(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी की)
क्षुल्लक मोतीसागर जी-वन्दामि माताजी! श्री ज्ञानमती माताजी- समाधिरस्तु! मोतीसागर- माताजी! आपसे देवों के विषय में कुछ विशेष जानकारी चाहता हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, सुनो देवगति नाम कर्म के उदय से देवो में जन्म होता है। इन देवों के चार भेद हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
मोतीसागर-भवनवासी देवों के कितने भेद हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी– भवनवासी के दश भेद हैं- असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार।
मोतीसागर-इन दश भेदों में चालीस इंद्र कैसे होते हैं ? श्री ज्ञानमती माताजी- इन प्रत्येक भेद में दो-दो इन्द्र और दो-दो प्रतीन्द्र होने से चालीस भेद हो जाते हैं। मोतीसागर- आज मैं आपसे असुरकुमार देवों के बारे में विशेष जानना चाहता हूँ, पहले यह बताइये कि ये रहते कहाँ हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, सुनिये । अधोलोक में सात ‘‘पृथिवी’’ हैं, इनमें से प्रथम पृथिवी-रत्नप्रभा के तीन भेद हैं-खरभाग, पंक बहुल भाग और अब्बहुल भाग । असुरकुमार जाति के देवों के भवन पंकबहुल भाग में हैं और शेष नव प्रकार के देवों के भवन खर भाग में हैं।
मोतीसागर-भवनवासी देवों के कुल कितने भवन हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं। इनमें से असुरकुमार देव के चौंसठ लाख भवन हैं। इनका विस्तार ऐसा है। असुरकुमार जाति में दो इन्द्र हैं उनके नाम हैं-चमर और वैरोचन। चमरेन्द्र के चौतीस लाख भवन हैं और वैरोचन के तीस लाख। भवनवासी देवों के निवास तीन प्रकार के माने गये हैं-भवन, भवनपुर और आवास।
रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप-समुद्रों के ऊपर स्थित निवास स्थानों को भवनपुर और रमणीय पर्वत, तालाब तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं। नागकुमार आदि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवास ये तीनों तरह के निवास स्थान होते हैं, परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होता है।
मोतीसागर– इन भवनवासी देवों के असुरकुमार जाति के देवों के मुकुटों में चिन्ह कौन-सा होता है और इनके भवन कैस होते हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-इनके मुकुटों में चूड़ामणि का चिन्ह रहता है। इन देवों के भवन सम चतुष्कोण होते हैं और उनमें वङ्कामय द्वार होते हैं। ये भवन तीन सौ योजन ऊँचे, विस्तार में कोई संख्यात योजन वाले और कोई असंख्यात योजन वाले होते हैं। संख्यात योजन विस्तृत भवनों में संख्यात देव और असंख्यात योजन विस्तृत भवनो में असंख्यात देव रहते हैं।
मोतीसागर-प्रत्येक देवों के भवन में जिनमंदिर माने हैं, वे कहाँ हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-प्रत्येक भवन के मध्य में एक सौ योजन ऊँचे, वेत्रासन के आकार वाले, रत्नमय महाकुट स्थित हैं। इन कुटों के मूल में और ऊपर चारों तरफ दिव्य वेदियाँ हैं। प्रत्येक महाकुट के ऊपर जिनमंदिर हैं ये अनादिनिधन-अकृत्रिम हैं। ये मंदिर श्रेष्ठ रत्न एवं सुवर्ण से निर्मित बहुत ही सुंदर बने हुए हैं। जिनमंदिर के चारों तरफ चार गोपुर द्वार सहित तीन परकोटे हैं। प्रत्येक वीथी मे एक मानस्तंभ, नौ स्तूप तथा परकोटो के अंतराल मे क्रम से वन-भूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि हैं।
इन जिनमंदिर में चारों वनों में एक-एक दिशा में एक-एक वन हैं-अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन। इन वनों में एक-एक चैत्यवृक्ष है। ध्वजभूमि में सिंह, गज, बैल, गरूड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और वक्र इन चिन्हों से अंकित चिन्हवाली एक सौ आठ महाध्वजाएँ होती हैं। इन जिनमंदिर में वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप, प्रेक्षण मंडप हैं तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह, स्वाध्यायशाला एवं विशाल चित्रशालाएँ हैं।
इस मंदिर में देवच्छन्द के भीतर प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्री देवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्हयक्ष और सनत्कुमार यक्ष इनकी मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक जिनप्रतिमा के पास आठ-आठ मंगलद्रव्य हैं जो कि एक सौ आठ-एक सौ आठ होेते हैं। झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन, पंखा और सुप्रतिष्ठ वे आठ मंगलद्रव्य माने गये हैं। इन जिनमंदिरों में रत्नदीपक हैं, धूपघट हैं, मंगलघट हैं, धूपघटों में सतत अग्नि प्रज्वलित रहती है। इनमें देवगण हमेशा कालागरू, मलयचंदन, गोशीर्ष आदि से सहित सुगंधित धूप खेया करते हैं। यहाँ भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, दुंदुभि, पटह आदि वाद्य बजाये जाते हैं।
मोतीसागर-एक अकृत्रिम जिनमंदिर में जिनप्रतिमाएँ कितनी होती हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-एक जिनमंदिर में १०८ गर्भगृह होते हैं और प्रत्येक गर्भगृह में एक-एक जिन प्रतिमा विराजमान रहती है। ये प्रतिमाएँ सिंहासन पर पद्मासन से विराजमान हैं। इनके दोनों तरफ नागयक्ष हाथ मेंं चँवर ढोरते हुए स्थित हैं। ये जिन प्रतिमाएँ रत्नों से बनी हुई हैं, पृथिवीकायिक होते हुए भी चिंतामणि रत्न के समान भक्तों को मनवांछित फल देने वाली हैं।
जो देव सम्यग्दृष्टि हैं वे कर्मक्षय के हेतु से हमेशा इन जिन प्रतिमाओें की पूजा करते हैं और जो मिथ्यादृष्टि देव हैं वे सम्यग्दृष्टि द्वारा संबोधन प्राप्त कर इन जिन प्रतिमाओें को ‘‘कुलदेवता’’ मानकर बहुत प्रकार से उनकी पूजा करते हैं। इन जिनमंदिरों के चारों तरफ भवनवासी देवों के प्रासाद बने हुए हैं।
ये महल भी रत्नों से बने हुए सात, आठ, नौ खनों वाले हैं। इनमें देवों की उपपाद शैय्या बनी हुई है। जहाँ देव जन्म लेते हैं ; ये अंतर्मुहूर्त अड़तालीस मिनट के अंदर ही सोलह वर्ष के नवयुवक के समान शरीर प्राप्त कर उठ बैठते हैं और एकदम सोचते हैं। मैं कहाँ हूँ ? यह स्थान क्या है ? तत्क्षण ही उन्हें अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वे पूर्वभव की सारी बातें जानकर प्रसन्न होते हुए सामने आये हुए देव परिकर को देखते हैं।
मोतीसागर-इन इन्द्रों का वैभव क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी-इन इन्द्र के दश प्रकार के परिवार देव होते हैं। प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्षक, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक। इनमें इन्द्र तो राजा के सदृश हैं, प्रतीन्द्र युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश देव पुत्र सदृश, सामानिक देव कलत्रसदृश, लोकपाल तंत्रपाल के सदृश, आत्मरक्षक अंगरक्षक के सदृश, पारिषद सभासद हैं, अनीक देव सेना के समान, प्रकीर्णक देव पूजा के समान, आभियोग्य जाति के देव दास के समान और किल्विषिक देव सभा बाह्य होते हैं।
प्रतीन्द्र इन्द्र के बराबर संख्या वाले, त्रायस्त्रिंश देव तैंतीस होते हैं। भवनवासी के असुरकुमार देवों में चमर इन्द्र और वैरोचन इंद्र का वैभव-देव परिवार ऐसा है- चमरेन्द्र के सामानिक देव ६४०००, वैरोचन के ६०००० हैं, लोकपाल चार दिशा संबंधी चार-चार हैं। इनके सोम, यम, वरूण और कुबेर ये नाम हैं। चमरेंद्र के आत्मरक्षक देव २५६०००, वैरोचन के २४०००० हैं। पारिषद के तीन भेद हैं-बाह्य, मध्यम और अभ्यंतर। चमरेंद्र के अभ्यंतर पारिषद देव २८०००, मध्यम ३००००, बाह्य ३२००० हैं। वैरोचन के अभ्यंतर पारिषद देव २६०००, मध्यम २८०००, बाह्य ३०००० हैं। अनीक के सात भेद हैं।
उनमें से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवोें के बराबर तथा इसके आगे अंतिम कक्षा तक उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूने-दूने प्रमाण होते गये हैं। असुरकुमारों में महिष, घोड़ा, रथ, हाथी, पदाति, गंधर्व और नर्तकी ये सात सेनाएँ हैं। इनमें से आदि के छह अनीकों में छह महत्तर (प्रधान) और अंतिम अनीक में एक महत्तरी (प्रधान देवी) होती हैं। प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देव असंख्यात होते हैं।
चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेधा, देवी और सुकान्ता ये पाँच अग्रमहिषी हैं। प्रत्येक अग्रमहिषी के आठ हजार परिवार देवियाँ होने से ८०००²५•४०००० प्रमाण देवियाँ मानी गई हैं। चमरेंद्र की एक अग्रमहिषी आठ हजार सुंदर शरीर धारण कर लेती है। चमरेंद्र की सोलह हजार बल्लभिका देवियाँ हैं।
इस प्रकार चमरेंद्र के पाँचों प्रधान देवियों और बल्लभा देवियों को मिलाकर सब देवियाँ छप्पन हजार हैं। वैरोचन इंद्र के पद्मा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी हैं। बाकी देवियों की संख्या चमरेंद्र के समान है। इनके अतिरिक्त सभी देवों की देवियाँ आगम से ज्ञातव्य हैं। सबसे हीन देव के भी कम से कम बत्तीस देवियाँ अवश्य होती हैं।
मोतीसागर-इन देवों का आहार कैसा है ?
श्री ज्ञानमती माताजी-सभी देवों का आहार मानसिक होता है। चमर-वैरोचन इंद्र के एक हजार वर्षों के बाद वंâठ से अमृतमय आहार होता है। इन दोनों इन्द्रों की आयु एक सागर है। ये पंद्रह दिन में उच्छ्वास लेते हैं। इन असुरकुमार के शरीर का वर्ण कृष्ण है। ये सभी देव-देवियाँ रोग, वृद्धावस्था, अकालमृत्यु से रहित हैं। हाड़-मांस, मज्जा, रक्त आदि धातुओंं के रहित, नख और बालों से रहित हैं और उत्तम लावण्य से सहित हैं। वैक्रियक शरीर वाले ये देव अत्यंत सुखी हैं। ये काय प्रवीचार से रहित हैं-अपनी-अपनी देवांगनाओं के साथ शरीर से कामसेवन करते हैं।
मोतीसागर-इन इन्द्रों के यहाँ और क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-इन चमरेंद्र और वैरोचनेन्द्र के महलों की ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। इनका पीपलवृक्ष चैत्यवृक्ष है। इनके कुल का चिन्ह है। इस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों ओर पल्यंकासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। एक-एक जिनप्रतिमा के आगे एक-एक मानस्तंभ में अट्ठाईस-अट्ठाईस जिनप्रतिमाएँ हैं अर्थात् मानस्तंभ में एक-एक दिशा में सात-सात प्रतिमाएँ हैं।
मोतीसागर-किस पुण्य से ये भवनवासी इंद्र या देव होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-जो चारित्रधारण कर शिथिलचर्या रखते हैं, सम्यग्दर्शन से रहित हैं। गुरूद्रोह आदि करके भी बहुत प्रकार का तपश्चरण करते हैं। इत्यादि प्रकार से पुण्य करने वाले मनुष्य ही भवनवासी इंद्र या सामान्यदेव हो जाते हैं। वहाँ पर जातिस्मरण कोई देव जिनेन्द्रदेव के कल्याणकों को देखकर, कोई देव अन्य देवों की ऋद्धि को देखकर, कोई जातिस्मरण से एवं कोई धर्मोपदेश को सुनकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।
मोतीसागर-ये असुरकुमार देव नरकों में जाकर उनको आपस में और अधिक जोर से लड़ाते-भिड़ाते हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी-तत्त्वार्थवार्तिक में वर्णन आया है कि ‘‘सभी असुर जाति के देव नारकियों को दुःख नहीं देते हैं, किन्तु अम्ब, अम्बरीष आदि जाति के कुछ असुरकुमार जाति के देव तृतीय नरक तक जाकर नारकियों को परस्पर में पूर्व वैर आदि का स्मरण दिलाकर लड़ा-भिड़ा कर खुश होते रहते हैं।’’
मोतीसागर-माताजी! आज मैंने आपसे वात्र्ता करके भवनवासी के प्रथम भेद असुरकुमार देवों के बारे में बहुत-सी जानकारी प्राप्त की है, आपने जो मुझे समय दिया है वह आपकी बहुत बड़ी अनुवंपा है।
श्री ज्ञानमती माताजी-अच्छा है, इससे तो मेरा पुन: तिलोयपण्णत्ति का स्वाध्याय हो गया है। मैंने तीनलोक विधान में असुरकुमार के भवनो में जिनमंदिर की पूजा में जो जयमाला बनाई है उसे भी भक्तगण भगवान् के समाने स्तुतिरूप में पढ़ें तो उन्हें ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भक्ति का आनंद भी आयेगा”