अर्थ :—यदि भाग्य से ही सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि मान ली जावे तब तो प्रश्न यह उठ सकता है कि भाग्य कैसे बना ? क्योंकि आज का पुण्य और पापरूप आचरण ही भविष्य में भाग्य रूप बनता है पुन: यह भाग्य पुण्य पाप रूप पुरुषार्थ से कैसे बना ? यदि कोई कहे कि पहले पहले के भाग्य से ही आगे—आगे का भाग्य बनता चला जाता है तब तो इस प्रकार से भाग्य की परम्परा चलती रहने से कभी भी किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा। पुन: मोक्ष के लिये किया गया पुरुषार्थ भी निष्फल हो जावेगा। यदि आप कहें कि पुरुषार्थ से दैव का निर्मूंल नाश हो जाता है अत: मोक्ष की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ सफल ही है। तब तो आपने जो एकान्त से दैव से ही कार्य की सिद्धि मानी है सो एकांत कहाँ रहा ? यदि आप कहें कि मोक्ष के लिये कारणभूत पुरुषार्थ भी दैवकृत ही है अत: परम्परा से मोक्ष की सिद्धि दैव—भाग्य कृत ही रही, तो भी प्रतिज्ञा हानि दोष आता ही अर्थात् आपका भाग्यैकांत सिद्ध न होकर पुरुषार्थवाद भी सिद्ध हो जाता है। अत: मीमांसक को सर्वथा भाग्य के भरोसे बैठे रहना उचित नहीं है। चार्वाक (नास्तिकवादी) पुरुषार्थ से ही सभी कार्यों की सिद्ध मानते हैं। उस पर भी जैनाचार्य समझाते हैं—
अर्थ :— यदि पुरुषार्थ से ही सभी कार्यों की सिद्धि मान ली जावे, तब तो यह प्रश्न सहज ही हो जाता है कि पुरुषार्थरूप कार्य किससे हुआ है ? यदि उस पुरुषार्थ को भाग्य से कहोगे तब तो आपका पुरुषार्थरूप एकांत कहाँ रहा ? यदि आप कहें पुरुषार्थ से ही सभी बुद्धि, व्यवसाय आदि कार्य सिद्ध होते हैं तब तो भैया ! पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है पुन: सभी के सभी कार्य सफल होते रहेंगे, असफलता का प्रश्न ही नहीं हो सकेगा। कोई कोई लोग भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को ही कार्य सिद्धि में सहायक मान लेते हैं किन्तु दोनों समन्वय न करके उन्हें पृथक् पृथक् रूप से मानते हैं एवं कोई बौद्ध बिचारें दोनों को ही कार्य सिद्धि में सहायक न मानकर इन दोनों को अवाच्य—अवक्तव्य कह देते हैं। उस पर भी जैनाचार्य समाधान करते हैं—
अर्थ :— स्याद्वाद के विद्वेषी एकांत मतावलंबियों के यहाँ इन दोनों की मान्यता भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि भाग्य और पुरुषार्थ ये दोनों परस्पर में विरोधी हैं और जो लोग इन दोनों की अवाच्यता का एकांत भी मानते हैं उनके यहाँ भी स्ववचन विरोध दोष आ जाता है। क्योंकि तत्व ‘‘अवाच्य’’ है, ऐसा वाच्य—कथन कर देने पर वह सर्वथा अवाच्य कहाँ रहा ? अब जैनाचार्य अपनी स्याद्वा नीति का स्पष्टीकरण करते हुये कहते हैं कि—
अर्थ :— बिना विचारे अनायास ही सिद्ध हुये अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य भाग्य कृत हैं, क्योंकि उनमें बुद्धि पूर्वक पुरुषार्थ की अपेक्षा नहीं है। अत: वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है एवं भाग्य प्रधान है तथैव बुद्धि पूर्वक प्रयत्न पूर्वक सिद्ध हुये कार्य पुरुषार्थ कृत है क्योंकि यहाँ बुद्धि पूर्वक पुरुषार्थ की अपेक्षा मौजूद है अत: यहाँ भाग्य गौण है एवं पुरुषार्थ प्रधान है। इन दोनों में से किसी एक के अभाव में कार्य सिद्धि असंभव है। ये भाग्य एवं पुरुषार्थ परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा न रखे तो वह बन ही नहीं सकता उसकी उत्पत्ति ही असंभव हो जावेगी, क्योंकि किये गये शुभ अशुभ परिणाम ही कर्मों को ग्रहण करते हैं, वे आये हुए कर्म आत्मा से बँधकर भाग्य रूप बन जाते हैं और समय पाकर उदय में आकर सुख दु:ख रूप से फल देने में समर्थ हो जाते हैं, इसलिये भाग्य को पुरुषार्थ ने बनाया है। तथैव यदि पुरुषार्थ भाग्य की अपेक्षा न रखे तो वह भी अपने अस्तित्व को खो बैठेगा, क्योंकि अच्छे या बुरे भाग्योदय के अनुसार अच्छा या बुरा पुरुषार्थ जागृत होता है। बेचारे एकेन्द्रिय जीव निगोद राशि में पड़े हुये हैं उनका भाग्योदय प्रबल कलुषता को लिये हुये हैं। वे पुरुषार्थ क्या करेंगे ? संज्ञी पर्याप्तक पंचेन्द्री जीव के भी जब तक कर्मों का बंध, उदय और सत्व उत्कृष्ट स्थिति रूप में रहता है तब तक मोक्ष के लिये पुरुषार्थ रूप सम्यक्त्व को ग्रहण करने की योग्यता ही नहीं आती। हाँ ! जब कर्मों की स्थिति घटकर अंत: कोटाकोटी सागर में आ जाती है तभी वह जीव सम्यक्त्व को ग्रहण करने के लिये योग्यता प्राप्त करता है। किसी जीव के भी मिथ्यात्वादि तीव्र कर्म के उदय में मोक्ष के लिये उचित पुरुषार्थ नहीं हो सकता। अत: पुरुषार्थ भी सदैव भाग्य की सहायता चाहता रहता है। देखिये ! एक साथ सौ किसानों ने खेत में हल चलाया, बीज बोया, पुरुषार्थ किया किन्तु सबकी फसल समान नहीं है, किसी ने थोड़े से श्रम से भी अधिक फसल प्राप्त कर ली है और किसी ने अत्यधिक श्रम करके भी फसल अच्छी नहीं पाई। एक साथ शास्त्री की परीक्षा में १०० विद्यार्थी बैठे हैं कोई थोड़े से श्रम से ही विशेष योग्यता प्राप्त करके अच्छे अंक प्राप्त करते हैं और कोई अधिक परिश्रम करके भी पास नहीं हो पाते हैं। एक सेठजी घर बैठे करोड़ों रुपया कमा रहे हैं और एक बेचारा मजदूर दिनभर पत्थर फोड़ता है तक कहीं मुश्किल से शाम को २ रुपये मिल पाते हैं। इन सब उदाहरणों से हमें यही समझना चाहिये कि जब हम पुरुषार्थ करके कार्य में सफल होते हैं तब भाग्य गौण है किन्तु पुरुषार्थ प्रधान है, और जब हम अनायास कार्य ये गौण मुख्य व्यवस्था ही वास्तविक तत्व को समझने में सहायक है। सप्तभंगी प्रक्रिया के द्वारा हम किसी भी वस्तु को अच्छी तरह समझ सकते हैं। तथाहि—
(१) कथंचित् सभी कार्य दैव कृत हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है।
(२) कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थ कृत हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा है।
(३)कथंचित् सभी कार्य दैव पुरुषार्थ कृत हैं क्योंकि क्रम से अबुद्धिपूर्वक और बुद्धि पूर्वक विवक्षित है।
(४)कथंचित् सभी कार्य अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ हम दोनों विवक्षाओं को कह नहीं सकते हैं।
(५)कथंचित् सभी कार्य भाग्यकृत और अवक्तव्य हैं क्योंकि अबुद्धि पूर्वक की और युगपत् न कह सकने की विवक्षा है।
(६)कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थ कृत अवक्तव्य हैं, क्योंकि बुद्धिपूर्वक की और एक साथ न कह सकने की विवक्षा है।
(७)कथंचित् सभी कार्य दैव, पुरुषार्थ कृत अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से अबुद्धि पूर्वक, बुद्धि पूर्वक की अपेक्षा एवं एक साथ दोनों को न कह सकने की अपेक्षा है। इस प्रकार से जब हम दैव और पुरुषार्थ को परस्पर सापेक्ष समझ लेते हैं तब पुरुषार्थ के बल पर धीरे—धीरे दैव का नाश करते हुये दैव को शक्ति हीन कर देते हैं और समय पाकर शुक्ल ध्यान के बल से घातिया कर्मों का नाश करके सर्वज्ञ बन जाते हैं। संसार के कारणभूत मिथ्यात्वादि कर्मों को उनके प्रतिपक्षी सम्यक्त्व, संयम आदि के बल से नाश किया जा सकता है। मतलब आते हुये कर्मों को रोक देने से संवर हो जाता है एवं पूर्व संचित कर्मों की तपश्चर्या आदि प्रयोगों से निर्जरा होती है। बस! इन संवर और निर्जरा के द्वारा संसार के कारणरूप आस्रव, बंध का अभाव होकर के मोक्ष अवस्था प्राप्त हो जाती है। मोक्षमार्ग में सर्वथा पुरुषार्थ करना प्रधान माना गया है। हम पुरुषार्थ की सहायता से असातावेदनीय को सातारूप में संक्रमण कराकर उसका फल सुख रूप भोग सकते हैं। पुरुषार्थ के बल से भाग्य का निर्मूल नाश भी कर दिया जाता है। अतएव मोक्षमार्ग में सदैव उद्यम शील बने रहना चाहिये।