जिनवाणी के करणानुयोग विभाग में जैन भूगोल की जानकारी आती है । इस विषय में “अधोलोक के अंतर्गत भवनवासी देवों” से जुड़े हुए कुछ प्रश्न प्रस्तुत है ।
प्रश्नोत्तर प्रस्तुतकर्ता – पंकज जैन शाह- चिंचवड, पुणे, महाराष्ट्र
भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है?पहली रत्नप्रभा भुमी के ३ भागो मे से पहले २ भाग (खरभाग और पंकभाग) मे उत्कृष्ठ रत्नों से शोभायमान भवनवासी और व्यंतरवासी देवों के भवन है। भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है?भवनवासी देवों के १० भेद है : १)असुरकुमार २) नागकुमार, ३) सुपर्णकुमार ४) द्वीपकुमार ५) उदधिकुमार ६) स्तनितकुमार ७) विद्युत्कुमार ८) दिक्कुमार ९) अग्निकुमार १०) वायुकुमार भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है?भवनवासी देवों के मुकुटों मे १० प्रकार के चिन्ह होते है : # असुरकुमार – चूडामणि # नागकुमार – सर्प # सुपर्णकुमार – गरुड # द्विपकुमार – हाथी # उदधिकुमार – मगर # स्तनितकुमार – वर्धमान # विद्युत्कुमार – वज्र # दिक्कुमार – सिंह # अग्निकुमार – कलश # वायुकुमार – घोडा भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है?भवनवासी देवों के कुल ७ करोड, ७२ लाख भवन है। इन भवनों मे एक एक अकृत्रिम जिनालय है। यही अधोलोक संबंधी ७ करोड, ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय है जिसमे अकृत्रिम जिनबिंब है। इन्हे हम मन वचन काय से नमस्कार करते है। भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है?भवनवासी देवों के १० प्रकारोँ मे पृथक पृथक दो दो इन्द्र होते है। इसप्रकार कुल २० इन्द्र होते है। इनमे से प्रत्येकोंके प्रथम १० इन्द्रोंको दक्षिण इन्द्र और आगे के १० इन्द्रोंको उत्तर इन्द्र कहते है। ये सब अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियों से और मणिमय भुषणों से युक्त होते है। देव दक्षिण इन्द्र दक्षिणेंद्र के भवन उत्तर इन्द्र उत्तरणेंद्र के भवन कुल भवन – असुरकुमार चमर ३४ लाख वैरोचन ३० लाख ६४ लाख – नागकुमार भूतानंद ३४ लाख धरणानंद ४० लाख ७४ लाख – सुपर्णकुमार वेणू ३८ लाख वेणूधारी ३४ लाख ७२ लाख – द्विपकुमार पूर्ण ४० लाख वशिष्ठ ३६ लाख ७६ लाख – उदधिकुमार जलप्रभ ४० लाख जलकांत ३६ लाख ७६ लाख – स्तनितकुमार घोष ४० लाख महाघोष ३६ लाख ७६ लाख – विद्युत्कुमार हरिषेण ४० लाख हरिकांत ३६ लाख ७६ लाख – दिक्कुमार अमितगती ४० लाख अमितवाहन ३६ लाख ७६ लाख – अग्निकुमार अग्निशिखी ४० लाख अग्निवाहन ३६ लाख ७६ लाख – वायुकुमार वेलंब ५० लाख प्रभंजन ४६ लाख ९६ लाख “} इसप्रकार दक्षिणेंद्र के ४ करोड ६ लाख भवन और उत्तरेंद्र के ३ करोड ६६ लाख भवन मिलाकर कुल ७ करोड ७२ लाख भवन होते है। भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है?इनके ३ भेद है : * भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी मे स्थित निवास * भवनपुर : द्विप समुद्र के उपर स्थित निवास * आवास : रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के उपर स्थित निवास * नागकुमार आदि देवो मे से किन्ही के तीनों प्रकार के निवास होते है, मगर असुरकुमार देवो के सिर्फ भवनरुप ही निवास स्थान होते है। * इनमे से अल्पऋद्धि, महाऋद्धि और मध्यमऋद्धि के धारक भवनवासियों के भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के निचे दो हजार, ४२ हजार और १ लाख योजन पर्यन्त जाक्र है।भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है?* ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान है। * इनकी ऊंचाइ ३०० योजन और विस्तार संख्यात और असंख्यात होता है। * संख्यात विस्तार वाले भवनों मे संख्यात देव और असंख्यात विस्तार वाले भवनों मे असंख्यात देव रहते है।भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है?* भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के चारो तरफ नाना प्रकार के रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनावासी देवो के महल है. * ये महल सात, आठ, नौ, दस इत्यादि अनेक तलों वाले है. * यह भवन रत्नामालाओं से भूषीत, चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित, जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला आदि से रमणीय है. * इनमे मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले सामान्यगृह, कदलिगृह, गर्भगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृह विशेष भी है. * यह भवन सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त, विशाल छज्जों से शोभित, फहराती हुइ ध्वजाओं, पुष्करिणी, वापी, कूप, क्रीडन युक्त मत्तावारणो, मनोहर गवाक्ष और कपाटों सहित अनादिनिधन है. * इन भवनों के चारो पार्श्वभागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तम रत्नों से निर्मित दिव्या शय्याये स्थित है.भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है?* भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के उपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित जिनमंदिर है। * यह मंदिर ४ गोपुर, ३ मणिमय प्राकार, वन ध्वजाये, एवं मालाओं से संयुक्त है।भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है?* भवनवासी देवो के जिनमंदिरों के चारो ओर नाना चैत्यवृक्षो सहित पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन, आम्र वन स्थित है। * प्रत्येक चैत्यवृक्ष का अवगाढ-जड़ १ कोस, स्कंध की ऊँचाइ १ योजन, और शाखाओं की लंबाइ ४ योजन प्रमाण है।भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है?* असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यावृक्ष होते है। * पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश, और राजदृम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलो के चिन्ह रूप है। * ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नो की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत, और उत्कृष्ठ मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त है। * यह अतिशय शोभा को प्राप्त, विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, है। * ये वृक्ष नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के उपर से संयुक्त, घंटा ध्वजा से रमणीय, आदि अंत से रहित पृथ्वीकायिक स्वरुप है।भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है?* भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा मे पद्मासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाये विराजमान होती है। * उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मानस्तंभ है। * एक एक मानस्तंभ के ऊपर चारो दिशाओ में सिंहासन की शोभा से युक्त जिन प्रतिमाये है। * ये प्रतिमाये देवो से पूजनीय, चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नो से निर्मित होती है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है?* इन जिनालयों मे चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट है। * प्रत्येक वीथी मे एक एक मानस्थंभ व वन है। * स्तूप तथा कोटो के अंतराल मे क्रम से वनभूमि, ध्वजभुमि,और चैत्यभुमि ऐसे तीन भुमियाँ है। * इन जिनालयो मे चारों वनों के मध्य मे स्थित तीन मेखलाओ से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीन पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है?* इन ध्वजभुमियों मे सिंह, गज, वृषभ, गरुड, मयुर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म, चक्र इन चिन्होंसे अंकित ध्वजायें होती है। * उपरोक्त प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें होती है और इन एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ लघु (क्षुद्र) ध्वजायें भी होती है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है?* इस जिन मंदिरों मे वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप होते है। * इसके अलावा क्रीड़गृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालायें भी होती है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है?* इन मंदिरोँ मे देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्ह और सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते है। * झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों मे से वहाँ प्रत्येक १०८ – १०८ होते है। * इनमे चमकते हुए रत्नदीपक और ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक होते है। * यहाँ गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप कि गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पतह के शब्द नित्य गुंजायमान होते है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है?* हांथ मे चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य, ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान है। * प्रत्येक जिनभवन मे १०८ – १०८ प्रतिमायें विराजमान है। * ऐसे अनादिनिधन जिनभवन ७ करोड ७२ लाख है, जो की भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण है।भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है?जो देव सम्यगदर्शन से युक्त है, वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिनेंद्र भगवान कि पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यगदृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेंद्र प्रतिमाओं की बहुत प्रकार से पूजा करते रहते है।भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?* भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है. भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?* भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिंद्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है. भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है?भवनवासी प्रतिंद्रो की संख्या उनके इंद्रो के समान – बीस होती है. (हर जाती के २ इंद्र और २ प्रतिंद्र होते है)भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है?प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के ३३ ही त्रायस्त्रिंश होते है. भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है?* चमरेन्द्र के ६४,०००, वैरोचन के ६०,००० और भूतानंद के ५६,००० सामानिक देव है. * शेष १७ इंद्रो के पचास – पचास हजार सामानिक देव है. * इसप्रकार भवनवासी सामानिक देवों का कुल प्रमाण १० लाख ३० हजार है. * ६४००० + ६०००० + ५६००० + (१७ × ५०,०००) = १०,३०,००० भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है?* चमरेन्द्र के २ लाख ५६ हजार , वैरोचन के २ लाख ४० हजार और भूतानंद के २ लाख २४ हजार आत्मरक्षक देव है. * शेष १७ इंद्रो के दो – दो लाख आत्मरक्षक देव है. * इसप्रकार भवनवासी आत्मरक्षक देवों का कुल प्रमाण ४१ लाख २० हजार है. * २,५६,००० + २,४०,००० + २,२४,००० + (१७ × २,००,०००) = ४१,२०,००० भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?* चमरेन्द्र के २८ हजार , वैरोचन के २६ हजार और भूतानंद के ६ हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के चार – चार हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी आभ्यंतर पारिषद देवों का कुल प्रमाण १ लाख २८ हजार है. * २८,००० + २६,००० + ६,००० + (१७ × ४,०००) = १,२८,००० भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?* चमरेन्द्र के ३० हजार , वैरोचन के २८ हजार और भूतानंद के ८ हजार मध्यम पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के छ – छ हजार मध्यम पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी मध्यम परिषद, जिसका नाम “चंद्रा“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण १ लाख ६८ हजार है. * ३०,००० + २८,००० + ८,००० + (१७ × ६,०००) = १,६८,००० भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?* चमरेन्द्र के ३२ हजार , वैरोचन के ३० हजार और भूतानंद के १० हजार बाह्य पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के आठ – आठ हजार बाह्य पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी बाह्य परिषद, जिसका नाम “समिता“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण २ लाख ८ हजार है. * ३२,००० + ३०,००० + १०,००० + (१७ × ८,०००) = २,०८,००० भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है?* प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के सात – सात अनीक होती है. * इन सातो में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है * उनमे से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवो के बराबर होता है, इसके आगे उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूना दूना होता जाता है * असुरकुमार जाती में महिष, घोडा, हाथी, रथ, पादचारी, गंधर्व और नर्तकी ये सात अनीक होती है, इनमे से प्रथम ६ अनीको में देव प्रधान होते है तथा आखिरी अनीक में देवी प्रधान होती है * शेष नागकुमार आदि जातियों में सिर्फ प्रथम अनीक अलग है और आगे की ६ अनीक असुरकुमारो जैसी ही है * नागाकुमारो में प्रथम अनीक – नाग, सुपर्णकुमारो में गरुड़, द्वीपकुमारो में गजेन्द्र, उदधिकुमारो में मगर, स्तनितकुमारो में ऊँट, विद्युतकुमारो में गेंडा, दिक्कुमारो में सिंह, अग्निकुमारो में शिविका और वायुकुमारो में अश्व ये प्रथम अनीक है. * चमरेन्द्र के ८१ लाख, २८ हजार इतनी प्रथम अनीक की महिषसेना है. तथा उतनी ही सेना बाकी अनीको की होती है. (७ × ८१,२८,०००) = ५,६८,९६,००० * वैरोचन के ७६ लाख, २० हजार इतनी महिषसेना है तथा शेष इतनी ही है. (७ × ७६,२०,०००) = ५,३३,४०,००० * भूतानंद के ७१ लाख, १२ हजार इतनी प्रथम नागसेना है तथा शेष घोडा आदि भी इतनी ही है. (७ × ७१,१२,०००) = ४,९७,८४,००० * शेष १७ भवनवासी इंद्रो की प्रथम अनीक का प्रमाण ६३ लाख, ५० हजार और कुल ७ अनीको का प्रमाण ४,४४,५०,००० हैभवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है?भवनवासियों के सभी २० इन्द्रोके, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक इन शेष देवों का प्रमाण का उपदेश काल के वश से उपलब्ध नहीं है.भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है?* चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकांता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इन महादेवीयों में प्रत्येक के ८००० परिवार देवीयाँ है. इस प्रकार “परिवार देवियाँ” ४०,००० प्रमाण है. ये महादेवीयाँ विक्रिया से अपने आठ – आठ हजार रूप बना सकती है. चमरेंद्र के १६,००० वल्लभा देवियाँ भी है. इन्हें मिलाने से चमरेंद्र की कुल ५६ हजार देवियाँ होती है * द्वितीय – वैरोचन इंद्र के पदमा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इनकी विक्रिया, परिवार देवी, वल्लभा देवी आदि का प्रमाण चमरेन्द्र के समान होने से इस इंद्र की भी कुल ५६ हजार देवियाँ होती है. * इसीप्रकार भूतानंद और धरणानंद के पचास – पचास हजार देवियाँ है. * वेणुदेव, वेणुधारी इंद्रों के ४४ हजार देवियाँ है और शेष इंद्रों के ३२ – ३२ हजार प्रमाण है. * इन इंद्रों की पारिषद आदि देवों की देवांगनाओ का प्रमाण तिलोयपन्नत्ति से जान लेना चाहिए. * सबसे निकृष्ठ देवों की भी ३२ देवियाँ अवश्य होती हैभवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है?* भवनवासी देव तथा देवियों का अति स्निग्ध, अनुपम और अमृतमय आहार होता है. * चमर, और वैरोचन इन दो इंद्रो का १००० वर्ष के बाद आहार होता है. * इसके आगे भूतानंद आदि ६ इंद्रो का साढ़े बारा दिनों में, जलप्रभ आदि ६ इंद्रो का १२ दिनो में, और अमितगती आदि ६ इंद्रो का साढ़े सात दिनों में आहार ग्रहण होता है. * दस हजार वर्ष वाली जघन्य आयु वाले देवो का आहार दो दिन में तो पल्योपम की आयु वालो का पाँच दिन में भोजन का अवसर आता है. * इन देवो के मन में भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ से अमृत झरता है और तृप्ति हो जाती है. इसे ही मानसिक आहार कहते है.भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है?* चमर, और वैरोचन इंद्र १५ दिन में, भूतानंद आदि ६ इंद्र साढ़े बार मुहुर्त में, जलप्रभ आदि ६ इंद्र साढ़े छ मुहुर्त में, उच्छवास लेते है. * दस हजार वर्ष वाली आयु वाले देव ७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद, और पल्योपम की आयु वाले पाँच मुहुर्त के बाद उच्छवास लेते हैभवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है?* असुरकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार का वर्ण काला होता है * नागकुमार, उधदिकुमार, स्तानितकुमार का वर्ण अधिक काला होता है * विद्युतकुमार का वर्ण बिजली के सदृश्य, अग्निकुमार का अग्नि की कांती के समान, एवं वायुकुमार का नीलकमल के सदृश्य होता हैभवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है?* भवनवासी इंद्र भक्ति से पंचकल्याणको के निमित्त ढाई द्वीप में, जिनेन्द्र भगवान के पूजन के निमित्त से नन्दीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में, शील आदी से संयुक्त किन्ही मुनिवर की पूजन या परीक्षा के निमित्तसे तथा क्रीडा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते जाते रहते है. * ये देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते है तथा अन्य देवो की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते है.भवनवासी देव – देवियों का शरीर कैसा होता है?* इनके शरीर निर्मल कांतीयुक्त, सुगंधीत उच्छवास से सहित, अनुपम रूप वाले, तथा समचतुरस्त्र सस्न्थान से युक्त होते है. * इन देव-देवियों को रोग, वृद्धत्व नहीं होते बल्कि इनका अनुपम बल और वीर्य होता है. * इनके शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातु नहीं है.भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है?* ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त है. अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते है. * ये इंद्र और प्रतिन्द्र विविध प्रकार के छत्र आदि विभूतियों को धारण करते है. * चमर इंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता है. वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से, वेणुधारी धरणानंद से, ईर्ष्या करते है. * नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलाते रहते हैभवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ?* प्रतिन्द्र आदि देवो के सिंहासन, छत्र, चमर अपने अपने इंद्रो की अपेक्षा छोटे रहते है. * सामानिक और त्रायस्त्रिंश देवो में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने अपने इंद्रो की समान है. * इंद्र उन सामानिक देवो की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरो से अधिक वैभव युक्त होते है.भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ?* चमर, वैरोचन : १ सागरोपम * भूतानंद, धरणानंद : ३ पल्योपम * वेणु, वेणुधारी : २ १/२ पल्योपम * पूर्ण, वसिष्ठ : २ पल्योपम * जलप्रभ आदि शेष १२ इंद्र : १ पल्योपमभवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ?* चमरेंद्र की देवियाँ : २ १/२ पल्योपम * वैरोचन की देवियाँ : ३ पल्योपम * भूतानंद की देवियाँ : १/८ पल्योपम * धरणानंद की देवियाँ:कूछ आधिक १/८ पल्योपम * वेणु की देवियाँ:३ पूर्व कोटि * वेणुधारी की देवियाँ:कूछ आधिक ३ पूर्व कोटि * अवशिष्ठ दक्षिण इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु ३ करोड़ वर्ष और उत्तर इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु कुछ आधिक ३ करोड़ वर्ष है. * असुर आदि १० प्रकार के देवो में निकृष्ट देवो की जघन्य आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष मात्र है.भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ?* असुरकुमारों के शरीर की ऊंचाई : २५ धनुष्य * शेष देवों के शरीर की ऊंचाई : १० धनुष्य * यह ऊंचाई का प्रमाण मूल शरीर का है. * विक्रिया से निर्मित शरीरो की ऊंचाई अनेक प्रकार की है.भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ?* अपने अपने भवन में स्थित देवो का अवधिज्ञान उर्ध्व दिशा में उत्र्कुष्ठ रूप से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है, तथा अपने भवनों के निचे, थोड़े थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है. * वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है. * असुरादी देव अनेक रूपों की विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते हैभवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ?निम्नलिखित आचरण से भवनवासी योनी में जन्म होता है. * शंकादी दोषों से युक्त होना * क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र धारण करना * कलहप्रिय, अविनयी, जिनसुत्र से बहिर्भुत होना. * तीर्थंकर और संघ की आसादना (निंदा) करना कुमार्ग एवं कुतप करने वाले तापसी भवनवासी योनी में जन्म लेते है. भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ?* सम्यक्त्व सहित मरण कर के कोई जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नहीं होता. * कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्त्व को प्राप्त करा लेते है. भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ?* ये जीव कर्म भूमि में मनुष्य गती अथवा तिर्यंच गति को प्राप्त कर सकते है, किन्तु शलाका पुरुष नहीं हो सकते है. * यदि मिथ्यात्व से सहित संक्लेश परिणाम से मरण किया तो एकेंद्रिय पर्याय में जन्म लेते है भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ?* भवनवासी भवनों में उत्तम, कोमल उपपाद शाला में उपपाद शय्या पर देवगति नाम कर्म के कारण जीव जन्म लेता है * उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियो को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते है * इन देवो के वैक्रियिक शरीर होने से इनको कोई रोग आदि नहीं होते है * देव भवनों में जन्म लेते ही, बंद किवाड़ खुल जाते है और आनंद भेरी का शब्द (नाद) होने लगता है * इस भेरी को सुनकर, परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जयकार करते हुए आते है * जय, घंटा, पटह, आदि वाद्य, संगीत नाट्य आदि से चतुर मागध देव मंगल गीत गाते है * इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो कर सोचता है की तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट होता है * यहाँ अवधि विभंगावधि होती है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर सुअवधि कहलाती है * ये देवगण पूर्व पुण्य का चिंतवन करते हुए यह सोचते है की मैंने सम्यक्त्व शुन्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनी पायी है. * इसके पश्चात अभिषेक योग्य द्रव्य लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है (सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय का कारण मानकर देव पूजा करते है तो मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से कुल देवता मानकर पूजा करते है.) * पूजा के पश्चात अपने अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते है. भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ?* ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित, स्वभाव से प्रसन्न मुख वाली देवियों के साथ क्रीडा करते है * ये देव स्पर्श, रस, रूप और शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं करते है * द्वीप, कुलाचल, भोग भूमि नंदनवन आदि उतम स्थानों में ये देव क्रीडा करते है