अथ तत्रत्यदेवानामैश्वर्यमाह- अट्ठगुणिड्ढिविसिट्ठा णाणामणिभूसणेहि दित्तंगा।
भुंजंति भोगमिट्ठं सगपुव्वतवेण तत्थ सुरा१।।२१९।।
अष्टगुणर्धिविशिष्टा: नानामणिभूषणै: दीप्ताङ्गा:।
भुञ्जते भोगमिष्टं स्वकपूर्वतपसा तत्र सुरा:।।२१९।। अट्ठ । छायामात्रमेवार्थ:।।२१९।।
तेषां भवनानां भूगृहोपमानानां व्यासादिकमाह – जोयणसंखासंखाकोडी तव्वित्थडं तु चउरस्सा।
तिसयं बहलं मज्झं पडि सयतुंगेक्ककूडं च।।२२०।।
योजनसंख्यासंख्यकोट्य: तद्विस्तारस्तु चतुरस्रा:।’
त्रिशतं बाहल्यं मध्यं प्रति शततुङ्गैकवूक़टश्च।।२२०।।
जोयण। जघन्येन योजनानां संख्यातकोट्य: उत्कर्षेण असंख्यातकोट्य: तद्विस्तारस्तु चतुरस्रा: त्रिशतयोजनबाहल्यं।
तत्र प्रतिमध्यं शततुङ्गैकवूक़टस्तदुपरि चैत्यालयश्च।।२२०।।
गाथार्थ :- नाना प्रकार की मणियों के आभूषणों से दीप्त तथा अष्टगुण ऋद्धियों से विशिष्ट वे भवनवासी देव अपने पूर्व तपश्चरण के फलस्वरूप अनेक प्रकार के इष्ट भोग भोगते हैं।।२१९।।
विशेषार्थ:- जो जीव मनुष्य पर्याय में तपश्चरण कर पुण्य सञ्चय करते हैं और जिनके देवायु का बन्ध हो जाता है तथा जो बाद में सम्यक्त्वादि से च्युत हो जाते हैं, वे जीव अनेक गुण ऋद्धियों से युक्त भवनवासी देव होकर मनोहर इष्ट भोग भोगते हैं।
भूमिगृह की उपमा को धारण करने वाले भवनों का व्यासादि कहते हैं :-
गाथार्थ :- भवनों की लम्बाई-चौड़ाई का जघन्य प्रमाण संख्यात करोड़ योजन और उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात करोड़ योजन है। वे समस्त भवन चौकोर हैं तथा उनका बाहुल्य (ऊँचाई) तीन सौ योजन है। प्रत्येक भवन के बीच में सौ योजन ऊँचा एक-एक पर्वत है और उन पर्वतों के ऊपर चैत्यालय हैं।।२२०।।
विशेषार्थ :- भवनों का जघन्य विस्तार संख्यात करोड़ योजन और उत्कृष्ट विस्तार असंख्यात करोड़ योजन है। उनका आकार चौकोर है। ऊँचाई तीन सौ योजन है। प्रत्येक भवन के ठीक मध्य में सौ योजन ऊँचा एक पर्वत है और प्रत्येक पर्वत पर एक चैत्यालय है।
शंका :- भवनों को भूमिगृह की उपमा क्यों दी गई है ?
समाधान :– जैसे यहाँ मकान में पृथ्वी के नीचे जो कमरा बनाते हैं, उसे तहखाना, तलघरा या भूमिगृह कहते हैं,वैसे ही भवनवासियों के भवन रत्नप्रभा पृथ्वी में चित्रा पृथ्वी के नीचे खरभाग और पज्र्भाग में हैं अत: इन्हें भूमिगृह की उपमा दी गई है।
शंका :- नरक बिल भी इसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी में चित्रादि पृथ्वियों के नीचे अब्बहुल भाग में बने हुए हैं, फिर उन्हें भवन संज्ञा न देकर बिल संज्ञा क्यों दी गई है ?
समाधान :- जिस प्रकार यहाँ सर्पादि पापी जीवों के स्थानों को बिल कहते हैं और पुण्यवान् मनुष्यों के रहने के स्थानों को भूमिगृह आदि कहते हैं उसी प्रकार नि:कृष्ट पाप के फल को भोगने वाले नारकी जीवों के रहने के स्थानों की संज्ञा बिल है और पुण्यवान् देवों के स्थानों की संज्ञा भवन है ।