(गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक मोतीसागर जी की एक वार्ता)
क्षुल्लक मोतीसागर –पूज्य माताजी वंदामि!
श्री ज्ञानमती माताजी – बोधिलाभोऽस्तु!
क्षुल्लक मोतीसागर – माताजी! मैं आपसे भवनवासी देवों का तीसरा भेद ‘‘सुपर्णकुमार’’ देव के विषय में जानकारी चाहता हूँ सो आप बतलाने की कृपा करें।
श्री ज्ञानमती माताजी – ठीक है, बोलो! क्या जानकारी चाहते हो?
क्षुल्लक मोतीसागर – मेरा सबसे पहला प्रश्न है कि सुपर्णकुमार देवों के कितने भवन हैं और ये रहते कहाँ हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख भवन बने हुए हैं। जिनमें वे सपरिवार निवास करते हैं तथा अपनी इच्छानुसार यत्र-तत्र एवं भगवान के पंचकल्याणकों में भाग लेने हेतु विचरण भी करते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – भवनवासी देवों में अनेक प्रकार के देव हैं फिर उन सबकी पहचान वैâसे होती है कि ये असुरकुमार हैं या नागकुमार या सुपर्णकुमार हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके मुकुटों में अलग-अलग चिन्ह बने होते हैं जिनके द्वारा इनकी पहचान की जाती है। पहले भी मैंने बताया था कि असुरकुमार देवों के मुकुटों में चूड़ामणि, नागकुमार देवों के मुकुटों में सर्प चिन्ह रहता है इसी प्रकार सुपर्णकुमार देवों के मुकुटों में ‘‘गरुड़’’ पक्षी का चिन्ह बना रहता है। यह इनकी खास पहचान है।
क्षुल्लक मोतीसागर – इनमें इन्द्र कितने हैं और उनके नाम क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी – सभी देवों की भांति इनके भी दो इन्द्र हैं जिनके नाम हैं-वेणु और वेणुधारी।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन इन्द्रों के और भी भेद हैं क्या?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के भेद से ये दो भागों में विभक्त हैं। जिसमें से ‘‘वेणु’’ इन्द्र दक्षिणेन्द्र कहलाते हैं और ‘‘वेणुधारी’’ इन्द्र उत्तरेन्द्र कहलाते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन इन्द्रों में क्या विशेषता रहती है?
श्री ज्ञानमती माताजी- ये इन्द्र अणिमादिक ऋद्धियों से युक्त और मणिमय कुण्डलों से अलंकृत कपोलों को धारण करने वाले होते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन दोनों इन्द्रों के कितने-कितने भवन हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी –‘‘वेणु’’ इन्द्र के अड़तीस लाख भवन हैं तथा वेणुधारी के चौंतीस लाख भवन हैं। इन सब भवनों में एक-एक जिनमंदिर बने हुए हैं और प्रत्येक मंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन भवनवासी देवों के गुणस्थान कौन-कौन से होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-भवनवासी सभी देवों के अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं तथा पर्याप्त अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान होते हैं। अपने-अपने परिणामों के अनुसार वे देव यथायोग्य इन चारों गुणस्थानों में से किसी को भी प्राप्त कर सकते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन देवों के शरीर का वर्ण कैसा है?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके शरीर का ‘श्याम’ वर्ण है फिर भी शरीर की चमक-दमक अनोखी ही रहती है।
क्षुल्लक मोतीसागर – सुपर्णकुमार देवों के भवनों में जिनप्रतिमाएं कितनी हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनके बहत्तर लाख भवनों में प्रत्येक मंदिरों की १०८-१०८ प्रतिमाओं को मिलाकर सम्पूर्ण जिनप्रतिमाओं की संख्या ‘‘सत्तर करोड़ छियत्तर लाख’’ है। मैंने सर्वतोभद्र विधान में ‘‘सुपर्णकुमार जिनालय पूजा’’ के अन्तर्गत दो अर्घ्यो में इनके भवनों एवं प्रतिमाओं की संख्या दी है
– दोहा-
देव सुपर्णकुमार के, भवन बहत्तर लाख।
तिन सबके जिनभवन को, जजूँ छोड़ जुगहाथ।।१।।
कोटि सतत्तर पुनरपी, लाख छियत्तर मान।
जिनप्रतिमा इन भवन में, नमत मिले निजस्थान।।२।।
क्षुल्लक मोतीसागर- पूज्य माताजी! आपने इसी पूजन में आगे लिखा है कि उन देव भवनों में ‘‘ओलगशाला’’ होती है सो यह ‘‘ओलगशाला’’ क्या चीज है?
श्री ज्ञानमती माताजी-वहाँ भवनों में एक स्थान विशेष का नाम तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में ओलगशाला बताया है। उन ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। उन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन बीसों जिनप्रतिमाओं के आगे १-१ मानस्तंभ बने हुए हैं उनमें बीस प्रतिमाएँ हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर-वास्तव में आपने इस पूजन में संगीत के साथ-साथ सारा सिद्धांत ही समाविष्ट कर दिया है। देखो न पूर्णाघ्य में चैत्यवृक्ष एवं मानस्तंभ के जिनबिंबों की संख्या बताते हुए अर्घ्य चढ़ाया है-
-रोला छंद-
चैत्यवृक्ष के बीस, जिनबिम्बों को पूजँ।
मानस्तंभ सुबीस, जजत जगत से छूटूँ।।
चउदिशि मानस्तंभ, सात सात जिनप्रतिमा।
जजूँ पाँच सौ साठ, जिनप्रतिमा अतिसुषमा।।
श्री ज्ञानमती माताजी – यह सारा वर्णन मैंने सर्वतोभद्र एवं तीन लोक विधान में तिलोयपण्णत्ति गंरथ के आधार से ही लिखा है।
क्षुल्लक मोतीसागर – इनके परिवारदेव कौन-कौन और कितने हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- इन सुपर्णकुमार देव के दोनों भेदों में (वेणु एवं वेणुधारी) दश प्रकार के परिवार देव होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक। इनमें जो प्रतीन्द्र हैं वे इन्द्र के समान ही अधिकारी एवं वैभवशाली होते हैं। (इन सभी की संख्या तिलोयपण्णत्ति से देखें।)
क्षुल्लक मोतीसागर – इन दोनों इन्द्रों की आयु कितनी हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इनकी आयु ढाई पल्य है।
क्षुल्लक मोतीसागर – अभी आप ओलगशाला और चैत्यवृक्ष की बात बता रही थीं तो सुपर्णकुमार देवभवन के ओलगशाला के चैत्यवृक्ष का क्या नाम है?
श्री ज्ञानमती माताजी – उस चैत्यवृक्ष का ‘‘शाल्मलि वृक्ष’’ नाम है।
क्षुल्लक मोतीसागर – उन वेणु एवं वेणुधारी इन्द्रों के इन्द्राणियाँ कितनी हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इन दोनों इन्द्रों की चार-चार हजार बल्लभिकाएँ हैं एवं पाँच-पाँच अग्रदेवियाँ (प्रधान इन्द्राणी) हैं। प्रत्येक प्रधान इन्द्राणी के पास आठ-आठ हजार परिवार देवियाँ हैं अत: ये ८०००²५·४०००० (चालीस हजार) परिवार देवियाँ प्रधान इन्द्राणियों की हुई और प्रत्येक प्रधान इन्द्राणी विक्रिया से आठ हजार रूप बनाती हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन इन्द्रों का मानसिक आहार कब होता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – साढ़े बारह दिनों में इनका मानसिक आहार होता है, जिससे इच्छा होते ही कंठ में अमृत झर जाता है और ये तृप्त हो जाते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – ये इन्द्र स्वासोच्छ्वास कब-कब लेते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – साढ़े बारह मुहूर्त अर्थात् दस घंटे बाद ये उच्छ्वास लेते हैं।
क्षुल्लक मोतीसागर – इन भवनवासी देवों में किन कारणों से जीव जन्म लेता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य और तिर्यंच ही यहाँ जन्म धारण करते हैं पुन: वहाँ जन्म लेने के अन्तमुहूर्त बाद उनमें सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। ये देव आकार में मनुष्यों के समान ही होते हैं। इनके नख, केश, रोम आदि नहीं होते हुए भी दिव्य, सुन्दर रहते हैं।
कुछ पद्यों में मैंने सुपर्णकुमार देवों का वर्णन किया है वह समायोचित द्रष्टव्य है-
सुपर्णकुमार गृह जिनालय वंदना
-दोहा-
सुपर्ण देवों के भवन, लाख बहत्तर मान्य।
उनके जिनगृह नमत ही, हो नवनिधि धनधान्य।।१।।
-भुजंगप्रयात छंद-
जयो देवदेवा जयो जैनधामा। जयो जैनप्रतिमा जयो चैत्यधामा।
जयो शाश्वते रत्नमणि निर्मिते ये। महामुक्ति लक्ष्मी स्वयंवर गृहा ये।।२।।
सुपर्णा सुरा पूजते भक्तिभावे। उन्हीं की रमा वाद्य वीणा बजावें।
प्रभू गीत गावें सुपंचम स्वरों में। करें देवियाँ नृत्य जिनवर गृहों में।।३।।
गरुड़ चिन्ह है, मौलि में इन सुरों के। तनू वर्ण श्यामल तथापी चमकते।।
उँचाई धनुष दश धरें मूल तनु में। अनेकों धरें रूप विक्रिय करें वे।।४।।
दशों विध परीवार सुर हैं असंख्ये। सदा पुण्य का फल लहें सौख्य संख्ये।।
सदा पंचकल्याण में आवते हैं। महाद्वीप नंदीश्वरे जावते हैं।।५।।
स्वयं के अकृत्रिम जिनालय जिनों को। नमें भक्ति से रत्न सम्यक्त्व लें वो।
अनंते भवों के सभी पाप नाशें। प्रभू की कृपा से स्वयं को विकासें।।६।।
जजूँ भक्ति से मैं सदा जैनगेहा। मिले आत्मसंपत् धरूँ आप नेहा।।
सभी दु:ख हों क्षीण सुगती गमन हो। प्रभो! ‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ण हो शिव सुगम हो।।७।।
-दोहा-
जिनप्रतिमा चिन्तामणि, चिंतित फल दातार।
त्रिभुवन के सुख देय के, वरें मुक्ति भरतार।।८।।