विश्व में विभिन्न वैचित्र्यपूर्ण जीव दृष्टिगोचर होते है। द्रव्य दृष्टि से अखिल जीव जगत् सूक्ष्मातिसूक्ष्म निगोदिया (वायरस) से लेकर पूर्ण विकसित मनुष्य तक ही नहीं परन्तु अनंत ज्ञान सम्पन्न अरिहंत सिद्ध, भगवान भी एक समान हैं। यहाँ प्रश्न होना स्वाभाविक है कि द्रव्य अपेक्षा तथा जातिय अपेक्षा सम्पूर्ण अनन्तानंत जीव एक समान होने पर भी उसमें आकार-प्रकार, शक्ति, बुद्धि, ज्ञान, आचारविचार में जो विभिन्नता परिलक्षित होती है। उसका कारण क्या है ? बिना कारण से क्या उनमें यह वैचित्र्यपूर्ण अन्तर हो सकता है ? नहीं, कदापि नहीं, बिना विभिन्न प्रकार के कारणों से विभिन्न कार्य होना असंभव है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव, नियमसार में संसारी जीव में जो विभिन्न प्रकार के आचार-विचार परिलक्षित होते हैं उसका कारण बताते हुए कहते हैं कि-
‘‘णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।’’
अनेक प्रकार के जीव हैं एवं उनके-अनेक प्रकार के कर्म या दैव हैं। इसलिए उनके स्व-स्व दैवानुसार उनकी लब्धि भिन्न-भिन्न प्रकार होती है।
बहुत प्राचीन काल से ही भाग्य व पुरुषार्थ के पक्ष व विपक्ष में तर्क व वितर्क होते रहे हैं। कुछ व्यक्ति भाग्य को प्रबल मानते रहे हैं, तो कुछ पुरुषार्थ को, जबकि कुछ व्यक्ति इन दोनों के महत्त्व को समान रूप से स्वीकार करते हैं।
साधारणतया जब हम कोई कार्य सम्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं, तब यदि हमको हमारे प्रयत्नों (पुरुषार्थ) के अनुसार ही फल मिलता है, तब हम उसको अपने पुरुषार्थ का फल मान लेते हैं। यदि अपने प्रयत्नों की तुलना में हमको अधिक फल मिल जाता है, तो हम उसको अपने अच्छे भाग्य (सौभाग्य) का फल मान लेते हैं। यदि हमारे प्रयत्नों की तुलना में हमको कम फल मिलता है या बिल्कुल ही फल नहीं मिलता, तो हम उसको अपने बुरे भाग्य (दुर्भाग्य) का फल मान लेते हैं।
इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह सुन्दर व स्वस्थ हो, उसके पास बहुत-सा धन हो, उसके पास सब प्रकार की सुख-सुविधाओं से युक्त एक सुन्दर-सा मकान हो, उसका जीवन-साथी (पति/पत्नी) सुन्दर स्वस्थ व बहुत अच्छे स्वभाव वाला हो। उसकी सन्तान स्वस्थ, सुन्दर, आज्ञाकारी, सुशील व सुयोग्य हो। उसके संंबंधी, मित्र व सेवक विश्वसनीय तथा सुख-दु:ख में साथ देने वाले हों। उसके पास आय के समुचित साधन हो। तात्पर्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह सब प्रकार से सुखी हो। अनेकों व्यक्ति इस प्रकार का सुख पाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं। परन्तु हम सबका तो यही अनुभव है कि अधिकांश व्यक्तियों को सदैव ही अपने प्रयत्नों (पुरुषार्थ) के अनुसार फल नहीं मिलता। अन्तत: इसका कारण क्या है ?
अपने प्रयत्नों के अनुसार फल न मिलने पर कुछ व्यक्ति अन्य व्यक्तियों पर दोषारोपण करने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति ने उनके सुख और सफलता की प्राप्ति में बाधा डाल दी। परन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही सुख व दु:ख तथा सफलता व असफलता मिलती है। जिन व्यक्तियों के माध्यम से ये सुख व दु:ख तथा सफलता व असफलता मिलती है, वे तो केवल निमित्त मात्र ही होते हैं।
हम सब का यही अनुभव है कि इस संसार में अधिकांश व्यक्तियों को अपने प्रयत्नों के अनुसार ही फल नहीं मिलता। समान प्रयत्न करने वाले दो व्यक्तियों को भी एक समान फल नहीं मिलता। समान वातावरण और समान परिस्थितियों का भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता हैं हम प्रतिदिन ही ऐसे उदाहरण देखते हैं।
जैसे-एक कक्षा में बहुत से बालक पढ़ते हैं। अध्यापक सभी बालकों को एक जैसे ही पढ़ाते हैं। परन्तु उन बालकों में से कुछ बालक अच्छे अंक प्राप्त करते हैं, कुछ बालक साधारण अंक प्राप्त करते हैं, जबकि कुछ बालक बहुत थोड़े अंक ही प्राप्त कर पाते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि परिश्रम करने वाले बालक असफल ही रह जाते हैं और जो बालक अधिक परिश्रम नहीं करते, वे उत्तीर्ण हो जाते हैं।
समान योग्यता वाले दो डॉक्टरों में से एक को तो धन व यश दोनों ही प्राप्त हो जाते हैं, जबकि दूसरा डॉक्टर उतना सफल नहीं हो पाता। यही बात वकीलों, इंजीनियरों, चारटर्ड अकाउन्टेन्टों आदि के संबंध में भी देखी जाती है।
दो व्यापारियों की एक ही स्थान पर एक जैसी ही वस्तुओं की दुकानें होती हैं। उन व्यापारियों में से एक को तो अच्छी आय हो जाती है, जबकि दूसरा व्यापारी अपना खर्च भी कठिनाई से ही निकाल पाता है।
एक कार्यालय में समान योग्यता वाले दो व्यक्तियों की एक साथ ही नियुक्ति होती है-उनमें से एक तो उन्नति करते-करते उस कार्यालय का प्रबंधक बन जाता है, जबकि दूसरा व्यक्ति इतनी सफलता प्राप्त नहीं कर पाता।
कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि कम योग्यता वाला व्यक्ति तो जीवन में सफलता प्राप्त कर लेता है, जबकि अधिक योग्यता वाला व्यक्ति असफल ही रह जाता है।
कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि कोई व्यक्ति किसी अनुसंधान में अपना सारा जीवन बिता देता है, परन्तु उसको सफलता नहीं मिलती, जबकि दूसरा व्यक्ति उसके परिश्रम के आधार पर थोड़े से परिश्रम से ही सफलता प्राप्त कर लेता है।
यदि हम अपने चारों ओर दृष्टि डालें, तो हमको ऐसे ही अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं।
ये विषमताएं व विडम्बनाएं अचानक अर्थात् ‘‘संयोगवश’’ ही घटित नहीं होतीं। इनके पीछे कोई न कोई ठोस व तर्क सम्मत कारण होता है। तथ्य तो यह है कि प्राणियों के जीवन में पायी जाने वाली इन विषमताओं और विडम्बनाओं का मुख्य कारण उनके द्वारा भूतकाल में किये हुए कार्य ही हैं। हम इन विषमताओं व विडम्बनाओं को कर्म-फल कह लें या भाग्य कह लें, बात एक ही है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए हम कुछ उदाहरण देते हैं।
एक बालक एक बड़े भव्य महल में जन्म लेता है, जहाँ पर उसकी देख-रेख के लिए दास, दासियाँ व डॉक्टर आदि नियुक्त हैं तथा उसके लिए सब प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। एक दूसरा बालक सड़क के किनारे बने हुए टूटे-फूटे झोंपड़ें में जन्म लेता है, जहां पर उसको उपेक्षा व अभावों के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल पाता।
जो सज्जन केवल पुरुषार्थ के महत्त्व को ही स्वीकार करते हैं उनसे हम पूछते हैं कि पहले बालक ने क्या पुरुषार्थ किया था जो उसको सब प्रकार की सुविधाएं प्राप्त हुईं। जहाँ पर उसकी देख-रेख के लिए दास, दासियाँ व डॉक्टर आदि नियुक्त हैं तथा उसके लिए सब प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। एक दूसरा बालक सड़क के किनारे बने हुए टूटे-फूटे झोंपड़ें में जन्म लेता है, जहां पर उसको उपेक्षा व अभावों से जूझना पड़ा ?
इन प्रश्नों के उत्तर ‘‘संयोगवश’’ नहीं है। हम पहले भी कह चुके हैं कि इस विश्व में संयोगवश कुछ नहीं होता। यहां जो कुछ भी घटित होता है उसके पीछे कोई न कोई तर्क सम्मत व ठोस कारण होता है। यदि केवल संयोगवश ही घटनाएं घटने लगें, तो इस विश्व का कोई नियम ही न रह जाये और सर्वत्र उथल-पुथल मच जाये।
इस विषमता का स्पष्ट उत्तर यही है कि पहले वाले बालक का भाग्य बहुत अच्छा था या कह लें कि उसने पिछले जन्मों में बहुत अच्छे कार्य किये थे जिसके फलस्वरूप उसको ये सुविधाएं उपलब्ध हुई तथा दूसरे वाले बालक का भाग्य खराब था या यह कह लें कि उसने पिछले जन्मों में बुरे कार्य किये थे जिसके फलस्वरूप उसको सब प्रकार के अभाव सहनें पड़ें। तथ्य यही है कि अपने-अपने अच्छे व बुरे भाग्य के फलस्वरूप ही उनका विभिन्न परिस्थितियों में जन्म हुआ और विभिन्न परिस्थितियों में ही लालन-पालन हुआ।
एक दस-पन्द्रह वर्ष का बालक है। वह कोई भी कार्य (पुरुषार्थ) नहीं करता। फिर भी वह एक भव्य भवन में रहता है, अच्छे से अच्छे कपड़े पहनता है, मोटरों में घूमता है, स्वादिष्ट व पौष्टिक भोजन करता है। उसे अपने माता-पिता व अपने संंबंधियों का भरपूर प्यार मिलता है। तात्पर्य यह है कि उसे सभी प्रकार के सुख व सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
एक दूसरा बालक है। उसकी आयु भी दस-पन्द्रह वर्ष की ही हैं वह किसी होटल, कारखाने या दुकान में या किसी के घर पर नौकरी करता है। वह दिन भर में तेरह, चौदह घंटे कठिन परिश्रम करता है, अपने स्वामी की गालियाँ और मार खाता रहता है, फिर भी उसको न पेटभर कर भोजन मिलता है, न तन ढ़कने को कपड़े और न सिर छिपाने को छत।
इन दोनों बालकों में क्या अन्तर है ? पहले बालक को बिना पुरुषार्थ किये ही जीवन की सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं, परन्तु दूसरा बालक भरपूर पुरुषार्थ करते हुए भी जीवन की अति आवश्यक वस्तुओं से भी वंचित रह जाता है।
आजकल के तथाकथित समाजवादी नेता इस विषमता के लिए समाज व्यवस्था को दोषी ठहरायेंगे और निर्धनों का शोषण करने के लिए धनवानों को गालियाँ सुना देंगे। परन्तु तथ्य यही है कि पहले वाले बालक का भाग्य अच्छा है और दूसरे वाले बालक का भाग्य खराब है।
एक धनवान का विवाहित युवा पुत्र किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाता है। अनेकों उपचार करने और लाखों रुपये व्यय करने के पश्चात् भी उसकी मृत्यु हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उस धनवान को तथा उसकी विधवा पुत्रवधू को बहुत ही अधिक मानसिक वेदना होती है और उसका सारा जीवन ही दु:ख के सागर में डूब जाता है। उनके इस दु:ख के लिए कौन उत्तरदायी है ?
इसी प्रकार किसी परिवार के कमाऊ सदस्य की मृत्यु हो जाती है, जिसके कारण उस परिवार के ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है। उस परिवार के सदस्यों पर पड़े इस संकट के लिए कौन उत्तरदायी है ?
हम प्रतिदिन दुर्घटनाओं के समाचार पढ़ते हैं, जिनके फलस्वरूप अनेकों व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है तथा अनेकों व्यक्ति अपंग हो जाते हैं। इन व्यक्तियों के कष्टों के लिए कौन उत्तरदायी है ?
हम तो यही कहेंगे कि जैसा-जैसा किसी प्राणी का भाग्य होता है उसके अनुसार ही उस प्राणी को सुख व दु:ख भोगने पड़ते हैं।
एक कुत्ता एक धनी व्यक्ति के पास रहता है। उसकी देख-भाल के लिए एक सेवक नियुक्त है। उसको अच्छे से अच्छा स्वादिष्ट व पौष्टिक भोजन मिलता है। वह सर्दियों में गर्म कमरों में और गर्मियों में ठण्डे कमरों में घूमता रहता है। वह अपनी नींद सोता है और अपनी नींद जागता है। उसकी तनिक सी भी तबीयत खराब हुई नहीं कि डॉक्टर उपस्थित हो जाता है।
एक दूसरा कुत्ता है। खाज के कारण उसके शरीर में घाव हो रहे हैं। जिन पर मक्खियाँ बैठती हैं। उसकी एक टांग टूटी हुई है, इसलिए वह घिसटता हुआ चलता है। बच्चे उसको देखते ही पत्थर मारने लगते हैं, इसलिए वह एक स्थान पर आराम से बैठ भी नहीं सकता। उसके खाने-पीने का भी कोई ठिकाना नहीं है।
ऐसी ही विषमताएं हम घोड़ों, ऊँटों व अन्य पशु-पक्षियों में भी देखते हैं।
केवल पुरुषार्थ के महत्त्व को ही स्वीकार करने वाला सज्जन क्या इन विषमताओं का कारण बता सकेंगे ? हमारा उत्तर तो यही है कि पहले वाले कुत्ते का भाग्य अच्छा है, जिसके कारण उसको सब प्रकार की सुविधाएं मिली हुई हैं, जबकि दूसरे वाले कुत्ते का भाग्य खराब है, जिसके फलस्वरूप उसको इतने कष्ट झेलने पड़ रहे हैं।
हम यहाँ पर ऐसे व्यक्तियों को भी देखते हैं, जो साधारण पशुओं से भी बुरा जीवन जी रहे हैं और ऐसे पशुओं को भी देखते हैं जो साधारण मनुष्यों से भी बहुत अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
एक बस दुर्घटना हो जाती है। उस दुर्घटना के कारण कुछ यात्रियों की मृत्यु हो जाती है। कुछ यात्री गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं, कुछ यात्रियों के साधारण चोटें लगती हैं और कुछ यात्रियों का बाल भी बांका नहीं होता।
कहीं पर युद्ध होता है। उस युद्ध के फलस्वरूप अनेकों व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है, अनेकों व्यक्ति अपंग हो जाते हैं, अनेकों परिवार नष्ट हो जाते हैं, जबकि उसी युद्ध के कारण कुछ व्यक्ति समृद्धिशाली भी बन जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही घटना का विभिन्न व्यक्तियों पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है।
हमारा उत्तर तो यही है कि ये विषमताएं ‘‘संयोगवश’’ घटित नहीं होती, अपितु जैसा-जैसा किसी प्राणी का भाग्य होता है, उसी के अनुसार उस प्राणी को सुख व दु:ख भोगने पड़ते हैं।
हम सब का यह भी अनुभव है कि एक ही व्यक्ति कभी तो सुखी होता है और कभी दु:खी। इसी प्रकार एक व्यक्ति कभी तो उन्नति के शिखर पर होता है और कभी वह अवनति के अंधकार में डूब जाता है। इन तथ्यों को देखते ही कुछ सज्जन पूछते हैं कि क्या भाग्य थोड़े-थोड़े समय में बदलता रहता है ? इसका स्पष्ट उत्तर यही है कि ‘‘निसंदेह, भाग्य थोड़े-थोड़े समय में बदलता रहता है।’’ एक व्यापारी है, उसको किसी वर्ष अधिक लाभ होता है, तो किसी वर्ष कम और किसी वर्ष तो हानि ही हो जाती है। यदि हम थोड़ी अवधि के हानि-लाभ पर विचार करें, तो हम पायेंगे कि किसी महीने में उस व्यापारी को अधिक लाभ होता है और किसी महीने में कम। और भी थोड़ी अवधि के हानि-लाभ को देखें, तो हम पायेंगे कि किसी दिन उसको अधिक लाभ होता है और किसी दिन कम। एक दिन के दौरान भी हम देखें, तो पायेंगे कि किसी घंटे में उस व्यापारी को अधिक लाभ हुआ और किसी घंटे में कम। यह तो हम सब का अनुभव है कि एक व्यापारी कभी तो दिन के अधिकांश समय में खाली बैठा रहता है और कभी एक-दो घंटे में ही उसकी बहुत बिक्री हो जाती है। इसका अर्थ यही हुआ कि जिस समय व्यापारी का भाग्य अच्छा होता है, उसकी बिक्री अधिक हो जाती है और जिस समय उस व्यापारी का भाग्य अच्छा नहीं होता, उसकी बिक्री कम होती है या बिल्कुल नहीं होती।
इसी प्रकार हम डाक्टरों, वकीलों व अन्य व्यवसाइयों के संबंध में भी अच्छे व बुरे तथा थोड़े-थोड़े समय में बदलते हुए भाग्य का फल देख सकते हैं।
यहां शंका यह उठती है कि यह तो व्यापारियों व व्यवसाइयों की बात हुई, किन्तु जो व्यक्ति स्थाई नौकरी करते हैं, उनके अच्छे व बुरे तथा बदलते हुए भाग्य के संबंध में हमें क्या कहना है ? इस संबंध में निवेदन है कि अच्छे व बुरे भाग्य का फल केवल आर्थिक लाभ या हानि तक ही सीमित नहीं होता, अपितु अच्छे व बुरे भाग्य का फल जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। जैसे कि नौकरी करने वाले व्यक्ति का स्वयं का व उनके परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य वैâसा रहता है ? उनकी पत्नी, सन्तान व अन्य संबंधी वैâसे स्वभाव के हैं ? उनके घर का वातावरण वैâसा रहता है (क्लेश का अथवा शांति का) ? कार्यालय में उनके अपने अधिकारियों व अन्य सहकर्मियों से वैâसे संबंध हैं ? उनको पदोन्नति के अवसर मिलते हैं या नहीं ? इत्यादि। जिस समय भाग्य अच्छा होता है, उस समय ये सब अनुकूल रहते हैं। इसके विपरीत जब भाग्य बुरा होता है, तो इनमें से सब या कुछ प्रतिकूल हो जाते हैंं।
इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि अनेकों बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं का अन्त कितनी बुरी परिस्थितियों में हुआ है। भारत वर्ष के मुगल बादशाह शाहजहाँ को अपने ही एक बेटे के आदेश पर अपने जीवन के अंतिम बीस वर्ष जेल में व्यतीत करने पड़े। उनके अन्य बेटों की हत्या कर दी गयी। भारत के अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बेटों व पोतों की उनकी आँखों के सामने हत्या कर दी गयी और उनको अपना अंतिम समय वर्मा में अंग्रेजों की जेल में व्यतीत करना पड़ा। आज तो यह साधारण बात हो गयी है कि जब भी किसी देश का शासन बदलता है, तो पिछले शासन के अधिकारियों को, चाहे वे कितने ही उच्च पद पर हों, परेशान किया जाता है और कभी-कभी तो अपने विरोधियों की हत्या तक कर दी जाती है इतिहास साक्षी है कि अनेकों राजा-महाराजाओं की अपनी भाई-बंधुओं के द्वारा ही हत्या की गयी।
ऐसे ही बदलते हुए दिन हम अनेकों विद्वानों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, व्यापारियों व व्यवसाइयों आदि के जीवन में भी देखते हैं। (यह कोई स्थाई नियत नहीं है, परन्तु अनेकों व्यक्तियों के जीवन में ऐसी स्थिति अवश्य ही आ जाती है।)
पुरुषार्थवादी यही कहेंगे कि ऐसा ‘संयोगवश’’ तथा ‘‘परिस्थितियाँ बदलने’’ के कारण हो जाता है। परन्तु यह ठीक नहीं है। ‘‘संयोगवश’’ के संबंध में तो हम कह ही चुके हैं। जहाँ तक ‘‘परिस्थितियाँ’’ बदलने का प्रश्न है, क्या हम पूछ सकते हैं कि परिस्थितियाँ कुछ ही व्यक्तियों के विरुद्ध क्यों बदलीं ? सभी व्यक्तियों के विरुद्ध क्यों नहीं बदलीं ? व्यक्ति वहीं है उनकी योग्यताएँ व पुरुषार्थ भी लगभग वैसे ही हैं, फिर भी उनको असफलताएँ क्यों मिलीं ?
हमारा स्पष्ट उत्तर तो यही है कि जब उनका भाग्य अच्छा था, तब वे सफलताएँ प्राप्त कर रहे थे और उन्नति के शिखर पर थे, परन्तु जब उनका भाग्य बुरा आया, तो वे असफलता के अंधकार में विलीन हो गये। प्राय: व्यक्तियों को यह कहते हुए सुना जाता है कि आज का दिन बहुत अच्छा बीता या यह महीना बहुत बुरा गुजरा। यह सब थोड़ी-थोड़ी देर में बदलते हुए भाग्य के फलस्वरूप ही तो होता है।
आजकल के तथाकथित प्रगतिशील कहे जाने वाले व्यक्ति कहने को तो यही कहते हैं कि भाग्य से कुछ नहीं होता, यह तो केवल झूठी तसल्ली देने का एक बहाना मात्र है तथा यह शोषित वर्ग को ऊपर न उठने देने के लिए षडयंत्र है। परन्तु जब स्वयं उनके ऊपर कोई कष्ट आ पड़ता है या अनेकों प्रयत्न करने पर भी उनकी इच्छा के अनुकूल कोई कार्य नहीं होता, तब अपने मन में वे भी यही कहते हैं-‘‘दुर्भाग्य से ऐसा ही होना था, किस्मत को ऐसा ही मंजूर था।’’
अन्तत: इन विषमताओं व विडम्बनाओं का कारण क्या है ? कारण यही है कि जिस समय जैसा हमारा भाग्य होता है, उस समय हमें वैसा ही फल मिलता है।
भाग्य के लिए अंग्रेजी भाषा के Fortune Luck आदि शब्द हैं, उर्दू भाषा में किस्मत, मुकद्दर, नसीब आदि शब्द हैं, हिन्दी भाषा में विधि, दैव, अदृष्ट, नियति, भावी, प्रारब्ध, होनी आदि शब्द हैं। इसी प्रकार संसार के विभिन्न देशों की विभिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ भाग्य है। संसार के विभिन्न देशों में ‘‘भाग्य’’ के अर्थों के समान शब्दों की उत्पत्ति इसीलिए हुई, क्योंकि वहाँ पर ‘‘भाग्य’’ को किसी ने किसी रूप में माना जाता होगा।
वास्तविकता तो यह है कि भाग्य किसी तथाकथित विधाता अथवा किसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के द्वारा अपनी इच्छा से ही लिखा हुआ कोई अमिट लेख नहीं होता, जिसको प्रत्येक प्राणी को अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़ता है। इसके विपरीत तथ्य तो यह है कि हमारा भाग्य हमारे द्वारा भूतकाल में किये हुए हमारे अपने ही पुरुषार्थ का फल है। (भूतकाल से हमारा तात्पर्य उस काल से है जो वर्तमान क्षण से पहले व्यतीत हो चुका है, चाहे वह समय वर्तमान क्षण से कुछ ही क्षण पहले हो, चाहे घंटे-दो-घंटे, महीने-दो महीने अथवा दस-बीस साल पहले हो या हमारे पिछले जन्मों का समय हो-यह सारा समय भूतकाल के अन्तर्गत ही आता है। अच्छा पुरुषार्थ अच्छा भाग्य बनाता है और बुरा पुरुषार्थ बुरा भाग्य बनाता है। हमें स्वयं अपने ही द्वारा किये हुए पुरुषार्थ का ही फल मिलता है। किसी अन्य प्राणी के किये हुए पुरुषार्थ का फल हमें कभी नहीं मिल सकता।
भाग्य और पुरुषार्थ को हम इस उदाहरण के द्वारा भी समझ सकते हैं । आजकल नये बनाये हुए मकानों के ऊपर पानी की टंकियाँ बनायी जाती हैं, जिनमें बिजली के पम्प द्वारा पानी भर लिया जाता है। नगर पालिका द्वारा दिया जा रहा पानी आये या न आये, परन्तु हमारे द्वारा टंकी में भरा हुआ पानी हमें हर समय उपलब्ध रहता है। टंकी में पानी भरना हमारे पुरुषार्थ के समान है और वह पानी हमें हर समय उपलब्ध रहना हमारे भाग्य के समान है।