो इन्द्र होते हैं। वे सब मिलकर बीस इन्द्र होते हैं , जो अपनी-अपनी विभूति से शोभायमान हैं।।१३।।
भवनवासी देवों के निवासस्थान भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवासस्थानों को भवन, द्वीप-समुद्रों के ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर और रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमारादिक देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवासरूप तीनों ही तरह के निवासस्थान होते हैं परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवासस्थान होते हैं।।२२-२३।।
अल्पद्र्धिक, महद्र्धिक और मध्यम ऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के भवन क्रमशः चित्रा पृथिवी के नीचे-नीचे दो हजार, बयालीस हजार और एक लाख योजनपर्यन्त जाकर हैं।।२४।।
अल्पद्र्धिक २०००, महद्र्धिक ४२०००, मध्य ऋद्धिधारक १०००००। अब अल्पद्र्धिक, महद्र्धिक और मध्यम ऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के निवासस्थानों का विस्तार कहा जाता है। ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वङ्कामय द्वारों से शोभायमान हैं।।२५।।
ये भवन बाहल्य में (ऊँचाई में) तीन सौ योजन और विस्तार में संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण होते हैं। इनमें से संख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में संख्यात और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते हैं,ऐसा भवनों का स्वरूप और विस्तार जानना चाहिए।।२६-२७।।