वंदन करूँ पंच परम गुरु, चतुर्विंशति जिन महाराज।
नमन जिन भाषित भारती, सम्यग्ज्ञान प्राप्ति ममकाज।।१।।
मंगलकर्ता हैं महावीर प्रभु, मंगलकारी गौतम गणेश।
मांगलिक कुन्दकुन्द सूरि, मंगल कारक सद्धर्म जिनेश।।२।।
श्री शांतिसागर के पट्टधर थे, वीरसागर जी मुनिनाथ।
तिन दीक्षित माता ज्ञानमती, करूँ वंदामि जोड़कर हाथ।।३।।
उन्नीस सौ चौंतीस सन् ईसवी, आश्विन पूर्णचन्द्र आकाश।
टिकैतनगर धन्य धन्य हुआ, जन-जन में भरा उल्लास।।४।।
छोटेलाल मोहिनी दम्पत्ति की, पुण्य से पावन हो गयी कोख।
कन्या मैना के आगमन से, छा गया घर में हर्ष आलोक।।५।।
पद्मनंदीपंचविंशतिका को तुम्हें, माँ मोहिनी ने कीना प्रदान।
अंकुरित हुआ वैराग्य मन में, सम्यक मार्ग की हुई पहचान।।६।।
अठारह वर्ष की अल्पआयु में, तुम्हें मिले देशभूषण मुनिनाथ।
सप्तम प्रतिमा ग्रहण करके, छोड़ा घर परिजनों का संग साथ।।७।।
राजस्थान में श्री महावीर जी है, नामी अतिशय तीरथ धाम।
क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की, गुरु ने दिया वीरमती नाम।।८।।
क्षुल्लिका विशालमती सहित, दक्षिण भारत को किया विहार।
प्रेरणास्पद वाणी मिली तुम्हें, शांतिसूरिवर के सुने विचार।।९।।
ससंघ वीरसिंधु सूरि पधारे, पुण्यधरा माधोराजपुरा ग्राम।
चतुर्विधसंघ की उपस्थिति, चतुर्थकालीन दृश्य अभिराम।।१०।।
वैशाख कृष्णा द्वितीया दिवस, चौबीस सौ बियासी वीर निर्वाण।
वीर सिंधु आचार्य ने तुमको, आर्यिका दीक्षा कर दी प्रदान।।११।।
‘ज्ञानमती’ नामांकित कर बोले, रखना सदा नाम का ध्यान।
स्वयं ज्ञानार्जन करते रहना, भव्यों को देते रहना निज ज्ञान।।१२।।
राँवका सागरमल चांददेवी को, गुरु ने दिया आशीष आदेश।
प्रबल पुण्य से सौभाग्य मिला, बने आपके धर्म पितृ मातेश।।१३।।
दीक्षा समारोह स्थल पर आया, हुंकार भर इक सांड नस्ली बैल।
गुरु दर्शन कर वह लौट पड़ा, अर्पित कर सींग फसी गुड़ भेल।।१४।।
देख अधिक जन समूह को, प्रबंध समिति हो गई भयभीत।
गुरु समक्ष आशंका जतायी, भोज्यसामग्री हो जावे न व्यतीत।।१५।।
वस्त्र मंत्रित कर कहा गुरु ने, इससे ढ़क रखें भोजन भण्डार।
अतिथि अभ्यागत सब तृप्त होंगे, रहेगा न कोई निर-आहार।।१६।।
श्वेत साटिका में शोभे हंसिनी, कमण्डलु पिच्छिका कर धार।
ज्ञान सरोवर में विचरती तथा, स्व-पर का करती उपकार।।१७।।
पंच महाव्रत पंच समिति, इन्द्रिय विजय पंच प्रकार।
षट्आवश्यक व अन्य गुण, करती पालन सह उपचार।।१८।।
शिष्या ज्ञानमती मात थी, वीर सिंधु गुरुराज।।
प्रथम बालसति मात को, दिया शुभाशिर्वाद।।१९।।
श्रमणी पद नाम किया सार्थक, आत्मश्रम करती आप कठोर।
ज्ञान ध्यान तप के बल पर पहुँचीं, शून्य से शतक की ओर।।२०।।
गुरुवर की अनुज्ञा से किया, ससंघ स्वतंत्र मंगल विहार।
नगरों गाँवों में विचरण कर, भव्यात्माओं का किया उद्धार।।२१।।
भाव भक्तिपूर्वक वंदन किये, समस्त भारत के तीरथ धाम।
निर्वाण क्षेत्र सिद्धक्षेत्र सहित, दिव्य जिनगृह जो नामी नाम।।२२।।
आपने संयम पथ था अपनाया, परिजनों को भी आया उत्साह।
पावन प्रेरणा थी मिली आपसे, चार भव्यजनों ने पकड़ी सत्राह।।२३।।
आपके पावन सानिध्य में कर, संयम तप व्रत स्वाध्याय।
कई नर पुंगव जन्म धन्य कर, बने साधु सूरि उपाध्याय।।२४।।
माँ ब्राह्मी से चन्दनबाला तक, गणिनियों सा तुममें होता प्रतिभास।
चारों अनुयोगों की तुम हो ज्ञाता, श्रुतसंवर्धन में रचा नव इतिहास।।२५।।
वयोवृद्ध हो ज्ञानवृद्ध हो परन्तु, तन मन वाणी न लेती विराम।
साहित्य सृजन तीर्थप्रवर्तन को, देती रहती अहर्निश नव आयाम।।२६।।
हस्तिनापुर में करी स्थापना श्री त्रिलोक जैन शोध संस्थान।
तिलोयपण्णत्ति में जो लिखित, भव्यरचना रची जम्बूद्वीप महान।।२७।।
प्रबल पुण्य से अनुकूल रहे, द्रव्य क्षेत्र काल और भाव।
शत प्रतिशत होते सफल, लक्ष्य योजना और प्रस्ताव।।२८।।
परामर्षक आर्यिका अभय चंदना तथा मोती सिन्धु उत्तम सुखकार।
योजनाएँ कार्यान्वित करते रहते, व्रती श्रावक ब्रह्म रविन्द्र कुमार।।२९।।
ऋषभदेव का समवसरण तथा, वीर का नंद्यावर्त आवास।
प्रेरणास्पद रहे रथ संचालन, धर्म के प्रति बढ़ा विश्वास।।३०।।
अयोध्या, वाराणसी, प्रयाग, कुण्डलपुर का होवे विकास।
ब्रदीनाथ उज्जैन अहिक्षेत्र में सफल हुए सार्थक प्रयास।।३१।।
जनभाषा लिपि में रचित किये, गणित पूजन मण्डल विधान।
विश्वभर में हुए लोकप्रिय, सबका जिनभक्ति में बढ़ा रुझान।।३२।।
था अष्टसहस्री ग्रंथ जिसकी, कष्टसहस्री बनी पहिचान।
संस्कृत हिन्दी टीकाएँ लिख दी, साहित्य जगत की निधि महान।।३३।।
वर्ष सतानवें माह मार्च में, हुआ पुन: मंगल विहार।
माधोराजपुरा के जैनाजैन में, छाया उल्लास उत्साह अपार।।३४।।
गणिनी माता ज्ञानमती की, गगन गूंज हुयी जयकार।
झालर घंटा वादित्र बजे, नर नारी नाचे गाते मंगलाचार।।३५।।
साक्षी वटवृक्ष अब भी खड़ा, नगर किले के बिल्कुल पास।
जिसके नीचे हुई थी दीक्षा, फैली तप संयम की सुबास।।३६।।
धर्मसभा में सर्वसम्मति से, शुभ कारक निर्णय हुआ तत्काल।
माँ दीक्षा की पावन स्मृति में, निर्मित होवे दीक्षा तीर्थ विशाल।।३७।।
भू आवंटन की चली प्रक्रिया, राज्य शासन ने किया स्वीकार।
क्षेत्र समिति का उत्साह बढ़ा, कार्य प्रगति को मिला विस्तार।।३८।।
दीक्षा स्थली माधोराजपुरा में, होवे आगामी भव्य चातुर्मास।
श्राविका श्राविकाओं के मन में, है अभिलाषा व विश्वास।।३९।।
माता तेरी पुण्यवर्गणाओं से, प्रस्तावित भूखण्ड हो गया ओतप्रोत।
निर्माण हेतु नल कूप खुदाया, खराश में फूटा मधुर जल स्तोत्र।।४०।।
है माताजी से यही निवेदन, कि क्षेत्र को देवें भव्य स्वरूप।
विश्व गगन पर रविवत् चमके, ज्ञान ध्यान संयम केन्द्र अनूप।।४१।।
आपके संपर्क सानिध्य में जो रहते थे, वे निज जीवन लेते सुधार।
भव्यों भक्तों शिष्य शिष्याओं की, श्री चरणों में लगती दीर्घ कतार।।४२।।
धर्म प्रभावक कार्यों में रहतीं व्यस्त, किन्तु न भूलतीं आत्म कल्याण।
जल में कमलवत् रहती हो तुम, चिन्तन में रहतीं सदैव भेद विज्ञान।।४३।।
स्वर्ण महोत्सव पर यही शुभ भावना, प्रकट करते मंगल उद्गार।
आपके कुशल नेतृत्व में होवे, श्रमण संस्कृति की जय जयकार।।४४।।
शताधिक वर्ष की आयु पावें, साता वेदनीय रहे विद्यमान।
आयु कर्म क्षीण जब होवे, समाधियुक्त हो देह अवसान।।४५।।
नारी लिंग नष्ट कर नर बने, मिले कुल जाति धर्म महान।
दीक्षित हो केवल्य बोधि गह, फिर पावें मोक्ष परम स्थान।।४६।।
आपके कत्र्तय व व्यक्तित्व का, हो नहीं सकता पूर्ण बखान।
है केवल बाल चेष्टा ही मेरी, जैसे रवि को दीप दर्शन समान।।४७।।
कवि नहीं कविसुत नहींं हूँ, न जानूं छंद लय व ताल।
गुरु भक्ति में स्वयमेव बन गई, शब्द सुमन विनय माल।।४८।।
दर्शनीय है व्यक्तित्व आपका और, अनुकरणीय है कत्र्तत्व कलाप।
स्वर्ण महोत्सव पर विनयांजलि, समर्पित करता है जैन चन्द मिलाप।।४९।।
वीरसिंधु की जीवन्त सुकृति, गणिनी माँ आर्यिका ज्ञानमती।
मूलगुणों का करे प्रति पालन, चारों अनुयोगों का भी अनुशीलन।।५०।।
हे! माँ जिनवाणी की वरद सुता, आर्यिका संघ की शीर्षस्थ चन्दन।
श्री चरणों में वंदामि वंदामि, साष्टांग सविनय करें अभिवंदन।।५१।।