भवनवासी देवों के स्थान-पहले रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग बताये जा चुके हैं। उसमें से खर भाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं और भवनवासी के असुरकुमार जाति के देवों को छोड़कर नव प्रकार के भवनवासी देवों के स्थान हैं। रत्नप्रभा के पंकभाग नाम के द्वितीय भाग में असुरकुमार जाति के भवनवासी एवं राक्षस जाति के व्यंतरों के आवास स्थान हैं। भवनवासी देवों के भेद-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार। भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण-असुरकुमार के ६४ लाख, नागकुमार के ८४ लाख, सुपर्णकुमार के ७२ लाख, वायुकुमार के ९६ लाख और शेष देवों के ७६-७६ लाख भवन हैं अत: ७७२००००० (सात करोड़ बहत्तर लाख) भवन हैं। जिनमंदिर-इन एक-एक भवनों में एक-एक जिनमंदिर होने से भवनवासी देवों के ७,७२,००००० प्रमाण जिनमंदिर हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को मन, वचन, काय से नमस्कार होवे। भवनवासी देवो के इन्द्र-भवनवासी देवों के १० कुलों में पृथक्-पृथक् दो-दो इन्द्र होते हैं। सब मिलकर २० इन्द्र होते हैंं, जो अपनी विभूति से शोभायमान हैं। इन्द्र के परिवार देव-प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव दस प्रकार हैं। प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्ष, तीन पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक। इनमें से इन्द्र राजा के सदृश, प्रतीन्द्र युवराज के सदृश, त्रायस्त्रिंश देवपुत्र के सदृश, सामानिक देवपत्नी के तुल्य, चारों लोकपाल तंत्रपालों के सदृश और सभी तनुरक्षक देव राजा के अंगरक्षक के समान हैं। राजा की बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समिति के समान देवों में भी तीन प्रकार की परिषद होती हैं।
इन तीनों परिषदों में बैठने वाले देव क्रमश: बाह्य पारिषद, मध्यमपारिषद और आभ्यन्तरपारिषद कहलाते हैं। अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक देव प्रजा के सदृश, आभियोग्य जाति के देव दास के सदृश और किल्विषक देव चाण्डाल के समान होते हैं। इनमें से प्रतीन्द्र इन्द्र के बराबर २० होते हैं। इसलिए भवनवासियों के २० इन्द्र और २० प्रतीन्द्र मिलकर ४० इन्द्र हो जाते हैं। भवनवासियों के निवास स्थान के भेद-इन देवों के निवास स्थान के भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन भेद होते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित निवास स्थानों को भवनपुर और रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादि के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं। इनमें नागकुमार आदि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवासरूप तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैं परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान हैं। इनमें भवनवासियों के भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे दो हजार से एक लाख योजनपर्यन्त जाकर हैं। ये सब भवन समचतुष्कोण, तीन सौ योजन ऊँचे हैं और विस्तार में संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं। जिनमंदिर-प्रत्येक भवन के मध्य में एक सौ योजन ऊँचे एक-एक कूट हैं, इन कूटों के ऊपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वनध्वजाओं एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह शोभित हैं।
प्रत्येक जिनगृह में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, वे कर्र्मक्षय के निमित्त नित्य ही जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते हैं, इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किए गए अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं। देवप्रासाद-जिनमंदिर के चारों तरफ अनेक रचनाओं से युक्त सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनवासी देवों के महल हैं। इन देवों की आयु आदि का वर्णन आगे यंत्र से समझ लेना चाहिए।