१. प्राय: सभी दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। न केवल स्वीकार करते हैं, उसके अस्तित्व की सिद्धि हेतु अनेक अकाट्य युक्तियाँ भी प्रस्तुत करते हैं।
२. प्राय: सभी दर्शनों में आत्मज्ञान पर विशेष बल प्रदान किया गया है। आत्मज्ञान को ही जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य बनाने की प्रेरणा दी गई है। दर्शनशास्त्र के उद्भव का मूल कारण एवं प्रयोजन आत्मज्ञान ही माना गया है। आत्मज्ञान के बिना सब कुछ असार एवं निष्फल निरूपित किया गया है।
३. प्राय: सभी दर्शनों में आत्मा को अनादिनिधन या अजर—अमर और शरीरादि सर्व बाह्य पदार्थों से भिन्न अमूर्तिक तत्त्व माना गया है।
४. सभी दर्शनों में आत्मा का असली स्वरूप चैतन्य ही माना गया है। चार्वाक दर्शन भी जो आत्मा को भूतचतुष्टय का विशिष्ट परिणमन मात्र कहता है, स्वरूपत: आत्मा को चैतन्य ही स्वीकार करता है।
५. प्राय: सभी दर्शन आत्मा का पूर्वजन्म—पुनर्जन्म भी स्वीकार करते हैं तथा मुक्त होने पर उसे जन्म—मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाता है, यह भी स्वीकार करते हैं।
६. प्राय: सभी दर्शन मोक्ष को आत्मा का चरम लक्ष्य मानते हैं तथा यह भी स्वीकार करते हैं कि मुक्तावस्था में आत्मा अपने सम्पूर्ण विकारों या दोषों से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वाभाविक स्वरूप में पूर्ण विकसित हो जाती है। दूसरे शब्दों में आत्मलाभ का ही नाम मोक्ष है जिसे मुक्ति, निर्वाण, अपवर्ग, नि:श्रेयस आदि अनेक शब्दों में जाना जाता है।
७. मोक्ष का साधन भी प्राय: सभी दर्शनों में तत्त्वज्ञान, भेदज्ञान, ब्रह्मज्ञान या अल्पज्ञान को ही माना गया है तथा इसीलिए प्राय: सभी दर्शनों में तत्त्वज्ञान की भरपूर प्रेरणा भी दी गयी है।
सांख्य—योग दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
समानताएँ—सांख्य—योग दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. दोनों ही दर्शनों में आत्मा को प्रकृति या जड़ (अचेतन) पदार्थों से भिन्न माना गया है।
२. दोनों ही दर्शनों में उसे चैतन्यस्वरूप ही स्वीकार किया गया है।
३. दोनों ही दर्शनों में चैतन्य को आत्मा का मूल स्वभाव स्वीकार किया गया है, न्याय—वैशेषिकों की भाँति आगन्तुक गुण नहीं माना गया है।
४. दोनों ही दर्शनों में संख्यापेक्षा अनन्त आत्माएँ मानी गई हैं।
असमानताएँ—सांख्य—योग दर्शन और जैन दर्शन में आत्मविषयक निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. सांख्य दर्शन आत्मा को सर्वथा नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ या निष्क्रिय मानता है किन्तु जैनदर्शन निश्चयनय से अथवा द्रव्य—अपेक्षा से ही आत्मा को उक्त प्रकार का मानता है तथा व्यवहार नय से अथवा पर्याय की अपेक्षा से तो उसे अनित्य या परिणामी भी मानता है।
२. सांख्य दर्शन आत्मा को सत्त्व—रज—तम गुणों से रहित और सर्वथा शुद्ध—बुद्ध मानता है किन्तु जैन दर्शन आत्मा को निश्चयनय से ही वैसा स्वीकार करता है और साथ ही व्यवहार नय से राग—द्वेषादियुक्त अशुद्ध अज्ञानी भी स्वीकार करता है।
३. सांख्य दर्शन ज्ञान को आत्मा (पुरुष) का गुण नहीं मानता बल्कि प्रकृति का परिणाम कहता है किन्तु जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का अपना ही स्वभाव या गुण स्वीकार करता है।
४. सांख्य दर्शन आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानता है पर जैन दर्शन में आत्मा को निश्चयनय से अकर्ता और व्यवहार नय से कर्ता दोनों ही स्वीकार किया गया है।
५. सांख्य दर्शन के अनुसार बन्ध—मोक्ष तो प्रकृति का धर्म है, प्रकृति ही बँधती है और प्रकृति ही मुक्त होती है, आत्मा तो सर्वथा बन्ध—मोक्ष से रहित है, किन्तु जैन दर्शन के अनुसार बन्ध—मोक्ष आत्मा का ही होता है।
६. सांख्य दर्शन आत्मा को निर्गुण—निराकार सर्वव्यापक मानता है किन्तु जैन दर्शन में आत्मा को सगुण—साकार और देह परिमाण माना गया है।
७. सांख्य दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा सर्व दु:खों से रहित हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार सर्व दु:खों से रहित होने के साथ—साथ अतीन्द्रिय सुख से सहित भी हो जाता है।
समानताएँ—न्याय–वैशेषिक और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. दोनों ही दर्शन आत्मा को एक ऐसा अभौतिक द्रव्य मानते हैं जो शरीर, इन्द्रिय, मन आदि सर्व भौतिक द्रव्यों से अत्यन्त भिन्न है।
२. दोनों ही दर्शन संख्यापेक्षा अनेक आत्माएँ स्वीकार करते हैं। कहते हैं कि प्रत्येक शरीर में भिन्न—भिन्न आत्मा है।
३. दोनों ही दर्शन आत्मा को अपने—अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता भी स्वीकार करते हैं।
४. दोनों ही दर्शन आत्मा को स्वभावत: अमूर्तिक मानते हैं। यद्यपि जैन दर्शन में संसारी आत्मा को कर्मसहित होने से कथंचित् मूर्तिक भी माना गया है।
असमानताएँ—न्याय—वैशेषिक दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. न्याय—वैशेषिक दर्शन में चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना गया है किन्तु जैन दर्शन में उसे आत्मा का स्वाभाविक गुण माना गया है।
२. न्याय—वैशेषिक दर्शन आत्मा को सर्वथा नित्य और अपरिणामी मानते हैं किन्तु जैन दर्शन आत्मा को कथंचित् (प्ार्याय—अपेक्षा से) अनित्य और परिणामी भी मानता है।
३. न्याय—वैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा विभु है, व्यापक है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह परिमाण है।
४. न्याय—वैशेषिक दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा के समस्त विशेष गुणों का नाश हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं होता अपितु आत्मा के विशेष गुणों का पूर्ण शुद्ध विकास हो जाता है। वैसे जिन इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख—दु:ख, धर्म—अधर्म आदि विशेष गुणों का अभाव होना न्याय—वैशेषिक दर्शन में बताया गया है उनका अभाव तो जैन दर्शन भी मानता है। हाँ, ज्ञान—दर्शन आदि उसके स्वाभाविक विशेष गुणों का अभाव वह नहीं मानता।
समानताएँ—मीमांसा और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. दोनों दर्शन मानते हैं कि आत्मा है, चैतन्यस्वरूप है, शाश्वत या अजर—अमर है, स्वयं प्रकाशमान आत्मज्योतिरूप है।
२. संख्यापेक्षा अनेक आत्माएँ हैं।
३. आत्मा स्वयं अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही भोक्ता भी है। आत्मा को कर्मफल प्राप्ति किसी ईश्वरादि के द्वारा नहीं होती।
४. आत्मा अपने इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्मों तक में भी भोग सकता है।
५. भाट्ट मीमांसक और जैन दर्शन दोनों ही इस बात में भी एकमत हैं कि आत्मा ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है।
असमानताएँ—मीमांसा दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. भाट्ट मीमांसक आत्मा को परिणामी और नित्य मानते हैं तथा प्राभाकर मीमांसक आत्मा को अपरिणामी नित्य मानते हैं किन्तु जैन दर्शन में द्रव्यापेक्षा से अपरिणामी नित्य और पर्यायापेक्षा से परिणामी अनित्य माना गया है।
२. प्राभाकर मीमांसक चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं परन्तु जैन दर्शन चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं, अपितु उसका अपना मूल स्वभाव मानता है।
३. मीमांसा दर्शन में आत्मा को व्यापक माना गया है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह परिमाण है।
४. मीमांसा दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा सर्व दु:खों से रहित हो जाती है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार वह अतीन्द्रिय स्वाभाविक सुखादि गुणों से सहित भी हो जाती है।
५. मीमांसा दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा के समस्त विशेष गुणों का नाश हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं होता अपितु आत्मा के विशेष गुणों का पूर्ण शुद्ध विकास हो जाता है। वैसे जिन इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख—दु:ख, धर्म—अधर्म आदि विशेष गुणों का अभाव होना न्याय—वैशेषिक दर्शन में बताया गया है, उनका अभाव तो जैन दर्शन भी मानता है। हाँ, ज्ञान—दर्शन आदि उसके स्वाभाविक विशेष गुणों का अभाव वह नहीं मानता।
समानताएँ—मीमांसा और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. दोनों दर्शन मानते हैं कि आत्मा है, चैतन्यस्वरूप है, शाश्वत या अजर—अमर है, स्वयं प्रकाशमान आत्मज्योतिरूप है।
२. संख्यापेक्षा अनेक आत्माएँ हैं।
३. आत्मा स्वयं अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही भोक्ता भी है। आत्मा को कर्मफल प्राप्ति किसी ईश्वरादि के द्वारा नहीं होती।
४. आत्मा अपने इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्मों तक में भी भोग सकता है।
५. भाट्ट मीमांसक और जैन दर्शन दोनों ही इस बात में भी एकमत हैं कि आत्मा ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है।
असमानताएँ—मीमांसा दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. भाट्ट मीमांसक आत्मा को परिणामी और नित्य मानते हैं तथा प्राभाकर मीमांसक आत्मा को अपरिणामी नित्य मानते हैं किन्तु जैन दर्शन में द्रव्यापेक्षा से अपरिणामी नित्य और पर्यायापेक्षा से परिणामी अनित्य माना गया है।
२. प्राभाकर मीमांसक चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं परन्तु जैन दर्शन चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं अपितु उसका अपना मूल स्वभाव मानता है।
३. मीमांसा दर्शन में आत्मा को व्यापक माना गया है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह परिमाण है।
४. मीमांसा दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा सर्व दु:खों से रहित हो जाती है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार वह अतीन्द्रिय स्वाभाविक सुखादि गुणों से सहित भी हो जाती है।
५. मीमांसा दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा के समस्त विशेष गुणों का नाश हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं होता अपितु आत्मा के विशेष गुणों का पूर्ण शुद्ध विकास हो जाता है। वैसे जिन इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख—दु:ख, धर्म—अधर्म आदि गुणों का अभाव होना मीमांसा दर्शन में बताया गया है, उनका अभाव तो जैन दर्शन भी मानता ही है किन्तु ज्ञान—दर्शन आदि उसके स्वाभाविक विशेष गुणों का अभाव वह नहीं मानता।
समानताएँ—अद्वैतवेदान्त दर्शन और जैनदर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. आत्मा चैतन्यस्वरूप है और उसका यह चैतन्य जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सर्व अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। आत्मा चैतन्य से रहित कभी भी नहीं होता।
२. चैतन्य आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं है अपितु स्वाभाविक गुण है।
३. वेदान्त दर्शन के अनुसार भी आत्मा सत्, चित् एवं आनन्द स्वरूप है और जैन दर्शन के अनुसार भी आत्मा ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त गुणों की सत्तास्वरूप वस्तु है अर्थात् सत्, चित् एवं आनन्द स्वरूप ही है।
४. दोनों ही दर्शनों में मोक्ष को भावात्मक माना गया है, अभावात्मक नहीं। आत्मा के पूर्ण शुद्ध एवं स्वाभाविक स्वरूप की प्राप्ति का नाम मोक्ष है जहाँ आत्मा शुद्ध चैतन्य आदि आनन्द स्वरूप में स्थित रहता है।
५. दोनों ही दर्शनों में मोक्ष की दो अवस्थाएँ मानी गई हैं—जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति।
असमानताएँ—अद्वैतवेदान्त दर्शन में संख्यापेक्षा आत्मा को एक ही माना गया है किन्तु जैन दर्शन में अनन्त आत्मा माने गये हैं।
२. अद्वैतवेदान्त दर्शन में आत्मा को उपाधियों के कारण ही कर्ता–भोक्ता माना गया है, वास्तविक रूप से नहीं; किन्तु जैन दर्शन में आत्मा को मात्र शुद्ध निश्चयनय से ही अकर्ता—अभोक्ता माना है अन्यथा वह अपने रागादि भावों का कर्ता—भोक्ता तो वास्तव में है ही।
३. दरअसल अद्वैतवेदान्त दर्शन में जीव और आत्मा में बड़ा अन्तर माना गया है। जीव तो संसारी है किन्तु आत्मा शुद्ध—बुद्ध है। इसी प्रकार जीव अनेक हैं किन्तु आत्मा एक ही है। जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा अनेक जलपात्रों में प्रतिबिम्बित होकर अनेकत्व की प्रतीति कराता है उसी प्रकार एक ही आत्मा अनेक शरीरों में पहुँचकर अविद्या से अनेकत्व की प्रतीति कराता है किन्तु जैन दर्शन उनकी इस बात से सहमत नहीं है। वहाँ जीव और आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, मात्र कथन शैली का ही अन्तर है। जैन दर्शन के अनुसार जीव या आत्मा संख्यापेक्षा अनेक हैं और वे सभी भिन्न—भिन्न या स्वतन्त्र—स्वतन्त्र पदार्थ हैं। वे मोह—राग—द्वेषादि भावों से सहित होने के कारण अशुद्ध कहे जाते हैं और मुक्त दशा में उनका अभाव हो जाने से शुद्ध—बुद्ध कहे जाते हैं।
४. अद्वैतवेदान्त दर्शन में आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय माना गया है किन्तु जैन दर्शन में उसे सक्रिय पदार्थ स्वीकार किया गया है।
५. अद्वैतवेदान्त दर्शन में आत्मा को निरवयवी और व्यापक माना गया है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा सावयवी (सप्रदेशी, बहुप्रदेशी, असंख्याप्रदेशी) और अव्यापक—मात्र देह परिमाण है।
६.अद्वैतवेदान्त दर्शन के अनुसार तत्त्वज्ञान ही मोक्ष का कारण है, जो यद्यपि स्थूल अपेक्षा से जैन दर्शन को भी मान्य है किन्तु वास्तव में जैन दर्शन के अनुसार तो सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है।
७. अद्वैतवेदान्त दर्शन के अनुसार मोक्षावस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है, किन्तु जैन दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं होता अपितु जीव अपने स्वाभाविक शुद्ध—बुद्ध रूप में अनन्त काल तक स्वतन्त्रतया निवास करता है।
समानताएँ—विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं
१. दोनों ही दर्शन आत्मा की सत्ता में पूर्ण विश्वास करते हैं और उसे शरीर, मन, वाणी व इन्द्रियों से अत्यन्त भिन्न तथा चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक वस्तु मानते हैं।
२. संख्यापेक्षा भी दोनों दर्शनों के अनुसार इस विश्व में अनन्त आत्माएँ हैं जो प्रति शरीर भिन्न—भिन्न हैं, एक ही नहीं है।
३. प्रत्येक आत्मा स्वभावत: ज्ञान—आनन्द स्वरूप हैं।
४. आत्मा ज्ञातास्वभावी होते हुए भी अपने—अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता भी है।
५. मोक्षावस्था में आत्मा पूर्ण शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो जाता है, उसमें कोई अशुद्धता शेष नहीं रहती।
असमानताएँ—विशिष्टद्वैत वेदान्त दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. जैन दर्शन के अनुसार आत्मा और जीव पर्यायवाची हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं है अत: वे उसे कभी ‘आत्मा’ शब्द से और कभी ‘जीव’ शब्द से कह देते हैं किन्तु विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन में इसे सदा ‘जीवात्मा’ शब्द से ही सम्बोधित किया जाता है।
२. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार यह जीवात्मा ज्ञानानन्द स्वरूप और अपने—अपने कर्मों का कर्ता—भोक्ता होते हुए भी पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है अपितु ब्रह्म या ईश्वर ही उसका स्वामी या संचालक है, वही इसे कर्मों का फल प्रदान करता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों को करता है और स्वयं ही अपने कर्मों के फल को भोगता भी है। फल प्रदान करने की शक्ति भी कर्मों में ही स्वाभाविक रूप से विद्यमान होती है।
३. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा (जीवात्मा) अणु रूप है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार शरीर प्रमाण है।
४. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा (जीवात्मा) के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं—बद्ध जीव,, मुक्त जीव और नित्य जीव, किन्तु जैन दर्शन के अनुसार दो ही भेद होते हैं—संसारी जीव और मुक्त जीव। संसारी जीव को बद्ध जीव भी कह सकते हैं किन्तु बद्ध और मुक्त के अतिरिक्त नित्य जीव नाम का कोई अलग से भेद नहीं होता।
५. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार जीवात्मा को विदेह मुक्ति ही होती है, जीवन मुक्ति नहीं होती किन्तु जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति दोनों प्रकार की होती है—जीवन मुक्ति और देह मुक्ति।
६. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा मुक्तावस्था में ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म सदृश हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा एक स्वतन्त्र सत् और अनादिनिधन पदार्थ है, वह मुक्तावस्था में भी अपने पूर्ण विकसित शुद्ध स्वभाव वâे साथ स्वतन्त्रतया निवास करता है, किसी अन्य ब्रह्मादि में विलीन नहीं होता।
समानताएँ—बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. दोनों ही दर्शनों में चार्वाक जैसी शरीरात्मवाद की अवधारणा का प्रबल निराकरण किया गया है।
२. दोनों ही दर्शन आत्मा के पूर्वजन्म—पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं।
३. दोनों ही दर्शन आत्मा की दु:खमुक्ति हेतु अशुभ कर्मों से निवृत्ति और श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्ति की प्रेरणा देते हैं।
४. दोनों ही दर्शन निर्वाण या मोक्ष में ही पूर्णतया दु:खमुक्ति मानते हैं और संसारदशा को दु:खरूप ही स्वीकार करते हैं।
असमानताएँ—उक्त दोनों दर्शनों में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. बौद्ध दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है अनात्मवाद और इसीलिए बौद्धदर्शन एक अनात्मवादी दर्शन के रूप में जाना जाता है किन्तु जैन दर्शन स्पष्टतया आत्मवादी दर्शन कहलाता है क्योंकि उसमें आत्मा के अस्तित्व, स्वरूप, भेदादि का विस्तारपूर्वक सभी जैनाचार्यों ने एक सा वर्णन किया है।
२. बौद्ध दर्शन में आत्मा सत्य वस्तु न होकर काल्पनिक मात्र है अथवा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान—इन पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त कुछ नहीं है; किन्तु जैन दर्शन में ऐसा नहीं है अपितु आत्मा एक स्वतन्त्र सत्य वस्तु चैतन्यस्वरूप है, रूपादि तो पुद्गल हैं।
३. बौद्ध दर्शन में आत्मा क्षणस्थायी या क्षणिक प्रवाह मात्र है, अत: सर्वथा अनित्य या परिणमनशील है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा द्रव्यापेक्षा नित्य त्रिकालस्थायी, अपरिवर्तनशील और पर्यायापेक्षा अनित्य या परिवर्तनशील भी है।
समानताएँ—चार्वाक दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के सम्बन्ध में प्राय: कोई समानता नहीं प्राप्त होती। दोनों ही दर्शनों की मान्यता इस सम्बन्ध में बिल्कुल अलग—अलग है।
तथापि यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि दोनों दर्शन आत्मा का चैतन्यरूप अवश्य स्वीकार करते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा को भले ही भूतचतुष्टय का विशिष्ट परिणमन मात्र मानता हो तथापि इतना तो कहता ही है कि उस भूतचतुष्टय के परिणमन से जो चैतन्य की उत्पत्ति होती है, वही आत्मा है अत: सिद्ध होता है कि आत्मा का चैतन्य स्वरूप तो चार्वाक को भी स्वीकृत है। कहा भी है—
चिदस्तित्वे विवादो न चार्वाकस्यापि तेन च।
भूतसंहतिकार्यस्य ज्ञानरूपस्य कल्पनात्।।
अर्थ—आत्मा को चैतन्यस्वरूप मानने में चार्वाकों को भी विवाद नहीं है क्योंकि उन्होंने भी भूतसंहति का कार्य विशिष्ट ज्ञानरूप ही माना है।
यही दलसुख मालवणिया का भी चिन्तन है—
‘‘समस्त भारतीय दर्शनों में यह निष्कर्ष स्वीकार किया है कि आत्मा का स्वरूप चैतन्य है। नास्तिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध चार्वाक दर्शन ने भी आत्मा को चेतन ही कहा है। उसमें और दूसरे दर्शनों में मतभेद यह है कि चार्वाक के अनुसार आत्मा चेतन होते हुए भी वह शाश्वत तत्त्व नहीं, वह भूतों से उत्पन्न होता है।’’
असमानताएँ—चार्वाक दर्शन और जैन दर्शन में आत्मा के विषय में निम्नलिखित असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं—
१. चार्वाक दर्शन नास्तिक एवं अनात्मवादी दर्शन के रूप में विख्यात है किन्तु जैन दर्शन स्पष्टत: आस्तिक एवं आत्मवादी दर्शन कहलाता है।
२. चार्वाक दर्शन आत्मा नामक किसी वस्तु का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता किन्तु जैन दर्शन न केवल आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है अपितु उसके समर्थन में अनेक अकाट्य युक्तियाँ भी प्रस्तुत करता है।
३. चार्वाक दर्शन में शरीर को ही आत्मा माना गया है किन्तु जैन दर्शन में शरीर को अचेतन, जड़, पुद्गल आदि कहकर आत्मा को उससे अत्यन्त भिन्न चैतन्यस्वरूप स्वीकार किया गया है।
४. चार्वाक दर्शन में आत्मा पृथिवी, जल, तेज और वायु—इन चार भूतों का विशिष्ट मिश्रण माना गया है किन्तु जैन दर्शन के ग्रंथों में इसका सयुक्तिक निराकरण किया गया है और आत्मा को इन चारों भूतों से भिन्न एक स्वतन्त्र चेतन तत्त्व सिद्ध किया गया है।
५. चार्वाक दर्शन में आत्मा के भेद-प्रभेद भी नहीं बताये गए हैं किन्तु जैन दर्शन में अनेक अपेक्षाओं से आत्मा के अनेक भेद—प्रभेद सोदाहरण समझाये गये हैं।
६. चार्वाक दर्शन में आत्मा के पूर्वजन्म—पुनर्जन्म को भी नहीं माना गया है किन्तु जैन दर्शन में इसे स्पष्टतया स्वीकार किया गया है। न केवल स्वीकार किया गया है, सयुक्तिक सिद्ध भी किया गया है।
७. चार्वाक दर्शन में आत्मा के पुण्य—पाप या शुभ—अशुभ कर्मों का कोई विवेचन नहीं मिलता है जबकि जैन दर्शन में उनका स्पष्ट विवेचन भी किया गया है और उनमें हेयोपदेय विज्ञान भी कराया गया है।
८. चार्वाक दर्शन के अनुसार मोक्ष नाम की कोई चीज नहीं होती अथवा मृत्यु का ही दूसरा नाम मोक्ष है, जो अभावात्मक है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की पूर्ण शुद्ध दशा का प्रकट होना मोक्ष है, जो सद्भावात्मक है।
९. चार्वाक दर्शन में मोक्षमार्ग का भी कोई वर्णन नहीं किया है किन्तु जैन दर्शन में मोक्षमार्ग का वर्णन अत्यन्त विस्तारपूर्वक किया गया है—‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इत्यादि।
आत्मा सम्बन्धी विविध वाद और उनकी जैनदृष्टि से समीक्षा
प्राय: सभी दर्शनों में आत्मा के सम्बन्ध में अनेक बातों में एकरूपता होने के बावजूद पर्याप्त मतभेद भी पाया जाता है, फलस्वरूप अनेक वादों का भी उद्भव हो गया है। शास्त्रों में उन सभी वादों पर अत्यन्त विस्तारपूर्वक ऊहापोह उपलब्ध होता है। यहाँ हम अति संक्षेप में उनकी भी चर्चा एवं समीक्षा करना उपयुक्त समझते हैं ताकि आत्मा का स्वरूप और अधिक स्पष्ट हो सके। ध्यातव्य है कि यहाँ यह समीक्षा जैनदृष्टि से ही की जा रही है।
(१) भूतात्मवाद—इसे भूतचैतन्यवाद भी कहते हैं। यह चार्वाकों का सिद्धान्त है। उनका मानना है कि आत्मा इस शरीर से भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु—ये चार भूत ही मिलकर जब इस देह के रूप में उत्पन्न होते हैं तो उसमें सहज रूप से चैतन्य की उत्पत्ति भी हो जाती है जिसका शरीर के नाश के साथ ही नाश भी हो जाता है, पुनर्जन्म आदि कुछ नहीं होता।
परन्तु जैनाचार्यों के अनुसार यह मत समीचीन नहीं है। चार क्या, चालीस अचेतन भी मिलकर कभी एक चेतन को उत्पन्न नहीं कर सकते। चेतन, चेतन ही रहता है और अचेतन, अचेतन ही तथा शरीर से भिन्न आत्मा की सिद्धि भी अनेक युक्तियों द्वारा स्पष्टतया की जा सकती है।
(२) देहात्मवाद (शरीरात्मवाद)—कुछ चार्वाक आदि शरीर को ही आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं कि शरीर से भिन्न आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है, शरीर का जन्म और मरण ही आत्मा का जन्म—मरण है। मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ आदि वाक्य भी हम सदैव बोलते रहते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि यह शरीर ही आत्मा है।
शरीरात्मवादियों के अनुसार यदि कोई शरीर से भिन्न आत्मा होता तो प्रिय से प्रिय व्यक्ति भी मृत्यु के बाद लौट कर समाचार देने क्यों नहीं आता ? अथवा शरीर को कितना ही चीर—फाड़ करके देखो, आत्मा मिलता क्यों नहीं ? अथवा मृत्यु के बाद आत्मा के निकल जाने पर भी व्यक्ति का वजन एक ग्राम भी कम क्यों नहीं होता ? अथवा मृत्यु से पूर्व व्यक्ति को बन्द पेटी में रखने पर भी मरते समय पेटी तोड़कर आत्मा निकलता हुआ क्यों नहीं दिखाई देता ? अत: सिद्ध होता है कि शरीर से अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं, शरीर ही आत्मा है।
परन्तु जैनाचार्यों के अनुसार यह मत भी समीचीन नहीं है। यदि शरीर ही आत्मा है तो मोटे शरीर में अधिक ज्ञानादि और छोटे शरीर में कम ज्ञानादि पाये जाने चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। चेतना शरीर का धर्म ही नहीं है तथा मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ आदि वाक्यों का प्रयोग तो सभी लोग औपचारिक रूप से करते हैं। जिस प्रकार विश्वसनीय नौकर को मालिक यह कहने लगता है कि यह नौकर मैं ही हूँ, जबकि वे दोनों स्पष्ट अलग—अलग हैं; उसी प्रकार आत्मा और शरीर दोनों भिन्न—भिन्न हैं और व्यावहारिक रूप से ही अभिन्न प्रतीत होते हैं।
(३) इन्द्रियात्मवाद—कुछ चार्वाक आदि इन्द्रियों को ही आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं कि इन्द्रियों के विद्यमान रहने पर ही पदार्थों का ज्ञान होता है और उनके अभाव में नहीं होता है अत: इन्द्रियाँ ही आत्मा हैं।
किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है। इन्द्रियाँ स्वयं चेतनस्वरूप नहीं हैं। मात्र अचेतन करण (साधन) रूप हैं। जिस प्रकार चश्मा आदि अचेतन करण भी आत्मा के ज्ञान में निमित्त होते हैं, उसी प्रकार ये इन्द्रियाँ भी आत्मा के ज्ञान में निमित्त मात्र होती हैं। यदि इन्द्रियाँ स्वयं चेतनरूप हों और जानने का कार्य करती हों तो मृतक प्राणी की इन्द्रियाँ क्यों नहीं जानतीं ? तथा यदि इन्द्रियाँ ही आत्मा हों तो वे एक शरीर में अनेक हैं अत: आत्मा भी एक शरीर में अनेक मानने होंगे। तीसरी बात, यदि इन्द्रियाँ ही आत्मा हों तो चक्षुरादि इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट क्यों नहीं होता ? चौथी बात, इन्द्रियों के बिना भी हमें स्मरणादि ज्ञान होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा इन्द्रियों से उसी प्रकार भिन्न है, जिसे प्रकार खिड़कियों से देखने वाला पुरुष खिड़कियों से भिन्न होता है।
(४) मानसात्मवाद—कुछ चार्वाक मन को ही आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं कि मन से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ ऐसा नहीं है जिसे आत्मा कहा जा सके, मन के सक्रिय होने पर ही इन्द्रियाँ अपने विषय को जान सकती हैं, अत: मन ही आत्मा है।
किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है। इन्द्रियों की भाँति मन भी करण (ज्ञान का साधन) मात्र है। तथा उन चार्वाकों ने इस मन को भी पृथ्वी आदि भूतों का ही विकार माना है अत: यह भी उन भूतों के समान अचेतन ही सिद्ध होता है, चेतन नहीं। हाँ, यदि नित्य ज्ञानमय तत्त्व को मन मानकर उसे आत्मा माना जाए तो कोई आपत्ति नहीं है।
(५) प्राणात्मवाद—कुछ चार्वाक प्राण को ही आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं कि प्राण के निकल जाने पर शरीर व इन्द्रियाँ भी सब निष्फल निष्क्रिय हो जाते हैं और ‘उपनिषदों ’ में भी तो प्राणों को ही आत्मा कहा है, अत: प्राण ही आत्मा हैं, प्राणों के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है।
किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है, क्योंकि उनके ही अनुसार ये प्राण भी पृथ्वी आदि भूतों के विकार हैं जो अचेतन ही सिद्ध होते हैं। पाँच इन्द्रियों, मन—वचन—काय, आयु और श्वाचोच्छ्वास रूप दसों प्राणों को जैन दर्शन में पौद्गलिक एवं अचेतन ही माना है। हाँ, यदि चेतनारूप भाव प्राणों को आत्मा कहा जाए तो हमें कोई आपत्ति नहीं।
(६) अव्याकृतवाद—इसे बौद्ध दर्शन में स्वीकार किया गया है। महात्मा गौतम बुद्ध का कहना था कि आत्मा अव्याकृत है—अप्रयोजनभूत है। दु:खनिवृत्ति के लिए उसे कहने—समझने की कोई आवश्यकता नहीं है।
परन्तु यह कोरी आत्मव्ांचना है। दु:खनिवृत्ति और सुखप्राप्ति के लिए आत्मा को जानना आवश्यक ही नहीं, एकदम अनिवार्य है। आत्मा को जाने बिना कौन, किसका, किस प्रकार दु:ख दूर कर सुख की प्राप्ति कर सकेगा ?
(७) अनात्मवाद—इसे भी बौद्ध दर्शन में ही स्वीकार किया गया है। बौद्धों का कहना है कि आत्मा की बात से अहंकार और ममकार की उत्पत्ति होती है, जो संसार में आवागमन का कारण बनता है, अत: आत्मा और उसकी चर्चा में िंकचित् भी मोह एवं राग नहीं रखना चाहिए।
किन्तु यह मत भी युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता। एक तो स्वयं ही इस मत की अवधारणा स्पष्ट नहीं है। बौद्धों में ही इस मत को लेकर अनेक मतभेद पाये जाते हैं। कोई इसका अर्थ पुद्गलनैरात्म्यवाद करता है और कोई पुद्गलास्तिवाद, आदि। दूसरी बात—आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने—समझने से अहंकार—ममकार नहीं होता, अपितु तत्त्वज्ञान होता है जो दु:खनिवृत्ति और सुखप्राप्ति के लिए परमावश्यक है। अहंकार—ममकार तो परपदार्थों को अपना मानने से होता है।
(८) नैरात्म्यवाद—यह भी बौद्धों का मत है। उनका कहना है कि आत्मा को मानना ही नहीं चाहिए, क्योंकि आत्मा को ‘स्व’ मानने से दूसरों को ‘पर’ मानना होगा। ‘स्व’ और ‘पर’ का विभाग होते ही ‘स्व’ का परिग्रह और ‘पर’ से द्वेष भी होगा और फिर उनसे ही राग—द्वेषमूलक सैकड़ों दोष और भी उत्पन्न हो जायेंगे।
परन्तु ऐसा मानना भी समीचीन नहीं है, क्योंकि ‘स्व’ को ‘स्व’ मानना परिग्रह नहीं होता अपितु ‘पर’ को ‘स्व’ मानना परिग्रह होता है। इसी प्रकार ‘स्व’ को ‘स्व’ और ‘पर’ मानने से कोई राग—द्वेष नहीं होते, राग-द्वेष तो पर पदार्थों को इष्ट और अनिष्ट मानने से उत्पन्न होते हैं। ‘स्व’ को ‘स्व’ और ‘पर’ को ‘पर’ मानना तो सम्यग्ज्ञान है, उससे राग—द्वेष वैâसे उत्पन्न हो सकते हैं ? उससे तो राग—द्वेष मिटते हैं।
(९) पंचस्कन्धवाद—यह भी बौद्धों का ही मत है। वे कहते हैं कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान—ये पाँच स्कन्ध हैं और आत्मा इन पाँचों स्कन्धों से भिन्न कोई वस्तु नहीं है।
परन्तु उनकी यह मान्यता भी ठीक नहीं है क्योंकि यह भी चार्वाकों के भूतचैतन्यवाद जैसा ही है। वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान तो फिर भी चेतनात्मक हो सकते हैं पर रूप तो चार्वाकों के जड़भूत जैसा ही है, जिससे कथमपि चेतनतत्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती। वैसे भी कभी आत्मा को ‘अव्याकृत’ कहना और कभी पंचस्कन्धरूप कहना पूर्वापरविरोधयुक्त है और जिज्ञासु को संशय में डालता है।
(१०) क्षणिकात्मवाद—यह भी बौद्धों का मत है। वे आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानते हैं परन्तु यह समीचीन नहीं है। आत्मा पर्याय—अपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तनशील होते हुए भी अपने मूल स्वभाव से नित्य भी है अन्यथा कर्म एवं कर्मफल आदि की व्यवस्था और स्मृति आदि सर्व व्यवहारों के लोप का प्रसंग उत्पन्न हो जाएगा। जैनाचार्यों ने तो इसीलिए न केवल आत्म को बल्कि प्रत्येक वस्तु को ही नित्यानित्यात्मक सिद्ध किया है क्योंकि सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर वस्तु में कोई अर्थक्रिया ही सिद्ध नहीं होती।
(११) विभु—आत्मवाद—इसे व्यापक आत्मवाद भी कहते हैं। प्राय: सभी वैदिक दर्शनों में आत्मा को विभु या सर्वत्र व्यापक माना गया है।
किन्तु इसे मानने में आपत्ति यह है कि प्रत्यक्ष ही अपने आत्मा के सुख, दु:ख, ज्ञानादि गुण अपने शरीर से बाहर नहीं प्रतीत होते अत: उन गुणों का स्वामी आत्मा भी शरीर से बाहर वैâसे माना जा सकता है ? यदि आत्मा को सर्व व्यापक माना जाए तो एक के भोजन करने पर अन्यों को भी तृप्ति होनी चाहिए—इत्यादि प्रकार से सर्वव्यवहार का संकर हो जाएगा। पत्नी के पेट का दर्द पति के दवाई खाने से नहीं मिटता, पत्नी को ही दवाई खानी पड़ती है—इससे सिद्ध होता है कि दोनों की आत्मा एक नहीं है, अलग—अलग है।
(१२) अणु—आत्मवाद—इसे अणुपरिमाणवाद भी कहते हैं। कुछ वैदिक दर्शन (द्वैत वेदान्ती) मानते हैं कि आत्मा वटकणिका मात्र या अणु समान है और वह मात्र हृदय प्रदेश में रहता है, सम्पूर्ण शरीर में नहीं।
परन्तु यह भी समीचीन सिद्ध नहीं होता क्योंकि रोमांचादि के द्वारा सर्वांगों में सुख—दु:ख की अनुभूति होती देखी जाती है। यदि आत्मा मात्र हृदय में ही हो तो सम्पूर्ण शरीर में सुख—दु:ख का अनुभव होना असम्भव था।
(१३) एकात्मवाद—वेदान्त दर्शन कहता है कि इस विश्व में आत्मा एक ही है, अनेक नहीं; हमें जो अनेक आत्माएँ दिखाई देती हैं, वह उसी प्रकार हैं जैसे एक ही चन्द्रमा के अनेक जलपात्रों में अनेक प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं।
परन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है। सुखी, दु:खी, पापी, पुण्यात्मा आदि के भेद इतने स्पष्ट दिखाई देते हैं कि उनको कदापि एक नहीं माना जा सकता। यदि आत्मा चन्द्र प्रतिबिम्ब के समान एक ही हो तो सबको चन्द्रबिम्ब के ही समान एक सा ही होना चाहिए था। कोई दुखी है, कोई सुखी है, कोई पापी है, कोई पुण्यात्मा है, कोई मिथ्यादृष्टि है, कोई सम्यग्दृष्टि है, कोई आसक्त है, कोई विरक्त है इत्यादि प्रकार की भिन्नताएँ क्यों दिखाई देती हैं ? सबको एक सा ही होना चाहिए था तथा यदि आत्मा एक ही हो तो जो पाप करता है वही नरकादि के दु:ख क्यों भोगता है, दूसरा क्यों नहीं
भोगता ? तथा पदार्थों का स्मरण भी दूसरे को क्यों नहीं होता, उसी को क्यों होता है ? इत्यादि प्रकार से सिद्ध होता है कि आत्मा वस्तुत: एक नहीं अनेक हैं।
(१४) ब्रह्मांशवाद—वेदान्त दर्शन कहता है कि हम सभी आत्माएँ एक ब्रह्म या परमब्रह्म के अंशरूप हैं, उसी से निकलते हैं और उसी में समा जाते हैं परन्तु उनका मत भी एकात्मवाद के समान ही युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता।
(१५) ज्ञानशून्यवाद—सांख्य, वैशेषिक आदि कुछ दर्शन आत्मा को स्वभाव से चेतन नहीं मानते। वे कहते हैं कि आत्मा स्वयं तो ज्ञानशून्य है परन्तु जब उसमें ज्ञानगुण का समवाय सम्बन्ध हो जाता है तब वह ज्ञानी या चेतन कहा जाता है परन्तु यह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि आत्मा स्वभाव से ही चेतन न हो तो जड़ और चेतन का मूल भेद ही समाप्त हो जायेगा। जिस प्रकार अग्नि स्वभाव से उष्ण है उसी प्रकार आत्मा भी स्वभाव से भी ज्ञानी या चेतन है। ज्ञान या चैतन्य आत्मा से पृथक् नहीं पाया जाता है।
(१६) अकर्तावाद—सांख्य दर्शन आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानता है। उसका कहना है कि आत्मा तो मात्र भोक्ता है, कर्ता नहीं।
यद्यपि निश्चय से आत्मा को अकर्ता कहना अनुचित नहीं है पर व्यवहार से वह अपने पुद्गल कर्मों का कर्ता है ही। अपने राग-द्वेषादि भावों का तो वह निश्चय से भी कर्ता है और फिर जब उसे ‘भोक्ता’ माना तो ‘भुज्’ क्रिया का कर्ता तो हो ही गया न; अत: आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानना ठीक नहीं है।
(१७) निष्क्रिय—आत्मवाद—सांख्य दर्शन में आत्मा को सर्वथा नित्य, निष्क्रिय, अपरिणामी या कूटस्थ माना गया है। उसके अनुसार कोई भी क्रिया तभी सम्भव है जब सत्, रज और तम गुण हों किन्तु आत्मा (पुरुष) में ये गुण नहीं होते अत: वह निष्क्रिय है। मात्र प्रकृति ही सक्रिय है।
किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है। आत्मा अपने मूल स्वभाव की अपेक्षा नित्य या शाश्वत होते हुए भी पर्यायापेक्षा से सक्रिय है, क्रियाशील है क्योंकि उसमें उत्पाद—व्यय रूप अवस्था—परिवर्तन निरन्तर होता रहता है। यदि आत्मा निष्क्रिय ही होता तो उसके निमित्त से शरीर में भी क्रिया नहीं हो सकती थी।