यह संसार पुन्य पाप का खेल है। कभी पुण्य का उदय आता है तो मानव को अनायास संसार के वैभव प्राप्त हो जाते हैं और जब पाप का उदय आता है तब देखते—देखते सारी सम्पदा विलीन हो जाती है, जैसे पवन के झकोरों से बादलों का समूह। वास्तव में यह संसार संयोग—वियोग सुख—दुख और हर्ष—विषाद का संगम स्थल है। लक्ष्मी ओस बिन्दु के समान क्षण—भंगुर हैं। इसलिये धन सम्पदा को प्राप्त कर मान के पर्वत पर नहीं चढ़ने वाले का नियम से पतन होता हैं। बड़े—बड़े महापुरुषों की सम्पदा स्थिर नहीं रहती तो हीन मानव की बात ही क्या। एक नगर में चन्द्रशेखर नाम का राजा राज्य करता था, उसके सद् व्यवहार से प्रजा बहुत आनंदित थी। प्रात:काल का समय था, दशों दिशाए। लाल हो रही थीं नीड़ों में पक्षी कल—कल शब्द कर रहे थे। राजा की रानी सुशीला की कुछि से पुत्ररत्न की उत्पत्ति हुई, पुत्रोत्पत्ति के समाचार से राजा को बहुत आनंद हुआ, मानो कोई निधि ही मिलगई हो। राजा—रानी का काल आनंद से व्यतीत हो रहा था एक दिन राजा रानी महल की छत पर बैठे हुये प्राकृतिक शोभा देख रहे थे, रात्रि का समय था चांदनी चारों ओर छिटक रही थी। राजपुत्र एक स्वर्णमय झूले मेें झूल रहा था। माता, पिता देख—देखकर फूल न समा रहे थे, अचानक भाग्य ने पलया खाया नदी में बाढ़ आई राजा—रानी परिवार सहित नदी की बाढ़ में बहकर काल के ग्रास बन गये। अबोध नवजात शिशु का पालना नदी की चंचल तरंगों से उछलता हुआ जा रहा था। अल्प समय में राजपुत्र नदी के किनारे पर लग गया। किनारे पर खड़े माली ने देखा ओर प्रेम से बच्चे को गोद मे ले लिया, आनंद से उसकी सीमा न रही। शिशु के स्पर्श से उसका सारा शरीर रोमांचित हो गया। पालने में लिखा था राजपुत्र पढ़कर आश्चर्य चकित हो गया। संसार की दशा विचित्र है। एक क्षण में प्राणी कहाँ से कहाँ चला जाता है, कहाँ राजपुत्र ओर कहां यह धन—जन विहीन अवस्था आनंद विभोर होकर उस शिशु को पुत्र विहीन अपनी पत्नि की गो में रख दिया। माली की पत्नि पुत्र का मुख देखकर आनंद सागर में डूग गई, उसने पुत्र का नाम आनंद रखा क्योंकि वह उसके आनंद का कारण था। वह माली प्रतिदिन पूफूललेकर राजमहल में जाता था, कुछ समय बाद जब बालक दो—तीन वर्ष का हो गया तो पिता के साथ प्रति राज मंदिर में जाता। राजमहल में उसकी उम्र को चन्द्रमुखी नाम की कन्या थी, समान शील स्वभाव और समान उम्र वालों के साथ ही मित्रता होती है। वे दोनों एक साथ खेलते बगीचे में जाते, फूल तोड़ते, विद्यालय में जाते एक साथ ही अध्ययन करते। एक दिन आनंद और चन्द्रमुखी बगीचे में फूल तोड़ रहे थे। और आनंद चन्द्रमुखी का रत्न जटित फूल दान हाथ में लिये थी तथा कन्या फूल तोड़कर उसमें रख रही थी तथा राजकन्या फूल तोड़कर उसमें रख रही थी आनंद उसके पीछे— पीछे चल रहा था। क्योंकि वह माली का लड़का था और वह राजकन्या का दास था। ==
ज्योतिष की आवाज सुनकर राज कन्या ने आनंद से कहा मेरा भाग्य पूछ कर आओ, आनंद राजपुत्री की आज्ञा नहीं टाल सका अनिच्छा से गया पूँछने आनंद ने ज्योतिष से राज कन्या का भाग्य पूछा उत्तर मिला पूछने वाला कुछ दिन बाद एक विशाल राज्य का स्वामी बनेगा और जिसके लिये पूछ रहा है वह उसकी पत्नि बनेगी। सुनकर आनंद स्तब्ध हो गया यह अनहोनी घटना कैसे घटित हो सकती है डरता हुआ राज कन्या के पास गया क्या ज्योतिषी ने? आनंद—क्या बताऊं! जो कहा सो बताओ, कड़क कर कहा राजकन्या ने। निर्भय होकर आनंद ने —ज्योर्तिष बाबा कहते है—तुम मेरी पत्नि बनोगी और मैं तुम्हारा पति! इतना सुनते ही राजपुत्री को क्रोध भड़क गया आखें लाल हो गई निर्लज्य कहीं का शब्द निकालते तुझे लज्जा नहीं आती, तेरा इतना साहस, तूं जानता है कि राजपुत्री हूँ और तू माली, निकल यहाँ से मेरे राजमहल में पैर रखा तो तोड़ दूँगी और जोर से फूलदान से सिर फोड़कर उसका शीध्र ही राजमहल में चली गई। फूलदान की मार से आनंद का सिर फट गया और रक्त की धार बहने लगी। परन्तु बेचारा माली का लड़का क्या सकता था। फूलदान लेकर अपने घर की राह ली। मार्ग में एक दिगम्बर मुनिराज से भेंट हो गई, उसने पूछा गुरूदेव मैंने पूर्व भव में कौन सा पाप किया है जिससे नीच कुल में उत्पन्न हुआ हूँ और तिरस्कार को सहन कर रहाँ हूँ? मुनिराज ने कहा—तूने पूर्वभव में साधु का अनादर किया है, कटुवचन कहकर तिरस्कार किया परन्तु पिता के द्वारा समझाय जाने पर उनसे क्षमा याचना की जिससे कर्मों का विपाक होने से राजपुत्र हुये, परन्तु कर्म के उदय से पुन: धन—जन से रहित होकर माली के घर में पले और कन्या से तिरस्कार के भागी बने।
तुम यहाँ से पूर्व दिशा में चले जाओ आज से सातवें दिन तुम्हें राज्य की प्राप्ति होगी और सात वर्ष बाद तुम्हारा मस्तक फोड़ने वाली राजपुत्री से तुम्हारा विवाह होगा। आनंंद ने कहा—गुरूदेव मैं तो माली का पुत्र हूं। राजकुल में मेरा जन्म कैसे? मुनिराज ने कहा—तुम माली के पुत्र हो मालीने तुम्हें पाला है, तुम उज्जयिनी के राजा चन्दशेखर के पुत्र हो जिस झूले में तुम नदी में तैरते आये थे । उस झूले पर तुम्हारे पिता का नाम अंकित है। घर जाकर कूड़े—कचरे वाली कोठरी में जाकर देखों—तुम्हारे भेद को छिपाने के लिये माली ने उस बहुमूल्य झूले को कचरे के नीचे छिपाकर रखा है। मुनिराज के वचनों का विश्वास करके आनंद ने घर में जाकर देखा वास्तव में मुनिराज, के वचन सत्य निकले। शीध्र ही मुनिराज के चरणों में जाकर निवेदन किया—हे गुरुदेव मुझे ऐसा आर्शीवाद दीजिये मेरे संकट कट जायें। मुनिराज ने कहा—वत्स तुम निरन्तर णमोकार मंत्र का जाप करो णमोकार मंत्र के समान कोई मंत्र नहीं है, वीतराग देव के समान कोई देव नहीं, इसलिए तुम जिन धर्म को स्वीकार करो, धर्म ही माता—पिता है यही बन्धु है, शरण हैं। मुनिराज के वचनामृत का पानकर मन सन्तुष्ट हो गया, चरणोें में नमस्कार कर गदगद् वाणी से उनकी स्तुति कर पूर्व दिशा में प्रस्थान कर गया। चलते—चलते एक नगर में पहँुचा नगर के बाहर एक छायादार आम्र वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया, थकान से उसको निद्रा आ गई। उस नगर के राजा के कोई संतान नहीं थी, किसी निमित्त ज्ञानी ने राजा से कहा था। कि अमुक तिथि और अमुक दिन कोई पथिक इस वृक्ष के नीचे सोयगा वही तुम्हारे राज्य को भोक्ता होगा। आज वही तिथि है—निमित्त ज्ञानी के कथनानुसार राजा ने अपने नौकरों को उस महापुरूष को देखने के लिये भेजा राजा की आज्ञा अनुसार राजसेवक उस वृक्ष के नीचे आये और आनंद कुमार को उठाकर ले गये आनंद के भाग्य न पलटा खाया वह पु्ना: राजा का प्यारा पुत्र बन गया, कुछ ही दिनों में वह पराक्रमी शस्त्र चालन में प्रवीण और योद्धा हो गया।
उसके पिता को विवाह की चिंता हो गई। वह शीध्र ही सुयोग्य वर ढूढने निकले, भाग्यवश आनंद कुमार के साथ ही संयोग मिला। बड़े आमोद—प्रमाद के साथ विवाह हो गया। उन दोनों का प्रेम के साथ समय व्यतीत हो रहा था। आनंद सब कुछ जानता था। कि यह लड़की वहीं है। जिसने मुझे नीच समझकर तिरस्कार किया, परन्तु चन्द्रमुखी को कुछ भी स्मरण नहीं था कि यह वही आनंद है। एक दिन आनंद महल में बैठा था, उसके मस्तक पर एक घाव का चिन्ह था। उसक घाव को देखकर चन्द्रमुखी ने पूछा स्वामिन! किस योद्धा ने आपके सिर पर प्रहार किया है? आनंद ने हंसते हुए उत्तर दिया ‘‘यह श्रीमति जी का प्रसाद है’’ और रत्नजड़ित फूलदान उसके सामने रख दिया, जिसको देखकर चन्द्रमुखी ने सोचा अरे! यह तो वही माली का लड़का है। जिसको मैंने मारा था। मैंने राजपुत्री के मद में आकर इसको मारा था। मैंने राजपुत्री के मद में आकर इसको मारा, हीन, समझा, गाली दी तिरस्कार किया? अब तो मेरा जीवन इसके साथ में है? इस प्रकार लज्जा से झुककर चिंता सागर में डूब गई। चिंता में मग्न चन्द्रमुखी के देख थोड़े से क्रोध में आनंद ने कहा—‘‘क्यों श्रीमति जी शत्रु को क्या दंड दिया जाये’’? चन्द्रमुखी ने उसके पैर पकड़ लिये और—स्वामी और कहा— स्वामी की इच्छा। आनंद ने कहा—यह संसार सागर है—कौन सा कर्म उदय में आयेगा कहा नहीं जा सकता। जिस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है। उसी प्रकार कभी सुख और कभी दुख होता है।
‘‘सदा न फूले केतकी, सदा न सावन होय’’ सदा न सम्पद थिर रहे, सदा न जीवे कोय’’
इसलिये धन, यौवन आदी का घमंड नहीं करना चाहिये। इस प्रकार अपने स्नेहमयी शब्दों के द्वारा चन्द्रमुखी को सन्तुष्ट किया और सुख पूर्वक रहने लगे। संसार पुण्य—पाप का खेल है—कभी मानव का उत्थान होता है और कभी पतन। मान रूपी पर्वत—पर्वत पर चढ़कर किसी का अपमान मत करो।