जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र भविष्यत्कालीन तीर्थंकर स्तोत्र
गीता छंद
इस भरत क्षेत्र विषे जिनेश्वर भविष्यत में होएंगे।
उनके निकट में भव्य अगणित कर्मपंकिल धोएंगे।।
चौबीस तीर्थंकर सतत वे विश्व में मंगल करें।
मैं भक्ति से वंदन करूँ मुझ सर्वसंकट परिहरें।।१।।
‘श्री महापद्म’ जिनेन्द्र के, पदपद्म को जो वंदते।
जगद्वंद फद निमूल कर, वे सर्व दुख को खंडते।।
भावी जिनेश्वरदेव को मैं, भक्ति से वंदन करूँ।
नवलब्धिसिद्धीहेतु प्रभु की, चित्त में श्रद्धा धरूँ।।१।।
‘सुरदेव’ तीर्थंकर सभी के, पापमल को धोवते।
जो नित्य ही उनको जपें, वे सर्व व्याधी खोवते।।भावी..।।२।।
जिनवर ‘सुपाश्र्व’ अपूर्व भास्कर, हृदय का तम नाशते।
उनके अलौकिक ज्ञान में, तीनों भुवन ही भासते।।भावी..।।३।।
श्रीमत् ‘स्वयंप्रभ’ देव अक्षय, अतुल निधि के नाथ हैं।
जो भक्ति से आराधते, वे सत्यमेव सनाथ हैं।।भावी..।।४।।
‘सर्वात्मभूत’ जिनेन्द्र के, पदकमल की आराधना।
गणधर मुनीश्वर नित करें, बस स्वात्महेतू साधना।।भावी..।।५।।
श्री ‘देवपुत्र’ जिनेन्द्र भावी, को सभी जन वंदते।
जो ध्यान में धारें उन्हीं के, कर्मशत्रू खंडते।।भावी..।।६।।
तीर्थेश श्री ‘कुलपुत्र’ त्रिभुवन, के शिखामणि होएंगे।
जो भव्य नित आराधते, वे सर्वसंकट खोएंगे।।भावी..।।७।।
जिनवर ‘उदंक’ अनंत गुण मणि, रत्न भूषित होएंगे।
भवि के अनंतानंत दु:खों, को तुरत ही धोएंगे।।
भावी जिनेश्वरदेव को मैं, भक्ति से वंदन करूँ।
नवलब्धिसिद्धीहेतु प्रभु की, चित्त में श्रद्धा धरूँ।।८।।
श्रीमान ‘प्रौष्ठिल’ तीर्थभर्ता, धर्म के कर्ता कहे।
उनके चरण को नित नमे, यमराज दुखहर्ता भये।।भावी..।।९।।
‘जयकीर्ति’ की जय बोलिये, सब कर्म ढीले होएंगे।
जो नाम जिनवर का न लें, चिरकाल दु:ख सोएंगे।।भावी..।।१०।।
जिनदेव ‘मुनिसुव्रत’ तुम्हारी, भक्ति चिंतामणि कही।
जो मांगते हैं भक्तजन, तत्काल फल देती वही।।भावी..।।११।।
‘अरनाथ’ तीर्थंकर तुम्हें, वंदन करें शतइंद्र भी।
किन्नर मधुर ध्वनि से सदा, गुणगान उच्चरते सभी।।भावी..।।१२।।
‘निष्पापजिन’ निज भक्त को, निष्पाप कर देते अभी।
होंगे यदपि ये भविष में, पर दु:ख सब हरते अभी।।भावी..।।१३।।
बस ये कषाएँ ही जगत में, सर्व को दु:ख दे रहीं।
जो ‘निष्कषाय’ जिनेन्द्र हैं, वे धन्य हैं जग में सही।।भावी..।।१४।।
जिनवर ‘विपुल’ भगवान सबके, पूज्य माने विश्व में।
जो वंदते हैं भक्ति से, वे धन्य होते विश्व में।।भावी..।।१५।।
जिनराज ‘निर्मल’ आपकी, पूजा करम को चूरती।
आराधकों के मनोवांछित, को तुरत ही पूरती।।भावी..।।१६।।
श्री ‘चित्रगुप्त’ जिनेन्द्र के, पद में सुरेश्वर नित नमें।
देवांगनाएं भक्ति से, नर्तन करें सुर संग में।।भावी..।।१७।।
जिनवर ‘समाधिगुप्त’ के, पदकंज की आराधना।
आराधकों के लिए सचमुच, मुक्ति की ही साधना।।भावी..।।१८।।
श्रीमान् ‘स्वयंभू’ तीर्थकर, स्वयमेव मुक्ती पाएंगे।
उन साथ में उनके उपासक, भी वहीं पर जाएंगे।।भावी..।।१९।।
जिनराज ‘अनिवर्तक’ सकलगुण शील के भंडार हैं।
जो भव्य श्रद्धा से नमें, होते भवोदधि पार हैं।।भावी..।।२०।।
जयनाथ तीर्थंकर सदा जयशाली हैं परमात्मा।
वे शुद्ध बुद्ध अपूर्व अनुपम, औ अमल शुद्धात्मा।।भावी..।।२१।।
जिनवर ‘विमल’ निज आत्म समरसमय सुधारस को पिएँ।
वे फिर अनंतानंत अनवधिकाल तक सुख से जिएँ।।भावी..।।२२।।
श्री ‘देवपाल’ जिनेश के गुण, गण अमल जो गावते।
वे तीन जग में कीर्ति बल्ली, व्याप्तकर शिव पावते।।भावी..।।२३।।
निजनाम से इस लोक में, सु ‘अनंतवीर्य’ विख्यात हैं।
उन नाम से हि अनंत शक्ती, प्रगट हो यह ख्यात है।।भावी..।।२४।।
भरतक्षेत्र चौबीस जिन, होंगे धर्मधुरीण।
नमत ज्ञानमति पूर्णकर, होऊँ धर्म प्रवीण।।२५।।