(गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक मोतीसागर जी की एक वार्ता)
क्षुल्लक मोतीसागर – वंदामि माताजी!
श्री ज्ञानमती माताजी –बोधिलाभोऽस्तु!
क्षुल्लक मोतीसागर –भवनवासी देवों के दस भेदों में से ५ भेदों का विश्लेषण तो आपसे मैं प्राप्त कर चुका हूँ। अब १०वाँ भेद जो ‘‘वायुकुमार’’ नाम का है उसके बारे में मैं आपसे जानना चाहता हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी – वैसे तो भवनवासी लगभग समस्त देवों की व्यवस्था समान है फिर भी जो थोड़ी भिन्नता है वह मैं बताती हूँ।
क्षुल्लक मोतीसागर – क्या ये भी अधोलोक में ही निवास करते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – हाँ, अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में वायुकुमार नाम के असुरकुमार देवों का निवास रहता है।
क्षुल्लक मोतीसागर – वायुकुमार देवों के मुकुटों में क्या चिन्ह होता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके मुकुटों में घोड़े का चिन्ह बना होता है जिससे इनकी पहचान होती है। मैंने तीनलोक विधान में एक दोहा लिखा है-
वायुकुमारन मुकुट में, तुरग चिन्ह द्रुतगामि। इनके जिनगृह को जजूँ, कुसुमांजलि बिखरामि।।
क्षुल्लक मोतीसागर –इनमें भी तो दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र की व्यवस्था होगी?
श्री ज्ञानमती माताजी –हाँ, वायुकुमार देवों में भी एक दक्षिणेन्द्र और एक उत्तरेन्द्र होता है। इनमें से दक्षिणेन्द्र का नाम वेलंब है तथा उत्तरेन्द्र का नाम प्रभंजन है।
क्षुल्लक मोतीसागर –इन वायुकुमार देवों के कुल कितने भवन होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके कुल छ्यानवे लाख भवन होते हैं जिनमें प्रत्येक मंदिरों में १०८/१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं अत: वहाँ की प्रतिमाओं की कुल संख्या एक सौ तीन करोड़ अड़सठ लाख है। इन सबको मन, वचन, काय से नमस्कार करना चाहिए।
क्षुल्लक मोतीसागर – इनके भवनों में जो चैत्यवृक्ष है वह किस चीज का है?
श्री ज्ञानमती माताजी – उनके चैत्यवृक्ष का नाम है-राजद्रुम, इसे चिरौंजी का वृक्ष कहते हैं। चैत्यवृक्ष तो इसे इसलिए कहते हैं कि इस वृक्ष पर चारों दिशाओं में जिनमंदिर बने होते हैं। जिसमें पाँच-पाँच जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – उन प्रतिमाओं की पूजन कौन करता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में वर्णन आता है कि-
अर्थात् जो देव सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से युक्त हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं वे कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही इन जिनप्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करते हैं। तथा मिथ्यादृष्टि देवों के लिए कथन आया है-
इसका अभिप्राय यह है कि अन्य सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र मूर्तियों की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं। यह तो हुई देवों के द्वारा पूजन की बात, इसके अतिरिक्त मनुष्य भी परोक्ष रूप से अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा में भवनवासी देवों के मंदिरों की भी पूजन करते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर –भवनवासियों के कुल कितने मंदिर होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके भवनों की संख्या सात करोड़ बहत्तर लाख है। ये भवन अनादिनिधन होते हैं इन्हें न तो किसी ने बनाया है और न ही कोई नष्ट कर सकता है।
क्षुल्लक मोतीसागर –इन भवनवासी देवों के कितने ज्ञान होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनमें जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं उनके मति, श्रुत, अवधि ये तीन सम्यग्ज्ञान होते हैं एवं जो मिथ्यादृष्टि हैं उनके कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन कुज्ञान (मिथ्याज्ञान) होते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – पूज्य माताजी! इन देवों में गुणस्थान व्यवस्था होती है?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनमें अपनी-अपनी योग्यतानुसार प्रारंभ के ४ गुणस्थान (मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि) होते हैं। मिथ्यादृष्टि देवों के तो एक प्रथम गुणस्थान ही होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में इनके मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं एवं पर्याप्त अवस्था में चारों ही हो सकते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – किन कर्मों के कारण जीव इन भवनवासियों में जन्म लेते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी –ज्ञान और चारित्र के विषय में जिन्होंने शंका को दूर नहीं किया है, जो क्लिष्ट भाव से युक्त हैं, कलहप्रिय और पापिष्ठ जीव ही इन भवनवासी देवों में जन्म धारण करते हैं परन्तु विशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव इन देवों में कदापि जन्म नहीं लेते हैं। भवनवासी देवों के वायुकुमार जाति के देवों के जिनालय की यह वंदना भी पठनीय है
–शंभु छंद-
जय जय जय वायुकुमारों के जिनमंदिर शाश्वत रत्नमयी। जय जय जय जिनवर प्रतिमाएं देदीप्यमान मणिरत्नमयी।। जय जय जय चैत्यवृक्ष मनहर ये पृथ्वीकायिक रत्नमयी। जय जय जय मानस्तंभ सकल जिनप्रतिमा संयुत रत्नमयी।।१।।
सुरभवनवासि दश भेदों में प्रत्येक में दो-दो इन्द्र कहे। दो-दो ही उनमें हैं प्रतीन्द्र सब मिल ये चालिस इन्द्र भये।। नर नानाविध तप तप करके इन इन्द्र विभव को पाते हैं। उपपाद सुशय्या से जन्में नवयौवन तनु पा जाते हैं।।२।।
अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही अवधी विभंग पा लेते हैं। निज पुण्य उदय सुर विभव देख मंगल सुवस्त्र धर लेते हैं।। फिर जिनमंदिर में जा करके कुलदेव मान पूजा करते। कोई-कोई जातिस्मृति से तत्क्षण सम्यक्त्व निधी लभते।।३।।
कोई सुरदेव ऋद्धि लखकर कोई जिनमहिमा को लखके। कोई धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व रत्न धारण करते।। ये सम्यग्दृष्टी अतिशायी जिनभक्ति वंदना करते हैं। मिथ्यादृष्टी कुलदेव मान जिननाथ अर्चना करते हैं।।४।।
ये पुण्य संपदा संचित कर च्युत हो मानव तन पाते हैं। फिर मुनि हो घोर तपस्या कर शिवरमाकान्त हो जाते हैं।। नासाग्रदृष्टि जिनप्रतिमाएं पद्मासन सहित विराजे हैं। जो इनके दर्शन कर लेते वे आतमज्योति प्रकाशे हैं।।५।।
ये धन्य-धन्य जिनवर प्रतिमा स्वयमेव अचेतन होती हैं। जो चेतन भक्ति करें इनकी उनको मनवांछित देती हैं।। मैं नितप्रति वंदन भक्ति करूँ पूजन अर्चन स्तवन करूँ।
निज ज्ञानमती लक्ष्मी पाकर निज में ही सुख आनंद भरूँ।।६।।
-दोहा-
धन्य धन्य यह शुभ घड़ी, जिन भक्ती की आज। धन संपति संतति बढ़े, मिले मोक्ष साम्राज।।
क्षुल्लक मोतीसागर– भवनवासी के दशों भेदों की आपसे जानकारी प्राप्त करके काफी ज्ञान प्राप्त हुआ है। आपके श्रीचरणों में नमन करते हुए मैं इस लेखनी को यहीं विराम देता हूँ।