भारतीय संस्कृति, जनजीवन, वनवासी के जीवन एवं पर्यावरण में वृक्षों का महत्वपूर्ण स्थान है, परन्तु दुर्भाग्यवश हमारी अज्ञानता ने भारतीय जैव विविधता को नुकसान पहुँचाना आज भी जारी रखा है। आज भारत को स्वतंत्र हुये लगभग ६७ वर्ष हो गये हैं परन्तु हमारी जंगल, वृक्ष आज भी अंग्रेजों के द्वारा बनाये गये भारतीय जंगल अधिनियम १९२७ में वर्णित ‘‘वृक्ष’’ की परिभाषा से शासित होने को अभिशप्त हैं। देश के किसी भी कोने में जाएँ चाहे वह हिमाचल, उत्तराखंड हो, केरल का मुन्नार हो, गोंडवाना के जंगल हो, भारत के शहर हों, देश तथा प्रदेशों की राजधानियाँ हों आप को हर जगह यूकिलिप्टस (सफेदा) के वृक्ष मिल जाएंगे।मूल रूप से यूकिलिप्टस एक विदेशी वृक्ष है जो कागज उत्पादन के काम में आता है, भारत में इसको हरियाली के नाम पर उपयोग किया गया है। यह बंजर , पहाड़ी तथा उन स्थानों पर भी जीवित रह सकता है जहाँ अन्य वृक्षों को जीवित रहने में कठिनाई होती है। इसके जीवित रहने का मुख्य कारण है कि न तो इनकी पत्तियाँ पशु खाते हैं, न इसमें फल होते हैं, न इनकी लकड़ियाँ ईंधन या निर्माण कार्यों के उपयोग में आती है। इसलिए १९६०—८० के काल में अज्ञानता एवं ‘‘अंधाधुंध हरियाली उत्साह’’ ने इसे सारे भारत में फैला दिया। अब तक इसने भारत के भूमिगत जल, भूमि की आद्रता, जैव वनस्पति विविधता को पर्याप्त हानि पहुँचाई है और यह क्रम भविष्य में भी चलता रहेगा इसकी पूरी आशंका है। आज पहाड़ों पर होने वाले भूस्खलन को रोकने में यह बिल्कुल असफल सिद्ध हुआ है तथा अन्य वृक्षों की वृद्धि रोकने में सफल है।इसी प्रकार एक और वृक्ष है विदेशी कीकर का जो दिल्ली तथा राजस्थान एवं हरियाणा के बंजर भूमि में वृक्षारोपण के नाम पर लगाया गया। अरावली पर्वत की जैव विविधता को नष्ट कर दिया जिसके नीचे घास तक नहीं उग सकती। इस वृक्ष को काटने से वहीं उसकी जड़ों से नया वृक्ष निकल आएगा। अत: इसके समूल नाश के लिए जड़ों को मिट्टी से निकालकर जलाने से पुन: नये वृक्ष को जन्म नहीं देगी। यह एक बड़ा श्रम साध्य और महंगा कार्य होता है। दिल्ली का रिज क्षेत्र हरियाली के नाम पर इसी पेड़ से भरा पड़ा है जिससे जैव विविधता को पर्याप्त हानि पहुँचाने का क्रम जारी है।वर्तमान में उपरोक्त पेड़ों से लाभ के स्थान पर कई गुणा हानि होने के उपरांत भी वनाधिकारी, अधिकारी, सामान्य नागरिक इसे काटने/हटाने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि वनों, वृक्षों की सुरक्षा का कानून इसे ‘‘सुरक्षा—कवच’’ प्रदान करता है। यह कानून है ‘‘भारतीय वन अधिनियम१९२७’’ जिसके अनुसार धारा २ (७) में वृक्ष की परिभाषा में ये वृक्ष (यूकिलिप्टस, विदेशी कीकर) समाहित हो जाते हैं। अंग्रेजों के समय में बने इस कानून के समय अर्थत् १९२७ में यूकिलिप्टस तथा विदेशी कीकर भारत में नहीं थे। इस कानून का मूल उद्देश्य वृक्षों तथा जंगलों का संरक्षण तथा जैव विविधता का संरक्षण करना था। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् १९६०—८० में , बिना किसी वैज्ञानिक आधार पर ‘‘अंधाधुंध हरियाली अभियान’’ के नाम पर हरियाली दिखने के लिए सम्पूर्ण भारत के पहाड़ी , मैदानी, पठारी, ग्रामों एवं शहरों में जम कर इन वृक्षों को वृक्षारोपण कार्यक्रम के अन्तर्गत लगाये गये। आज इन वृक्षों ने भारत के एक बड़े भू—भाग पर अपना एकाधिकार कर यहाँ की जैव विविधता नष्ट कर दी है। न चाहते हुए भी हम दुष्परिणामों को झेलने के लिए विवश हैं, क्योंकि केन्द्रीय कानून ‘‘भारतीय वन अधिनियम १९२७’’ का पालन करते हुए राज्य सरकारों ने भी वृक्ष की परिभाषा के अन्तर्गत यूकिलिप्टस तथा विदेशी कीकर को संरक्षण प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर ‘‘दिल्ली वृक्ष संरक्षण अधिनियम १९९४’’ में २ (९) में वृक्ष की परिभाषा इस प्रकार है।
अब जब हमें इन दोनों प्रकार के पेड़ों से प्राप्त लाभ और हानि का तुलनात्मक अध्ययन मालूम हो गया है और इस जानकारी को प्राप्त हुये लगभग २० वर्ष हो चुके हैं तो भारतीय जैव विविधता को हानि पहुँचाने वाले इन पेड़ों को नष्ट कर उनके स्थान पर भारतीय जंगल, पहाड़, पठार एवं भूमि के अनुकूल विविध प्रकार वैकल्पिक भारतीय वृक्षों को लगाने की आवश्यकता है। इसको कार्यान्वित करने के लिए प्रथम आवश्यकता केन्द्रीय कानून ‘‘ भारतीय वन अधिनियम १९२७’’ के २ (७) में अंत में निम्नलिखित को जोड़ा जाए। ‘‘परन्तु यूकिलिप्टस, विदेशी कीकर शामिल नहीं है’’ अधिनियम में उपरोक्त संशोधन के बाद दोनों प्रकार के वृक्षों को प्राप्त वैधानिक कवच समाप्त हो जायेगा जिससे उनको नष्ट कर वैकल्पिक पेड़ लगाना, सामान्य नागरिकों, वन विभागों तथा अन्य सरकारी विभागों के लिए सरल हो जाएगा। इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा, भूमि की उर्वरता बढ़ेगी, भूस्खलन को रोकने में सहायता मिलेगी, भविष्य के समृद्ध भारत के लिए यह एक आवश्यक मील का पत्थर होगा।