क्षुल्लक मोतीसागर – वंदामि माताजी!
श्री ज्ञानमती माताजी – बोधिलाभोऽस्तु!
क्षुल्लक मोतीसागर – माताजी! आज आपसे मैं दिक्कुमार एवं अग्निकुमार देवों के विषय में जानकारी चाहता हूँ कृपया बतलाने का कष्ट करें।
श्री ज्ञानमती माताजी – वैसे तो लगभग सभी भवनवासी देवों की स्थिति एक सदृश है, थोड़ा-बहुत अन्तर है। जो मैं बतलाती हूँ, सुनो- दिक्कुमार देवों के मुकुट में ‘सिंह’ का चिन्ह होता है तथा अग्निकुमार देवों के मुकुट में कलश चिन्ह बना होता है जिससे उनकी पहचान की जाती है। दिक्कुमार के दक्षिणेन्द्र का नाम अमितगति है और उत्तरेन्द्र का नाम अमितवाहन है। इसी प्रकार अग्निकुमार का दक्षिणेन्द्र अग्निशिखी है और उत्तरेन्द्र अग्निवाहन है।
क्षुल्लक मोतीसागर – इनके शरीर का वर्ण वैâसा रहता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – दिक्कुमार देवों के शरीर का वर्ण श्यामल है तथा अग्निकुमार देव जलती हुई अग्नि की ज्वाला के सदृश कांति वाले होते हैं। ये सभी देव मध्यलोक में अकृत्रिम चैत्यालयों की, तपस्वी मुनिराजों की पूजा करने तो प्राय: जाते ही रहते हैं। स्वेच्छा से ईशान स्वर्ग तक भी जाते हैं और दूसरे देवों के कहने से वे सोलहों स्वर्ग तक भी जा सकते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर– क्या इन भवनवासी देवों में इन्द्रिय विषयभोग मनुष्यों जैसे ही रहते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – वहाँ मनुष्यों के समान भोजन आदि की व्यवस्था तो है नहीं, क्योंकि उनके कण्ठ में तो अमृत झरता है और वे तृप्त हो जाते हैं। हाँ, कामसुख वहाँ भी मनुष्यों के समान ही है क्योंकि वे कायप्रवीचार से युक्त होते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर– इनके शरीर की ऊँचाई और आयु कितनी होती है?
श्री ज्ञानमती माताजी– भवनवासी दिक्कुमार एवं अग्निकुमार देवों के शरीर की ऊँचाई दस धनुष होती है। इनकी आयु दस हजार वर्ष की है। ये अपनी शक्ति के द्वारा एक सौ मनुष्यों को मारने अथवा उनका पोषण करने में समर्थ होते हैं अर्थात् अपने सौ शत्रु मनुष्यों को एक साथ मार गिराने की क्षमता इनमें होती है तथा जिनके साथ उनकी मित्रता होती है ऐसे सौ मनुष्यों का एक साथ वे उपकार भी कर सकते हैं। उपकार या अपकार करना उनकी अपनी इच्छा की बात होती है।
क्षुल्लक मोतीसागर – इनके भवनों की और उनमें विराजमान जिनप्रतिमाओं की कितनी संख्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी– इनके छियत्तर लाख भवन हैं और उनमें बयासी करोड़ आठ लाख जिनप्रतिमाएं हैं। जैसा कि मैंने लिखा है-
कोटि बियासी आठलख, जिनवर बिम्ब महान।
पूजत आत्म पियूष रस, मिले पंचकल्याण।।
दिक्कुमार देवों के भवनों में स्थित जिनालयों की अग्रलिखित स्तुति भी पठनीय है-
दोहा- सर्व अकृत्रिम जिनभवन, अतिशय विभव धरन्त।
नमूँ नमूं शिर नायके, निज गुणमणि विलसन्त।।१।।
नरेन्द्र छंद- जय जय जय जिनमंदिर अनुपम, रत्न सुवर्ण विनिर्मित।
जय जय तीन कोट है इनमें, चउ चउ गोपुर संयुत।।
चार चार गलियाँ अति लंबी, शोभे जिनमंदिर में।
इक इक मानस्तंभ व नौ-नौ, स्तूप प्रत्येक गली में।।२।।
परकोटे के अंतराल में, वनभूमी ध्वज भूमी।
अशोक सप्तच्छद चंपक अरु आम्रवनों की भूमी।।
इन चारों वन मध्य एक इक चैत्यवृक्ष अति ऊँचे।
प्रतिदिश जिनप्रतिमा से मण्डित छत्र चंवर युत दीपें।।३।।
नन्दा नन्दोत्तरा आदि बावड़ियाँ जल से पूर्णा।
पूलें कमल कुमुद पूलों से महवें कलकल पूर्णा।।
हंस बतख बहु पक्षिगणों के, कलरव ध्वनि से सुन्दर।
बावड़ियों में क्रीड़ा करते रमते सुरगण मनभर।।४।।
सिंह व गज अरु वृषभ गरुड़ शशि सूर्य मोर अरु हंसा।
कमल चक्र इन दश चिन्हों युत ध्वज फरहरें निशंका।।
ध्वज भूमी में रत्नध्वजाएं पवन झकोरे हिलतीं।
महाध्वजा प्रत्येक चिन्ह की इक सौ अठ अठ दिखतीं।।५।।
इक इक महाध्वजाश्रित इक सौ आठ आठ लघुध्वज हैं।
सर्वध्वजाएं बहु लहराएं गगनस्पर्श दिखत हैं।।
तृतिय कोट मधि चैत्यभूमि है जिनप्रतिमा से सुन्दर।
प्रति जिनगृह में जिनप्रतिमा हैं एक सौ आठ आठ वर।।६।।
देवच्छन्द के भीतर जिनप्रतिमा के उभय तरफ में।
श्रीदेवी श्रुतदेवी की हैं मूर्ती रत्न घटित में।।
यक्षदेव सर्वाण्हकुमार रु सनत्कुमारन मूर्ती।
मंगल द्रव्य आठ सब इक सौ आठ आठ की पूर्ती।।७।।
जिनगृह में मंडन मंडप अभिषेक व नर्तन मंडप।
संगीतरु आलोक सुक्रीड़ा स्वाध्यायादिक मंडप।।
मंगल कलश धूपघट घंटा स्वर्ण रजत मालाएं।
नानाविध शोभायुत गृह में सौम्य छवी प्रतिमाएं।।८।।
जय जिनप्रतिमा जिनभवन, चैत्य द्रु मानस्तंभ।
कोटि कोटि वंदन करूँ ज्ञानमती सुखकन्द।।९।।
अग्निकुमार देवों में स्थित जिनालयों की वंदना इस प्रकार है-
जय जय श्री जिनदेव देव देव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समस्त भव्य के सर्वस्व सार हो।।१।।
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरो रोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आपको निरखें।
उन मोतिबिंदु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।२।।
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुति करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।३।।
जो वंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त वंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वास नासिकादि रोग उनके विनशते।।४।।
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करें हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरें हैं।।
जो नाभि कमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जातीं उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।५।।
जो पैर से जिनगृह में आते नृत्य करें हैं।
वे घुटने पाद रोग सर्व नष्ट करें हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।६।।
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।७।।
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।८।।
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊंगा मैंने परण किया।
बस ज्ञानमती पूरिये यह ही धरन दिया।।९।।