(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी की)
क्षुल्लक मोतीसागर जी-वन्दामि माताजी! गणिनी ज्ञानमती माताजी-बोधिलाभोऽस्तु! मोतीसागर-माताजी! मैं आपसे ‘‘नागकुमार’’ देव के विषय में जानकारी चाहता हूँ सो आप बतलानें की कृपा करें।
गणिनी ज्ञानमती माताजी-ठीक, सुनिये! भवनवासी देवोें के दूसरे भेद में नागकुमार देव माने गये हैं। इनके भवन चौरासी लाख हैं, ये रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में बने हुए हैं।
मोतीसागर–इनमें कितने इन्द्र हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-दो इन्द्र हैं, एक भूतानंद, दूसरे धरणानंद। भूतानंद इन्द्र के चवालीस लाख भवन हैं और धरणानंद इन्द्र के चालीस लाख भवन हैं। इन सबके एक-एक भवनों में एक-एक जिनमंदिर बने हुए हैं और प्रत्येक मंदिर में एक सौ आठ-एक सौ आठ जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। अतः इन सब प्रतिमाओं की संख्या नब्बे करोड़, बहत्तर लाख हो जाती है।
मोतीसागर-नागकुमार के मुकुटों में क्या चिन्ह है ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इनके मुकुटों में सर्प का चिन्ह है।
मोतीसागर–इन नागकुमार देवों के भवन कैसे हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इनके भवन तीन सौ योजन ऊँचे हैं और विस्तार से संख्यात व असंख्यात योजन वाले हैं। इन भवनों की चारों दिशाओं में दिव्य वेदिका हैं। इस वेदी (चारदीवारी ) के बाहर चैत्यवृक्षों से सहित चार वन हैं। क्रम में पूर्व दिशा में अशोक वन है, दक्षिण दिशा में सप्तच्छद, पश्चिम में चंपकवन और उत्तर में आम्रवन है।
ये सब दिव्यवृक्ष पृथ्वीकायिक हैं, रत्नों से निर्मित अनादिनिधन हैं। इनमें रत्नों की शाखायें हैं, जो विचित्र पुष्पों से सुन्दर हैं और मरकतमणि के पत्ते बने हुए हैं। इन वनों में एक-एक चैत्य वृक्ष हैं। इनके मूल में चारों दिशाओं में पद्मासन में स्थित पांच-पांच जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। जो सदा देवों से पूज्य हैं और परोक्ष में मुनियों से भी वंद्य हैं।
मोतीसागर-इन भवनों में जिनमंदिर कहाँ बने हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-उपर्युक्त कथित वेदिका के बिल्कुल बीच में महाकूट बने हुए हैं और वेत्रासन के आकार वाले रत्नों से बने हुये हैं। इन कूटों के मूलभाग में और ऊपर भी चारों तरफ दिव्य वेदियाँ हैं। प्रत्येक महाकूट के ऊपर जिनमंदिरों में चार-चार गोपुर द्वार हैं, तीन-तीन परकोटे हैं और प्रत्येक वीथी (महागली) में एक-एक मानस्तंभ व नौ-नौ स्तूप बने हुए हैंं, प्रत्येक परकोटे के अंतराल में क्रम से वन भूमि (उद्यान) ध्वजभूमि और चैत्यभूमि हैं।
इन जिनमंदिरों के चारों वनों में नंदा आदि वापियां बनी हैं एवं प्रत्येक वन में चैत्यवृक्ष हैं। ध्वज भूमि में सिंह, गज, बैल, गरूड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र इन दश चिन्ह वाली महाध्वजायें रत्नों से बनी हुई लहरा रही हैं। ये महाध्वजायें एक सौ आठ हैं और प्रत्येक महाध्वज के आश्रित लघुध्वजायें एक सौ आठ-एक सौ आठ रहती हैं।
मोतीसागर-जिनमंदिरों में और क्या-क्या वैभव हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-जिनमंदिरों में मंगलघट, धूपघट आदि रखे हुये हैं। मणियों एवं स्वर्ण की मालायें लटक रही हैं। वहाँ के वैभव का वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता है। जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं के आजू-बाजू श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाण्ह यक्ष, सनत्कुमार यक्ष की मूर्तियां बनी हुई हैं।
मोतीसागर-भूतानंद, धरणानंद इंद्रों की इंद्राणियां कितनी हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन दोनों इन्द्रों की पांच-पांच अग्र-प्रधान इन्द्राणियां हैं और दश-दश हजार बल्लभिकायें हैं। प्रत्येक प्रधान इन्द्राणी के आठ-आठ हजार परिवार देवियां हैं और उनके आश्रय में रहने वाली देवियां हैं। प्रत्येक प्रधान इन्द्राणी अपनी विक्रिया से आठ-आठ हजार प्रमाण रूप बना सकती है।
मोतीसागर-इन इंद्रों का मानसिक आहार कब होता है ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-ये दोनों इन्द्र साढ़े बारह दिनों में मानसिक अमृतमयी आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ में अमृत झर जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती ही है।
मोतीसागर-इन देवों का वर्ण आदि कैसा है ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन देवों का वर्ण काला श्यामल है। ये साढ़े बारह मुहूर्तों के बाद उच्छ्वास लेते हैं।
मोतीसागर–इनके परिवारदेव कौन और कितन-कितने हैं?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन देवों के तीन प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक ऐसे दश प्रकार के परिवार देव होते हैं। प्रत्येक इंद्र के एक-एक प्रतीन्द्र और तेंतीस-तेंतीस त्रायस्त्रिंशदेव होते हैं।
भूतानंद इंद्र के सामानिक देव छप्पन हजार और धरणानंद के पचास हजार होते हैं। लोकपाल चार-चार होते हैं। भूतानंद इंद्र के आत्मरक्षदेव २ लाख २४ हजार और धरणानंद के २ लाख हैं। भूतानंद के अभ्यंतर पारिषद देव छह हजार, मध्यम पारिषद देव आठ हजार और बाह्य पारिषद देव दश हजार हैं। धरणानंद के अभ्यंतर पारिषद चार हजार, मध्यम छह हजार और बाह्य आठ हजार देव हैं। अनीक देवों में सात-सात कक्षायें होती हैं। प्रथम कक्षा का प्रमाण सामानिक देवों के समान है।
आगे द्वितीय कक्षा में सातवीं कक्षा तक दूना-दूना होता गया है। नागकुमार के अनीक में प्रथम कक्षा में नाग नाम के देव होते हैं। दूसरे से सातवें अनीक में क्रम से घोड़ा, रथ, हाथी, पदाति, गंधर्व, और नर्तकी रहते हैं। यहां अनीक का अर्थ सेना है। प्रत्येक इंद्रों के ये सभी परिवार देव होते हैं। इनसे अतिरिक्त प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक जाति के देव असंख्यातों होते हैं। आभियोग्य जाति के देव इन्द्रों के वाहन बनते हैं।
मोतीसागर-ये देव कहां-कहां भ्रमण करते हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-ये इंद्र और देवगण तीर्थंकरों के पांचों कल्याणकों में सौधर्म इंद्र की आज्ञा से आते रहते हैं। अकृत्रिम जिनमंदिरों की पूजा के लिये, सुदर्शन मेरू आदि पर्वतों की वंदना के लिये और नंदीश्वरद्वीप में जिनमंदिर की पूजा-वंदना-भक्ति के लिए यहां मध्यलोक में सर्वत्र विचरण करते रहते हैं।
मोतीसागर–इन इंद्रों की ओलगशाला में कौन-सा चैत्यवृक्ष है ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन दोनों इन्द्रों की ओलगशाला के आगे ‘‘सप्तपर्ण ’’ नाम का चैत्यवृक्ष है। ये इनके कुल का चिन्ह माना गया है। इस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों ओर पल्यंकासन से रिक्त पांच-पांच मानस्तंभ हैं। ऐसे बीस मानस्तंभ हो गये। प्रत्येक मानस्तंभ के ऊपर एक-एक दिशा मेें सात-सात ऐसी अट्ठाईस जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।
मोतीसागर-इन दोनोें इन्द्रोें की आयु कितनी हैं ? गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन्द्रों की आयु तीन पल्य प्रमाण है। मोतीसागर-इनके शरीर की ऊँचाई कितनी है ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-इन इंद्रों के शरीर की ऊँचाई दश धनुष अर्थात् चालीस हाथ प्रमाण है। यह मूलशरीर की है, विक्रिया से बने शरीर की ऊँचाई इच्छानुसार अनेक प्रकार है। ये सभी इंद्र व देव-देवियां मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते हैं, विक्रिया के शरीर से ही सर्वत्र गमन करते हैं।
मोतीसागर-वहां जन्म लेने के क्या कारण हैं ?
गणिनी ज्ञानमती माताजी-ये सभी इंद्र व देवगण सम्यक्तव से रहित हुये ही वहाँ जन्में हैं, फिर भी अंतर्मुहूर्त के बाद सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं। अतः वहां पर मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और असंयत सम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान होते हैं। यहां जो कोई मनुष्य गुरू के प्रतिकूल रहकर तपश्चर्या करते हैं या शिथिल चारित्र पालते हैं अथवा अनेक प्रकार के कुतप तपते हैं ऐसे मनुष्य ही इन भवनवासी देवों के नागकुमार जाति में जन्म ले लेते हैं।
कोई-कोई पंचेंंद्रिय तिर्यंच भी बहुत प्रकार के कायक्लेश तपश्चरण आदि से इन देवों में जन्म ले सकते हैं। ये नागकुमार देव सुंदर, मनुष्यों के समान शरीर वाले हैं। इनके नख, केश, रोम आदि नहीं होते हैं। न इनके अकाल मृत्यु ही होती है। ये सर्प के समान या नाग के समान नहीं हैं प्रत्युत् इनके मुकुटों में सर्प का चिन्ह माना गया है।
ये विक्रिया से नाग का शरीर बना लेते हैं जैसे कि धरणानंद (धरणेन्द्र) ने भगवान पार्श्र्वनाथ के उपसर्ग को दूर करने के समय नाग का फणा का छत्र बना लिया था इत्यादि। इनका संक्षिप्त वर्णन मैंने यहां किया है। कुछ पद्यों में इन नागकुमार देवों का वर्णन द्रष्टव्य है-