तेसिं चउसु दिसासुं जिणदिट्ठपमाणजोयणे गंता।
मज्झम्मि दिव्ववेदी पुह पुह वेट्ठेदि एक्केक्का।।२८।।
दो कोसा उच्छेहा वेदीणमकट्टिमाण सव्वाणं ।
पंचसयाणिं दंडा वासो वररयणछण्णाणं।।२९।।
गोउरदारजुदाओ उवरिम्मि जिणिंदगेहसहिदाओ ।
भवणसुररक्खिदाओ वेदीओ ताओ सोहंति।।३०।।
तब्बाहिरे असोयंसत्तच्छदचंंपचूदवण पुण्णा ।
णियणाणातरुजुत्ता चेट्ठंति चेत्ततरूसहिदा।।३१।।
चेत्तदुमत्थलरूंदं दोण्णि सया जोयणाणि पण्णासा।
चत्तारो मज्झम्मि य अंते कोसद्धमुच्छेहो।।३२।।
छद्दोभूमुहरूंदा चउजोयणउच्छिदाणि पीढाणि।
पीढोवरि बहुमज्झे रम्मा चेट्ठंति चेत्तदुमा।।३३।।
६ । २ । ४ ।
पत्तेक्कं रूक्खाणं अवगाढं कोसमेक्कमुद्दिट्ठं ।
जोयण खंदुच्छेहो साहादीहत्तणं च चत्तारि ।। ३४।।
को १ । जो १ । ४।
विविहवररयणसाहा विचित्तकुसुमोवसोभिदा सव्वे।
वरमरगयवरपत्ता दिव्वतरू ते विरायंति।।३५।।
विविहंकुरूचेंचइया विविहफला विविहरयणपरिणामा।
छत्तादिछत्तजुत्ता घंटाजालादिरमणिज्जा।।३६।।
आदिणिहणेण हीणा पुढिविमया सव्वभवणचेत्तदुमा ।
जीवुप्पत्तिलयाणं होंति णिमित्ताणि ते णियमा ।।३७।।
चेत्ततरूणं मूले पत्तेक्कं चउदिसासु पंचेव
चेट्ठंति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरेहिं महणिजा।।३८।।
चउतोरणाभिरामा अट्ठमहामंगलेहि सोहिल्ला ।
वररयणणिम्मिदोहिं माणत्थंभेहि अइरम्मा ।।३९।।
।। वेदीवण्णणा गदा ।।
वेदीणं बहुमज्झे जोयणसयमुच्छिदा महाकूडा ।
वेत्तासणसंठाणा रयणमया होंति सव्वट्ठ।।४०।।
ताणं मूले उवरिं समंतदो दिव्ववेदीओ।
पुव्विल्लवेदियाणं सारिच्छंं वण्णणं सव्वं।।४१।।
वेदीणब्भंतरए वणसंढा वरविचित्ततरूणियरा।
पुक्खरिणीहिं समग्गा तप्परदो दिव्ववेदीओ ।।४२।।
।। कूडा गदा ।।
कूडोवरि पत्तेक्कं जिणवरभवणं हवेदि एक्केक्कं।
वररयणकंचणमयं विचित्तविण्णासरमणिज्जं।।४३।।
चउगोउरा तिसाला वीहिं पडि माणथंभणवथूहा।
वणधयचेत्तखिदीओ सव्वेसुं जिणणिकेदेसुं ।।४४।।
णंदादिओ तिमेहल तिपीढपुव्वाणि धम्मविभवाणि।
चउवणमज्झेसु ठिदा चेत्ततरू तेसु सोहंति।।४५।।
हरिकरिवसहखगाहिवसिहिससिरविहंसपउमचक्कधया।
एक्केक्कमट्ठजुदसयमेक्केक्कं अट्ठसय खुल्ला।।४६।।
वंदणभिसेयणच्चणसंगीआलोयमंडवेहिं जुदा ।
कीडणगुणणगिहेहिं विसालवरपट्टसालेहिं।।४७।।
सिरिदेवीसुददेवीसव्वाणसणक्कुमारजक्खाणं ।
रूवाणि अट्ठमंगल देवच्छंदम्मि जिणणिकेदेसुं।।४८।।
भिंगारकलसदप्पणधयचामरछत्तवियणसुपइट्ठा ।
इय अट्ठमंगलाणिं पत्तेक्कं अट्ठअहियसयं।।४९।।
दिप्पंतरयणदीवा जिणभवणा पंचवण्णरयणमया।
गोसीसमलयचंदणकालागरूधूवगंधड्ढा ।।५०।।
भंभामुइंगमद्दलजयघंटाकंसतालतिवलीणं।
दुंदुहिपडहादीणं सद्देहिं णिच्चहलबोला।।५१।।
सिंहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्खमिहुणजुदा।
णाणाविहरयणमया जिणपडिमा तेसु भवणेसुं।।५२।।
बाहत्तरि लक्खाणिं कोडीओ सत्त जिणणिकेदाणिं।
आदिणिहणुज्झिदाणिं भवणसमाइं विराजंति।।५३।।
७७२००००० ।
सम्मत्तरयणजुत्ता णिब्भरभत्तीय णिच्चमच्चंति ।
कम्मक्खवणणिमित्तं देवा जिणणाहपडिमाओ।।५४।।
कुलदेवा इदि मण्णिय अण्णेहिं बोहिया बहुपयारं।
मिच्छाइट्ठी णिच्चं पूजंंित जिणिंदपडिमाओ१।।५५।।
।।समाप्तम्।।
उन भवनों की चारों दिशाओं मे जिनभगवान् से उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक एक दिव्य वेदी (कोट) पृथव्â-पृथव्â उन भवनों को मध्य में वेष्टित वâरती है ।। २८ ।।
उत्तमोत्तम रत्नों से व्याप्त इन सब अकृत्रिम वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार पांच सौ धनुष प्रमाण होता है ।। २९ ।।
गोपुरद्वारों से युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरों से सहित वे वेदियां भवनवासी देवों से रक्षित होती हुई सुशोभित होती हैं ।। ३० ।।
वेदियों के बाह्य भाग में चैत्यवृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं ।। ३१ ।।
चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार दो सौ पचास योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अन्त में अर्ध कोस प्रमाण होती है ।। ३२ ।।
पीठों की भूमि का विस्तार छह योजन, मुख का विस्तार दो योजन, और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठों के ऊपर बहुमध्यभाग में रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं।।३३।।
भूविस्तार ६, मु. वि. २, उंचाई ४ यो. ।
प्रत्येक वृक्ष का अवगाढ़ एक कोस, स्कंध का उत्सेध एक योजन और शाखाओं की लंबाई चार योजन प्रमाण कही गयी है ।। ३४ ।।
अवगाढ़ को. १, स्कन्ध की ऊँचाई यो. १ शाखाओं की लंबाई यो. ४ ।
वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभा को प्राप्त हैं ।। ३५ ।।
विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के ऊपर छत्र से संयुक्त, घंटाजालादि से रमणीय और आदि-अन्त से रहित, ऐसे वे पृथिवी के परिणाम रूप सब भवनों के चैत्यवृक्ष नियम से जीवों की उत्पत्ति और विनाश के निमित्त होते हैं।।३६-३७।। चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों से पूजनीय पांच पांच जिनप्रतिमाएँ विराजमान होती हैं।।३८।। ये जिनप्रतिमाएँ चार तोरणों से रमणीय, आठ महा मंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नों से निर्मित मानस्तम्भों से अतिशय शोभायमान होती हैं।।३९।।
।।इस प्रकार वेदियों का वर्णन समाप्त हुआ।।
भवनवासी देव के भवन में जिनमंदिर
इन वेदियों के बहुमध्य भाग में सर्वत्र एक सौ योजन ऊंचे, वेत्रासन के आकार और रत्नमय महाकूट स्थित हैं ।। ४० ।।
इन कूटों के मूल भाग में और ऊपर चारों तरफ दिव्य वेदियां हैं । इन वेदियों का सम्पूर्ण वर्णन वेदियों जैसा ही समझना चाहिये ।। ४१ ।।
इन वेदियों के भीतर उत्तम एवं विविध प्रकार के वृक्ष समूह से व्याप्त और वापिकाओं से परिपूर्ण वनसमूह हैं, फिर इनके आगे दिव्य वेदियां हैं ।। ४२ ।।
।। इस प्रकार कूटों का वर्णन समाप्त हुआ।।
प्रत्येक कूट के ऊपर एक-एक जिनेन्द्र भवन है, जो उत्तम रत्न एवं सुवर्ण से निर्मित तथा विचित्र विन्यास से रमणीय है ।। ४३ ।।
सब जिनालयों मेंं चार चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथी में एक मानस्तंभ व नौ स्तूप तथा (कोटों के अन्तराल में) क्रम से वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि होती हैं ।। ४४ ।।
उन जिनालयों में चारों वनों के मध्य में स्थित तीन मेखलाओं से युक्त नन्दादिक वापिकायें और तीन पीठों से संयुक्त धर्म विभव, तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं।।४५।।
ध्वजभूमि में सिंह, गज, वृषभ, गरूड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र, इन चिह्नों से अंकित प्रत्येक चिह्न वाली एक सौ आठ महाध्वजाएँ, और एक एक महाध्वजा के आश्रित एक सौ आठ क्षुद्रध्वजायें होती हैं ।। ४६ ।। उपर्युक्त जिनालय वंदनमण्डप, अभिषेकमण्डप, नर्तनमण्डप, संगीतमण्डप और आलोक (प्रेक्षण) मंडप, इन मण्डपों तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह अर्थात् स्वाध्यायशाला एवं विशाल व उत्तम पट्टशालाओं से (चित्रशालाओं से) युक्त होते हैं ।। ४७ ।। जिनमन्दिरों में देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह और सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां एवं आठ मंगल द्रव्य होते हैं ।। ४८ ।।
झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों में से वहां प्रत्येक एक सौ आठ होते हैं ।। ४९ ।।
ये जिनभवन चमकते हुये रत्नदीपकों से सहित, पांच वर्ण के रत्नों से निर्मित, गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप के गन्ध से व्याप्त, तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पटहादिक के शब्दों से नित्य ही शब्दायमान रहते हैं ।। ५०-५१ ।।
उन भवनों मे सिहांसनादिक से सहित, हाथ मे चँवर लिये हुये नागयक्षयुगल से युक्त और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित ऐसी जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ।। ५२ ।। आदि-अन्त से रहित (अनादिनिधन) वे जिनभवन, भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण सात करोड़ बहत्तर लाख, सुशोभित होते हैं ।। ५३ ।। ७७२००००० ।
जो देव सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से युक्त हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं, वे कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही इन जिनप्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करते हैं ।। ५४ ।।
इसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्रमूर्तियों की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं।।५५।।
।।जिनभवनों का वर्णन समाप्त हुआ।।