भारतीय वाङ्मय के उन्नयन एवं विकास में जिन वरेण्य आचार्य लेखकों ने अपनी अनवरत साधना, गहन चिन्तन एवं अथक परिश्रम के द्वारा उल्लेख योगदान किया है, उन्में जैनाचार्यों द्वारा लिखित उनके बहुआगामी विभिन्न भाषात्मक साहित्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि भारतीय जीवन का शायद ही ऐसा कोई पहलू हो, भारतीय इतिहास, संस्कृति, साहित्य एवं लोकजीवन का शायद ही ऐसा कोई अंग-उपांग हो, जिसको प्राच्यकालीन प्रमुख भारतीय भाषाओं में मुखर करने में जैनाचार्यों की लेखनी ने अपना चमत्कार न दिखाया हो। चाहे वह आत्मचिन्तन का क्षेत्र हो, देह और आत्मा के भेद-विज्ञान का क्षेत्र हो चाहे दर्शन, आचार एवं अध्यात्म का क्षेत्र हो, चाहे भूगोल, खगोल, ज्योतिष, गणित, विज्ञान, मनोविज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, वास्तुशास्त्र, भौतिक एवं रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, निमित्तशास्त्र, समाजविद्या, लोकसंस्कृति, उद्योग-धन्धे, विनिमय-प्रणाली, गृहविज्ञान, भोजन एवं वस्त्र-प्रकार लोकजीवन, हाट-बाजार एवं व्यापारिक मण्डियाँ, सदृगृहस्थ की दैनिक चर्या हो और चाहे देश-विदेश से जलीय एंव स्थल मार्गों से व्यापार एवं आयात-निर्यात का क्षेत्र हो; जैनाचार्यों ने संस्कृत, प्राकृत एंव अपभ्रंश में उन सभी का विस्तृत वर्णन किया है। प्राकृत, अपभंश एवं संस्कृत भाषाओं में प्रचुरमात्रा में लिखित जैन साहित्य भी भारतीय राजनैतिक इतिहास के निर्माण में कई दृष्टियों से सहायक सिद्ध होता है। डॉ. राखालदास बनर्जी ने ईसा पूर्व की दूसरी सदी के खारबेल-शिलालेख में उल्लिखित मगधनरेश राजा नन्द के स्पष्ट उल्लेख को प्राच्य भारतीय इतिहास के लेखन के लिए उसका प्रारम्भिक प्रामाणिक छोर माना है। जैन प्रशस्तियों एवं मूर्तिलेखों में भी भारतीय इतिहास के ऐसे अनेक सन्दर्भ-स्रोत उपलब्ध हैं, जिनसे उनके अनेक अस्पष्ट, संदिग्ध, प्रच्छन्न, धूमिल, विस्मृत अथवा अपेक्षित तथ्यों को असंदिग्ध एवं प्रामाणिक बनाया जा सकता है। उनमें ईसापूर्व चौथी सदी से लेकर १५-१६वीं सदी तक के लगभग अधिकांश शासकों एवं राजवंशों की चर्चायें मिलती है। अत: उक्त साहित्य के अध्ययन से उसमें बिखरे हुए ऐतिहासिक सूत्रों को संजोने से भारतीय इतिहास को सर्वांगीण बनाने में विशेष सहायता मिल सकती है। ये सन्दर्भ प्राकृत के प्राचीन जैन शिलालेखों तथा जैनाचार्यों द्वारा लिखित प्राचीन पट्टावलियों, जैन ग्रन्थ-प्रशास्तियों, ऐतिहासिक काव्यों, कथा एवं चरितकाप्यों और जैन मूर्ति, जैन गुफागृहों तथा भित्ति लेखों में सुरक्षित हैं। दुर्भाग्य से यह अमूल्य साहित्य उपेक्षित जैसा बना रहा है। अत: ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उसके गम्भीर, निष्पक्ष एवं तुलनात्मक अध्ययन की प्रबल आवश्यकता है।
मगध का नन्दवंश एवं प्राकृत जैन साहित्य
भारतीय इतिहास के निर्माण में मगध, विशेषतया उसके नन्द राजाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है उनका बंशानुक्रम एवं राज्यकाल भले ही विवादास्पद हो और भले ही वह सर्वसम्मत न हो, फिर भी इतिहासकार यह मानने के लिए विवश हैं कि वे प्राचीन भारत के इतिहास को क्रमबद्ध बनाने के लिए ठोस आधार बने। दूसरे शब्दों में, यह भी कह सकते हैं कि ‘मगध का इतिहास प्राय: पूरे भारत का इतिहास है। क्योंकि प्राचीन भारत के इतिहास की उसके बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। राजनीतिक दृष्टि से नन्द राजाओं की प्रथम विशेषता यह रही कि उन्होंने भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय क्षत्रियेतर-विज्ञान-साम्राज्य की सर्वप्रथम स्थापना की। दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने ब्राह्मण-धर्म की सर्वथा उपेक्षा की। तीसरी विशेषता यह थी कि उन्होंने छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त उत्तर-पूर्वी भारत को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। यही कारण है कि उनसे रुष्ट होते हुए भी पुराणकारों ने उन्हें ‘‘अतिबल’’ की संज्ञा प्रदान की। यत: नन्दों ने अपनी पुरुषार्थ से मगध-साम्राज्य को पश्चिम में गंगा, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विन्ध्याचल तक विस्तृत किया था। विश्व-विजय का आकांक्षी यवनराज सिकन्दर भारत-आक्रमण के समय पंजाब से आगे नहीं बढ़ सका, उसका मूल कारण नन्दों की शक्ति का प्रभाव ही था। नन्द विषयक वैदिक-परम्परा के दर्शन विष्णुपुराण, भगवतपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, कथासरित्सागर एवं मुद्रराक्षक नाटक (विशाखदत्तकृत) में होते हैं। इनमें नन्दवंश की उत्पत्ति, एवं कार्यकलापों की चर्चा मिलती है। उनके अनुसार नन्दवंश का संस्थापक शासक महापद्म था। इस साहित्य में उसका उल्लेख ‘शूद्रगर्भोद्भव’, ‘सर्वक्षत्रान्तक’ एवं ‘एकराट्’ जैसे विशेषणों के साथ किया गया है। इससे यह विदित होता है कि उसने शैशुनाग-राजाओं के समकालीन इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, कलिंग, हैहय, अश्मक, कुरु, मैथिल, शूरसेन एवं वीतिहोत्र प्रभृति राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। खारबेल-शिलालेख, कथासरित्सागर, आन्धप्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर स्थित नान्देड तथा प्राचीन कुन्तलदेश के अभिलेखों से भी उसके विशाल साम्राज्य के अधिपति होने का समर्थन होता है। प्राचीन जैन-अतिहास में भी नन्दों के शासनकाल की विस्तार पूर्वक चर्चा मिलती है। उनके अनुसार नन्दराजाओं ने मगध जैसे एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। सम्राट खारबेल के हाथीगुम्फा में उपलब्ध ऐतिहासिक प्राकृत शिलालेख से यह भी सिद्ध है कि उन नन्दों ने कलिंग देश को भी मगध का एक अंग बना लिया था। उक्त नन्दवंश किस जाति का तथा वह किस धर्म का अनुयायी था, इस विषय में विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित हैं। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, वैदिक पुराणों में उसे शूद्रगर्भोद्भव बतलाया गया है, जबकि अन्य जैन साहित्यकारों ने उसे प्रचण्ड क्रोधी और जैनाचार्य हेमचन्द्रने उसे नापितपुत्र कहा है। ग्रीक लेखक कर्टियस ने आचार्य हेमचन्द्र का समर्थन करते हुए लिखा है कि- ‘‘उस धननन्द का पिता वस्तुत; नाई था और उसके लिए यह भी सम्भव न था कि वह अपनी कमाई से पेट भर सके। पर क्योंकि वह कुरूप था, फिर भी मगध नरेश की रानी का प्रेम प्राप्त कर सकने में वह सफल हो गया। रानी के प्रभाव से लाभ उठाकर वह राजा का भी विश्वासपात्र बन गया और बाद में उसी ने धोखे से राजा की हत्या कर दी। राजपुत्रों का संरक्षक बनकर उसने शासन के सर्वोच्च अधिकार प्राप्त कर लिए और बाद में उन राजपुत्रों का भी उसने घात कर डाला। सन्दर्भित राजा धननन्द को उसी नापित का पुत्र माना गया है। इन तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि उक्त नन्दवंश क्षत्रियेतर था, वह शूद्रकुलोद्भव अथवा नापित था। हाथीगुम्फा-शिलालेख की एक पंक्ति में यह उल्लेख मिलता है कि कलिंग-नरेश खारबेल मगध को जीतकर वहाँ से अपने पूर्वजों से छीनी गयी ‘‘कलिंग-जिन’’ की मूर्ति को विजयचिन्ह के रूप में लेकर वापिस लौटा था। इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि नन्द नरेश अपनी दिग्विजय के समय जब ‘‘कलिंग-जिन’’ (अर्थात् आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव) की राष्ट्रिय मूर्ति को कलिंग-नरेश से छीनकर पाटलिपुत्र ले आया था, जिसका कि बदला खारेबेल के शिलालेख के अनुसार ही, लगभग ३०० वर्षों के बाद सम्राट खारबेल ने चुकाया। इतने दीर्घ अन्तराल में भी नन्दनरेशों के यहाँ उक्त मूर्ति का सुरक्षित रह जाना इस बात का सबल प्रमाण है कि वे जैनमूर्तिपूजक एंव जैनधर्मोपासक थे। चूँकि यह ईसा-पूर्व द्वितीय सदी का शिलालेखीय प्रमाण है, अत: इसके आधार पर नन्द-नरेशों के जैनधर्मानुयायी होने में भ्रम की कोई गुंजाइश दिखलाई नहीं पड़ती। पिछले प्रसंग में यह भी बतलाया जा चुका है कि नन्दवंशी राजाओं ने उत्तरपूर्वी राज्यों को सर्वप्रथम एकसूत्र में बाँधकर भारतीय इतिहास में अपनी तेजस्विता एवं प्रताप-पराक्रम का परिचय दिया था।उनकी असाधारण सफलता, समृद्धि एवं कीर्ति भी दिग-दिगन्त में चर्चित थी। ऐसे ‘अतिबल’ ‘एकराट्’ ‘एकच्छत्र उपाधिकारी’ नन्द-नरेशों ने जब निर्भीकतापूर्वक ब्राह्मणधर्म की उपेक्षा की और वे जैनधर्मानुयायी हो गये, उसी कारण सम्भवत: उस वंश को जैनेतर साहित्य में सुप्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इस विषय में सुप्रतिसद्ध इतिहासकार डॉ. आर.के. मुकर्जी का यह कथन महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं कि- “In any case sixth and fifth century B.C. hold out strange phenomenon before us Kshatriya chife founding popular religious sects which menanced the Vedic religion and Shudra leaders establishing a big Emprire in Aryavarta on the ruins of Kshatriya kingdoms.जैन साहित्य के आधार पर मन्त्रीपद वंशानुगत था। नन्दवंश के राज्यकाल में इनके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। इस कारण उनके राज्यकाल में जैनधर्म को पर्याप्त प्रतिष्ठामिली। इस तथ्य का समर्थन महाकवि विशाखदत्तकृत मुद्राराक्षस नाटक से भी होता है, जिसमें एक पात्र स्पष्टरूपेण कहता है कि ‘‘नन्दवंश के राज्यकाल में जैन अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।’’ इसके अनुसार चाणक्य ने भी जैनों पर विश्वास कर उन्हें विश्वस्त पदों पर नियुक्ति किया था। इतिहासकारों ने भ. महावीर का निर्वाणकाल ५२७ई.पू. माना है। प्राचीन जैन-सन्दर्भों के अनुसार महावीर-निर्वाण के १५५ वर्ष जो कि नन्दराजाओं का राज्यकाल हैं, चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) ने अन्तिम घननन्द नरेश से मगध का साम्राज्य प्राप्त किया था, अथात् ५२७-१५५ृ ३७२ ई.पू. में वह मगध का अधिपति बना और यही नन्दवंश के अन्तिम नरेश का समाप्तिकाल भी था। वस्तुत: नन्द नरेशों की कला-गणना अत्यन्त जटिल है। वैदिक-परम्परा में जिस प्रकार पारस्परिक मेल नहीं बैठता, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी पारस्परिक मेल नहीं बैठता। आचार्य जिनसेन एवं मेरुतुंग ने चन्द्रगुप्त मौर्य का रात्यारोहण काल वीर-निर्वाण के २१५ वर्ष बाद माना है, जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने १५५ वर्ष बाद। इन दोनों मान्यताओं में ६० वर्ष का अन्तर है। यदि उक् त १५५ में से ६० वर्ष, जो कि वीर निर्वाण के बाद पालकवंशी राजाओं का राज्यकाल हैं, निकाल दिये जाएँ, तो हेमचन्द्र के अनुसार नन्दों का राज्यकाल १५ वर्ष सिद्ध होता है, जो वैदिक पुराणों के साथ भी ५ वर्षों के अन्तर को छोड़कर लगभग ठीक बैठ जाता है और इस प्रकार नन्दों का राज्यारम्भकाल ई.पू. ४६७ के असा-पास सिद्ध होता है, जिसमें अन्तिम नन्दराजा धननन्द का अन्तिम समय जैन साहित्य के आधार पर ई.पू. ४६७-९५=३७२ ई.पू. के लगभग निश्चित होता है।
चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम)
मौर्यवंश के उद्भव के सम्बन्ध में अन्वेषकों ने विविध प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं। एक पक्ष के विद्वानों ने विष्णुपुराण एवं मुद्रारक्षस नाटक के अधार पर उसे राजा नन्द की मुरा नामकी शूद्रा दासी या वृषल (धर्मघाती जाति की) पत्नी से उत्पन्न कहा है। दूसरे पक्ष के विद्वानों ने कथासरितसागर, कौटिल्य अर्थशास्त्र एवं बौद्ध साहित्य के आधार पर उसे क्षत्रिय माना है। श्रमणेतर साहित्य में मगध एवं उक्त वंश के विषय में प्रशंसामूलक उल्लेख नहीं मिलते। यद्यपि यह सत्य है कि उसे (मगध को) अनार्य देश एवं मौर्यवंश को व्रात्य मानकर भी उसे (चन्द्रगुप्त को) अदम्य साहसी एवं दृढ़ निश्चयी बतलाया गया है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. वी.पी. सिन्हा के अनुसार ‘‘सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में मगध के प्रति विरोध की जो भावना स्पष्टतया व्यक्त है, इससे यह अनुमान तर्कसंगत है कि प्राचीनकाल में मगध आर्येतर निवासियों का सुदृढ़ दुर्ग रहा होगा और उसने रू़िढ़गत ब्राह्मण ढाँचे में विलीन होना अस्वीकार कर दिया होगा। ….. मगध प्राय: सबसे पीछे ब्राह्मण-सभ्यता के अन्तर्गत आने वाले देशों में से था। व्रात्य आर्य रहे हों या नहीं, किन्तु वे मगधवासियों में पूर्णतया घुल-मिल गए थे और इसीलिए वे ब्रह्मावर्त के आर्यों द्वारा हेय समझे जाते थे। यह जातीय विभिन्नता ही शायद मगध की व्यापक धार्मिक और राजनैतिक क्रान्तियों का कारण रही।….. जैनाचार्यों द्वारा लिखित प्राकृत, अपभ्रंश संस्कृत यथा भगवती-आराधना, तिलोयपण्णति, बृहत्कथाकोष, अर्धमागधी आगम साहित्य की विविध, टीकाओं आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व एवं महाकवि रइधू के चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक, जैन शिलालेखों एवं कन्नड़ के जैन साहित्य में चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) का परिचय बड़े ही आदर के साथ दिया गया है। तिलोयपण्णति के अनुसार मुकुटधारी राजाओं में जिनदीक्षा धारण करने वाले मगध नरेन्द्र चन्द्रगुप्त मौय्र (प्रथम) ही अन्तिम राजा था। उसके बाद कोई भी मुकुटधारी राजा दीक्षित नहीं हुआ। यथा-
केवलियों एवं श्रुतकेवलि आचार्यों के क्रम में सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) का उक्त उल्लेख स्वयं अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। इस उल्लेख से इसमें भी सन्देह नहीं रहता कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) समकालीन हैं। प्राच्य प्राकृत जैन साहित्य एवं शिलालेखों से यह भी सिद्ध है कि चनद्रगुप्त मगध के द्वादशवर्षीय दुष्काल के समय संसार से विरक्त हो गया था और उसने आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) से दीक्षा लेकर जैनमुनि का पद धारण कर कटवप्र (आधुनिक ‘श्रवणबेलगोल’ कर्नाटक) चला गया था। उनके जैन धर्मानुयायी होने के विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासकार राइस डेविड्स का यह कथन पठनीय है- ‘‘चूँकि चन्द्रगुप्त जैनधर्मानुयायी हो गया था, इसी कारण जैनेतरों द्वारा वह अगली दस सदियों तक उपेक्षित ही बना रहा।’’ इतिहासकार थॉमस ने तो यहाँ तक लिखा है कि ‘‘मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त जैन समाज के महापुरुष थे।’’ जैन साहित्यकारों द्वारा उनका आदरपूर्वक वर्णन एक स्वयंसिद्ध और सर्वविदित तथ्य के रूप में किया गया है। इसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार के अनुमान प्रमाण को प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ। इस विषय में उनके शिलालेखीय प्रमाण असन्दिग्ध हैं। मेगास्थनीज के विवरणों से भी यह विदित होता है कि चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विरोध में जैनों के उपदेशों को स्वीकार किया था। जैन काल-गणना के अनुसार उसका राज्यभिषेक काल ईसा पूर्व ३७२ के आसपास सिद्ध होता है।
महाश्रमण चाणक्य
ईसा पूर्व चतुर्थ सदी के आसपास अध्यात्मवादियों ने जिस प्रकार अध्यात्म एवं गम्भीर चिन्तन के द्वारा समाज के नव-निर्माण में अपना योगदान किया, उसी प्रकार समाज एवं राजनीति-विशारदों ने भी उल्लेखनीय रचनात्मक कार्य किए। इस दिशा में प्लेटो, अरस्तु एवं महामति चाणक्य के नाम विशेष रूप से स्मरणीय हैं। इनके कार्य-कलापों ने विश्व समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया है। उन्होंने निस्सन्देह ही अपनी व्यक्तिगत स्वार्थलिप्साओं से ऊपर उठकर तथा त्याग एवं तपस्या के धरातल पर रहकर समस्त प्राणिमात्रा के कल्याण के लिए विचार किया। वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा में चाणक्य को एक पारंगत ब्राह्मण विद्वान के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु उसका जीवन परिचय अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। फिर भी, इस तथ्य को सभी ने समानरूप से स्वीकार किया है कि उसने अन्तिम नन्दनरेश धननन्द पर क्रुद्ध होकर उसे समूल नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) को मगध की राजगद्दी पर प्रतिष्ठित किया था। जैनेतर चाणक्य-कथाओं पर अनेक विद्वानों ने प्रकाश डाला है और वे पर्याप्त मात्रा में चर्चित भी हो चुकी है, किन्तु तद्विषयक जैन कथाएँ प्राय: अज्ञात अथवा उपेक्षित जैसी बनी रहीं, जबकि उनमें अनेक ऐतिहासिक प्रामाणिक तथ्य सुरक्षित हैं।
जैन साहित्य में चाणक्य
प्राचीन प्राकृत साहित्य के अनुसार कुटिल गोत्र होने के कारण चाणक्य का अपरनाम कौटिल्य तथा चणक का पुत्र होने के कारण उसका नाम चाणक्य पड़ा। अभिधान-चिन्तामणि (हेमचन्द्र) के अनुसार चाणक्य के अपरनाम वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटिल, द्रामिल, पाक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त एवं अंगुल थे। इनकी कथाएँ बृहत्कथाकोष, उत्तराध्ययनसूत्र टीका, आवश्यकसूत्रवृत्ति, आवश्यकनिर्युक्ति, चूर्णीकहकोसु (श्रीचन्द्र) पुण्याश्रव कथाकोष, स्थविरावली- चरित (हेमचन्द्र), एवं आराधना कथाकोष आदि में उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में उपलब्ध चाणक्य कथाओं में एकरूपता भले ही न हो, किन्तु एक विशेषता जो सभी में समानरूव से उपलब्ध हैं, वह यह कि उनमें चाणक्य के उत्तरवर्ती जीवन का भी विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। यह विशेषता जैनेत्तर साहित्य में प्राय: नहीं मिलती। जैन साहित्य के अनुसार चाणक्य का जन्म गोलक जनपदान्तर्गत चणक ग्राम में हुआ था। उसके पिता का नाम चणक ब्राह्मण एवं माता का नाम चणेश्वरी था। आवश्यक नियुक्तिचूर्णी के अनुसार जन्मकाल में ही उसके मुख में एक दाँत देखकर जैनमुनियों ने भविष्यवाणी की थी कि वह आगे चलकर सम्राट बनेगा। यह सुनकर उसके माता-पिता चिन्तित हो उठे। क्योंकि वे तो उसे जैनमुनि के रूप में देखना चाहते थे। अत: पिता ने उसके दाँत को तुड़वा दिया। तब मुनियों ने भविष्यवणी की कि अब वह स्वयं सम्राट न बनकर किसी दूसरें को सम्राट बनायेगा और उसी के माध्यम से यह शासन करेगां इसके बाद की कथा का मूलरूप बहुत की विस्तृत है, जिसका सारांश यह है कि राजा नन्द द्वारा अपमानित होने के कारण व्रुâद्ध चाणक्य पाटलिपुत्र के समीप किसी ग्राम के मयूरपोषक के पुत्र को बचपन से ही राजनीति एवं रणनीति में प्रशिक्षित करता है और अन्त में नन्द को पराजित कर चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट बनाता है। अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के बाद चाणक्य जैनधर्म में दीक्षित होकर महामुनि के रूप में कठोर तपस्या करने हेतु अपने ५०० शिष्यों के साथ पदयात्रा करते हुए दक्षिणापथ के ‘‘वनवास’’ स्थल पहुँचा तथा वहाँ से पश्चिम दिशा में महाक्रौंचपुर के एक गोकुल’ नाम के स्थान पर ससंघ कायोत्सर्ग मुद्रा में बैठ गया। संयोग से वहाँ राजा नन्द के पूर्वी मन्त्री सुबन्धु ने, जो कि मगध में ही चाणक्य का शत्रु हो गया था, उसने उसे पूरे साधुसंघ के साथ जला डाला। बाद में चाणक्य मुनि के भक्तजनों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक निषद्या का निर्माण करा दिया, जैसा कि आचार्य हरिषेण ने लिखा है:-
तत: पश्चिमदिग्भागे दिव्यक्रौंचपुरस्य च । निषद्येका मुनेरस्य वन्द्यतेऽद्याापिसाधुभि: ।।
यह निषद्या आज भी वहाँ सुरक्षित है तथा जैन समाज द्वारा वह एक पवित्र तीर्थभूमि के रूप में पूजित है। जैनेतर साहित्य में चाणक्य के अन्तिम जीवन की चर्चा क्यों नहीं ? इसका एक कारण सम्भवत: यह हो सकता है कि चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक के कुछ वर्षो के बाद ही चाणक्य ने जैनधर्म में दीक्षा ले ली। इस कारण उसके परवर्ती जीवन की उपेक्षा की गई। इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध इतिहासकार राइस डेविड्स का यह कथन पठनीय है – The linguistic and epigraphic evidence so for available cortifirms in many respects the general relaibility of taditions current amongst the Jainas.जैन परम्परा के अनुसार चाणक्य का कार्यकाल अनुमानत: ईसा पूर्व ३६० से ईसा पूर्व ३३० के मध्य रहा।
राजा कल्कि
प्राच्य भारतीय इतिहास में राजा कल्कि के शासनकाल का उल्लेख क्यों नहीं मिलता ? इसके कारणों का पता नहीं चलता। इतनी जानकारी अवश्य मिलती है कि भारत में गुप्त सम्राटों के बाद ‘‘हूण’’ नामकी एक बर्वर जंगली जाति ने यहाँ लगभग १०० वर्षो तक राज्य किया था। इस राजवंश में चार राजा हुए तो सभी अत्यन्त दुष्ट, नीच एवं प्रजाजनों पर अत्याचार करते रहा। प्राचीन प्राकृत, संस्कृत एवं अपभंश जैन साहित्य में चतुर्मुख आदि के नाम से प्रसिद्ध कल्कि राजाओं के उल्लेख मिलते हैं और उनके विषय में बताया गया है कि वे सामान्य प्रजाजनों के साथ जैन साधुओं पर भी अत्याचार करते थे। यहाँ तक उनके आहार पर भी उन्होंने ‘‘कर’’ लगा दिया था। इस प्रकार की सन्दर्भ सामग्री गुप्तकालीन एवं परवर्ती जैन-साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भारतीय राजनैतिक इतिहास में वर्णित गुप्तकाल के परवर्ती हूण राजाओं एवं जैन साहित्य में उपलब्ध राजा कल्कि सम्बन्धी तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि भले ही कल्कि नाम के कोई राजा न हुए हों, किन्तु दोनों पक्ष इस तथ्य से सहमत हैं कि उस काल में जो भी राजा हुए, वे बड़े निर्दयी थे। अत: प्रजा-विरोधी तथा अपने अत्याचारी दुर्गुणों के कारण वे जैन साहित्य में कल्कि (या कलंकी ?) के नाम से भी प्रसिद्ध हो गए। वस्तुत: इस विषय में निष्पक्ष गहरी खोजबीन की आवश्यकता है।
मूलराज सोलंकी
महाकवि श्रीचन्द्र कृत कथाकोष (कहकोसु) नामक ग्रंथ की प्रशस्ति से विदित होता है कि कवि ने अपना उक्त ग्रंथ राजा मूलराज के राज्यकाल में गुजरात के महीयड देश मे समाप्त किया था। कवि का रचनाकाल वि.सं. १०५२ के आसपास रहा है। इससे यह विदित होता है कि उक्त राजा मूलराज सोलंकी वंश का था। उसने वि.सं. ९९८ में चावड़ा वंशोत्पन्न अपने मामा सामन्तसिंह को मारकर उसका राज्य छीन लिया था तथा वह स्वयं गुजरात की राजधानी पाटन (अणहिलवाड) की गद्दी का स्वामी बन बैठा था। उसने वि.सं. १०१७ से १०५२ तक राज्य किया था। उक्त मूलराज के पिता का नाम भूदेव सोलंकी था। उसके तीन पुत्रों में से मूलराज सबसे बड़ा था, जिसकी मृत्यु उसके जीवनकाल में ही हो चुकी थी। बाकी के दो पुत्रों में से क्षेमराज ने गद्दी पर बैठना अस्वीकार कर दिया था। अत: तृतीय कनिष्ठ पुत्र कर्ण (कृष्ण) का राज्याभिषेक करके भीमदेव स्वयं ही गृहत्यागी साधु बन गया था। ये समस्त घटनाएँ कवि श्रीचन्द्र के सम्मुख ही घटित हुई थी, क्योंकि उक्त कर्ण नरेश के राज्यकाल में श्रीवालपुर नामक स्थान पर हेमचनद्र ने अपना दूसरा ग्रंथ ‘‘रत्नकरण्ड-श्रावकाचार’’ लिखा था जो वर्तमान में अनुपलब्ध है।
राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष अथवा वंदिग्ग
राष्ट्रकूट वंशी जैन सम्राट् अमोघवर्ष के शासन की प्रशंसा विदेशी इतिहासकारों ने भी की है। ९वीं सदी के अरब के इतिहासकार सुलेमान के अनुसार ‘‘९वीं सदी में इस संसार में केवल ४ सम्राट ही प्रसिद्ध थे- (१) भारत का सम्राट् अमोघवर्ष (२) चीन का सम्राट् (३) बगदाद का खलीफा और (४) रुम (तुर्की) का सुलतान, किन्तु इन चारों में सम्राट् अमोघवर्ष सर्वोपरि था।’’ डॉ. भण्डाकर के मतानुसार- ‘‘राष्ट्रकूट नरेशों में अमोघवर्ष जैनधर्म का सर्वमहान् संरक्षक था।’’ पट्टावलियों के अनुसार आ. वीरसेन स्वामी (नौवी सदी) के पट्टशिष्य और वाटनगर केन्द्र के तत्कालीन अधिष्ठाता अचार्य जिनसेन स्वामी, अमोघवर्ष के धर्म एवं राजगुरु थे। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन स्वामी के स्वर्गारोहण के बाद उनके अधूरे कार्यों को सन् ८१४ के आसपास अमोघवर्ष के प्रश्रय में रहकर ही पूर्ण किए थे, जिसमंर ६०००० श्लोंक प्रमाण जयधवल ग्रन्थ प्रमुख है। अमोघवर्ष की ही प्रेरणा से जिनसेन ने पाश्र्वाभ्युदयमहाकाव्य, महापुराण एवं उत्तरपुराण (आंशिक) की भी रचना की थी। सुप्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री आचार्य उग्रादित्य, महान् गणितज्ञ महावीरचार्य, सुप्रसिद्ध वैयाकरण शाकटायन एवं पाल्यकीर्ति से अमोघवर्ष का घनिष्ठ सम्बन्ध था। इस जैनाचार्यों के संसर्ग से स्वयं अमोघवर्ष में भी काव्य-प्रतिभा का स्फुरण हुआ और उसने भी सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ-‘‘कविराजमार्ग’’ तथा ‘‘प्रश्नोत्तररत्नमालिका’’ नामक ग्रन्थ लिखकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। कवि अमरकीर्ति ने अपने छक्कम्मोवएस नामक ग्रंथ की प्रशस्ति में लिखा है कि उसने उसकी समाप्ति वि.सं. १२४७ के भाद्रपद मास की शुक्ल चतुर्दशी के दिन चालुक्य वंशी राजा वंदिग्ग के पुत्र कण्ह अथवा कृष्ण राजा के राज्यकाल में की थी। कुछ लोग उक्त वंदिग्ग का नाम आधुनिक लोकप्रचलित इतिहास में नहीं पाते अत: भ्रम में पड़ जाते हैं कि यह वंदिग्ग एवं उसका पुत्र कृष्ण कौन है। किन्तु महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण की प्रशस्ति से उक्त भ्रम का निराकरण हो जाता है। पुष्पदन्त ने कृष्णराज (तृतीय) के तीन नाम बतलाए हैं – १. तुडिगु २. वल्लभनरेन्द्र अथवा वल्लभराय एवं ३. शुभतुंगदेव अथवा शुभतुंगाचार्य। वस्तुत: तथ्य यह है कि राष्ट्रकूट एवं चालुक्य राजाओं के घरेलू नाम एवं शासनकालीन नाम पृथक-पृथक रहे हैं। ‘वंदिग्ग’, राजा अमोघवर्ष का घरेलू नाम था। उसके पुत्र ‘कण्ह’ अथवा ‘कृष्ण’ का घरेलू नाम था ‘तुडिगु’। चालुक्य- नरेशों में उक्त परम्परा प्रचलित रही थी, किन्तु जब चालुक्यों का राज्य राष्ट्रकूट नरेशों ने छीन लिया, तब वही परम्परा उन्होंने भी अपना ली। वन्दिग्ग एवं कृष्ण तृतीय का पिता-पुत्रत्व सम्बन्ध सोमदेव कृत ‘नीतिवाक्यामृत’ की प्रशस्ति से भी सिद्ध होता है।
दिल्ली के तोमरवंशी राजा अनंगपाल
मध्यकालीन भारतीय इतिहास में तोमर वंशी राजाओं की चर्चा दुर्लभ ही है, जब कि दिल्ली एवं मालवा के सर्वांगीण विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्राकृतापभ्रंश कवियों ने अपनी गंथ प्रशस्तियों में उनके कार्यकलापों की विस्तृत चर्चा की है। दिल्ली शाखा के तोमरवंशी राजा अनंगपाल (१२वीं सदी) का नाम अज्ञान के कुहासे में विलीन होता जा रहा था किन्तु हरियाणा के महाकवि विबुध श्रीधर ने यमुना नदी पारकर जब योगिनीपुर (वर्तमान दिल्ली) का भ्रमण किया, तो उसके सौन्दर्य से वे मन्त्रमुग्ध हो उठे। उसका आंखों देखा वर्णन कवि ने अपने ‘‘पासणाहचरिउ’’ की विस्तृत प्रशास्तियों में किया है। उसने लिखा है कि वहाँ उसने एक गगनचुम्बी कीर्तिस्तम्भ देखा, जो राजा अनंगपाल तोमर का बनवाया हुआ था। उसे उसने अपनी विजय की स्मृति को स्थायी बनाए रखने हेतु निर्मित कराया था। उसी कीर्तिस्तम्भ के समीप कवि ने दिल्ली के देश-विदेश में विख्यात महान सार्थवाह नट्टल साहु द्वारा निर्मित विशाल आदिनाथ का मन्दिर भी देखा था, जिस पर पंचरंगी झण्डा फहरा रहा था। यह घटना १२वीं सदी के अन्तिम चरण की है। विबुध श्रीधर द्वारा वर्णित दोनों वास्तुकला के अमर-चिन्ह कुछ समय बाद ही नष्ट-भष्ट हो गए और परवर्ती कालों में मानव स्मृति से भी ओझल होते गए। इतिहास मर्मज्ञ पं. हरिहरनिवास दिद्वेदी ने विबुध श्रीधर के उक्त सन्दर्भो का भारतीय इतिहास के अन्य सन्दर्भों के आलोक में गम्भीर विश्लेषण कर यह सिद्ध कर दिया है कि दिल्ली स्थित वर्तमान गगनचुम्बी कुतुबमीनार ही अनंगपाल तोमर द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ है, जिसमें कुतुबुद्धीन ऐबक के द्वारा बाद में परिवर्तन कर नया नामकरण कुतुबमीनार कर दिया गया था। उसमें नट्टल साहू द्वारा निर्मित आदिनाथ मन्दिर को तोड़कर उसकी अधिकांश सामग्री उसी में लग दी गई थी।
गोपाचल (ग्वालियर) के तोमरवंशी राजा
गोपाचल शाखा के १५-१६वीं सदी के तोमरवंशी राजाओं का विस्तृत वर्णन के महाकवि रइधू ने अपनी ग्रंथ-प्रशास्तियों में किया है। उनके अनुसार राजा डूँगरसिंह अपनी वंश परम्परा के चतुर्थ राजा थे। उनके पिता का नाम राजा गणेशसिंह तोमर, उनकी पत्नी का चन्दादे तथा पुत्र का नाम था राजा कीर्तिसिंह। रअधू ने डूँगरसिंह के संघर्ष, पुरुषार्थ एवं पराक्रम का प्रचुर वर्णन किया है। साथ ही उसके काल में साहित्य, संस्कृति, कला एवं सर्वधर्मसमन्वय की प्रवृति पर भी अच्छा प्रकाश डाला है। इतिहासकार भले ही उसके विषय में मौन रहें, किन्तु महाकवि रइधू के उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत में उत्तर मध्यकालीन इतिहास में ऐसा सशक्त आदर्श राजा दूसरा नहीं हुआ। डूँगरसिंह एवं उसके पुत्र राजा कीर्तिसिंह के राज्यकाल में जैनियों का बड़ा सम्मान था। उनके समय में राज्य के प्रधानमंत्री, अर्थमंत्री एवं राज्य के अनेक उच्च पदों पर जैनियों को प्रतिष्ठित किया गया था। ऐसे लोगों में कमलसिंह संधवी, हरसी साहू, येऊ साहू, क्षेमसी, एवं साहू जुगराज आदि प्रमुख हैं। खेऊ साहू का विदेशों से व्यापारिक संबंध था। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार उक्त दोनों राजाओं के राज्यकाल में लगभग ३३ वर्षों तक लगातार गोपाचल दुर्ग में जैन मूत्तियों का निर्माण होता रहा। अनेक मूत्तियों की प्रतिष्ठा स्वयं रइधू ने सम्पन्न की थी, जिनमें ८४ फीट ऊूंची आदिनाथ की मूर्ति भी सम्मिलित है। डँगरसिंह के विशेष अनुरोध पर महाकवि रइधू ने गोपचल दुर्ग में बैठकर अपनी अधिकांश रचनाएँ लिखी थी। चन्द्रवाडपट्टन के विस्मृत चौहानवंशी नरेश अजमेर एवं दिल्ली के चौहानवंशी नरेशों की चर्चा भारतीय इतिहास में पर्याप्त मात्रा में मिलती है, किन्तु उनके साथ चन्द्रवाडपट्टन के चौहानों का नामोल्लेख भी नहीं मिलता। मध्यकालीन जैन कवियों ने उनके साथ बड़ा न्याय किया है। महाकवि लक्ष्मणसेन (वि.सं. १३१३) धनपाल (वि.संं. १४५४) एवं महाकवि रइधू (वि.सं. १४४०-१५३०) तथा नागकुमारचरितकार (वि.सं.१५११) ने उस वंश के १७ राजाओं की चर्चा अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में की है। इस सन्दर्भ-सामग्री के आधार पर चन्द्रवाडपट्टन-शाखा के चौहान राजाओं का प्रमाणित इतिहास तैयार हो सकता है और उक्त जैन-प्रशस्तियों के आधार पर चौहानवंशी राजाओं की विस्मृत कड़ियाँ जोड़कर उसे सर्वागींण बनाया जा सकता है।
जैन शिलालेखों में ऐतिहासिक सन्दर्भ
शिलालेखों सं. ३६० (सन् ११८०ई.) में कहा गया है कि पण्डिताचार्य भट्टारक चारुकीर्ति की वाग्मिता, विद्धाता एवं यश इतना प्रशस्त था कि उने साथ शास्त्रार्थ में चार्वाकों को अपना अभिमान, सांख्यों को अपनी उपाधियाँ, भट्ट को अपने समस्त साधन एवं कणाद को अपना हठ छोड़ना पड़ा था। इस कारण मध्यकाल में इन्होंने जन-मन को सर्वाधिक आकर्षित किया। प्राकृत, संस्कृत एवं कन्नड़ के मध्यकालीन जैन साहित्य के लेखन में इन भट्टारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। अत: कवियों ने भी अपने प्रशास्तियों में दक्षिण के अनेक भट्टरकों का विस्तृत परिचय एवं उनके कार्यकलापों पर अच्छा प्रकाश डाला है। मध्यकाल का जैन शिलालेखीय साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं। वडली (अजमेर) एवं हाथीगुम्फा के शिलालेखों के अतिरिक्त भी दक्षिण भारत में उपलब्ध मध्यकालीन शिलालेख दक्षिण भारतीय इतिहास के लेखन में बहुमूल्य सिद्ध हुए हैंं सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री बी.एल. राइस एवं श्री नरसिंहाचार्य ने घोर परिश्रम पूर्वक लगभग १३०० ऐसे ही प्राकृत एवं कन्नड़ के ऐतिहासिक शिलालेखों का संग्रह किया है। इनमें से ५७७ शिलालेख केवल श्रवणबेलगोल में ही उपलब्ध हैं। उनमें से एक शिलालेख ६वीं सदी का भी है, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) की जैन दीक्षा के बाद आचार्य भद्रबाहु के साथ कर्नाटक में पहुँचने लगा तपस्या करने की चर्चा है। श्रवणबेलगोल के अन्य शिलालेखों में भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद होने वाले अनेक जैनाचार्यों, शास्त्राकारों, शास्त्रार्थकारों, राजाओं, विदुषी महिलाओं, राष्ट्रकूट, चालुक्य, होयसल, ओइयार, कदम्ब, नालेम्ब पल्लव, चोल आदि राजवंशों अमात्यों, सेनापतियों एवं श्रेष्ठियों से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है। इस प्रकार प्राकृतापभंश के जैन-कवियों ने प्रासंगिक एवं प्रकीर्णक रूप में तो ऐतिहासिक सामग्री को प्रस्तुत किया ही, अनेक स्वतन्त्र ऐतिहासिक काव्यों की भी उन्होंने रचनाएँ की हैं। ये काव्य एक और रोचक सरस एवं मार्मिक होने के साथ-साथ काव्य के शास्त्रीय-गुणों से समन्वित है और दूसरी ओर उनके कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं या सामन्तों से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री भी प्रस्तुत की है। इस विद्या के काव्यों में चातुक्य, राष्ट्रकूट, एवं चौहानवंशी राजाओं के तिथिक्रम, उनके प्रशासन संबंधी कार्यों, राष्ट्र-रक्षा हेतु युद्धों, राज्य के विकास सम्बन्धी कार्यों, साहित्य-संरक्षण एवं साहित्यकारों को दिए गए आश्रयदान एवं सम्मान आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इसमें से कुछ काव्य-ग्रन्थ ऐसे भी हैं, जिनमें राजनैतिक, भौगोलिक अथवा साहित्यिक अथवा तीनों प्रकार की प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। उक्त विधा के काव्यों में श्रुतावतार (इन्द्रनन्दि, १२वीं सदी) तिलोयपण्णति (यतिवृषभ पाँचवीं सदी) वृहत्कथाकोष (हरिषेण, १०वीं सदी) त्रिलोकसार (सि.च. नेमिचन्द्र १०वीं सदी), अर्धमागधी आगम साहित्य का टीका साहित्य परिशिष्ट-पर्व एवं कुमारपालचरित (हेन्मचन्द्र १३वीं सदी) वसंत-विलास (बालचन्द्र, १३-१४वीं सदी) आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार प्रस्तुत निबन्ध में प्राकृत एवं प्राकृतेतर जैन साहित्य में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सामग्री पर प्रकाश डालने का प्रयत्न् किया गया, किन्तु इस विषय का यह अन्त नहं है। बल्कि यह तो एक अतिसंक्षिप्त प्रारम्भिक उदाहरण मात्रा है। वस्तुत: जैन-साहित्य में उपलग्ध सामग्री समय-समय पर अनेक कारणों से नष्ट-भष्ट होते रहने पर भी, इस समय जितनी उपलब्ध है, उसका भी यदि निष्पक्ष दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन एवं मूल्यांकन हो सकें, तो भारतीय इतिहास के अनेक प्रच्छन्न, अस्पष्ट या अज्ञात तथ्यों तथा विशृ्रंखलित अथवा त्रुटित कड़यों को जोड़ने में सहायता मिल सकती है।