भारतीय ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन आत्मकल्याण के साथ लोक व्यवहार का सम्पन्न करना है। लोक व्यवहार के निर्वाह के लिए ज्योतिष के क्रियात्मक दो सिद्धान्त हैं–गणित और फलित। गणित ज्योतिष के शुद्ध गणित के अतिरिक्त करण, तन्त्र और सिद्धान्त—ये तीन भेद एवं फलित के जातक, ताजिक, मुहूर्त, प्रश्न एवं शकुन—ये पाँच भेद दिये हैं। यों तो भारतीय ज्योतिष के सिद्धान्तों का वर्गीकरण ही अधिक उपयुक्त है। यद्यपि भारतीय ज्योतिष के रहस्य को हृदयंगम करने के लिए गणित ज्योतिष का ज्ञान अनिवार्य है पर साधारण जनता के लिए आवश्यक नहीं क्योंकि प्रामाणिक ज्योतिर्विदों द्वारा निर्मित तिथिपत्रों-पंचांगों पर से कतिपय फलित से सम्बद्ध गणित के सिद्धान्तों द्वारा अपने शुभाशुभ का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है अतएव यहां पर प्रयोजनीभूत आवश्यक ज्योतिष तत्त्वों का निरूपण किया जा रहा है। हर एक व्यक्ति के लिए यह जरूरी नहीं कि वह ज्योतिषी हो, किन्तु मानव मात्र को अपने जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों को जानना उचित ही नहीं, अनिवार्र्य है।
फलित-ज्योतिष के ज्ञान के लिए तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वार के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए अतएव उपर्युक्त पाँचों के संक्षिप्त परिचय के साथ आवश्यक परिभाषाएँ दी जाती हैं—
तिथि—
चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना गया है। इसका चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों पर से मान निकाला जाता है। प्रतिदिन १२ अंशों का अन्तर सूर्य और चन्द्रमा के भ्रमण में होता है, यही अन्तरांश का मध्यम मान है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष की और पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्णपक्ष की होती हैं। ज्योतिषशास्त्र में तिथियों की गणना शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होती है।
तिथियों के स्वामी—
प्रतिपदा का स्वामी अग्नि, द्वितीया का ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी का गणेश, पंचमी का शेषनाग, षष्ठी का कार्तिकेय, सप्तमी का सूर्य, अष्टमी का शिव, नवमी की दुर्गा, दशमी का काल, एकादशी के विश्वदेव, द्वादशी का विष्णु, त्रयोदशी का काम, चतुर्दशी का शिव, पौर्णमासी का चन्द्रमा और अमावस्या के पितर हैं। तिथियों के शुभाशुभत्व के अवसर पर स्वामियों का विचार किया जाता है।
अमावस्या के तीन भेद हैं—
सिनीवाली, दर्श और कुहू। प्रात:काल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से विद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं।
तिथियों की संज्ञाएँ—
१/६/११ नन्दा, २/७/१२ भद्रा, ३/८/१३ जया, ४/९/१४ रिक्ता और ५/१०/१५ पूर्णा तथा ४/६/८/९/१२/१४ तिथियाँ पक्षरन्ध्र संज्ञक हैं।
मासशून्य तिथियाँ—
चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी और नवमी, वैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की त्रयोदशी, आषाढ़ में कृष्णपक्ष की षष्ठी और शुक्लपक्ष की सप्तमी, श्रावण में दोनों पक्षों की द्वितीया और तृतीया, भाद्रपद में दोनों पक्षों की प्रतिपदा और द्वितीया, आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी और एकादशी, कार्तिक में कृष्णपक्ष की पंचमी और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी, मार्गशीर्ष में दोनों पक्षों की सप्तमी और अष्टमी, पौष में दोनों पक्षों की चतुर्थी और शुक्लपक्ष की तृतीया मास शून्य संज्ञक हैं। मास शून्य तिथियों में कार्य करने से सफलता प्राप्त नहीं होती।
सिद्धा तिथियाँ—
मंगलवार को ३/८/१३, बुधवार को २/७/१२, बृहस्पतिवार को ५/१०/१५, शुक्रवार को १/६/११ एवं शनिवार को ४/९/१४ तिथियाँ सिद्धि देने वाली सिद्धासंज्ञक हैं। इन तिथियों में किया गया कार्य सिद्धिप्रदायक होता है।
दग्धा, विष और हुताशन संज्ञक तिथियाँ—
रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को पंचमी, बुधवार को तृतीया, बृहस्पतिवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टमी और शनिवार को नवमी दग्धा संज्ञक; रविवार को चतुर्थी, सोमवार को षष्ठी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को द्वितीया, बृहस्पतिवार को अष्टमी, शुक्रवार को नवमी और शनिवार को सप्तमी विष संज्ञक एवं रविवार को द्वादशी, सोमवार को षष्ठी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को अष्टमी, बृहस्पतिवार को नवमी, शुक्रवार को दशमी और शनिवार को एकादशी हुताशन संज्ञक हैं। नामानुसार इन तिथियों में काम करने से विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
वार | रविवार | सोमवार | मंगलवार | बुधवार | गुरुवार | शुक्रवार | शनिवार |
दग्धा संज्ञक | १२ | ११ | ५ | ३ | ६ | ८ | ९ |
विष संज्ञक | ४ | ६ | ७ | २ | ८ | ९ | ७ |
हुताशनसंज्ञक | १२ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
कई ताराओं के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं। आकाश मण्डल में जो असंख्यात तारिकाओं से कहीं अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं। जिस प्रकार लोक व्यवहार में एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों या कोसों में नापी जाती है, उसी प्रकार आकाश मण्डल की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है। तात्पर्य यह है कि जैसे कोई पूछे कि अमुक घटना सड़क पर कहाँ घटी, तो यही उत्तर दिया जायेगा कि अमुक स्थान से इतने कोस या मील चलने पर, उसी प्रकार अमुक नक्षत्र में। समस्त आकाश मण्डल की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है। तात्पर्य यह है कि जैसे कोई पूछे कि अमुक घटना सड़क पर कहाँ घटी, तो यही उत्तर दिया जायेगा कि अमुक स्थान से इतने कोस या मील चलने पर, उसी प्रकार अमुक ग्रह आकाश में कहाँ है, तो इस प्रश्न का भी वही उत्तर दिया जायेगा कि अमुम नक्षत्र में। समस्त आकाश मण्डल को ज्योतिषशास्त्र ने २७ भागों में विभक्त कर प्रत्येक भाग का नाम एक-एक नक्षत्र रखा है। सूक्ष्मता से समझाने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के भी चार भाग किए गए हैं, जो चरण कहलाते हैं। २७ नक्षत्रों के नाम निम्न हैं—१. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, ४ रोहिणी, ५. मृगशिरा, ६. आर्द्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. आश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वाफाल्गुनी, १२. उत्तराफाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा, १५. स्वाति, १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वाषाढ़ा, २१. उत्तराषाढ़ा, २२. श्रवण, २३. धनिष्ठा, २४. शतभिषा, २५. पूर्वाभाद्रपद, २६. उत्तराभाद्रपद, २७. रेवती।
अभिजित् को भी २८वाँ नक्षत्र माना गया है। ज्योतिर्विदों का अभिमत है कि उत्तराषाढ़ा की आखिरी १५ घटियाँ और श्रवण के प्रारम्भ की चार घटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजित् नक्षत्र होता है। यह समस्त कार्यों में शुभ माना गया है।
नक्षत्रों के स्वामी—
अश्विनी का अश्विनीकुमार, भरणी का काल, कृत्तिका का अग्नि, रोहिणी का ब्रह्मा, मृगशिरा का चन्द्रमा, आर्द्रा का रुद्र, पुनर्वसु का अदिति, पुष्य का बृहस्पति, आश्लेषा का सर्प, मघा का पितर, पूर्वाफाल्गुनी का भग, उत्तराफाल्गुनी का अर्यमा, हस्त का सूर्य, चित्रा का विश्वकर्मा, स्वाति का पवन, विशाखा का शुक्राग्नि, अनुराधा का मित्र, ज्येष्ठा का इन्द्र, मूल का निर्ऋति, पूर्वाषाढ़ा का जल, उत्तराषाढ़ा का विश्वेदेव, श्रवण का विष्णु, घनिष्ठा का वसु, शतभिषा का वरुण, पूर्वाभाद्रपद का अजैकपाद, उत्तराभाद्रपद का अहिर्बुघ्न्य, रेवती का पूषा एवं अभिजित् का ब्रह्मा स्वामी है। नक्षत्रों का फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव-गुण के अनुसार जानना चाहिए।
पंचक संज्ञक—
धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती-इन नक्षत्रों में पंचक दोष माना जाता है।
मूल संज्ञक—
ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती, मूल, मघा और अश्विनी, ये नक्षत्र मूलसंज्ञक हैं। इनमें यदि बालक उत्पन्न होता है तो २७ दिन के पश्चात् जब वही नक्षत्र आ जाता है तब शान्ति करायी जाती है। इन नक्षत्रों में ज्येष्ठा और मूल गण्डान्त मूलसंज्ञक तथा आश्लेषा सर्पमूलसंज्ञक हैं।
नक्षत्रों की अन्य संज्ञा—
ध्रुव संज्ञक—उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद व रोहिणी ध्रुवसंज्ञक हैं।
चर संज्ञक—स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा चर या चलसंज्ञक हैं।
उग्र संज्ञक—पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, मघा व भरणी उग्र संज्ञक हैं।
मिश्र संज्ञक—विशाखा और कृत्तिका मिश्रसंज्ञक हैं।
लघु संज्ञक—हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् क्षिप्र या लघुसंज्ञक हैं।
मृदु संज्ञक—मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा मृदु या मैत्रसंज्ञक हैं।
तीक्ष्ण संज्ञक—मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारुणसंज्ञक हैं।
अधोमुख संज्ञक—मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी और मघा अधोमुखसंज्ञक हैं। इनमें कुआँ या नींव खोदना शुभ माना जाता है।
ऊर्ध्वमुख संज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं।
तिर्यङ्मुख संज्ञक—अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, ज्येष्ठा और अश्विनी तिर्यङ्मुख संज्ञक हैं।
दग्ध संज्ञक—रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगलवार को उत्तराषाढ़ा, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा एवं शनिवार को रेवती दग्ध संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है।
मासशून्य संज्ञक—
चैत्र में रोहिणी और अश्विनी; वैशाख में चित्रा और स्वाति; ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा और पुष्य; आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढ़ा और श्रवण; भाद्रपद में शतभिषा और रेवती; आश्विन में पूर्वाभाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका और मघा; मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा; पौष में आर्द्रा, अश्विनी और हस्त; माघ में श्रवण और मूल एवं फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा मास शून्य नक्षत्र हैं।
कार्य की सिद्धि में नक्षत्रों की संज्ञाओं का फल प्राप्त होता है।
चू चे चो ला · अश्विनी, ली लू ले लो · भरणी, आ ई उ ए · कृत्तिका, ओ वा वी वू · रोहिणी, वे वो का की · मृगशिर, कू घ ङ छ · आर्द्रा, के को हा ही · पुनर्वसु, हू हे हो डा · पुष्य, डी डू डे डो · आश्लेषा, मा मी मू मे · मघा, मो टा टी टू · पूर्वाफाल्गुनी, टे टो पा पी · उत्तराफाल्गुनी, पू ष ण ठ · हस्त, पे पो रा री · चित्रा, रू रे रो ता · स्वाति, ती तू ते तो · विशाखा, ना नी नू ने · अनुराधा, नो या यी यू · ज्येष्ठा, ये यो भा भी · मूल, भू धा फा ढा · पूर्वाषाढ़ा, भे भो जा जी · उत्तराषाढ़ा, खी खू खे खो · श्रवण, गा गी गू गे · धनिष्ठा, गो सा सी सू · शतभिषा, से सो दा दी · पूर्वाभाद्रपद, दू थ झ ञ · उत्तराभाद्रपद, दे दो चा ची · रेवती।
सूर्य और चन्द्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़कर तथा कलाएँ बनाकर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है। शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएँ बीत गयी हैं। शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएँ आती हैं। इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुणा कर सूर्य और चन्द्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घटिकाएँ आती हैं। अभिप्राय यह है कि जब अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चन्द्रमा दोनों मिलकर ८०० कलाएँ आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएँ आगे चलते हैं तब दो; इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियाँ—२१६०० कलाएँ अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं। २७ योगों के नाम ये हैं–१. विष्कम्भ, २. प्रीति, ३. आयुष्मान, ४. सौभाग्य, ५. शोभन, ६. अतिगण्ड, ७. सुकर्मा, ८. धृति, ९. शूल, १०, गण्ड, ११. वृद्धि , १२. ध्रुव, १३. व्याघात, १४. हर्षण, १५. वङ्का, १६. सिद्धि, १७. व्यतीपात, १८. वरीयान् , १९. परिघ, २०. शिव, २१. सिद्ध, २२. साध्य २३. शुभ, २४. शुक्ल, २५. ब्रह्म, २६. ऐन्द्र, २७. वैधृति।
योगों के स्वामी—
विष्कम्भ का स्वामी यम, प्रीति का विष्णु, आयुष्मान् का चन्द्रमा, सौभाग्य का ब्रह्मा, शोभन का बृहस्पति, अतिगण्ड का चन्द्रमा, सुकर्मा का इन्द्र, धृति का जल, शूल का सर्प, गण्ड का अग्नि, वृद्धि का सूर्य, धु्रव का भूमि, व्याघात का वायु, हर्षण का भग, वङ्का का वरुण, सिद्धि का गणेश, व्यतीपात का रुद्र, वरीयान् का कुबेर, परिघ का विश्वकर्मा, शिव का मित्र, सिद्ध का कार्तिकेय, साध्य की सावित्री, शुभ की लक्ष्मी, शुक्ल की पार्वती, ब्रह्मा का अश्विनीकुमार, ऐन्द्र का पितर एवं वैधृति की दिति है।
तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। ११ करणों के नाम ये हैं–१. बव, २. बालव, ३. कौलव, ४. तैतिल, ५. गर, ६. वणिज, ७. विष्टि, ८. शकुनि, ९. चतुष्पद, १०. नाग, ११. किंस्तुघ्न। इन करणों में पहले के ७ करण चरसंज्ञक और अन्तिम ४ करण स्थिरसंज्ञक हैं।
कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के अन्तिम अर्द्धभाग में ‘शकुनि’ नामक करण रहता है। फिर अमावस्या के पहले अर्द्धभाग में चतुष्पद तथा उत्तरार्द्ध में ‘नाग’ करण होता है। फिर शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के अर्द्धभाग में िंकस्तुघ्न’ करण आता है। तत्पश्चात् क्रमश: अन्य करण आते हैं और इन सबकी निरन्तर पुनरावृत्ति होती रहती है।
बव का इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का सूर्य, तैतिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज का लक्ष्मी, विष्टि का यम, शकुनि का कलियुग, चतुष्पद का रुद्र, नाग का सर्प एवं किंस्तुघ्न का वायु है।
विष्टि करण का नाम भद्रा है, प्रत्येक पंचांग में भद्रा के आरम्भ और अन्त का समय दिया रहता है। भद्रा में प्रत्येक शुभकर्म करना वर्जित है।
जिस दिन की प्रथम होरा का जो ग्रह स्वामी है, उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार रहता है। अभिप्राय यह है कि ज्योतिषशास्त्र में शनि, बृहस्पति, मंगल, रवि, शुक्र, बुध और चन्द्रमा—ये ग्रह एक दूसरे से नीचे-नीचे माने गये हैं। अर्थात् सबसे ऊपर शनि, उससे नीचे बृहस्पति उससे नीचे मंगल, मंगल के नीचे रवि इत्यादि क्रम से ग्रहों की कक्षाएँ हैं। एक दिन में २४ होराएँ होती हैं—एक—एक घण्टे की एक—एक होरा होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि घण्टे का दूसरा नाम होरा है। प्रत्येक होरा का स्वामी अध:कक्षाक्रम से एक—एक ग्रह होता है। सृष्टि आरम्भ में सबसे पहले सूर्य दिखलाई पड़ता है इसलिए यह पहली होरा का स्वामी माना जाता है अतएव पहले वार का नाम आदित्यवार या रविवार है। इसके अनन्तर उस दिन की दूसरी होरा का स्वामी उसके पास वाला शुक्र, तीसरी का बुध, चौथी का चन्द्रमा, पांचवीं का शनि, छठी का बृहस्पति, सातवीं का मंगल, आठवीं का रवि, नवीं का शुक्र, दसवीं का बुध, ग्यारहवीं का चन्द्रमा, बारहवीं का शनि, १३वीं का बृहस्पति, १४वीं का मंगल, १५वीं का रवि, १६वीं का शुक्र, १७वीं का बुध, १८वीं का चन्द्रमा, १९वीं का शनि, २०वीं का बृहस्पति, २१वीं का मंगल, २२वीं का रवि, २३वीं का शुक्र और २४वीं का बुध स्वामी होता है। पश्चात् दूसरे दिन की पहली होरा का स्वामी चन्द्रमा पड़ता है अत: दूसरा वार सोमवार या चन्द्रवार माना जाता है। इसी प्रकार तीसरे दिन की पहली होरा का स्वामी मंगल, चौथे दिन की पहली होरा का स्वामी बुध, ५वें दिन की पहली होरा का स्वामी बृहस्पति, छठे दिन की पहली होरा का स्वामी शुक्र, एवं ७वें दिन की पहली होरा का स्वामी शनि होता है। इसीलिए क्रमश: रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि—ये सात वार माने जाते हैं।
वार संज्ञाएँ—
बृहस्पति, चन्द्र, बुध, और शुक्र—ये वार सौम्यसंज्ञक एवं मंगल, रवि और शनि—ये वार क्रूरसंज्ञक माने गये हैं। सौम्यसंज्ञक वारों में शुभ कार्य करना अच्छा माना जाता है।
रविवार स्थिर, सोमवार चर, मंगलवार उग्र, बुधवार सम, गुरुवार लघु, शुक्रवार मृदु एवं शनिवार तीक्ष्णसंज्ञक हैं। शल्यक्रिया के लिए शनिवार उत्तम माना गया है। विद्यारम्भ के लिए गुरुवार और वाणिज्यारम्भ के लिए बुधवार प्रशस्त माना गया है।
आकाश में स्थित भचक्र के ३६० अंश अथवा १०८ भाग होते हैं। समस्त भचक्र १२ राशियों में विभक्त है अत: ३० अंश अथवा ९ भाग की एक राशि होती है।
मेष—पुरुष जाति, चरसंज्ञक, अग्नितत्त्व, पूर्व दिशा की मालिक, मस्तक का बोध कराने वाली, पृष्ठोदय, उग्र प्रकृति, लाल—पीले वर्ण वाली, कान्तिहीन, क्षत्रिय वर्ण, सभी समान अंग वाली और अल्प सन्तति है। यह पित्त प्रकृतिकारक है, इसका प्राकृतिक स्वभाव साहसी, अभिमानी और मित्रों पर कृपा रखने वाला है।
वृष—स्त्री राशि, स्थिरसंज्ञक, भूमितत्त्व, शीतल स्वभाव, कान्तिरहित, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, वातप्रकृति, रात्रिबली, चार चरण वाली, श्वेत वर्ण, महाशब्दकारी, विषमोदयी, मध्यम सन्तति, शुभकारक, वैश्यवर्ण और शिथिल शरीर है। यह अर्द्धजल राशि कहलाती है। इसका प्राकृतिक स्वभाव स्वार्थी, समझ-बूझकर काम करने वाली और सांसारिक कार्यों में दक्ष होती है। इससे कण्ठ, मुख और कपोलों का विचार किया जाता है।
मिथुन—पश्चिम दिशा की स्वामिनी, वायुतत्त्व, तोते के समान हरित वर्ण वाली, पुरुष राशि, द्विस्वभाव, विषमोदयी, उष्ण, शूद्रवर्ण, महाशब्दकारी, चिकनी, दिनबली, मध्यम सन्तति और शिथिल शरीर है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विद्याध्ययनी और शिल्पी है। इससे हाथ, शरीर के कन्धों और बाहुओं का विचार किया जाता है।
कर्क—चर, स्त्री जाति, सौम्य और कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रक्त—धवल मिश्रितवर्ण, बहुचरण एवं सन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशीलता, लज्जा, कार्यस्थैर्य और समयानुयायिता का सूचक है। इससे पेट, वक्ष:स्थल और गुर्दे का विचार किया जाता है।
सिंह—पुरुष जाति, स्थिर संज्ञक, अग्नितत्त्व, दिनबली, पित्त प्रकृति, पीत वर्ण, उष्ण स्वभाव, पूर्व दिशा की स्वामिनी, पुष्ट शरीर, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति, भ्रमणप्रिय और निर्जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वरूप मेष राशि जैसा है पर तो भी इसमें स्वातन्त्र्य प्रेम और उदारता विशेष रूप से वर्तमान है। इससे हृदय का विचार किया जाता है।
कन्या—पिंगल वर्ण, स्त्री जाति, द्विस्वभाव, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, वायु और शीत प्रकृति, पृथ्वीतत्त्व और अल्प सन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव मिथनु जैसा है पर विशेषता इतनी है कि अपनी उन्नति और मान पर पूर्ण ध्यान रखने की यह कोशिश करती है। इससे पेट का विचार किया जाता है।
तुला—पुरुष जाति, चरसंज्ञक, वायुतत्त्व, पश्चिमी दिशा की स्वामिनी, अल्प सन्तान वाली, श्यामवर्ण, शीर्षोदयी, शूद्रसंज्ञक, दिनबली, क्रूर स्वभाव और पाद जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, ज्ञानप्रिय, कार्य सम्पादक और राजनीतिज्ञ है। इससे नाभि के नीचे के अंगों का विचार किया जाता है।
वृश्चिक—स्थिर संज्ञक, शुभ्रवर्ण स्त्री जाति, जलतत्त्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, कफ प्रकृति, बहुसन्तति, ब्राह्मण वर्ण और अर्द्ध जलराशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव दम्भी, हठी, दृढ़प्रतिज्ञ, स्पष्टवादी और निर्मल है। इससे शरीर के कद एवं जननेन्द्रिय का विचार किया जाता है।
धनु—पुरुष जाति, कांचन वर्ण, द्विस्वभाव, क्रूरसंज्ञक, पित्त प्रकृति, दिनबली, पूर्व दिशा की स्वामिनी, दृढ़ शरीर, अग्नितत्त्व, क्षत्रिय वर्ण, अल्प सन्तति एवं अर्द्ध जलराशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादा का इच्छुक है। इससे पैरों की सन्धि तथा जंघाओं का विचार किया जाता है।
मकर—चरसंज्ञक, स्त्री जाति, पृथ्वीतत्त्व, वात प्रकृति, िंपगल वर्ण, रात्रिबली, वैश्यवर्ण, शिथिल शरीर और दक्षिण दिशा की स्वामिनी है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उच्च दशाभिलाषी है। इससे घुटनों का विचार किया जाता है।
कुम्भ—पुरुष जाति, स्थिर संज्ञक, वायुतत्त्व, विचित्र वर्ण शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति, दिनबली, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, उष्ण स्वभाव, शूद्र वर्ण, क्रूर एवं मध्यम सन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, शान्तचित्त, धर्मवीर और नवीन बातों का आविष्कारक है। इससे पेट के भीतरी भागों का विचार किया जाता है।
मीन—द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्त्व, रात्रिबली, विप्र वर्ण, उत्तर दिशा की स्वामिनी और पिंगल रंग है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उत्तर, दयालु और दानशील है। यह सम्पूर्ण जलराशि है। इससे पैरों का विचार किया जाता है।
१. मेष | = चू चे चो ला ली लू ले लो आ | आ ला |
२. वृष | = ई उ ए ओ वा वी वू वे वो | उ वा |
३. मिथुन | = का की कू घ ङ छ के को हा | का छा |
४. कर्क | = ही हू हे हो डा डी डू डे डो | डा हा |
५. सिंह | = मा मी मू मे मो टा टी टू टे | मा टा |
६. कन्या | = टो पा पी पू ष ण ठ पे पो | पा ठा |
७. तुला | = रा री रू रे रो ता ती तू ते | रा ता |
८. वृश्चिक | = तो ना नी नू ने नो या यी यू | नो या |
९. धनु | = ये यो भा भी भू धा फा ढा भे भू धा | फा ढा |
१०. मकर | = भो जा जी खी खू खे खो गा गी | खा जा |
११. कुम्भ | = गू गे गो सा सी सू से सो दा | गो सा |
१२. मीन | = दी दू थ झ ञ दे दो चा ची | दा चा |
(राशिज्ञान करने की संक्षिप्त अक्षरविधि उपर्युक्त है)
राशि स्वरूप का प्रयोजन—
उपर्युक्त बारह राशियों का जैसा स्वरूप बतलाया है, इन राशियों में उत्पन्न पुरुष और स्त्रियों का स्वभाव भी प्राय: वैसा ही होता है। जन्मकुण्डली में राशि और ग्रहों के स्वरूप के समन्वय पर से ही फलाफल का विचार किया जाता है। दो व्यक्तियों की या वर-कन्या की शत्रुता और मित्रता अथवा पारस्परिक स्वभाव मेल के लिए भी राशि स्वरूप उपयोगी है।
शत्रुता और मित्रता की विधि—
पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्व वाली राशियों के व्यक्तियों में तथा अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व वाली राशियों के व्यक्तियों में परस्पर मित्रता रहती है। पृथ्वी और अग्नितत्त्व, जल और अग्नितत्त्व एवं जल और वायुतत्त्व वाली राशियों के व्यक्तियों में शत्रुता रहती है।
राशियों के स्वामी—
मेष और वृश्चिक का मंगल, वृष और तुला का शुक्र, कन्या और मिथुन का बुध, कर्क का चन्द्रमा, िंसह का सूर्य, मीन और धनु का बृहस्पति, मकर और कुम्भ का शनि, कन्या का राहु एवं मिथुन का केतु है।
शून्यसंज्ञक राशियाँ—
चैत्र में कुम्भ, वैशाख में मीन, ज्येष्ठ में वृष, आषाढ़ में मिथुन, श्रावण में मेष, भाद्रपद में कन्या आश्विन में वृश्चिक, कार्तिक में तुला, मार्गशीर्ष में धनु, पौष में कर्क, माघ में मकर एवं फाल्गुन में िंसह शून्यसंज्ञक हैं।
राशियों का अंग—विभाग—
द्वादश राशियाँ काल—पुरुष का अंग मानी गयी हैं। मेष को सिर में, वृष को मुख में, मिथुन को स्तनमध्य में, कर्क को हृदय में, सिंह को उदर में, कन्या को कमर में, तुला को पेडू में, वृश्चिक को लिंग में, धनु को जंघा में, मकर को दोनों घुटनों में, कुम्भ को दोनों जाँघों में एवं मीन को दोनों पैरों में माना है।
६० प्रतिपल | = १ विपल | ६० प्रतिविकला | = १ विकला |
६० विपल | = १ पल | ६० विकला | = १ कला |
६० पल | = १ घटी | ६० कला | = १ अंश |
२४ मिनट | = १ घटी या दण्ड | ३० अंश | = १ राशि |
२-१/२ पल | = १ मिनट | १२ राशि | = १ भगण |
२-१/२ विपल | = १ सेकेण्ड | ८ यव | = १ अंगुल |
२-१/२ घटी | = १ घण्टा | २४ अंगुल | = १ हाथ |
६० घटी | = एक अहोरात्र | ४ हाथ | = १ दण्ड या बाँस |
२००० बाँस = १ कोश
सूर्य के चन्द्रमा, मंगल और बृहस्पति मित्र; शुक्र और शनि शत्रु एवं बुध सम है। चन्द्रमा के सूर्य और बुध मित्र; मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि सम हैं। मंगल के सूर्य, चन्द्रमा एवं बृहस्पति मित्र; बुध शत्रु, शुक्र और शनि सम हैं। बुध के सूर्य और शुक्र मित्र; चन्द्रमा शत्रु एवं मंगल, बृहस्पति और शनि सम हैं। शुक्र के बुध, शनि मित्र; सूर्य, चन्द्रमा शत्रु और मंगल, बृहस्पति सम हैं। शनि के बुध और शुक्र मित्र; सूर्य, चन्द्रमा और मंगल शत्रु एवं बृहस्पति सम हैं।
ग्रह | सूर्य | चन्द्र | मंगल | बुध | बृहस्पति | शुक्र | शनि |
मित्र | चन्द्र | रवि, | रवि, | सूर्य, | बुध | बुध | बुध, |
मंगल, गुरु | बुध | गुरु, चन्द्र | शुक्र | शनि | शनि | शुक्र | |
शत्रु | शुक्र, | x | बुध | चन्द्र | बुध, | सूर्य | सूर्य |
शनि | शुक्र | चन्द्र | चन्द्र, मंगल | ||||
सम | बुध | मंगल, गुरु, | मंगल, | मंगल | शनि | मंगल | गुरु |
उदासीन | शुक्र, शनि | शुक्र, शनि | गुरु, शनि | गुरु |
तात्कालिक मैत्री विचार—जो ग्रह जिस स्थान में रहता है, वह उससे दूसरे, तीसरे, चौथे, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें भाव के ग्रहों के साथ मित्रता रखता है—तात्कालिक मित्र होता है और अन्य स्थानों—१, ५, ६, ७, ८, ९ के ग्रह शत्रु होते हैं।
जन्मपत्री बनाते समय निसर्ग मैत्री चक्र लिखने के अनन्तर जन्मलग्न कुण्डली के ग्रहों का उपर्युक्त नियम के अनुसार तात्कालिक मैत्री चक्र भी लिखना चाहिए।
पंचधा मैत्री विचार—नैसर्गिक और तात्कालिक मैत्री इन दोनों के सम्मिश्रण से पांच प्रकार के मित्र, शत्रु होते हैं—१. अतिमित्र, २. अतिशत्रु ३. मित्र, ४. शत्रु और ५. उदासीन सम।
तात्कालिक और नैसर्गिक दोनों जगह मित्र होने से अतिमित्र, दोनों जगह शत्रु होने से अतिशत्रु, एक में मित्र और दूसरे में सम होने से मित्र, एक में सम और दूसरे में शत्रु होने से शत्रु एवं एक में शत्रु और दूसरे में मित्र होने से सम- उदासीन ग्रह होते हैं।
१. सूर्य से—पिता, आत्मा, प्रताप, आरोग्यता, आसक्ति व लक्ष्मी का विचार करें।
२. चन्द्रमा से—मन, बुद्धि, राजा की प्रसन्नता, माता और धन का विचार करें।
३. मंगल से—पराक्रम, रोग, गुण, भाई, भूमि, शत्रु और जाति का विचार करें।
४. बुध से—विद्या, बन्धु, विवेक, मामा, मित्र और वचन का विचार करें।
५. बृहस्पति से—बुद्धि, शरीर पुष्टि, पुत्र और ज्ञान का विचार करें।
६. शुक्र से—स्त्री, वाहन, भूषण, कामदेव, व्यापार और सुख का विचार करें।
७. शनि से—आयु, जीवन, मृत्युकरण, विपत् और सम्पत् का विचार करें।
८. राहु से—पितामह (पिता का पिता) का विचार करें।
९. केतु से—नाना (माता का पिता) का विचार करें।
द्वादश भाव कारक ग्रह—
सूर्य लग्न भाव का, बृहस्पति धन का, मंगल सहज का, चन्द्र और बुध शुभ का, बृहस्पति पुत्र का, शनि और मंगल शत्रु का, शुक्र जाया का, शनि मृत्यु का, सूर्य और बृहस्पति धर्म का, बृहस्पति, सूर्य, बुध और शनि कर्म का, बृहस्पति लाभ का एवं शनि व्यय भाव का कारक है।
भाव | लग्न | धन | सहज | सुख | पुत्र | शत्रु | जाया | मृत्यु | धर्म | कर्म | लाभ | व्यय |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | |
कारक | सूर्य | गुरु | मंगल | चन्द्र | गुरु | शनि | शुक्र | शनि | सूर्य | सूर्य , बुध | गुरु | शनि |
ग्रह | बुध | मंगल | गुरु | गुरु , शनि |
बल—बुद्धि विचार—
सूर्य से शनि, शनि से मंगल, मंगल से बृहस्पति, बृहस्पति से चन्द्रमा, चन्द्रमा से शुक्र, शुक्र से बुध एवं बुध से चन्द्रमा का बल बढ़ता है। अर्थात् सूर्य के साथ शनि का बल, शनि के साथ मंगल का बल, मंगल के साथ गुरु का बल, गुरु के साथ चन्द्रमा का बल, चन्द्रमा के साथ शुक्र का बल और शुक्र के साथ बुध का बल बढ़ाता है।
स्थानबल, दिग्बल, कालबल, नैसर्गिकबल, चेष्टाबल और दृग्बल—ये छह प्रकार के बल हैं। यद्यपि पूर्व में ग्रहों के बलाबल का विचार गणित प्रक्रिया द्वारा किया जा चुका है, तथापि फलित ज्ञान के लिए इन बलों को जान लेना आवश्यक है।
स्थानबल—जो ग्रह उच्च, स्वगृही, मित्रगृही, मूल—त्रिकोणस्थ, स्व—नवांशस्थ अथवा द्रेष्काणस्थ होता है, वह स्थानबली कहलाता है। चन्द्रमा शुक्र समराशि में और अन्य ग्रह विषमराशि में बली होते हैं।
दिग्बल—बुध और गुरु लग्न में रहने से, शुक्र और चन्द्रमा चतुर्थ में रहने से, शनि सप्तम में रहने से एवं सूर्य और मंगल दशम स्थान में रहने से दिग्बली होते हैं। यत: लग्न पूर्व, दशम दक्षिण, सप्तम पश्चिम और चतुर्थ भाव उत्तर दिशा में होते हैं। इसी कारण उन स्थानों में ग्रहों का रहना दिग्बल कहलाता है।
कालबल—रात में जन्म होने पर चन्द्र, शनि और मंगल व दिन में जन्म होने पर सूर्य, बुध और शुक्र कालबली होते हैं। मतान्तर से बुध को सर्वदा कालबली माना जाता है।
नैसर्गिकबल—शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र, व सूर्य उत्तरोत्तर बली होते हैं।
चेष्टाबल—मकर से मिथुन पर्यन्त किसी राशि में रहने से सूर्य और चन्द्रमा तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि चन्द्रमा के साथ रहने से चेष्टाबली होते हैं।
दृग्बल—शुभ ग्रहों से दृष्ट ग्रह दृग्बली होते हैं।
बलवान् ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार जिस भाव में रहता है, उस भाव का फल देता है।
सूर्य—अपने उच्चराशि, द्रेष्काण, होरा, रविवार, नवांश, उत्तरायण, मध्याह्न, राशि का प्रथम पहर, मित्र के नवांश एवं दशम भाव में बली होता है।
चन्द्रमा—कर्कराशि, वृषराशि, दिन—द्रेष्काल, निजी—होरा, स्वनवांश, राशि के अन्त में शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट, रात्रि, चतुर्थ भाव और दक्षिणायन में बली होता है।
मंगल—मंगलवार, स्वनवांश, स्व—द्रेष्काण, मीन, वृश्चिक, कुम्भ, मकर, मेष राशि की रात्रि, वक्री, दक्षिण दिशा में राशि की आदि में बली होता है। दशम भाव में कर्क राशि में रहने पर भी बली माना जाता है।
बुध—कन्या और मिथुन राशि, बुधवार, अपने वर्ग, धनु राशि, रविवार के अतिरिक्त अन्य दिन एवं उत्तरायण में बली होता है। यदि राशि के मध्य का होकर लग्न में स्थित हो तो सदा यश और बल की वृद्धि करता है।
बृहस्पति—मीन, वृश्चिक, धन और कर्क राशि, स्ववर्ग, गुरुवार, मध्यदिन, उत्तरायण, राशि का मध्य एवं कुम्भ में बली होता है। नीचस्थ होने पर भी लग्न, चतुर्थ और दशम भाव में स्थित होने पर धन, यश और सुख प्रदान करता है।
शुक्र—उच्चराशि (मीन) स्ववर्ग, शुक्रवार, राशि का मध्य, षष्ठ, द्वादश, तृतीय और चतुर्थ स्थान में स्थित, अपराह्न, चन्द्रमा के साथ एवं वक्री, शुक्र बली माना जाता है।
शनि—तुला, मकर और कुम्भराशि, सप्तम भाव, दक्षिणायन, स्वद्रेष्काण, शनिवार, अपनी दशा, भुक्ति एवं राशि के अन्त में रहने पर बली माना जाता है। कृष्णपक्ष में वक्री हो तो समस्त राशि में बलवान् होता है।
राहु—मेष, वृश्चिक, कुम्भ, कन्या, वृष और कर्क राशि एवं दशम स्थान में बलवान होता है।
केतु—मीन, वृष और धनु राशि एवं उत्पात में केतु बली होता है।
सूर्य के साथ चन्द्रमा, लग्न से द्वितीय भाव में मंगल, चतुर्थ भाव में बुध, पंचम में बृहस्पति, षष्ठ में शुक्र एवं सप्तम में शनि निष्फल माना जाता है।
सभी ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें भाव को एक चरण दृष्टि से, पांचवें और नवें भाव को दो चरण दृष्टि से, चौथे और आठवें भाव को तीन चरण दृष्टि से एवं सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं किन्तु मंगल चौथे और आठवें भाव को, गुरु पाँचवें और नवें भाव को एवं शनि तीसरे और दसवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं।
ग्रहों के उच्च और मूलत्रिकोण का विचार—
सूर्य का मेष के १० अंश पर, चन्द्रमा का वृष के ३ अंश पर, मंगल का मकर के २८ अंश पर, बुध का कन्या के १५ अंश पर, बृहस्पति का कर्क के ५ अंश पर, शुक्र का मीन के २७ अंश पर और शनि का तुला के २० अंश पर परमोच्च होता है। प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम राशि में इन्हीं अंशों पर नीच का होता है। राहु वृष राशि में उच्च और वृश्चिक राशि में नीच एवं केतु वृश्चिक राशि में उच्च और वृष राशि में नीच का होता है।
उच्चग्रह की अपेक्षा मूलत्रिकोण में ग्रहों का प्रभाव कम पड़ता है, लेकिन स्वक्षेत्री—अपनी राशि में रहने की अपेक्षा मूलत्रिकोण बली होता है। पहले लिखा गया है कि सूर्य सिंह में स्वक्षेत्री हैं—सिंह का स्वामी है, परन्तु िंसह के १ अंश से २० अंश तक सूर्य का मूल त्रिकोण और २१ से ३० अंश तक स्वक्षेत्र कहलाता है। जैसे किसी का जन्मकालीन सूर्य िंसह के १५ वें अंश पर है तो यह मूलत्रिकोण का कहलायेगा, यदि यही सूर्य २२वें अंश पर है तो स्वक्षेत्री कहलाता है। चन्द्रमा का वृषराशि के ३ अंश तक परमोच्च है और इसी राशि के ४ अंश से ३० अंश तक मूलत्रिकोण है। मंगल का मेष के १८ अंश तक मूलत्रिकोण है, और इससे आगे स्वक्षेत्र है। बुध का कन्या के १५ अंश तक उच्च १६ अंश में २० अंश तक मूल त्रिकोण और २१ से ३० अंश तक स्वक्षेत्र है। गुरु का धनराशि के १ अंश से १३ अंश तक मूलत्रिकोण और १४ से ३० अंश तक स्वगृह होता है। शुक्र का तुला के १ अंश से १० अंश तक मूलत्रिकोण और ११ से ३० अंश तक स्वक्षेत्र है। शनि का कुम्भ के १ अंश से २० अंश तक मूलत्रिकोण और २१ से ३० अंश तक स्वक्षेत्र है। राहु का वृष में उच्च, मेष में स्वगृह और कर्क में मूलत्रिकोण है।
द्वादश भावों की संज्ञाएं एवं स्थानों का परिचय—
जन्मकुण्डली के द्वादश भाव हैं। यहाँ द्वादश भावों की संज्ञाएँ और उनसे विचारणीय बातों का उल्लेख किया जाता है। केन्द्र १/४/७/१०, पणफर २/५/८/११, आपोक्लिम ३/६/९/१२, त्रिकोण ५/९, उपचय ३/६/१०/११, चतुरस्र ४/८, मारक २/७, नेत्रत्रिक संज्ञक ६/८/१२ स्थान हैं।
प्रथम भाव के नाम—आत्मा, शरीर, लग्न, होरा, देह, वपु, कल्प, मूर्ति, अंग, तनु, उदय, आद्य, प्रथम, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय हैं।
विचारणीय बातें—रूप, चिह्न, जाति, आयु, सुख, दुख, विवेक, शील, मस्तिष्क, स्वभाव, आकृति आदि हैं। इसका कारके रवि है, इसमें मिथुन, कन्या, तुला और कुम्भ राशियाँ बलवान् मानी जाती हैं। लग्नेश की स्थिति के बलाबलानुसार कार्यकुशलता, जातीय उन्नति-अवनति का ज्ञान किया जाता है।
द्वितीय भाव के नाम—पणफर, द्रव्य, स्व, वित्त, कोश, अर्थ, कुटुम्ब और धन हैं।
विचारणीय बातें—कुल, मित्र, आँख, कान, नाक, स्वर, सौन्दर्य, गान, प्रेम, सुखभोग, सत्यभाषण, संचित पूँजी (सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य आदि), क्रय एवं विक्रय आदि हैं।
तृतीय भाव के नाम—आपोक्लिम, उपचय, पराक्रम, सहज, भ्रातृ और दुश्चिक्य हैं।
विचारणीय बातें–नौकर—चाकर, सहोदर, पराक्रम, आभूषण, दासकर्म, साहस, आयुष्य, शौर्य, धैर्य, दमा, खाँसी, क्षय, श्वास, गायन, योगाभ्यास आदि हैं।
चतुर्थ भाव के नाम—केन्द्र, कण्टक, सुख, पाताल, तुर्य, हिबुक, गृह, सुहृद्, वाहन, यान, अम्बु, बन्धु, नीर आदि हैं।
विचारणीय बातें—मातृ-पितृ सुख, गृह, ग्राम, चतुष्पद, मित्र, शान्ति, अन्त:करण की स्थिति, मकान, सम्पत्ति, बाग-बगीचा, पेट के रोग, यकृत, दया, औदार्य, परोपकार, कपट, छल एवं निधि हैं। इस स्थान में कर्क, मीन और मकर राशि का उत्तरार्ध बलवान् होता है। चन्द्रमा और बुध इस स्थान के कारक हैंं, यह स्थान माता का है।
पंचम भाव के नाम—पंचम, सुत, तनुज, पणफर, त्रिकोण, बुद्धि, विद्या, आत्मज और वाणी हैं।
विचारणीय बातें—बुद्धि, प्रबन्ध, सन्तान, विद्या, विनय, नीति, व्यवस्था, देवभक्ति, मातुल-सुख, नौकरी छूटना, धन मिलने के उपाय, अनायास बहुत धन-प्राप्ति, जठराग्नि, गर्भाशय, हाथ का यश, मूत्रपिण्ड एवं बस्ती हैं। इसका कारक गुरु है।
षष्ठ भाव के नाम—आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, शत्रु, रिपु, द्वेष, क्षत, वैरी, रोग और नष्ट हैं।
विचारणीय बातें—मामा की स्थिति, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, रोग, पीड़ा, व्रणादिक, गुदास्थान एवं यश आदि हैं। इसके कारक शनि और मंगल हैं।
सप्तम भाव के नाम—केन्द्र, मदन, सौभाग्य, जामित्र और काम हैं।
विचारणीय बातें—स्त्री, मृत्यु, मदन-पीड़ा, स्वास्थ्य, कामचिन्ता, मैथुन, अंगविभाग, जननेन्द्रिय, विवाह, व्यापार, झगड़े एवं बवासीर रोग आदि हैं। इसमें वृश्चिक राशि बलवान् होती है।
अष्टम भाव के नाम—पणफर, चतुरस्र, त्रिक, आयु, रन्ध्र और जीवन हैं।
विचारणीय बातें—व्याधि, आयु, जीवन, मरण, मृत्यु के कारण, मानसिक चिन्ता, समुद्र यात्रा, ऋण का होना, उतरना, िंलग, योनि, अण्कोष आदि के रोग एवं संकट प्रभृति हैं। इस स्थान का कारक शनि है।
नवम भाव के नाम—धर्म, पुण्य, भाग्य और त्रिकोण हैं।
विचारणीय बातें—मानसिक वृत्ति, भाग्योदय, शील, विद्या, तप, धर्म, प्रवास, तीर्थयात्रा, पिता का सुख एवं दान आदि हैं। इसके कारक रवि और गुरु हैं।
दशम भाव के नाम—व्यापार, आस्पद, मान, आज्ञा, कर्म, व्योम, गगन, मध्य, केन्द्र, स्व और नभ हैं।
विचारणीय बातें—राज्य, मान, प्रतिष्ठा, नौकरी, पिता, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, ऐश्वर्य—भोग, कीर्तिलाभ एवं नेतृत्व आदि हैं। इसमें मेष, सिंह, वृष, मकर का पूर्वार्द्ध एवं धन का उत्तरार्द्ध बलवान् होता है। इसके कारक रवि, बुध, गुरु एवं शनि हैं।
एकादश भाव के नाम—पणफर, उपचय, लाभ, उत्तम और आय हैं।
विचारणीय बातें—गज, अश्व, रत्न, मांगलिक कार्य, मोटर, पालकी, सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य आदि हैं। इसका कारक गुरु है।
द्वादश भाव के नाम—रिष्फ, व्यय, त्रिक, अन्तिम और प्रान्त्य हैं।
विचारणीय बातें—हानि, दान, व्यय, दण्ड, व्यसन एवं रोग आदि हैं। इस स्थान का कारक शनि है।
फल प्रतिपादन के लिए कतिपय नियम—
जिस भाव में जो राशि हो, उस राशि का स्वामी ही उस भाव का स्वामी या भावेश कहलाता है। छठे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी जिन भावों-स्थानों में रहते हैं, अनिष्टकारक होते हैं। किसी भाव का स्वामी स्वगृही हो तो उस स्थान का फल अच्छा होता है। ग्यारहवें भाव में सभी ग्रह शुभ फलदायक होते हैं। किसी भाव का स्वामी पापग्रह हो और वह लग्न से तृतीय स्थान में पड़े तो अच्छा होता है किन्तु जिस भाव का स्वामी शुभ ग्रह हो और वह तीसरे स्थान में पड़े तो मध्यम फल देता है। जिस भाव में शुभ ग्रह रहता है, उस भाव का फल उत्तम और जिसमें पापग्रह रहता है, उस भाव के फल का ह्रास होता है।